गुरुवार, 22 जुलाई 2021

|| सरकार उचित कह रही है, कोई नहीं मरा ||


मैं: सरकार कह रही है कि ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा।
लल्लन मियाँ: बिल्कुल उचित कह रही है।
मैं: क्या बात कर रहे हैं!
लल्लन मियाँ: हम थोड़े ही कर रहे हैं। सरकार कर रही है।
मैं: आप सहमति तो जता रहे हैं न कि सरकार सच कह रही है।
लल्लन मियाँ: ये हमने कब कहा?
मैं: अरे! अभी तो कहा कि उचित कह रही है।
लल्लन मियाँ: हाँ कहा। लेकिन ये थोड़े ही कहा कि सच कह रही है। और वैसे भी भाई मियाँ भारत में कोई मरता नहीं है।
मैं: ये क्या झमेला है! सीधी बात कीजिए।
लल्लन मियाँ: हद्द है भाई मियाँ तुम्हारी भी। गड्ड-मड्ड ख़ुद कर रहे हो और सीधा करने को हमसे कह रहे हो. अच्छा बताओ, सच क्या होता है?
मैं: सच, सच होता है। और क्या? जो है, जैसा है, बिलकुल वैसा ही कहना सच होता है।
लल्लन मियाँ: और उचित क्या होता है?
मैं: जो ठीक हो।
लल्लन मियाँ: तो यही तो हमने कहा। देखो भाई मियाँ, सच, सच ही होता है। सब के लिए एक जैसा। ज़रूरी नहीं कि वो सबको रास आए। जैसे 'गोडसे ने गांधी की हत्या की', यह एक सच है पर सबको रास कहाँ आता है। अब उचित पर आओ। उचित वो है जो ख़ुद को ठीक लगे, जो ख़ुद को रास आए। जैसे कुछ लोगों को ये रास आता है कि 'गोडसे ने गांधी का वध किया।' पहली बात जनता के लिए सच है, दूसरी बात एक संगठन के लिए उचित।
मैं: लेकिन गांधी की मौत और गोडसे का गांधी को मारना, ये तो दोनों बातों से साबित होता है।
लल्लन मियाँ: भाई मियाँ ये ऐसा तथ्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन मामला तो हत्या और वध का है। हत्या करने से आप पापी हो जाते हैं और वध करने से सामने वाला।
मैं: आप भी कहाँ की बात को कहाँ ले पहुँचे। आप तो ये बताइए कि सरकार का ये कहना कि ऑक्सिजन की कमी से कोई नहीं मरा, कहाँ से उचित हो गया? ये झूठ बोलना नहीं है क्या?
लल्लन मियाँ: यार तुम फिर उचित को सच में मिला रहे हो। सरकार जो अपने लिए उचित समझ रही है, कह रही है।
मैं: लेकिन लोगों की मौत तो हुई है न!
लल्लन मियाँ: वह तो तथ्य है। सरकार भी कब कह रही है कि मौत नहीं हुई। बस ये कह रही है कि ऑक्सिजन की कमी से कोई नहीं मरा।
मैं: ये झूठ बोलना ना हुआ?
लल्लन मियाँ: नहीं। यार तुम लोग ख़ाक पढ़े-लिखे बनते हो, न इतिहास से कुछ सीखते हो न किताबों से। सरकार ने ये किया और उसी सीख के मुताबिक़ वो बोल रही है।
मैं: मतलब?
लल्लन मियाँ: अरे भाई मियाँ, रामायण और महाभारत किताबें हैं या नहीं?
मैं: हैं।
लल्लन मियाँ: और सरकार में बैठे लोग रामायण और महाभारत को इतिहास मानते हैं कि नहीं?
मैं: मानते हैं।
लल्लन मियाँ: तो रामायण और महाभारत हुईं इतिहास की किताबें और उनसे सीखा गया कि हत्या को वध कैसे कहते हैं और सच को कैसे कहना चाहिए। महाभारत में हाथी अश्वत्थामा मारा गया था। द्रोणाचार्य को ख़बर सुनाते वक्त क्या कहा गया - 'अश्वत्थामा मारा गया।' बीच में से हाथी उड़ा दिया गया कि नहीं। ये झूठ बोलना तो न हुआ, बस सच पूरा नहीं बोला गया। संस्कारी सरकार झूठ थोड़े ही बोलती है।
मैं: लेकिन पूरी दुनिया मानती है, लोगों ने देखा है कि ऑक्सिजन न मिलने से लोग मर गए। फिर ये कैसे कहा जा सकता है कि ऑक्सिजन की कमी से कोई नहीं मरा।
लल्लन मियाँ: सरकार ये मानती है कि नहीं कि बहुत से लोग कुपोषित हैं, बहुत लोग भूखे हैं।
मैं: मानती है।
लल्लन मियाँ: पर ये मानती है कभी कि भूख से किसी की मौत हुई? नहीं मानती न। भूख से आदमी का शरीर कमजोर हो जाता है, उसे बीमारियाँ घेर लेती हैं और उनसे वो मर जाता है. डॉक्टर जाँच करके लिख देता है कि फ़लाँ बीमारी से वो मर गया। भाई मियाँ, आदमी आयरन - कैल्सीयम की कमी से मर सकता है पर भूख से नहीं।
मैं: लेकिन ऑक्सिजन....
लल्लन मियाँ: अरे छोड़ो भी... ऑक्सिजन का काम क्या है? यही न कि उससे आदमी साँस लेता रहता है। तुमको ऑक्सिजन कैसे मिलती है? इसलिए कि तुम्हारे फेफड़े काम कर रहे हैं। अब बताओ अगर तुम्हारे फेफड़े काम करना बंद कर दें तो तुम ऑक्सिजन ले पाओगे? ज़िंदा रह पाओगे?
मैं: नहीं।
लल्लन मियाँ: तो भाई मियाँ, असल काम तो फेफड़ों का हुआ न! लोगों के फेफड़ों ने कोरोना और निमोनिया की वजह से ऑक्सिजन लेना बंद कर दिया। जैसे भूखा आदमी बीमारी से मरता है वैसे ही ये लोग भी कोरोना के कॉम्प्लिकेशन से मरे। ऑक्सिजन तो वायुमंडल में पर्याप्त है। कमी कहाँ है।
मैं: मरीज़ों को अतिरिक्त रूप से भी ऑक्सिजन दी जाती है, फेफड़ों को चालू रखने के लिए। उसकी तो कमी थी। अगर लोगों को वो अतिरिक्त ऑक्सिजन समय से मिल जाती तो वे न मरते।
लल्लन मियाँ: अगर ये बात है तब भी लोग ऑक्सिजन की कमी से नहीं मरे।
मैं: ऐसे कैसे? लोग अस्पतालों में लाइन लगाए रहे, डॉक्टर परेशान होते रहे कि ऑक्सिजन न होने से लोग मर रहे हैं और आप कह रहे हैं कि लोग नहीं मरे!
लल्लन मियाँ: यार बिना उदाहरण के तो तुम कुछ समझते ही नहीं हो। अच्छा मान लो कि तुमने ज़हर खा लिया...
मैं: मैं क्यों खाऊँ! ज़हर खाएँ मेरे दुश्मन।
लल्लन मियाँ: अमाँ मियाँ मानने में भी हुज्जत! अच्छा चलो फ़र्ज़ करो कि तुम्हारे किसी दुश्मन ने तुम्हें ज़हर खिला दिया। ये तो मान सकते हो?
मैं: चलो मान लिया।
लल्लन मियाँ: अब मामला यूँ है कि ज़हर ऐसा है जिसका तोड़ तैयार करने के लिए जिन संसाधनों की ज़रूरत है वो आसानी से केवल हम उपलब्ध करा सकते हैं, लेकिन हम ऐसा नहीं करते क्योंकि हमको अपने रूठे हुए ससुरालियों को मनाने यूपी, बंगाल या कहीं भी जाना है। अब बताओ तुम ज़हर से मरोगे या हमने ज़हर का तोड़ उपलब्ध नहीं कराया इसलिए?
मैं: ज़हर तो कारण बनेगा, असल में तो इसलिए मरूँगा क्योंकि आपने ज़हर का तोड़ उपलब्ध नहीं कराया।
लल्लन मियाँ: फिर तुम ज़हर की दवाई की कमी से तो न मरे, इसलिए मरे क्योंकि हमने...
मैं: आपका मतलब सरकार जो कह रही है वो इसलिए क्योंकि वो मानती है कि उसने...
लल्लन मियाँ: तौबा.. क्या वाहियात बात कर रहे हो मियाँ... सरकार का लॉजिक साफ़ है। ऑक्सिजन की कमी से कोई नहीं मरा, बस सब के दिल ने धड़कना बंद कर ऑक्सिजन लेने से इनकार कर दिया।
मैं: आप ऐसी बातें कर रहे हैं यक़ीन नहीं हो रहा। आप तो ऐसे न थे। बिलकुल आईटी सेल वालों की तरह कुतर्क किया है आपने।
लल्लन मियाँ: तुम और अड़ोस-पड़ोस के लोग हमें क्या बुलाते हो?
मैं: कुछ लोग लल्लन कहते हैं, मेरे जैसे लोग मौज में लल्लन मियाँ।
लल्लन मियाँ: तो भाई मियाँ पाजामा चेक करना तो बहुत दूर की चीज है, तुम्हारी मौज के चलते ही रासुका और राजद्रोह न लग जाए इसका इंतज़ाम करना पड़ेगा कि नहीं। समझे।
मैं: वो तो समझा, पर बातचीत की शुरुआत में आपने कहा था कि भारत में कोई मरता नहीं, इसका क्या मतलब हुआ?
लल्लन मियाँ: असल बात ये है कि भारतवर्ष में आज तक किसी भी वजह से कोई मरा ही नहीं है। तैतीस करोड़ प्लस आठ-दस न्यूली ऐडेड देवी-देवताओं की पुण्यभूमि में कोई मरता नहीं। मरता तो वो है जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं बचता। मरे हुए लोग कुछ नहीं कर सकते। पर यहाँ तो आत्मा शरीर को त्याग कर स्वर्ग में वास करती है, पितर श्राद्ध में भोजन तक जीमते हैं और जो नहीं जीमते वे असल में सब मोक्ष को प्राप्त भये। यही हमारी सनातन संस्कृति है।
ध्यान रहे सरकार झूठ नहीं बोल रही है, उचित ही कह रही है कि ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा। मर ही नहीं सकता। जो भी झूठ-झूठ चिल्ला रहे हैं, सब विधर्मी लोग हैं।

-रजनीश साहिल.

शनिवार, 31 अगस्त 2019

यह क्या कम आपत्तिजनक है!


बहुत दिनों से लल्लन मियाँ की कोई खोज-ख़बर नहीं थी तो मैं सुबह-सुबह उनके घर जा धमका. लल्लन मियाँ सिर के बल खड़े होने की कोशिश कर रहे थे. वे बार-बार सिर तकिए पर टिकाकर दोनों टाँगें ऊपर को उछालते और नाकाम होते. पास में ही अखबार और चाय के तीन ख़ाली कप पड़े थे. उन्हें इस हाल में देख मैंने पूछा – ‘शीर्षासन करने का शौक़ कब से हो गया लल्लन मियाँ? या पेट में कुछ अलामत है?’

लल्लन मियाँ रुककर बोले- ‘भाड़ में जाए शीर्षासन, और पेट भी दुरुस्त है. हम तो दिमाग ठिकाने लगाकर नज़रिया समझने की कोशिश कर रहे हैं.’

मैंने पूछा कि ‘क्या हुआ दिमाग को और किसका नज़रिया?’ तो अपनी कोशिश में लगे-लगे ही आँखों से अख़बार की तरफ़ इशारा करके बोले- ‘अख़बार पढ़ो अख़बार.’ और उसी सांस में अपनी बेगम को आवाज़ दी, ‘सुनो! एक चाय और बढ़ा लो, कलमघसीट भी आ गया.’

मैं जानता था कि दो-चार बातों के बाद ही लल्लन मियाँ मुद्दे पर आएँगे सो अखबार उठाते हुए मैं बोला- ‘ख़बरों से तो अख़बार का नज़रिया तक साफ़ पता चल जाता है. इसमें भला ऐसा क्या होगा जो आपको उलझाए.’

इससे पहले कि लल्लन मियाँ कुछ कहते उनकी बेगम चाय लिए आ गईं. मैंने अपना कप कब्जाते हुए उनसे पूछा- ‘ये क्या हरकतें कर रहे हैं? ऐसा क्या पढ़ लिया इन्होंने जिसने इनका दिमाग़ हिला दिया?’

वे बोलीं- ‘हरकतों का तो इनसे ही पूछो तुम, पर जब से ये ख़बर पढ़ी है कि भीमा कोरेगांव मामले में जज ने पूछा है कि घर में युद्ध और शान्ति किताब क्यों थी, तब से तीन बार चाय बनवा चुके हैं. ये चौथी है. ऊपर से उल्टे-सीधे हो रहे हैं.’ चाय की चुस्की लेते हुए बोलीं ‘अब तुम ही पूछो कि क्या माजरा है, मैं पूछती हूँ तो ग़ालिब का मिसरा पढ़ देते हैं – कोई बतला दे के हम बतलाएं क्या.’

माजरा मेरी समझ में आ चुका था. मैंने लल्लन मियाँ से पूछा – ‘टॉलस्टॉय को शांतिदूत कहा गया है और उनकी किताब युद्ध और शान्ति को पुलिस ने आपत्तिजनक कहा है. जज ने भी पूछा है कि ये आपत्तिजनक किताब घर में क्यों थी? बताइए, जैसा कहा जा रहा है, वैसे वह किताब भी उकसाती है क्या भला?'

'जैसा कहा जा रहा है वैसे तो नहीं, लेकिन वह उकसाती तो है भाई मियाँ.' उन्होंने जवाब दिया.

'वो कैसे? आपकी क्या राय है युद्ध और शान्ति के बारे में?’ मैंने पूछा.

लल्लन मियाँ सीधे हुए, चाय का एक घूँट भरा और बोले – ‘वही क़ायम करने के लिए तो नज़रिया समझने की कोशिश कर रहे थे हम.'

मैंने पूछा कि क्या समझे तो बोले - 'देखो भाई मियां, युद्ध कई प्रकार का होता है. मल्ल युद्ध, वाक् युद्ध, द्वंद्व युद्ध से लेकर कम्बल परेड, किचाइन तक. आमतौर पर इसे लड़ाई-झगड़ा भी कहा जाता है.’

उनकी बेगम ज़रा झुंझलाकर बोलीं – ‘यही मुसीबत है इनकी, फैलते बहुत हैं. अरे परिभाषा काहे बघार रहे हो! सीधे-सीधे राय बताओ न.’ लल्लन मियाँ चाय चुसकते हुए बोले – ‘भगवान भला करे तुम्हारा, पर अब जब हमारे आसपास चाय है, चाय पर चर्चा है तो फैलना तो बनता है. वैसे भी अभी लोकतंत्र है, शाही फ़रमान ज़ारी नहीं हुआ अब तक कि कोई और नहीं फ़ैल सकता.’

मैंने याद दिलाया कि बात युद्ध की हो रही थी तो लल्लन मियाँ आगे बढ़े. बोले- ‘हाँ तो भाई मियाँ, ऐसा पाया जाता है कि जब लड़ाई-झगड़ा होता है तो सब को फैलने का सुभीता होता है. जो जिस हद तक जा सकता है उस हद तक जाकर फैलता है. जिसका लड़ाई-झगड़े से सीधा संबंध नहीं होता वो भी फैलता है. मने के घर की दीवार का सालों का झगड़ा न सुलटा पाने वाले पड़ोसी दूसरों के दीवानी मुकदमों पर राय देते हैं. अपने इलाके के थाने की सीमा के मामलों को न जाननेवाले भी कश्मीर और पाकिस्तान का नाम सुनकर समस्या का हल बताते ही हैं, नेहरू को गलियां दे ही लेते हैं.’

‘मतलब यही न कि लड़ाई-झगड़े में हर कोई अपना ज्ञान बांटता है. तुम्हारी तरह.’ बेगम ने बीच में कहा, जिस पर लल्लन मियाँ बोले- ‘यार तुम ज्ञान को मत पकड़ो, फैलने को पकड़ो. और बात सिर्फ ज्ञान बांटने की नहीं है. अपन बदला उतारू लोग हैं. पुरानी दुश्मनी निकालने को अपने यहां लोग तैयार ही बैठे मिलते हैं. खानदानी दुश्मनियों की परंपरा का देश है अपना. तुम्हारे दादा ने हमारे बाप को मारा था अब हम तुम्हारे बेटे को मारेंगे. मतलब बाबर की ग़लतियों पर जुम्मन पीटा जाता है. फिर मौके की नज़ाकत एक और पहलू है जिसका फ़ायदा उठाना हर कोई अपना कर्तव्य मानता है. लड़ाई दो लोगों की होती है, अमरीका की तरह हाथ साफ़ तीसरा कर लेता है. दंगे होते हैं तो लोग दुकानें लूट लेते हैं. किचाइनप्रेमियों को हर झगड़े में बतकुच्चन के लिए माल मिलता है. कुल मिलाकर फैलने वालों के लिए लड़ाई काम का अवसर है. बड़ी लड़ाई और बड़ा अवसर.‘

मैंने पूछा ‘और बड़े अवसर से क्या मतलब?’

चाय चुसकते लल्लन मियाँ बोले – ‘अभी जो मामला चल रहा है सो तुम देख ही रहे हो कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान दोनों की ही बड़ी आबादी का मन युद्ध के लिए हिलोरें मार रहा है. उनके लिए युद्ध आशंका नहीं, संभावना है, जिसमें रस आ रहा है. लड़ाई हो तो रस फूटकर बाहर छलकेगा. तो भाई मियाँ हमको लगता नहीं है कि युद्ध से किसी को कोई आपत्ति है.’

‘चलिए माना कि युद्ध में लोगों को रस मिल रहा है इसलिए युद्ध से कोई आपत्ति नहीं हो सकती. पर शान्ति में तो चीज़ें ज्यादा बेहतर होती हैं, उसमें और ज्यादा रस है.’ लल्लन मियाँ की बेगम बोलीं. मैंने भी समर्थन करते हुए बात आगे बढाई - ‘बिलकुल. शान्ति युद्ध से हमेशा बेहतर है तो शान्ति से भी किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?’

लल्लन मियाँ हँसते हुए बोले – ‘तुम दोनों भी कमाल करते हो. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के जमाने में ख़ाली इंटेलीजेंस की बात कर रहे हो. भई जैसे युद्ध कई तरह का होता है वैसे ही शान्ति भी दो तरह की होती है. आर्टिफिशियल शान्ति और असली वाली शान्ति. दूसरी वाली आपत्तिजनक है.’

‘मतलब?’ मैं और लल्लन मियाँ की बेगम दोनों एक साथ हैरत से बोले. लल्लन मियाँ को मज़ा आया. ठहाका लगाते हुए बोले – ‘ये देक्खो! इत्ती से बात समझ नहीं आती. कल से ट्यूशन लेना हमसे.’ फिर बिना हमारे बोलने का इंतजार किए आगे बोले – ‘अरे भाई, छोटे-मोटे झगड़े में भी मार-पीट भले बंद हो जाए पर जहाँ मौका मिले सामने वाले को लोग बुरा-भला कहते हैं कि नहीं. गलियाँ देते हैं कि नहीं. अब मान लो युद्ध हो गया, हम जीत गए. उसके बाद? लोग जीत का जश्न मनाएंगे, फिर कुछ दिन तक मानेंगे कि शान्ति है क्योंकि सरकार कह रही है. फिर कुछ दिन बाद पहले तो महंगाई और दूसरी चीज़ों की किल्लत से होगा उनके दिमाग़ का दही, फिर फैलेगा रायता. मने आदमी कटी पतंग-सा अशांत डोलेगा और कहा जाएगा युद्ध के बाद शान्ति है. दिस इस कॉल्ड आर्टिफ़िशियल शान्ति. इससे भी ज़्यादा लोगों को आपत्ति नहीं है. जिन्हें युद्ध के पहले और दौरान फैलने का मौका मिलेगा वो तब फैलेंगे, कुछ को आर्टिफिशियल शान्ति में फैलने का मौका मिल जाएगा. अपने-अपने हिसाब से सब फैल लेंगे.

‘जब आर्टिफिशियल शान्ति से तक आपत्ति नहीं है तो फिर असली वाली शान्ति में भला क्या आपत्तिजनक है?’ मैंने पूछा.

लल्लन मियाँ बोले – ‘उसमें फैलने वालों को फैलने के अवसर नहीं मिलते न भाई मियाँ. यह क्या कम आपत्तिजनक है.’

‘पर युद्ध और शान्ति किताब कैसे आपत्तिजनक हो गई?’ लल्लन मियाँ की बेगम ने सवाल किया.

लल्लन मियाँ ने ठंडी हो चुकी चाय का आख़िरी घूँट लिया और शान्ति से बोले – ‘क्योंकि वह असली वाली शान्ति के लिए उकसाती है.’

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

कुत्ते-बिल्ली क्यों इकट्ठे हो रहे हैं?

एक जंगल था. जैसा कि प्राचीन काल से जितने भी जंगल अब तक हुए हैं और उनमें होता रहा है वैसे ही इस जंगल में भी सालों से एक शेर का राज था और जैसा कि शेर करते रहे हैं वैसे ही ये शेर भी जानवरों को मारता ही था. लेकिन जंगल के बाकी प्राणियों की समस्या यह नहीं कुछ और थी.

खरगोश, हिरन, गधे जैसे निरीह शाकाहारी जानवरों की समस्या ये थी कि वे सालों से शेर को राजा के रूप मे देखते-देखते उकता गए थे कि भाई ये भी कोई बात हुई भला कि रोज सुबह उठो और वही राजा. रोज वही जान का ख़तरा भी. ये आलम बदलना चाहिए. उनमे राजा बदलने की बड़ी अकुलाहट थी. पर इसके आगे फिर एक समस्या खड़ी थी कि शेर नहीं तो फिर कौन?

उधर भेड़िये, सियार जैसे माँसाहारी जानवरों की समस्या ये थी जानवरों को तो हम भी मारते हैं, बल्कि ज़्यादा ही बर्बरता से मारते हैं पर साला शेर के सामने हमें कोई कुछ समझता ही नहीं! ऊपर से शेर राजा होने की वजह से हमे हमारी मर्ज़ी की करने नहीं देता. इसे बदलना पड़ेगा. हमें तो कोई राजा बनाने को तैयार होगा नहीं. तो कोई ऐसा राजा चुनना पड़ेगा जो कहने को तो राजा हो पर जिसका काम हमारे बिना न चले और हमें अपनी मर्ज़ी की करने की पूरी छूट हो. अब इनके सामने भी वही समस्या खड़ी थी कि शेर नहीं तो फिर कौन?

उधर खरगोश, हिरन आदि अभी विचार ही कर रहे थे, इधर भेड़िये, सियारों ने मिलकर एक योजना भी बना ली. उन्होंने जंगल के प्राणियों के बीच ये प्रचार कराना शुरू किया कि गिद्ध राजा के लिए सबसे उपयुक्त है. सबसे बड़ी अच्छी बात ये है कि वो आसमान में उड़ता है तो जंगल पर आने वाले ख़तरे को पहले ही देख लेगा. एक तरह से जंगल राजा नहीं अपना चौकीदार चुनेगा. फिर गिद्ध शेर की तरह आलसी नहीं भी है, कम सोता है, तो जंगल कि व्यवस्था पर अधिक ध्यान देगा. माना कि वह मांस खाता है पर शेर की तरह किसी जिंदा जानवर को मारकर तो नहीं खाता, वह तो मरे हुए जानवरों का मांस खाता है. और फिर उसके मंत्रिमंडल में, सहयोगियों में दूरदृष्टि वाली चील, बगुला जैसे तपस्वी और बंदरों जैसे फुर्तीले कार्यकर्ताओं की पूरी सेना होगी. ये लोग अगर कोई नुक्सान करेंगे भी तो बिलकुल ही पैर तले रहने वाले कीड़े-मकोड़ों का ही तो करेंगे. वैसे गिद्ध ख़ुद एक निचले तबके का है तो वह इन कीड़े-मकोड़ो का भी कोई नुकसान नहीं होने देगा. और सबसे बड़ी बात तो ये कि न गिद्ध और न ये लोग, शेर की तरह हिरन, गाय, भैंस आदि मध्यम वर्ग को तो नहीं ही मारेंगे न. 

तो हुआ यूँ कि जब ये प्रचार अच्छी तरह हो गया तो गिद्ध को बतौर जंगल का राजा चुनाव में उतारा गया और वह बहुमत से विजयी हुआ. जंगल के प्राणियों ने कहा चलो अच्छा हुआ शेर से मुक्ति मिली. गिद्ध ने भी कहा न मैं किसी को मारकर खाता हूँ, न किसी और को खाने दूंगा. जंगल वासियों ने जय-जय बोला.

लोगों को भरोसा दिलाने के लिए कुछ दिन भेड़िये-सियार भी शांत रहे. मगर भूख तो भूख है. भेड़िये-सियारों को भी लगी और गिद्ध को भी. अपनी मौत कोई जानवर मरा नहीं तो खाये क्या? गिद्ध ने भेड़िये-सियारों से कहा कि भई मैं तो राजा बन गया हूँ, जनता को वचन भी दिया है, किसी को मार नहीं सकता. तुम लोग तो कुछ करो. पर मेरे रहते कुछ करोगे तो जनता मुझ पर ऊँगली उठाएगी. तो ऐसा करते हैं कि मैं आसमान का चक्कर लगाकर आता हूँ तुम  भोजन का प्रबंध करो. 

उसी दिन से गिद्ध आसमान की सैर पर निकल जाता है और भेड़िये-सियार रोज़ ही जंगल के कई-कई जानवरों का शिकार कर रहे हैं. गिद्ध के लिए कम, अपने लिए ज़्यादा मार-काट मचा रहे हैं. चील और बगुला को छोटी-छोटी मछलियों और कीड़े-मकोड़ो का शिकार करने में पहले भी कोई ज़्यादा परेशानी नहीं थी, अब खुली छूट है. बन्दर अब राजा के कार्यकर्त्ता थे सो उत्पात मचाने का उनका हक बनता था, जिसका वे भरपूर इस्तेमाल करते हुए जंगल तहस-नहस कर रहे हैं.

जब कई दिनों तक ये सब होता रहा तो जंगल के प्राणियों को समझ में आया कि ये तो भारी चूक हो गई, राजा बदलने के चक्कर में जंगल उजड्डों के हाथ चला गया. पर अब क्या करें? ऐसे में कुछ जानवरों ने प्रस्ताव रखा कि देखो भाई, हम सभी जानवरों के अपने-अपने दल तो हैं ही. तो ऐसा करते हैं कि अगली बार हम सब मिलकर जंगल को सँभालने कि कोशिश करते हैं. राजा भले ही कोई एक बनेगा पर मर्ज़ी का मालिक तो नहीं हो पायेगा.

जब जंगल के जानवरों की ये सभा चल ही रही थी तो ऊपर आसमान में उड़ते गिद्ध के प्रचारमंत्री कौवे ने ये देखा. उसने चील से पुछा कि ये क्या चल रहा है? चील ने आसमान में चीखते हुए कहा - "गिद्ध के उड़ने की वजह से जो हवा का दवाब बन रहा है उसे रोकने के लिए कुत्ते-बिल्ली सब इकट्ठे हो रहे हैं."

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

बेवकूफ़ बनोगे ?


यूँ तो इसका कोई ख़ास महत्व नहीं रह गया है क्योंकि रोज़ ही कई-कई तरह से आदमी बनता-बनाता है। फिर भी, जैसी कि परंपरा है कि एक अप्रैल को आप ख़ास तौर से बेवकूफ़ बनाए जा सकते हैं, सो सतर्कता रखना लाजिमी था। मैं पूरी तरह सतर्क था और सोच रहा था कि वैसे ठीक ही है कि एक दिन लोग घोषित तरीके से एक-दूसरे को बेवकूफ़ बनाने की कोशिश करते हैं, बेचारे साल भर तो अनजाने में बनते ही रहते हैं, किसी दिन वे इस बात का भी तो सुख पाएँ कि देखो हम डंके की चोट पर भी बेवकूफ़ बना लेते हैं। रोज़ तो रोजी-रोटी और तमाम दुनियावी झंझटों में दबे-दबे रहते हैं, किसी दिन तो ललकार कर लड़ाई जीतने का सुख मिले। पर उन्हें ये सुख मैं क्यों दूँ? वे किसी और से पाएँ।

दूसरों को सुखी करना पुण्य का काम होता है, मैं अन्य लोगों को पुण्य कमाने का मौका देना चाहता था। सो मैं सतर्क था। जिनका छठे-चैमासे ही कभी फोन आता था, वे भी इस सुख की लालसा में मुझे फोन कर रहे थे और मैं कॉल अटेण्ड न करके उन्हे सुख से वंचित किए हुए था। छोड़ी गई कॉल की सूची बढ़ती जा रही थी कि इसी बीच मोबाइल के चित्र-पटल पर लल्लन मियाँ अवतरित हुए।

लल्लन मियाँ से अप्रैल फ़ूल वाला ख़तरा नहीं होता। सीधे-साधे आदमी हैं। इतने कि हर साल इस दिन बहुत सारा पुण्य कमा लेते हैं। सो बिना झिझक उनकी कॉल रिसीव की। हैल्लो बोलते ही सवाल सुनाई दिया – ‘भाई मियाँ, बेवकूफ़ बनोगे?’ मैंने कहा – ‘क्या लल्लन मियाँ! अब आप भी बेवकूफ़ बनाएँगे, वो भी पूछ कर। कोई जान-बूझकर भी बेवकूफ़ बनता है भला?’ वे बोले- ‘क्या बात करते हो मियाँ! अरे आजकल जान-बूझकर बेवकूफ़ बनने का ही रिवाज है। शायद तुम्हें पता नहीं है कि बेवकूफ़ बनना आजकल समझदारी का सर्टिफिकेट है। अगर आप अब तक नहीं बने हैं तो नालायक या कमअक़्ल समझे जा सकते हैं। इसलिए लोग जान-बूझकर बेवकूफ़ बन रहे हैं।’

जब मैंने कहा कि भई साफ़-साफ़ कहिए कि जान-बूझकर बेवकूफ़ बनने से आपकी मुराद क्या है, तो वे अपने चिर-परिचित अंदाज में गरियाते हुए बोले- ‘यार पता नहीं क्यों लोग तुम्हें समझदार कहते हैं! ज़रा-सी बात तो खुलासा किए बिना तुम्हारे पल्ले नहीं पड़ती। खैर छोड़ो... बात ये है कि बहुत लोग ‘आप’ में मच रही कलह के बारे में कह रहे हैं कि हमें तो पहले से पता था ऐसा होगा। आज नहीं तो कल महत्वाकांक्षाएँ और अहंकार टकराते ही, और पार्टी में टूटन आती ही। जब हमने उनसे पूछा कि भाई जब इतना सब पहले से ही पता था तो क्यों उस पार्टी के समर्थन में लिख-लिखकर काग़ज़ और फेसबुक काला कर रहे थे, जिसकी दो दिन की चाँदनी थी? जवाब में लोगों ने कहा कि अरे सबका कच्चा चिट्ठा दिखाती हुई, सबको गरियाने वाली, ईमानदार और क्रांतिकारी टाइप पार्टी बनी थी। इतने बड़े-बड़े विद्वान उससे जुड़ रहे थे। अगर उसे सपोर्ट न करके पुरानी भ्रष्टाचारी पार्टियों का समर्थन करते तो लोग हमें बेवकूफ़ न कहते।’

थोड़ा रुक कर लल्लन मियाँ आगे बढ़े- ‘कल ऐसे ही टहलते हुए तीन-चार भाजपा के वोटरों से भी बात हो गई। वे कह रहे थे कि हमें पता है कि काला धन वापस आ भी जाए तो किसी के खाते में एक पैसा नहीं आने वाला और कांग्रेस ने जितना बेड़ागर्क किया बताते हैं उस हिसाब से सौ दिन तो क्या सौ हफ़्ते में भी कोई अच्छे खाँ अच्छे दिन नहीं ला सकता। हमने उनसे भी पूछा कि फिर क्यों वोट दिया? वे बोले- क्या बात करते हैं साहब! अरे मोदी की लहर चल रही थी। कांग्रेस की नैया तो डूबनी ही थी। पिछले चुनावों में कांग्रेस को वोट दिया था। पर अब डूबती नैया पर सवार होकर बेवकूफ़ तो न कहलाते।’

‘अब तुम ही बताओ भाई मियाँ, बेवकूफ़ न कहलाएँ, इस चाहत में लोग अगर एक पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी से सहर्ष बेवकूफ़ बनना स्वीकारें तो  यह जान-बूझकर बेवकूफ़ बनना हुआ कि नहीं।’

इधर मैं यह सोचने लगा कि बहती हवा के साथ रुख़ बदलने के तो कई उदाहरण हैं पर क्या वाकई यह संभव है कि लोग सिर्फ़ इसलिए किसी पार्टी का समर्थन करने लगें कि वे बेवकूफ़ न कहलाएँ। उधर लल्लन मियाँ गला साफ करते हुए बोले – ‘वैसे भाई मियाँ हम सोच रहे हैं कि सरकार को एक कानून बना देना चाहिए कि हर आदमी को साल में न्यूनतम आठ-दस या जितना सरकार निश्चित करे उतनी बार सरकारी तौर पर बेवकूफ़ बनना अनिवार्य होगा। अगर आप बेवकूफ़ बनने की अपनी न्यूनतम सीमा तक नहीं पहुँचते हैं तो माना जाएगा कि आप राष्ट्रहित में अपना योगदान नहीं दे रहे हैं।’

मैंने पूछा इससे क्या होगा, तो लल्लन मियाँ बोले- ‘भाई एक तो जनता के सिर से यह बोझ उतर जाएगा कि वह ठगी गई, सरकार ने उसे झूठे सब्ज़बाग़ दिखाए। जनता को पता रहेगा कि हम बेवकूफ बन रहे हैं और संतोष रहेगा कि सब कानून के हिसाब से हो रहा है। दूसरे, सरकार को भी एक ही चीज़ के लिए एक के बाद एक सौ झूठ नहीं बोलने पड़ेंगे। अब जैसे अपने प्रधानमंत्री जी भूमि अधिग्रहण को लेकर कभी बोल रहे हैं कि किसानों का विकास होगा, कभी कहते हैं उनके बच्चों का भविष्य संवरेगा, कभी कहते हैं रोज़गार बढ़ेगा, कभी कहते हैं देश प्रगति करेगा। इतना कुछ नहीं कहना पड़ेगा न। एक जुमले में बात निपट जाएगी कि मित्रो, आपको सरकारी तौर पर बेवकूफ बनना है कि विकास होगा।’

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

साम्प्रदायिकता और सरकार: एक पंथ दो काज का नया उदाहरण


16 मई के बाद से अब तक की अवधि में ऐसे कई मुद्दे रहे हैं जो बेहद संक्रामक ढंग से लोगों तक पहुंचे हैं. इसे यूँ कहा जाये तो ज़्यादा सटीक होगा कि कई मुद्दे जनता के बीच संक्रामक बनाकर छोड़े गए हैं. सरकार और उससे जुड़े तमाम हिन्दूवादी संगठन पूरी गंभीरता से इस काम में जुटे हुए हैं. क्यों? इसका तमाम हलकों से एक ही जवाब आता है – ‘सांप्रदायिक राजनीति’. लेकिन बात इतनी सरल नहीं है. बेशक विश्व हिन्दू परिषद्, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, बजरंग दल, अखिल भारतीय हिन्दू महासभा और इन जैसे तमाम संगठनों की नींव साम्प्रदायिकता है, इसी पर उनकी इमारत खड़ी है और उनकी हालिया गतिविधियाँ भी इसी धारा से उपजी हैं. भारतीय जनता पार्टी भी इन्हीं धाराओं में से एक है यह भी स्पष्ट है. बावजूद इसके एक तथ्य यह भी है कि भाजपा के पास फ़िलहाल देश को चलाने की ज़िम्मेदारी है और यह दल इतना बेवकूफ़ भी नहीं है कि वर्तमान स्थितियों में सिर्फ़ ‘हिंदुत्व’ के लिए अपने राजनैतिक दल होने को दांव पर लगा दे. लोकतान्त्रिक व्यवस्था में एक राजनैतिक दल होने के नाते भाजपा को यह अच्छी तरह पता है कि सिर्फ़ हिंदुत्व के दम पर सत्ता की लड़ाई में टिके रह पाना मुश्किल है, खासकर तब जबकि अच्छा-खासा हिन्दू पहचान वाला तबका भी उसके इस एजेंडे को नकारता हो. लोकसभा चुनावों में भाजपा के घोषणा-पत्र में हिंदुत्व का प्रतिशत इस बात को साफ भी करता है. भले ही ‘मोदी पर विश्वास’ कहकर प्रचारित किया जा रहा हो लेकिन यह उन्हें भी पता है कि लोकसभा चुनावों की जीत ‘कांग्रेस पर अविश्वास’ का ‘आकस्मिक लाभ’ है, जो विकास के ऑफर ने उसकी झोली में ला पटका है.

बहरहाल, भाजपा अब इस देश की सरकार है और ऐसी सरकार है जिसके सामने मजबूत विपक्ष भी नहीं है. इस स्थिति में उसके पास यह सुभीता ज़्यादा है कि वह अपनी मनचाही व्यवस्था बिना अधिक विरोध के लागू कर सकती है. लेकिन ऐसी सरकार के सामने भी एक चुनौती तो होती ही है कि जनता को सब दिखाई देता है, पल-पल की ख़बर रखने वाला मीडिया यह ख़बर तक लोगों के पास पहुँचा देता है कि सरकार करने क्या जा रही है. फिर जनता, लेखक, बुद्धिजीवी और तमाम विवेकशील वर्ग उसके कर्मों-कुकर्मों का विश्लेषण, आलोचना और विरोध करते हैं. सड़कों पर भी उतर आते हैं, जो उसके लिए असुविधाजनक होते हैं. इस असुविधा से बचने का बहुत ही शातिराना तरीका हैं 16 मई के बाद से हुई हलचलें. इसके लिए भाजपा ने अपनी विरासत का ही बखूबी इस्तेमाल किया है.

अपने पिछले अनुभवों से भाजपा और उसके सहयोगी संगठन यह बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि किसको कहाँ उलझाये रखा जा सकता है. वे जानते हैं कि ‘साम्प्रदायिकता’ इस देश की बड़ी समस्या है और कोई भी ऐसा वाकया/मुद्दा जिससे सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हो सके वह इस हद तक लोगों का ध्यान खींचेगा और बहस-मुबाहिसों की शक्ल अख्तियार करेगा कि किसी दूसरे फ्रंट पर चल रही गतिविधियों की ओर ध्यान आसानी से नहीं जाएगा. बयानवीर तमाम आपत्तिजनक बयान देते रहेंगे, सरकार चुप्पी साधे रहेगी. यह इनकी ‘एक पंथ दो काज’ वाली रणनीति है. एक तरफ़ लोगों का ध्यान भटकाकर सरकार अपना काम करती रहेगी, दूसरी तरफ़ इन संगठनों के माध्यम से साम्प्रदायिकता पोषित होती रहेगी. इससे एक तीसरा काम भी होगा कि मीडिया का ज़्यादातर समय उपजे तनाव को कवर करते बीतेगा. राजनीति के गलियारों की खबरों में भी संसद-विधान सभाओं में क्या हुआ की तुलना में साम्प्रदायिकता पर सरकार के रुख को टटोला जा रहा होगा. वर्तमान में मीडिया पर जो बिक जाने के आरोप हैं उनमें कितनी सच्चाई है यह तो अलग बात है पर यह तीसरा काम ज़रूर हुआ और ‘एक पंथ दो काज’ की रणनीति भी किसी हद तक सफल रही है, कम से कम अब तक तो.

ज़रा पीछे लौटकर देखें, जब ‘लव-जिहाद’ का शिगूफ़ा छोड़ा गया था. मीडिया में देश के अलग-अलग हिस्सों से लव-जिहाद से जुड़ी ख़बरें छायी हुई थीं. कहीं इन संगठनों द्वारा तथाकथित लव-जिहाद को रोकने के लिए की जा रही गतिविधियों की ख़बर थी, कहीं इनका विरोध कर रहे लोगों की ख़बरें थीं और कहीं ऐसे गाँव की ख़बरें जहाँ हिन्दू-मुसलिम का कोई भेद ही नहीं है. प्राइम-टाइम में बहसें हो रहीं थी, सोशल मीडिया की दीवारें रंगी जा रहीं थीं लव-जिहाद पर. हम-आप इस मसले पर अपनी-अपनी तरह से राय व्यक्त कर रहे थे. यह होना भी चाहिए था, ज़रूरी भी था. पर यही वह वक़्त भी था जब विभिन्न क्षेत्रों में एफ़डीआई को अमली जामा पहनाया जा रहा था. बहस और रायशुमारी इस पर भी हुई लेकिन लव-जिहाद की खींच-तान में यह मुद्दा उस तरह जनता के बीच पहुँच ही नहीं सका कि ट्रेन में रोज़ सफ़र करने वाला एक सामान्य आदमी बढ़े हुए किराये के अलावा एफ़डीआई के और पहलुओं पर सोच भी सके. कितने बीमाधारकों ने बीमाक्षेत्र में एफ़डीआई लागू होने की सम्भावना के वक़्त इस पर चर्चा की, कम से कम मेरी नज़र में तो कोई नहीं आया. 

जो लोग ढूंढकर संसदीय गतिविधि की ख़बरें देखते हैं - जिनका कि बहुत अधिक प्रतिशत भी नहीं है – को छोड़ दें तो अधिकांश लोगों को एफ़डीआई लागू करने से लेकर दवाओं की कीमतें बढ़ने, आत्महत्या को अपराध न मानने, स्वास्थ्य और शिक्षा बजट में कटौती, और भूमि अधिग्रहण के नये मसौदे तक तमाम मसलों में ठीक-ठाक ख़बर तब मिली है जब काफ़ी हद तक निर्णय लिया जा चुका, कुछ मामलों में तो अंतिम निर्णय ही. और ऐसा इसलिए कि जब इन मुद्दों से जुड़े सरकार के निर्णय अपना रूप ले रहे थे, हम भाजपा, आरएसएस, विहिप के तैयार किये लव-जिहाद, धर्मान्तरण, घर वापसी, सांप्रदायिक तनाव के चक्रव्यूह में फँसे हुए थे. अभी जब भूमि अधिग्रहण का नया मसौदा सामने आया है तब प्रतिरोध की ताक़त का एक बड़ा हिस्सा इस बहस में खर्च हो रहा है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में वायुयान थे या नहीं. स्थिति यह है कि आम-आदमी से लेकर विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों, मीडिया सबको उलझाये रखने का इंतज़ाम सरकार और उसकी टीम ने कर दिया है और कर रही है.

ऐसा नहीं है कि लव-जिहाद, घर-वापसी, बत्रा जी के इतिहास, प्राचीन भारतीय विज्ञान आदि मुद्दों को नज़रंदाज़ कर देना चाहिए. अतीत के गौरव और संस्कृति के नाम पर की जा रही भगवाकरण की इन तमाम सरकारी - ग़ैर सरकारी कोशिशों की गंभीरता और प्रतिबद्धता के साथ तार्किक मुखालफ़त होनी ही चाहिए. लेकिन इस पर भी उतनी ही प्रतिबद्धता से नज़र रखने की और प्रतिरोध दर्ज करने की ज़रूरत है कि ‘सरकार’ जिस विकास का सपना दिखाकर आयी थी, उससे जुड़े कैसे क़दम उठा रही है. वरना प्राचीन इतिहास में विमान मिलें न मिलें, देश की आबादी का बड़ा हिस्सा बाज़ार की भेंट चढ़ अपना भविष्य गंवा चुका होगा.

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हमारे नायक, उनके नायक


साम्प्रदायिकता की चपेट में साझा गर्व

फेसबुक पर भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम 1857 के विस्मृत नायकों में से एक मौलवी अहमदुल्लाह शाह के बारे में जानकारी देती एक पोस्ट देखी जिसे 700 लोग शेयर कर चुके हैं. यूँ ही इच्छा हुई कि देखूँ किस-किस ने शेयर किया है. जो सूची सामने आई उसमें 25-30 से अधिक हिन्दू नाम नहीं दिखे. ठीक ऐसी ही स्थिति हिन्दू व आदिवासी नायकों से जुड़ी कई पोस्ट्स पर दूसरे समुदायों की भी दिखी. भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाक़उल्ला खान, महात्मा गाँधी आदि कुछ नामों जिन्हें कि शुरू से ही पूरे मुल्क की मोहब्बत हासिल रही या यूँ कहें कि जिनका नाम स्वतंत्रता-संग्राम के साथ इतिहास के पन्नों में बार-बार आता रहा है को छोड़ दें तो आज़ादी के कई नायकों, ख़ासकर जिनके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है, के ज़िक्र वाली कई पोस्ट्स का सोशल मीडिया पर यही हाल है. इस स्थिति को देखते हुए सवाल उठता है कि ऐसा क्यों? क्या वजह है इसके पीछे? 

यह बात तो स्पष्ट है कि स्वतंत्रता संग्राम में हर मज़हब के लोगों ने अपना योगदान दिया. वह मुल्क के लिए, आज़ादी के लिए साझी लड़ाई थी. इस लिहाज़ से आज़ादी की उस लड़ाई का गर्व साझा होना चाहिए, न कि हिन्दू-मुसलमान के खेमे में बंटा हुआ. आज़ादी के उन सभी चितेरों के प्रति सम्मान और गर्व भी साझा होना चाहिए जिन्होंने 1857 के पहले से लेकर मुल्क के आज़ाद होने तक किसी भी स्तर पर लड़ाई जारी रखी; सिद्धो-कान्हू, बिरसा मुंडा से लेकर भगत सिंह, अशफाक़उल्ला खां और गाँधी तक सबके प्रति. उन सबमें जो कमियाँ नज़र आईं उस पर चर्चा के बावज़ूद कई बरसों तक ऐसा रहा भी और आज भी यह कई लोगों का सच और गर्व है. 

लेकिन किसी पोस्ट पर ऐसी प्रतिक्रिया इशारा करती है कि अब इस गर्व में भी दरार पड़ने लगी है. चाहे सोशल मीडिया की आभासी दुनिया हो या फिर हक़ीकत की ज़िन्दगी साझी संस्कृति, साझी विरासत की झंडाबरदारी और हिमायत करने वालों की भरमार है. फिर ऐसा क्यों है कि आदिवासी नायकों से सम्बंधित पोस्ट को शेयर करने वालों में हिन्दू-मुसलिम लोगों की संख्या ज्यादा नहीं होती, मुस्लिम नायकों से सम्बंधित पोस्ट को शेयर करने वालों में हिन्दुओं की संख्या ज्यादा नहीं होती और हिन्दू नायकों से सम्बंधित पोस्ट को शेयर करने वालों में मुस्लिमों की? कई लोग यह तर्क दे सकते हैं और देते भी हैं कि ऐसा इसलिए कि लोगों को अपनी कौम के नायकों पर गर्व होना स्वाभाविक है, इसलिए जो नायक जिस कौम से सम्बंधित था उसके लोग ज्यादा शेयर करते हैं. ठीक है, एक स्तर पर यह तर्क स्वीकार्य भी है. लेकिन क्या वाक़ई बात सिर्फ़ इतनी ही है? इसे यूँ भी देखा और सोचा जाना चाहिये कि स्वतंत्रता-संग्राम के शहीद साझे गर्व के अधिकारी हैं और फिर उनसे सम्बंधित किसी पोस्ट को शेयर करने वाले कई लोगों के लिए भी वे पूरे मुल्क का गर्व नहीं रह जाते, वे केवल क्रन्तिकारी नहीं रह जाते बल्कि यूपी का गर्व हो जाते हैं, बिहार का गौरव हो जाते हैं, हिन्दू योद्धा हो जाते हैं, मुसलिम जांबाज़ हो जाते हैं, मराठा शान हो जाते हैं, राजपूत वीर हो जाते हैं. एक क्रन्तिकारी कई खेमों में बंट जाता है.

बहरहाल बात हो रही थी कि एक मज़हब से ताल्लुक रखते क्रन्तिकारी से सम्बंधित पोस्ट को शेयर करने वालों में दूसरे मज़हब के लोगों की संख्या कम क्यों? दरअसल बीते कई सालों में अपने मज़हब व कौम से प्रेम जिस तेज़ी से बढ़ा और मुखर हुआ है उसी के अनुपात में एक और चीज़ ने लोगों के ज़ेहन में अपनी जगह बनाई है और वह है दूसरे मज़हब व कौम से एक अदृश्य-सी दूरी, उसके प्रति एक अस्पष्ट-सा विरोध. ऐसा करने के लिए सांप्रदायिक ताक़तों ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया है. इसमें सांप्रदायिक ताक़तों की अच्छी-ख़ासी भूमिका है, इस बात को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता.

सांप्रदायिक ताक़तें दूसरे मज़हब के प्रति सबके दिलों में नफ़रत भरने में कामयाब भले ही न रही हों पर बड़े सुनियोजित ढंग से एक बड़े हिस्से के दिलों में उन्होंने एक ऐसी दूरी पैदा कर दी है जो ऊपरी तौर पर भले न दिखे लेकिन अंदर कहीं मौजूद है. ये ताक़तें अपने मज़हब और कौम के प्रति व्यक्ति को विरासत में हासिल सामीप्य व आत्मीयता वाले सॉफ्ट कॉर्नर (जिसे आप प्रेम भी कह सकते हैं) को भुनाती रही हैं और एक हथियार की तरह इस्तेमाल करती रही हैं. इन भावनाओं को गर्व और श्रेष्ठता के साथ जोड़कर कुछ इस ढंग से प्रोत्साहित किया जाता है कि व्यक्ति हर चीज़ को अनजाने में ही अपने और पराये मज़हब के चश्मे से देखने लग जाता है और उसी के हिसाब से चीजों, घटनाओं से ख़ुद को जोड़ने लगता है. नतीजा यह होता है कि कई लोगों को पता भी नहीं चलता कि ऐसा क्यों हो रहा है पर वे अनायास ही एक चीज़ को ज़्यादा पसंद और दूसरी को कम पसंद या नापसंद करने लग जाते हैं. उनके पास इस बात का कई बार जवाब नहीं होता कि वे क्यों किसी चीज़ की अनदेखी कर रहे हैं या क्यों उसे नकार रहे हैं. कई ऐसे लोग भी इसका शिकार हुए हैं जो चेतन अवस्था में सभी समुदायों की एकता चाहते हैं. सोशल मीडिया पर खूब देखा गया है कि भाईचारे, देश की साझी विरासत की बात करने वाले लोग भी अपनी कौम के नायक को शेयर करेंगे, दूसरी कौम के नायक को लाइक मारकर निकल लेंगे. क्यों भई! आप तो साझी विरासत पर गर्व करते हैं फिर ऐसा भेदभाव क्यों? ज़ाहिर है कि वे जान-बूझकर ऐसा नहीं कर रहे हैं, बस एक लम्हे के किसी हिस्से में उनके भीतर कहीं छुपी बैठी यह दूरी निर्णय लेती है और वे ऐसा कर देते हैं. यह एक तरह से पहला चरण है.

अगले चरण में जब यह दूरी व गर्व और भुना लिया जाता है तो लोग अपनी, अपने मज़हब की आलोचना न सुनने व दूसरे की खामियों को प्रचारित कर अपने अहं को तुष्टि पहुँचाने के स्तर तक पहुँच जाते हैं. यह कई बार सोशल मीडिया पर प्राप्त समर्थन में बहुत साफ़ दिखाई देता है. आपने ऐसी कई पोस्ट देखी होंगी जो किसी धर्म की खामियों को उधेड़ती हैं. कभी ऐसी पंद्रह-बीस पोस्ट को समर्थन में मिले लाइक्स, कमेंट्स और शेयर्स को गौर से देखिएगा. आप पाएंगे कि ज़्यादातर मामलों में अगर हिन्दू धर्म के बखिये उधेड़े गए हैं तो मुस्लिम समर्थन का प्रतिशत ज्यादा होगा, ज़्यादातर हिन्दू बुरा-भला कह रहे होंगे. अगर मुस्लिम धर्म के बखिये उधेड़े गए हैं तो हिन्दू समर्थन का प्रतिशत ज्यादा होगा, ज़्यादातर मुसलमान बुरा-भला कह रहे होंगे. कुछ लोग ढंके-छुपे ढंग से बच-बचाकर समर्थन या विरोध करते नज़र आयेंगे. इन दिनों आदिवासी दर्शन और हिन्दू धर्म को लेकर जो बहस सोशल मीडिया पर है उसमें भी समर्थन और विरोध का ऐसा ही अनुपात है. अगले चरणों में यह स्थिति जात/वर्ग/ समुदाय को पार कर सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्म के गौरव व अपमान के स्तर पर पहुँचती है और नतीजा वह होता है जो बीते दिनों में मुज़फ्फ़र नगर, सहारनपुर और त्रिलोकपुरी में दिखाई दिया.

सोशल मीडिया को कभी बारीकी से देखें तो आप पाएंगे कि इस तरह की घटनाओं की भरमार है. ये घटनाएं साफ़ इशारा हैं कि सांप्रदायिक ताक़तें लोगों के दिमाग को किस हद तक अपने कब्ज़े में ले रही हैं. वे कह भले ही रही हैं लेकिन लोगों को अपने मज़हब से, अपनी कौम से प्रेम करना नहीं सिखा रहीं बल्कि दूसरे मजहबों, दूसरी कौम के प्रति नफ़रत और असहिष्णुता के बीज उनके भीतर बो रही हैं. लोग मानें या न मानें पर वे इसके शिकार हो रहे हैं. लोगों को पता भी नहीं चलता और चुपके से कोई पूर्वाग्रह उनके भीतर बिठा दिया जाता है. नतीजतन एक-दूसरे से दूरी बढ़ रही है और यही तो साम्प्रदायिक ताक़तें चाहती हैं. इसके बिना उनकी वह इमारत खड़ी नहीं हो सकती, जिसमे ज़ात, पंथ, वर्ण, क्षेत्र और शुद्ध-अशुद्ध के तमाम तरह के कमरे मौजूद होते हैं, जिनकी रौशनी में मुल्क के लिए मर-मिटने वाला एक क्रांतिकारी भी मुल्क का गौरव होने के बजाय किसी एक मज़हब या कौम के लिए गौरव हो जाता है, और दूसरी कौम उसे अनदेखा करके गुज़रने लगती है.

फ़िक्र करने वाली बात यह है कि लोगों की भावनाओं को भुनाकर उनको हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने का अब कोई एक तरीका या रास्ता नहीं है, कई हैं. भगत सिंह की पगड़ी का भगवा हो जाना, बिरसा मुंडा की जन्मस्थली पर ‘भगवान बिरसा मुंडा’ लिखा जाना, मसला सामाजिक या राजनीतिक ही क्यों न हो उसे इस्लाम से जोड़ दिया जाना, ‘इस्लाम के मुताबिक’ कहकर ज़ारी किये जा रहे कई अजीबोग़रीब फतवे और हर हिन्दू के घर में तुलसी का पौधा लगाने जैसे अभियान, सब ऐसे ही रास्तों पर बढ़े हुए कदम हैं. फिर अब, जबकि लोगों को अपने इतिहास से ही काट देने की क़वायद भी तेज़ हो चुकी है और एक अलग ही इतिहास सामने रखे जाने की आशंकाएं मंडराने लगी हैं तब साझी संस्कृति – साझी विरासत के ईमानदार पक्षधरों की ये एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी बन जाती है कि हर उस रास्ते पर नज़र रखी जाये जहाँ से सांप्रदायिक ताक़तें लोगों के ज़ेहन तक पहुँच सकती हैं.

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

किसी की आँख में तिनका पड़ा है


शहर में आजकल झगड़ा बड़ा है
किसी की आँख में तिनका पड़ा है

बहुत कमज़ोर आँखें हो गई हैं
अजब ये मोतिया इनमें मढ़ा है

कभी आकर हमारे पास बैठो
पसीना ये नहीं, हीरा जड़ा है

कोई कैसे उसे अब सच बताये
इदारा झूठ का जिसका खड़ा है

वही दिखता है जो वे चाहते हैं
नज़र पे उनकी इक चश्मा चढ़ा है

बटेरों की भी ये कैसी समझ है
कि अंधे हाथ में अक्सर पड़ा है

हमारी भी कहाँ सुनता है ये दिल
न जाने किस से ये रूठा पड़ा है