गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हमारे नायक, उनके नायक


साम्प्रदायिकता की चपेट में साझा गर्व

फेसबुक पर भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम 1857 के विस्मृत नायकों में से एक मौलवी अहमदुल्लाह शाह के बारे में जानकारी देती एक पोस्ट देखी जिसे 700 लोग शेयर कर चुके हैं. यूँ ही इच्छा हुई कि देखूँ किस-किस ने शेयर किया है. जो सूची सामने आई उसमें 25-30 से अधिक हिन्दू नाम नहीं दिखे. ठीक ऐसी ही स्थिति हिन्दू व आदिवासी नायकों से जुड़ी कई पोस्ट्स पर दूसरे समुदायों की भी दिखी. भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाक़उल्ला खान, महात्मा गाँधी आदि कुछ नामों जिन्हें कि शुरू से ही पूरे मुल्क की मोहब्बत हासिल रही या यूँ कहें कि जिनका नाम स्वतंत्रता-संग्राम के साथ इतिहास के पन्नों में बार-बार आता रहा है को छोड़ दें तो आज़ादी के कई नायकों, ख़ासकर जिनके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है, के ज़िक्र वाली कई पोस्ट्स का सोशल मीडिया पर यही हाल है. इस स्थिति को देखते हुए सवाल उठता है कि ऐसा क्यों? क्या वजह है इसके पीछे? 

यह बात तो स्पष्ट है कि स्वतंत्रता संग्राम में हर मज़हब के लोगों ने अपना योगदान दिया. वह मुल्क के लिए, आज़ादी के लिए साझी लड़ाई थी. इस लिहाज़ से आज़ादी की उस लड़ाई का गर्व साझा होना चाहिए, न कि हिन्दू-मुसलमान के खेमे में बंटा हुआ. आज़ादी के उन सभी चितेरों के प्रति सम्मान और गर्व भी साझा होना चाहिए जिन्होंने 1857 के पहले से लेकर मुल्क के आज़ाद होने तक किसी भी स्तर पर लड़ाई जारी रखी; सिद्धो-कान्हू, बिरसा मुंडा से लेकर भगत सिंह, अशफाक़उल्ला खां और गाँधी तक सबके प्रति. उन सबमें जो कमियाँ नज़र आईं उस पर चर्चा के बावज़ूद कई बरसों तक ऐसा रहा भी और आज भी यह कई लोगों का सच और गर्व है. 

लेकिन किसी पोस्ट पर ऐसी प्रतिक्रिया इशारा करती है कि अब इस गर्व में भी दरार पड़ने लगी है. चाहे सोशल मीडिया की आभासी दुनिया हो या फिर हक़ीकत की ज़िन्दगी साझी संस्कृति, साझी विरासत की झंडाबरदारी और हिमायत करने वालों की भरमार है. फिर ऐसा क्यों है कि आदिवासी नायकों से सम्बंधित पोस्ट को शेयर करने वालों में हिन्दू-मुसलिम लोगों की संख्या ज्यादा नहीं होती, मुस्लिम नायकों से सम्बंधित पोस्ट को शेयर करने वालों में हिन्दुओं की संख्या ज्यादा नहीं होती और हिन्दू नायकों से सम्बंधित पोस्ट को शेयर करने वालों में मुस्लिमों की? कई लोग यह तर्क दे सकते हैं और देते भी हैं कि ऐसा इसलिए कि लोगों को अपनी कौम के नायकों पर गर्व होना स्वाभाविक है, इसलिए जो नायक जिस कौम से सम्बंधित था उसके लोग ज्यादा शेयर करते हैं. ठीक है, एक स्तर पर यह तर्क स्वीकार्य भी है. लेकिन क्या वाक़ई बात सिर्फ़ इतनी ही है? इसे यूँ भी देखा और सोचा जाना चाहिये कि स्वतंत्रता-संग्राम के शहीद साझे गर्व के अधिकारी हैं और फिर उनसे सम्बंधित किसी पोस्ट को शेयर करने वाले कई लोगों के लिए भी वे पूरे मुल्क का गर्व नहीं रह जाते, वे केवल क्रन्तिकारी नहीं रह जाते बल्कि यूपी का गर्व हो जाते हैं, बिहार का गौरव हो जाते हैं, हिन्दू योद्धा हो जाते हैं, मुसलिम जांबाज़ हो जाते हैं, मराठा शान हो जाते हैं, राजपूत वीर हो जाते हैं. एक क्रन्तिकारी कई खेमों में बंट जाता है.

बहरहाल बात हो रही थी कि एक मज़हब से ताल्लुक रखते क्रन्तिकारी से सम्बंधित पोस्ट को शेयर करने वालों में दूसरे मज़हब के लोगों की संख्या कम क्यों? दरअसल बीते कई सालों में अपने मज़हब व कौम से प्रेम जिस तेज़ी से बढ़ा और मुखर हुआ है उसी के अनुपात में एक और चीज़ ने लोगों के ज़ेहन में अपनी जगह बनाई है और वह है दूसरे मज़हब व कौम से एक अदृश्य-सी दूरी, उसके प्रति एक अस्पष्ट-सा विरोध. ऐसा करने के लिए सांप्रदायिक ताक़तों ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया है. इसमें सांप्रदायिक ताक़तों की अच्छी-ख़ासी भूमिका है, इस बात को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता.

सांप्रदायिक ताक़तें दूसरे मज़हब के प्रति सबके दिलों में नफ़रत भरने में कामयाब भले ही न रही हों पर बड़े सुनियोजित ढंग से एक बड़े हिस्से के दिलों में उन्होंने एक ऐसी दूरी पैदा कर दी है जो ऊपरी तौर पर भले न दिखे लेकिन अंदर कहीं मौजूद है. ये ताक़तें अपने मज़हब और कौम के प्रति व्यक्ति को विरासत में हासिल सामीप्य व आत्मीयता वाले सॉफ्ट कॉर्नर (जिसे आप प्रेम भी कह सकते हैं) को भुनाती रही हैं और एक हथियार की तरह इस्तेमाल करती रही हैं. इन भावनाओं को गर्व और श्रेष्ठता के साथ जोड़कर कुछ इस ढंग से प्रोत्साहित किया जाता है कि व्यक्ति हर चीज़ को अनजाने में ही अपने और पराये मज़हब के चश्मे से देखने लग जाता है और उसी के हिसाब से चीजों, घटनाओं से ख़ुद को जोड़ने लगता है. नतीजा यह होता है कि कई लोगों को पता भी नहीं चलता कि ऐसा क्यों हो रहा है पर वे अनायास ही एक चीज़ को ज़्यादा पसंद और दूसरी को कम पसंद या नापसंद करने लग जाते हैं. उनके पास इस बात का कई बार जवाब नहीं होता कि वे क्यों किसी चीज़ की अनदेखी कर रहे हैं या क्यों उसे नकार रहे हैं. कई ऐसे लोग भी इसका शिकार हुए हैं जो चेतन अवस्था में सभी समुदायों की एकता चाहते हैं. सोशल मीडिया पर खूब देखा गया है कि भाईचारे, देश की साझी विरासत की बात करने वाले लोग भी अपनी कौम के नायक को शेयर करेंगे, दूसरी कौम के नायक को लाइक मारकर निकल लेंगे. क्यों भई! आप तो साझी विरासत पर गर्व करते हैं फिर ऐसा भेदभाव क्यों? ज़ाहिर है कि वे जान-बूझकर ऐसा नहीं कर रहे हैं, बस एक लम्हे के किसी हिस्से में उनके भीतर कहीं छुपी बैठी यह दूरी निर्णय लेती है और वे ऐसा कर देते हैं. यह एक तरह से पहला चरण है.

अगले चरण में जब यह दूरी व गर्व और भुना लिया जाता है तो लोग अपनी, अपने मज़हब की आलोचना न सुनने व दूसरे की खामियों को प्रचारित कर अपने अहं को तुष्टि पहुँचाने के स्तर तक पहुँच जाते हैं. यह कई बार सोशल मीडिया पर प्राप्त समर्थन में बहुत साफ़ दिखाई देता है. आपने ऐसी कई पोस्ट देखी होंगी जो किसी धर्म की खामियों को उधेड़ती हैं. कभी ऐसी पंद्रह-बीस पोस्ट को समर्थन में मिले लाइक्स, कमेंट्स और शेयर्स को गौर से देखिएगा. आप पाएंगे कि ज़्यादातर मामलों में अगर हिन्दू धर्म के बखिये उधेड़े गए हैं तो मुस्लिम समर्थन का प्रतिशत ज्यादा होगा, ज़्यादातर हिन्दू बुरा-भला कह रहे होंगे. अगर मुस्लिम धर्म के बखिये उधेड़े गए हैं तो हिन्दू समर्थन का प्रतिशत ज्यादा होगा, ज़्यादातर मुसलमान बुरा-भला कह रहे होंगे. कुछ लोग ढंके-छुपे ढंग से बच-बचाकर समर्थन या विरोध करते नज़र आयेंगे. इन दिनों आदिवासी दर्शन और हिन्दू धर्म को लेकर जो बहस सोशल मीडिया पर है उसमें भी समर्थन और विरोध का ऐसा ही अनुपात है. अगले चरणों में यह स्थिति जात/वर्ग/ समुदाय को पार कर सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्म के गौरव व अपमान के स्तर पर पहुँचती है और नतीजा वह होता है जो बीते दिनों में मुज़फ्फ़र नगर, सहारनपुर और त्रिलोकपुरी में दिखाई दिया.

सोशल मीडिया को कभी बारीकी से देखें तो आप पाएंगे कि इस तरह की घटनाओं की भरमार है. ये घटनाएं साफ़ इशारा हैं कि सांप्रदायिक ताक़तें लोगों के दिमाग को किस हद तक अपने कब्ज़े में ले रही हैं. वे कह भले ही रही हैं लेकिन लोगों को अपने मज़हब से, अपनी कौम से प्रेम करना नहीं सिखा रहीं बल्कि दूसरे मजहबों, दूसरी कौम के प्रति नफ़रत और असहिष्णुता के बीज उनके भीतर बो रही हैं. लोग मानें या न मानें पर वे इसके शिकार हो रहे हैं. लोगों को पता भी नहीं चलता और चुपके से कोई पूर्वाग्रह उनके भीतर बिठा दिया जाता है. नतीजतन एक-दूसरे से दूरी बढ़ रही है और यही तो साम्प्रदायिक ताक़तें चाहती हैं. इसके बिना उनकी वह इमारत खड़ी नहीं हो सकती, जिसमे ज़ात, पंथ, वर्ण, क्षेत्र और शुद्ध-अशुद्ध के तमाम तरह के कमरे मौजूद होते हैं, जिनकी रौशनी में मुल्क के लिए मर-मिटने वाला एक क्रांतिकारी भी मुल्क का गौरव होने के बजाय किसी एक मज़हब या कौम के लिए गौरव हो जाता है, और दूसरी कौम उसे अनदेखा करके गुज़रने लगती है.

फ़िक्र करने वाली बात यह है कि लोगों की भावनाओं को भुनाकर उनको हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने का अब कोई एक तरीका या रास्ता नहीं है, कई हैं. भगत सिंह की पगड़ी का भगवा हो जाना, बिरसा मुंडा की जन्मस्थली पर ‘भगवान बिरसा मुंडा’ लिखा जाना, मसला सामाजिक या राजनीतिक ही क्यों न हो उसे इस्लाम से जोड़ दिया जाना, ‘इस्लाम के मुताबिक’ कहकर ज़ारी किये जा रहे कई अजीबोग़रीब फतवे और हर हिन्दू के घर में तुलसी का पौधा लगाने जैसे अभियान, सब ऐसे ही रास्तों पर बढ़े हुए कदम हैं. फिर अब, जबकि लोगों को अपने इतिहास से ही काट देने की क़वायद भी तेज़ हो चुकी है और एक अलग ही इतिहास सामने रखे जाने की आशंकाएं मंडराने लगी हैं तब साझी संस्कृति – साझी विरासत के ईमानदार पक्षधरों की ये एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी बन जाती है कि हर उस रास्ते पर नज़र रखी जाये जहाँ से सांप्रदायिक ताक़तें लोगों के ज़ेहन तक पहुँच सकती हैं.

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

किसी की आँख में तिनका पड़ा है


शहर में आजकल झगड़ा बड़ा है
किसी की आँख में तिनका पड़ा है

बहुत कमज़ोर आँखें हो गई हैं
अजब ये मोतिया इनमें मढ़ा है

कभी आकर हमारे पास बैठो
पसीना ये नहीं, हीरा जड़ा है

कोई कैसे उसे अब सच बताये
इदारा झूठ का जिसका खड़ा है

वही दिखता है जो वे चाहते हैं
नज़र पे उनकी इक चश्मा चढ़ा है

बटेरों की भी ये कैसी समझ है
कि अंधे हाथ में अक्सर पड़ा है

हमारी भी कहाँ सुनता है ये दिल
न जाने किस से ये रूठा पड़ा है 

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

ख़बर बारूद होती है


शहर की भीड़ में यूँ तो बहुत ज़्यादा निकलते हैं 
मगर कुछ तो हैं सन्नाटे जो अपने साथ चलते हैं 

कोई रस्ता नहीं सच का जहाँ क़दमों को राहत हो 
जहाँ भी जाएँ हम ये आबले भी साथ चलते हैं

उन्हें ख़ुशफ़हमियाँ हैं ये के सबकुछ है यहाँ बेहतर 
हमीं जानें के कब कैसे ये अपने दिन निकलते हैं 

बहुत तामीर मुश्किल है मगर उसको यक़ीं भी है 
अभी मुफ़लिस की आँखों में सुनहरे ख़्वाब पलते हैं 

सभी को फ़िक्र है बेहद दरिंदे क्यों हैं बस्ती में 
यहीं आँचल सरकते के मगर क़िस्से उछलते हैं 

बदल जाता है हाकिम भी निज़ाम-ए-दहर भी लेकिन 
फ़क़त काग़ज़ बदलते हैं कहाँ ये दिन बदलते हैं 

ख़बर जो देते हैं सब को उन्हें कोई ख़बर ये दे 
ख़बर बारूद होती है शहर इससे भी जलते हैं

रविवार, 20 जुलाई 2014

अक्षर-अक्षर ढलती रात


काग़ज़ स्याही कलम दवात
अक्षर-अक्षर ढलती रात

बादल ख़्वाब सितारे चाँद
गहरी बुझती जलती रात

ढोंगी लम्पट कुंठित लोग
बस्ती में इनकी इफ़रात

गली-मोहल्ला मुल्क़-जहान
खींचा-तानी झगड़े घात

गोली भाले ख़ंजर आग
फिरते पूछें सबकी जात

मज़हब दौलत सत्ता नाक
हत्या शोषण धोखा लात

सैनिक जनता जंग फ़साद
राजा जीते, अपनी मात

नदिया जंगल खेत कछार
सब के सब पे उसकी घात

मरहम नश्तर ज़हर सबात
जाने क्या हो उसकी बात.

गुरुवार, 10 जुलाई 2014

काला धन नहीं मेहनत की कमाई


अभी-अभी लल्लन मियाँ ने फ़ोन पर एक सवाल दागा - "भाई मियाँ, मान लो कि हम तुम्हें कहते हैं कि तुम ऑटो से बाज़ार जाओ-आओ और किसी बढ़िया सी फिलम की पाइरेटेड सीडी हमारे लिए खरीदकर लाओ. इस काम के तुम्हे 500 रुपये मिलेंगे. तुम ये काम कर दो फिर पता चले कि सीडी तो चल ही नहीं रही, तब क्या तुम हमसे पैसे नहीं वसूलोगे?"
मैंने कहा कि फ़िल्म चले न चले मेरी बला से, मैंने काम किया, समय लगाया, मेहनत लगाई इसलिए बिलकुल वसूलूँगा.
उन्होंने दूसरा सवाल दागा- "और अगर हम तुम्हे वो पैसे देकर ये कहें कि किसी को बताना मत कि हमने तुम्हे पैसे दिए और ये काम कराया वरना घर में हमारी शामत आ जाएगी, तो तुम क्या करोगे?"
मैंने कहा कि करना क्या है, नहीं बताऊंगा किसी को. लेकिन इस तरह के सवाल पूछने की ज़रूरत क्या पड़ गई? वो बोले- "मामला ये है भाई मियाँ की अब देखना कैसे फेसबुक, ट्विट्टर पर "काला धन - काला धन" का हल्ला मचेगा. लोग मुँह बाए कहेंगे - 'सवा करोड़! हाय इत्ता पइसा!' समझते ही नहीं कि ये सब तो मेहनत की कमाई है."
मुझे कुछ बात समझ नहीं आई, सो पुछा किस बारे में बात कर रहे हैं, खुलासा कीजिए ज़रा.
लल्लन मियाँ झिड़कते हुए बोले- "तुम भी न मियाँ! बंधा नोट तुम्हारे पल्ले नहीं पड़ता. बिना चिल्लर किये कुछ समझते ही नहीं हो. अरे मियाँ ये जो अपने नेताजी जी के यहाँ चोरी हुई है न सवा करोड़ की. उसके बारे में बात कर रहे हैं हम. लोग कह रहे हैं कि ये रकम जो है काला धन है, और हमारा मानना है कि ये मेहनत की कमाई है."
मैंने पूछा कि कैसे, तो बोले- "देखो भई, ये अलग बात है कि किसी को भेज नहीं पाए, पर ठेका तो लिया था न, वादा या दावा जो भी तुम कह लो वो तो किया था न. अब विरोधियों को बॉर्डर पार कराना हँसी-खेल थोड़े ही है. नहीं करा पाए तो क्या, फिलम चली नहीं तो क्या, राष्ट्रहित में इतनी जो मेहनत की, शानदार ट्रेलर तैयार किया उसका मेहनताना भी न लें क्या? और फिर ये तो एक काम था और भी तो न जाने किस-किस के कितने-कितने काम कराये होंगे या राष्ट्रहित में किये होंगे."
(जनवाणी में प्रकाशित)
फिर थोड़ी चुप्पी के बाद बोले- "अब तुम हो सोचो, कोई भी काम करने में मेहनत तो लगती है न. और ज्ञानी जन वैसे ही कहते हैं कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता, काम, काम होता है. तो मियां उस आदमी ने कुछ तो छोटे-बड़े काम किये ही होंगे, वरना बिना कुछ किये तो एक धेला नहीं मिलता, ऊपर से राष्ट्रहित को समर्पित पार्टी का नेता है तो पक्का है कि काम राष्ट्रहित में ही किये होंगे. यह भी समझ लो कि ज़रूर ही वे ऐसे काम होंगे जिनका उजागर होना सुरक्षा कारणों से राष्ट्रहित में नहीं होगा. इसलिए उनका मेहनताना भी उजागर नहीं किया गया. अब तुम ही बताओ भाई मियाँ कि ये मेहनत की कमाई हुई कि नहीं. पर लोग हैं कि समझते ही नहीं. बुड़बक कहीं के! हाँ नईं तो!"
मैंने कहा वो तो ठीक है पर चोरी गए माल में जो यूएस डॉलर भी शामिल हैं उनका राष्ट्रहित से क्या कनेक्शन? लल्लन मियाँ बोले- "हद्द है मियाँ तुम्हारी भी! देख नहीं रहे हो अब सारे राष्ट्रहित के कामों में एफडीआई है."

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

बंद दरवाज़ों के पार स्त्री


यह सब कुछ हो रहा है अभी में
वे जो कहते हैं अब नहीं है ऐसा
उन्हें चाहिए
पड़ताल करें अपने 'अब' की
झाँकें अभी की झिर्रियों से
अभी भी बंद दरवाज़ों के पार

अभी-अभी ख़त्म हुआ है
अधिकारों पर भाषण
अभी-अभी कहा गया है
लड़ो अपनी स्वतंत्रता के लिए
अभी-अभी निकली है
कई संगठनों की रैली
अभी-अभी गूँजे हैं
नारे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के

क्योंकि उसे इजाज़त नहीं है
अपने आँगन में भी खड़े होने की
इनमें से कुछ भी
नहीं पहुँचा उसके कानों तक

क्योंकि उसे इजाज़त नहीं है
एक निश्चित आवृति से ऊपर
कर सके अपनी आवाज़
नहीं पहुँचा किसी के कानों तक
उसके कंठ से निकला मूक क्रंदन

यह कहते हुए कि बस एक बार
लेने दो मुझे अपनी मर्ज़ी से साँस
बस एक बार
करने दो मुझे अपने मन का
एक चारदीवारी के भीतर
बंद दरवाज़ों के पीछे पस्त पड़ी स्त्री ने
घोंट दिया है अपना गला अभी-अभी.

सोमवार, 19 मई 2014

अच्छे दिन आने वाले हैं



बीत गए थे जो फिर से क़िस्से दुहराने वाले हैं
शोर बड़ा घनघोर है ये अच्छे दिन आने वाले हैं

अभी समझ की देहरी तक जो पहुँचे हैं मुश्किल से
उन नादानों के फिर से सपने भरमाने वाले हैं

देख-भाल के सोच-समझ के खाद-पानी ये डाला है
नागफनी के पौधों से आलम हरियाने वाले हैं

फूल दिखा कर सुंदरता का भरम बनाये रखा है
मिलते ही मौक़ा मुँह  कीचड़ मल जाने वाले हैं

सुबह-ओ-शाम रात-दोपहर हमने जिसको बीना है
उस चादर पर तेल छिड़क लपटें उठवाने वाले हैं

औरत देवी घर की ज़ीनत मैला धोना पुण्य का काम
मनु-सूत्र को वो फिर से जड़ में रखवाने वाले हैं

क्या होगा, कैसे होगा, ये मत पूछो बिलकुल भी
सारे मिलकर भजन करो अच्छे दिन आने वाले हैं.

बुधवार, 14 मई 2014

लोकसभा चुनाव में टूटते भ्रम

(हमज़बान के लिये 13 मई 2014 को लिखा गया आलेख)

- रजनी साहिल

16 मई को जो अद्भुत नज़ारा पेश होने जा रहा है वह ऐतिहासिक साबित होगा या नहीं यह तो उसी दिन पता चलेगा, लेकिन इस नज़ारे के तैयार होने के पीछे की कहानी ज़रूर आने वाले वक़्त में याद की जाएगी। एक नहीं कई वजहों से। इस बार के लोकसभा चुनाव में कई ऐसे भ्रम जिनका गुब्बारा बहुत पहले से ही फुला लिया गया था, चुनाव ख़त्म होने से पहले ही टूट चुके हैं, फिर चाहे वह मुद्दों की ज़मीन पर पैदा किया गया भ्रम हो, चुनावी समीकरणों में बदलाव का भ्रम हो, या मीडिया की निष्पक्षता का भ्रम हो। इसके अलावा यह चुनाव राजनीतिक दाँव-पेंचों के स्तर में गंभीर गिरावट के लिए भी याद किया जाएगा। 

इस बात में कोई दो राय नहीं है इस बार का चुनाव मुख्यतः भाजपा और कांग्रेस के बीच के चुनाव की तरह दिखाया गया है। चर्चा के काबिल जिस तीसरी पार्टी को माना गया वह आआपा है। इसलिए जाहिर है कि जिसे ज़्यादा दिखाया गया है उस पर बातें भी अधिक होंगी। अगर चुनाव की शुरुआत से लेकर अब तक के भाषणों पर गौर करें तो कोई भी समझ सकता है कि जिन वादों और सपनों से शुरुआत की गई थी, वह हाथी के दाँत थे, सिर्फ़ दिखाने भर के। चुनाव का अंतिम चरण आते-आते वह वादे, वह सपने कहाँ ग़ायब हो गए और उसकी जगह कैसे एक-दूसरे पर आरोप लगाना, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और अहं आ गए इस तरफ कम ही लोगों का ध्यान गया। उनका तो ध्यान न के बराबर जाते हुए दिखा जो शुरुआती वादों की वजह से किसी के समर्थन में उतरे थे। और इस सब में भाजपा इतनी आगे रही कि अन्य दलों का समय भाजपा को ग़लत साबित करने में ही खपता रहा. चाहे चुनावी रैलियों में दिये गये भाषण हों या न्यूज़ चैनलों में दिखाई गई बहसें एक-दूसरे पर आक्षेप लगाने और खुद को सही साबित करने के अलावा मूल मुद्दों पर बहस न के बराबर ही दिखाई दी है। यहाँ तक कि किस पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र में क्या है, इस तक पर कोई गंभीर बहस सामने नहीं आई। आई होती तो संभवतः लोगों को समझ आता कि कांग्रेस की जिन नीतियों को कोसती हुई भाजपा खड़ी है, उसकी अपनी नीतियाँ भी एक अलग कलेवर में तकरीबन वैसी ही हैं। तीसरी चर्चित पार्टी के रूप में उभरी आआपा ने भी कांग्रेस और भाजपा के तौर-तरीकों, कार्यप्रणाली के दोष तो गिनाए पर उनकी अपनी क्या नीति है वे भी यह स्पष्ट नहीं कर पाए। 

यह बहुत स्पष्ट है कि अधिकांश मतदाताओं की नज़र से लिखित घोषणा-पत्र नहीं गुज़रता। वे उम्मीदवारों के भाषणों और वादों में ही नीतियाँ तलाशते हैं और उन्हीं से मुतासिर होकर अपना समर्थन देते हैं। टीवी पर या समाचार-पत्रों में इन समर्थकों के विचारों और जानकारी पर चर्चा का स्थान बहुत कम है। इस कमी को दूर किया सोशल-मीडिया ने। फेसबुक जैसा सोशल मीडिया इन दिनों अलग-अलग पार्टी के समर्थकों और उनकी समर्थन पोस्टों से भरा पड़ा है। लेकिन जैसे ही आप इनसे संबंधित पार्टी की भविष्य की योजना, नीतियों या घोषणा-पत्र में शामिल किये गए मुद्दों पर बात करने की कोशिश करते हैं तो सौ में से कोई एक-दो होते हैं जो इस पर बात करते हैं, जिन्हें इसके बारे में पता है। बाकी समर्थक या तो बगलें झांकने लगते हैं या फिर इधर-उधर से कोई दूसरा बिंदु उठाकर बहस शुरू कर देते हैं। यह समर्थन असल में एक व्यक्ति विशेष में आस्था की तरह है। भाजपा समर्थकों को लगता है कि मोदी सब कुछ ठीक कर देंगे, आआपा समर्थकों को लगता है कि केजरीवाल सब कुछ ठीक कर देंगे। पर कैसे? इसका जवाब उनके पास नहीं है। इस मामले में कहना पड़ेगा कि कांग्रेस और उसके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग इस पचड़े से सुरक्षात्मक दूरी बनाए रहा है। उन्होंने सोशल मीडिया पर भाजपा या आआपा की तरह बेलगाम कैम्पेनिंग और बहसें नहीं कीं। फिर भी अगर कल्पना की जाए कि सोशल मीडिया पर मौजूद समर्थक एक सरकार चुनेंगे तो जो तस्वीर सामने आती है वह यह है कि ऐसे लोगों का बड़ा वर्ग सरकार चुनेगा जिसे यह भी नहीं पता कि किस पार्टी की क्या नीति और मुद्दे हैं। 

सोशल मीडिया से निकलकर जब अन्य मीडिया माध्यमों की तरफ झांकते हैं, ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरफ़ जिस पर ताज़ा और सही ख़बरों के मिलने की उम्मीद दर्शकों को ज़्यादा होती है, तो और भी गंभीर तस्वीर दिखाई देती है। बिना किसी गंभीर विश्लेषण के भी समझा जा सकता है कि यह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का वह दौर है जिसमें राजनीतिक ख़बरों के मामले में तो कम से कम उसने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। यह साफ दिखता है कि उसने संतुलन नहीं बनाया है। अपने समय का 80 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा उसने भाजपा को दिया है। बाकी समय में कांग्रेस और आआपा की गतिविधियाँ दिखाई हैं। सपा, बसपा, आरजेडी, जेडीयू, टीएमसी जैसे बड़े दलों का तो जैसे कोई अस्तित्व ही नहीं था उसके लिए। जब तक इन दलों से संबंधित प्रदेशों में मतदान की तारीख नहीं आ गई टीवी पर इनकी गतिविधियां नदारद ही रहीं। वामपंथी दलों के साथ-साथ दक्षिण भारत के राज्यों और वहाँ मौजूद दलों से तो लगभग अस्प्रश्य जैसा व्यवहार किया गया है। वहाँ क्या चल रहा है उसके बारे में आज तक टीवी पर कोई ठीक-ठाक ख़बर दिखाई नहीं दी है। नरेन्द्र मोदी की रैलियों, भाषणों के कई-कई रिपीट टेलीकास्ट और अन्य दलों की गतिविधियों को आधा-एक घंटे में निपटा देने के रवैये और मोदी लहर के गुब्बारे में हवा भरने ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की छवि पर जो बट्टा लगाया है, उसने उस नींव को हिला दिया है जिसके बूते कहा जाता था कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है।

जहाँ तक मुद्दों की राजनीति और राजनीतिक गंभीरता की बात है तो वह न सिर्फ समर्थकों में बल्कि प्रमुख राजनीतिक दलों में भी नदारद नज़र आती है। अपनी नीतियों या योजनाओं को जनता के सामने रखने की ज़िम्मेदारी संबंधित दलों और उनके प्रत्याशियों/नेताओं की होती है, पर वे तो एक-दूसरे की टोपी उछालने में लगे हैं। शुरुआत से ही इसे नरेन्द्र मोदी और राहुल गाँधी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के चुनाव के रूप में प्रस्तुत किया गया, बावजूद इसके कि कांग्रेस ने कभी राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री होने का हवाला नहीं दिया। यहीं से यह चुनाव लोकसभा चुनाव कम भाजपा और कांग्रेस के बीच खानदानी दुश्मनी की तरह अधिक हो गया। ऐसे युद्ध की तरह हो गया जिसे जीतने के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। एक राजनीतिक दल द्वारा दूसरे दल पर आरोप लगाना, उसकी आलोचना करना और उसकी नीतियों/कार्यप्रणाली की खामियों पर टिप्पणी करना चुनाव में कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इस बार इन सबके बहाने व्यक्तिगत हमले किये जा रहे हैं। जो चुनाव जनता की समस्याओं, जनता के मुद्दों पर लड़ा जाना था वह युवराज’, ‘माँ-बेटे की सरकार’, ‘दामाद जी’, ‘हिटलर’, ‘मौत का सौदागर’, ‘हनीमून’, ‘नीच राजनीति’, ‘नीच जातिजैसे जुमलों की भेंट चढ़ गया। वाड्रा, अंबानी, अडानी, स्नूपगेट के बहाने किसानों, भूमि अधिग्रहण, महिला सुरक्षा/अधिकारों के जो महत्वपूर्णमुद्दे उठे, वे भी इन जुमलों और व्यक्तिगत हमलों की गर्द में दब गए। कुल मिला कर इस चुनाव का अंत भी ढाक के तीन पात जैसा रहा। इस बात पर बड़ा जोर दिया गया था कि यह चुनाव मुख्यतः विकास और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केन्द्रित होगा लेकिन हुआ क्या, अंत तक आते-आते विकास और भ्रष्टाचार का मुद्दा कहीं पीछे रह गया और व्यक्तिगत चरित्र पर आकर टिक गया। पिछले चुनावों की तरह साम्प्रदायिकता, जाति समीकरण भी आ ही गए। हालांकि आआपा शुरुआत से अंत तक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर टिकी हुई है, वह अब भी व्यवस्था में सुधार की बात करती है और उसे व्यापक जन समर्थन भी हासिल है लेकिन सीटों के अनुपात के मद्देनज़र कांग्रेस, भाजपा को केन्द्र की राजनीति में बराबर की टक्कर देने और इस तस्वीर से बाहर करने में उसे अभी काफी वक्त की दरकार है।

इस बात की भी काफी हवा थी कि यह चुनाव जाति, धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। प्रधानमंत्री पद के दावेदार द्वारा कई तरह की टोपियां पहनने के बाद कहना कि अपीज़मेंट पॉलिटिक्स नहीं करता,  मंच पर राम की तस्वीर का इस्तेमाल करने, अपनी नीच जात का हवाला देने और उनके दल के अन्य नेताओं द्वारा कहे गये बदला लेंगे’, ‘विरोधी पाकिस्तान भेजे जाएंगे’, ‘आतंकवादियों का गढ़जैसे जुमलों के निहितार्थ क्या हैं ये कोई भी दिमागदार व्यक्ति समझ सकता है। साफ़-साफ़ साम्प्रदायिक नज़रिया झलकता है। जहाँ तक जाति समीकरण की बात है तो अलग-अलग राज्यों से आई ऐसी कई ख़बरें हैं जो प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कहीं दर्ज नहीं हुईं लेकिन जो स्पष्ट करती हैं कि इस चुनाव में जाति एक महत्वपूर्ण कारक की भूमिका निभा रही है। बिहार में लालू प्रसाद यादव के दोबारा मजबूती हासिल करने, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती को हासिल होने वाली सीटों के क़यास, मुख़्तार अंसारी की मौजूदगी में बनारस के मुसलिम वोटों को लेकर लगाए जा रहे क़यास ही यह साबित करते हैं कि जाति आधारित वोटों की राजनीति कहीं नहीं गई। जब प्रधानमंत्री पद का घोषित दावेदार नीच राजनीतिका उल्लेख करते जुमले को अपनी नीच जाति पर हमले में बदल सकता है तो स्थानीय स्तर पर जाति की राजनीति का क्या स्तर होगा और सभी दल उसमें किस हद तक लिप्त होंगे इसकी बस कल्पना भर की जा सकती है।

कुल मिला कर यह चुनाव पिछले चुनावों से किसी कदर अलग नहीं है। न ही यहाँ मुद्दों की राजनीति हुई है और न ही वोटर को जाति, धर्म से अलग करके देखा गया है। जिन भी बिंदुओं को लेकर इस चुनाव के पिछले चुनावों से अलग होने की बात की जा रही थी, वे बिंदु वास्तविक धरातल पर कहीं नज़र नहीं आ रहे। चुनाव की शुरुआत के वक़्त जिन गुब्बारों में हवा भरी गई थी, उनकी हवा परिणाम आने के पहले ही निकलती जा रही है। एक-एक कर भ्रम टूटते जा रहे हैं।

मंगलवार, 6 मई 2014

तालाब ने बुलाया था


कल लल्लन मियाँ को पुलिस पकड़ कर ले गई। रात भर थाने में रखा और सुबह छोड़ दिया। वे रात को 12 बजे शहर से सटे तालाब पर अकेले भटक रहे थे, जब पुलिस ने उन्हें पकड़ा। अब पकड़ा या धर दबोचा ये तो पुलिस जाने या लल्लन मियाँ, पर किस्सा मजेदार था जो उन्होंने बताया।

लल्लन मियाँ बोले- भाई मियाँ वक़्त होगा यही कोई बारह-साढ़े बारह बजे रात का। हम तालाब के किनारे बैठे पानी में झिलमिलाती हुई शहर की बिजली वाली बत्तियों को देख रहे थे और बीच-बीच में पास पड़ा हुआ कोई कंकर उठाकर हौले से पानी में फेंक देते थे। कसम से बड़ा ही सुकून मिल रहा था। फिर देखते क्या हैं कि एक मोटरसाइकिल आकर थोड़ी दूर रुकी। दो पुलिस वाले उतरे और पास आते ही घुड़कने लगे। नाम, पता वगैरह के बाद उन्होंने पूछा, ‘यहाँ क्या कर रहे हो?’ जब हमने जवाब दिया कि तालाब ने बुलाया था, तो ऐसे देखने लगे जैसे हम कोई अजूबा हों। एक बोला - ‘अबे गाँजा पिये है क्या?’ हमने कहा, ‘नहीं भाई, बिलकुल सच, तालाब ने ही बुलाया था।’ वो बिदक गया, ‘तू ज़रूर गाँजा पिये है या फिर कोई गोली-वोली डटाए है। अबे तालाब की ज़ुबान होती है भला! वो भी कभी किसी को बुलाता है! सच-सच बता क्या करने आया है?

भाई मियाँ, हमें लगा कि कुछ नहीं बोलेंगे तो पिटेंगे, बोलने में ही भलाई है। हमने समझाने की कोशिश की। कहा कि 'भाई साहब जैसे गंगा मैया बुलाती है, वैसे ही तालाब भी बुलाता है।’ इस बार दूसरा वर्दीधारी बोला, ‘क्या बकवास करता है? और अगर इसने तुझे बुलाया तो हमें सुनाई क्यों नहीं दिया?’ हमने कहा, ‘बकवास नहीं साहब, एकदम सच। अब देखिए एक आदमी को गंगा मैया ने बुलाया और वह बेचारा गुजरात से भागता बनारस पहुँच गया। कहाँ बनारस, कहाँ गुजरात। सोचिए गंगा मैया को कितनी ताक़त लगानी पड़ी होगी, कितनी जोर से बुलाया होगा? लेकिन उस आदमी के अलावा किसी को सुनाई नहीं दिया। फिर ये तो अपने ही शहर का तालाब है, हमारे घर से ज़्यादा दूर भी नहीं है। इसे तो जोर लगाने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी होगी, धीरे-से ही पुकारा होगा। अब जब गंगा मैया की जोर की आवाज़ किसी को सुनाई नहीं दी तो इसकी धीमी आवाज़ किसी को क्या सुनाई देती।’

दोनों पुलिस वालों की शक्ल से लग गया कि उन्हें हमारी बात का यकीन नहीं हो रहा है सो हमने कहा, ‘भाई साहब! इसमें हैरानी की क्या बात है। जब उस आदमी ने कहा कि उसे गंगा मैया ने बुलाया है तो सारे मुल्क ने यकीन कर किया। हम तो बाकी सब से कह भी नहीं रहे, बस आप दोनों से कह रहे हैं कि तालाब ने बुुलाया था तो आपको यकीन कर लेना चाहिए।’ इस पर पहले वाला फिर बिदक गया। बोला, ‘अब तू सिखाएगा हमें कि क्या करना चाहिए। पता नहीं काहे का नशा किये बैठा है और पिनक में लैक्चर पेल रहा है। स्साले दो झापड़़ पड़ेंगे तो सारा नशा हिरन हो जाएगा। बता क्या नशा किया है?’ हमने उन्हें खूब समझाया कि कोई नशा नहीं किया है, पर वे न माने।

थोड़ी देर बाद दूसरा पुलिस वाला पहले वाले से फुसफुसाकर बोला, ‘अबे चुनाव का टैम है, साला कहीं कोई वारदात-आरदात करने के इरादे से तो नहीं आया? कहीं-कुछ हो-हवा गया तो फोकट में 24 घंटे की ड्यूटी बजानी पड़ेगी।’ फिर हमसे मुखातिब होकर बोला, ‘बोल क्यों आया है यहाँ?’ हमने जबाब दिया, ‘हम खुद नहीं आए’ तो उसने दूसरा सवाल दागा, ‘फिर किसने भेजा है तुझे?’ हमने कहा, ‘हमें यहाँ किसी ने नहीं भेजा।’ वो भड़का, ‘तो फिर यहाँ कर क्या रहा है?’ हमने फिर दोहराया, ‘हमें तो तालाब ने बुलाया था।’

(कल्पतरु एक्सप्रेस, 6 मई 2014)
इस पर तो भाई मियाँ पंगा ही पड़ गया। एक पुलिस वाला दूसरे से बोला, ‘ये ऐसे नहीं मानेगा। ले चलो इसको थाने। रात भर में अकल ठिकाने आ जाएगी। कमबख़्त इतनी रात में तालाब के जीव-जन्तुओं की नींद अलग ख़राब कर रहा है।’ हमने विरोध किया, ‘अरे भाई जब गंगा मैया के बुलाने पर एक आदमी इतनी भीड़ के साथ वहाँ पहुँचा और किसी की नींद ख़राब नहीं हुई तो हम तो यहाँ अकेले आए हैं।’ 

उन्होंने एक न सुनी। सारी रात हमें थाने में रखा भाई मियाँ और सुबह हिदायत देकर छोड़ दिया कि लल्लन मियाँ रोजी-रोटी में खटने वाले आदमी हो, पुलिस और कानून की आवाज़ सुना करो। तालाब-वालाब की आवाज़ के चक्कर में न पड़ो ये सब बड़े लोगों के कारोबार हैं।

शुक्रवार, 2 मई 2014

यह निजता पर हमला है

बात मानसिकता और अधिकारों की है

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प्रेम का स्वीकार एक सहज स्वाभाविक बात है, लेकिन दिग्विजय सिंह की स्वीकारोक्ति के बाद सोशल मीडिया और ख़ासकर फेसबुक पर जिस तरह से उनके प्रेम का चर्चा और उस पर टिप्पणियों का तांता लगा है उसने एक स्वाभाविक-सी बात को अस्वाभाविक बना दिया है. अस्वाभाविक इस अर्थ में कि कुछ लोग इस नितांत निजी मामले को राजनीतिक रूप देने की कोशिश में लगे हैं, कुछ इसके बहाने दिग्विजय सिंह का चरित्र हनन करने में जुट गए हैं और कुछ सामाजिक मर्यादाओं की झंडाबरदारी में उनकी निजता पर हमला कर रहे हैं. इसमें मोदी समर्थकों, कांग्रेस विरोधियों की संख्या तो काफी है ही पत्रकारों की संख्या भी कम नहीं है. जिस भद्दे ढंग से इस मामले में टिप्पणियां की जा रही हैं, तस्वीरें साझा की जा रही हैं उसमे सबसे आपत्तिजनक पहलू यह है कि इसमें एक महिला के सम्मान और उसकी निजता का भी मखौल उड़ाया जा रहा है. जो लोग सम्बंधित महिला के बारे में जानते तक नहीं वे भी उसके बारे में अनर्गल बातें कर रहे हैं. कुल मिलाकर यह सिवाय किसी की निजता में जबरन दखल देने और महिला के अपमान के अलावा और कुछ नहीं है.

अब बात यह कि आखिर दिग्विजय सिंह और उनकी महिला मित्र ने ऐसा क्या अपराध कर दिया है? वे न केवल पूरी ईमानदारी से अपने रिश्ते को स्वीकार कर रहे हैं बल्कि उसे सामाजिक व वैधानिक मान्यता प्रदान करने की ओर भी अग्रसर हैं. वे चाहते तो इसे अपना निजी मामला कहकर चुप रह सकते थे, पर दोनों ने ही ऐसा नहीं किया. क्या इसी से स्पष्ट नहीं होता कि दाल में कहीं भी कुछ भी वैसा काला नहीं है जिसकी सम्भावना अक्सर तलाशी जाती है. न तो प्रेम करना कोई अपराध है, न तलाक़ लेना और न ही विवाह करना. उम्र का हवाला देकर भी आप उनकी ईमानदार स्वीकारोक्ति को किसी कठघरे में नहीं खड़ा कर सकते. फिर आखिर इस तरह किसी की निजता पर हमला करके क्या साबित करने की कोशिश की जा रही है? ऐसा करने वालों की मंशा चाहे जो भी हो पर इससे उनका ही मानसिक दीवालियापन साबित होता है.

किसी का विरोध करने के कई तरीके होते हैं. जो लोग दिग्विजय सिंह से राजनीतिक मतभेद रखते हैं या व्यक्तिगत रूप से उन्हें पसंद नहीं करते और इस बात को उनके खिलाफ़ इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें विरोध की सीमा-रेखा का ध्यान रखने की ज़रूरत है. मैं दिग्विजय सिंह का समर्थक नहीं हूँ, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मैं उनके नि:तांत निजी संबंधों (जिन्हें कि वे क़ानूनी मान्यता देने की भी बात कह रहे हैं) की छीछालेदर करूँ और उस महिला का मखौल उड़ाऊँ जो अपना जीवन एक नए सिरे से शुरू करना चाहती है. इस प्रकार की हरकतें महिलाओं के प्रति आपकी संवेदनशीलता के स्तर को भी दर्शाती हैं. असल में इस तरह की अशोभनीय टिप्पणियां करने वाले लोग वही हैं जिनके घरों की महिलाओं को कोई देख भर ले तो उसका सिर उतारने पर आ जाते हैं लेकिन बाकी सभी महिलाओं को खुद भी मनोरंजन का सामान समझते हैं. चाहे वे किसी के भी समर्थक, विरोधी होने का मुखौटा पहन लें, कितना भी बड़ा पत्रकार होने का तमगा लटका लें, इससे चरित्र नहीं बदल जायेगा. इस मामले में जिस ढंग से चटखारे लेकर बातें की जा रही हैं वह भीतर छुपी लार-टपकाऊ नीयत, महिलाओं के प्रति घटिया सोच और दोगले व्यवहार को दर्शा ही देती हैं. गपशप (गॉसिप) के प्रति दिलचस्पी तो स्वत: ही दिख जाती है.

इन टिप्पणियों का विरोध करने पर कुछ लोगों ने यह सवाल भी खड़ा किया है कि मोदी के विवाहित होने की ख़बर पर और दिग्विजय सिंह के मामले में अलग-अलग रुख क्यों? उनके लिए एक ही जवाब है कि बिलकुल भी अलग-अलग रुख नहीं है, हम तब भी अधिकार की बात कर रहे थे और अब भी कर रहे हैं. हम तब भी एक महिला के अधिकारों की हिमायत कर रहे थे और अब भी कर रहे हैं. फर्क है तो इस बात का कि मोदी ने एक महिला के विवाहोपरांत अधिकारों को नकार दिया, सामाजिक व वैधानिक मान्यता होते हुए भी उसे उसके अधिकारों से वंचित रखा और एक स्त्री के पूरे अस्तित्व को नकारते हुए अपने अविवाहित होने का भ्रम फैलाये रखने में अहम् भूमिका निभाई. जबकि दिग्विजय सिंह उन तमाम अधिकारों को सामाजिक/वैधानिक मान्यता प्रदान करने की बात खुद कर रहे हैं, किसी जवाबदेही से पीछे नहीं हट रहे हैं. अब अगर आप अधिकारों/वैधानिक मान्यता को नकारने और प्रदान किये जाने का फ़र्क ही न समझते हों तो बात अलग है. दूसरी बात यह कि प्रश्न खड़े करने और मखौल उड़ाने में फ़र्क होता है. यदि किसी ने मोदी की निजता का मखौल उड़ाया है तो वह भी निंदनीय है.

यहाँ एक और गंभीर बात यह है कि न केवल दिग्विजय सिंह और उनकी महिला मित्र की निजता का मखौल उड़ाया जा रहा है बल्कि अपरोक्ष रूप से उस तीसरे व्यक्ति को भी हलकान किया जा रहा है जिससे तलाक़ की अर्जी दाखिल-दफ़्तर है. क्या यह शर्मनाक और दु:खद नहीं है कि ऐसी अभद्र टिप्पणियों और ख़बरों के चलते उस व्यक्ति को व्यथित मन से अपनी ज़िन्दगी की नि:तांत निजी बात सार्वजनिक करनी पड़ती है कि तलाक़ की अर्ज़ी में उसकी भी सहमति है और दोनों के बीच पहले ही संबध-विच्छेद हो चुका है. इस मामले में उस इंसान की समझदारी उन तमाम टिप्पणियों और ख़बरों को प्रसारित करने वालों का मुंह बंद करने के लिए काफ़ी है, जो बिना कोई पृष्ठभूमि जाने उस महिला के सन्दर्भ में अनर्गल बातें कर रहे हैं. लेकिन बड़ा मसला यहाँ मुँह बंद करना नहीं कुछ और है.

बात मोदी या सिंह की नहीं है, बीजेपी या कांग्रेस की नहीं है और न ही मुँह बंद करने की है. बात है उस मानसिकता की जिससे आप आज तक उबर नहीं पाए हैं और जिसके चलते आज तक महिलाओं का और किसी की निजता का सम्मान करना नहीं सीख पाए हैं. महिलाओं के प्रति तो इस हद तक असंवेदनशील बने हुए हैं कि आज भी महिलाओं को घर के भीतर रखने की सोच से मुक्त नहीं हो पाए हैं जिसका परिणाम है कि कामकाजी महिलाओं को एक अलग ही नज़रिए से देखा जाता है और यह स्वीकार करने में परेशानी होती है कि कोई स्त्री बिना किसी स्वार्थ के अपने से कहीं अधिक उम्र के पुरुष से प्रेम कर सकती है. यही हाल हमारे दोहरे चरित्र का है. महिलाओं के विरुद्ध किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के बयान पर उँगलियाँ उठाते हैं लेकिन निजी जीवन में रोज़ कितनी बार महिला-विरोधी शब्दों/जुमलों का इस्तेमाल करते हैं इसका ख़याल भी नहीं रखते और न ही यह सोचते हैं कि ऐसा क्यों कर रहे हैं. वजह सिर्फ यही है कि हम उस मानसिकता के साथ ही बड़े हुए हैं जिसमे खुद की ग़लतियाँ भी जायज़ हैं, दूसरा करे तो उसकी खैर नहीं. जब तक इस मानसिकता से नहीं उबरा जायेगा हमारे सभ्य होने के दावे झूठे ही रहेंगे. पढ़-लिख लेने भर से, कोट-टाई पहन लेने से, संस्कृति की ध्वजा भर उठा लेने से ही कोई सभ्य नहीं हो जाता. इसकी सबसे पहली शर्त दूसरों के अधिकारों और जीवन का सम्मान करना है.

02 मई 2014, दैनिक जनवाणी, मेरठ 
बहरहाल, जिन पत्रकार बंधुओं ने इस मामले में अशोभनीय व्यवहार किया है उनसे अतिरिक्त रूप से यही कहा जा सकता है कि पत्रकार होने, हाथ में माइक या कलम पकड़ लेने, सूचनाओं तक आपकी पहुँच होने से आपको ये अधिकार नहीं मिल जाता है कि आप किसी के भी निजी संबंधों की छीछालेदर करें. अपनी सीमा रेखा को पहचानिए वरना करते रहिये देश/दुनिया को बदलने के दावे, कुछ नहीं बदलेगा. फिर कल को अगर आपकी निजता पर कोई हमला हुआ तो कितना भी करते रहिएगा अपनी निजता के अधिकार का हल्ला, जैसे आज आप नहीं समझ रहे कल को कोई आपकी स्थिति नहीं समझेगा.

- रजनीश 'साहिल'