मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

भूख की कीमत

(1)
पोस्टमार्टम रिपोर्ट में
पाया गया अगर
अनाज का एक भी दाना पेट में
तो नहीं दिया जा सकता इसे क़रार
भूख से मौत

भले ही मौत के दिन ही
क्यों न मिला हो भोजन
एक माह बाद।

(2)
अनाज
गोदामों में पड़ा-पड़ा सड़ गया
दे दिया गया
शराब बनाने के लिए
शराब पर दी गई उतनी सब्सिडी
जितने में पहुँचाया जा सकता था
सब तक

अब
पैंतीस किलो की जगह
पच्चीस किलो अनाज से भरेगा
परिवार का पेट

शायद भूख हो गई है
कम
लोगों की
या शायद ज़्यादा
अन्नदाताओं की।

(3)
अब नहीं मिलते
आम, संतरे, चीकू
पपीते, नाशपाती
सेब, तरबूज़
किलो के हिसाब से
और केले दर्जन के
एक-एक नग पर
चिपका हुआ है प्राइज टैग
घोषणा करता हुआ
आज सुनहरा मौका है
लाभ उठाइये और ले जाइये
पंद्रह रुपये में एक आम
या पच्चीस रुपये में एक सेब

कार्बोनेटेड शीतल पेयों का सेवन करते हुए
याद करेंगे कभी आपके बच्चे
पापा लाया करते थे कभी
और स्मृतियों में बचे रह जायेंगे

आम, संतरे, सेब…..

(4)
अगर आपके पास
लाल या पीला
है कार्ड
तो नहीं मर सकते
भूख से आप
यह सुनिश्चितता नहीं
फ़रमान है सरकारी

(5)
शकर हो गई चालीस रुपये
दाल सत्तर की
और चावल
सबसे सस्ता वाला भी पच्चीस रुपये
सबको जगाने वाली
टाटा टी भी
हो गई पचास रुपये की ढाई सौ ग्राम
और गुड़ मिल रहा है थैलियों में बंद
साढ़े बारह का सौ ग्राम
आटा पच्चीस रुपये किलो

दाल-रोटी
और गुड़ की चाय
है ग़रीब का भोजन

क्या सचमुच?

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

ग्रामीण भारत में दलित - भाग तीन (राजनैतिक परिदृश्य व कानून व्यवस्था)


पिछली पोस्टों में दलितों शब्द के सन्दर्भ, उनकी सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक स्थिति पर अपनी बात रखी थी। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए इस बार दलितों की राजनैतिक स्थिति व कानून व्यवस्था के सन्दर्भ में ...

राजनैतिक परिदृश्य

लोकतांत्रिक व्यवस्था में दलितों की राजनैतिक सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण व्यवस्था का उपयोग किया जा रहा है। शिक्षा, शासकीय नौकरियों के अलावा पंचायत से लेकर विधानसभा तक के चुनावों में दलित सीटों का आरक्षण निश्चित ही एक अच्छा संकेत है परंतु चुनाव जीत जाने के बाद भी दलितों को उनके अधिकारों से दूर रखने के तमाम हथकण्डे अपनाए जाते हैं। पंचायत चुनावों में जिन पंचायतों में दलित सरपंच, पंचायत सचिव या ग्राम प्रधान/मुखिया चुने गए हैं वहां यह आलम है कि वे सिर्फ़ नाम के लिए ही हैं, उन्हें प्रभावशाली वर्ग द्वारा ही संचालित किया जाता है। कई स्थानों पर तो बाकायदा चुने जाने के बाद भी दलित अपने अधिकार और पद, जिसके कि वे पात्र हैं, प्राप्त नहीं कर पाते और अविश्वास प्रस्ताव दलितों से उनके अधिकार छीनने का उच्च वर्ग द्वारा निकाला गया सबसे अच्छा रास्ता है। जब कभी भी दलित चुने गए हैं उनके खिलाफ़ हिंसा की घटनाएं सामने आई हैं। पंचायत में मुख्यत: दो तरह से भेदभाव किया जाता है। एक- दलितों को पंचायत की कार्यवाही, विकास कार्यों, योजनाओं से दूर रखा जाता है। दूसरा- जहां कहीं भी आरक्षण के बल पर दलित सत्ता में हैं, वे निशाना बनाए जाते हैं और एक समय के बाद उनका पद अमान्य और रद्द घोषित कर दिया जाता है। पंचायतों में दलित बस्तियों के विकास कार्य भी जाति पहचान का शिकार होते हैं और उन्हें ठीक ढंग से पूरा नहीं किया जाता, न ही इनके योजना निर्माण व क्रियान्वयन प्रक्रिया में दलितों को शामिल किया जाता है।

“बनारस जिले के हरूंआ विकासखण्ड के ग्राम वजीदपुर के निवासी श्री प्रेमनारायण, जो कि चमार समुदाय के सदस्य हैं, सितम्बर 2005 में ग्राम प्रधान चुने गए थे और 8 सितम्बर 2005 को पंचायत समिति का गठन हुआ था। निर्गामी समिति द्वारा श्री नारायण को ग्राम कार्यालय के कार्य रजिस्टर, सम्पत्ति रजिस्टर जो कि गांव के प्रबंधन से संबंधित हैं आदि कई दस्तावेज़ नहीं सौंपे गए। साथ ही दैनिक रजिस्टर संभालने को नकारने के लिए निर्गामी समिति ने चलायमान सम्पत्ति/वस्तुओं को सौंपने से इन्कार करते हुए कार्यालय में ही रखा। यहां तक कि श्री नारायण को उच्च जाति के सदस्यों द्वारा कई दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करने के लिए भी बाध्य किया गया।"

एक ओर जहां चयनित प्रतिनिधियों के साथ इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं वहीं दूसरी ओर दलित समुदाय के मतदाताओं को किसी निश्चित व्यक्ति के पक्ष में मतदान करने के लिए बाध्य किया जाता है, जिसके लिए मत ख़रीदने से लेकर लालच देने और धमकाने तक कई तरह के हथकण्डे अपनाए जाते हैं। दलित मतदाताओं को अपने मताधिकार का उपयोग करने से रोकना एक और तरीका है, जिनके नाम पर किसी विशेष व्यक्ति के पक्ष में फर्जी मतदान किया जाता है।

यह स्पष्ट करता है कि ग्रामीण स्तर पर विकास कार्य और योजना निर्माण में दलित समुदाय की सहभागिता को किस प्रकार प्रभावित किया जाता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का गौरव-गान करने वाली राजनैतिक व्यवस्था में किस तरह समाज में हाशिए पर रह रहे समुदाय के राजनैतिक अधिकारों का हनन किया जाता है।

दलित और कानून व्यवस्था

दलितों के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 और नियम 1995 जैसे कानून होने के बावजूद दलितों के विरुद्ध अत्याचार की स्थितियों में कोई सार्थक परिवर्तन नज़र नहीं आता। देश के विभिन्न राज्यों में दलित अत्याचार के आंकड़ों में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। यदि एन.सी.आर.बी. के आंकड़े ही देखे जाएं तो उत्तरप्रदेश में, जहां कि सर्वाधिक दलित जनसंख्या है, वर्ष 2005 में दर्ज 4403 घटनाओं के मुकाबले वर्ष 2007 में 6148 घटनाएं दर्ज हुई । इसी प्रकार आंध्रप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड व तमिलनाडु में क्रमश: 3632, 1906, 951, 760, 139 के मुकाबले 4136, 2851, 1126, 806, 1760 घटनाएं दर्ज हुईं।

इसके अतिरिक्त यह भी एक तथ्य है कि कई घटनाएं ऐसी होती हैं जो दर्ज ही नहीं होतीं। ग्रामीण स्तर पर दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार, मारपीट, अभद्र व्यवहार की ऐसी कई घटनाएं होती हैं जिनके ख़िलाफ़ पुलिस में कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं कराई जाती। ग्रामीण स्तर पर ही दबंग व्यक्तियों द्वारा मामले को दबा दिया जाता है।

एससी/एसटी एक्ट होने के बावजूद दलितों को न्याय नहीं मिल पाता है। इसमें पुलिस प्रशासन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। दलित विरोधी मानसिकता, स्थानीय पुलिस प्रशासन पर प्रभावशाली जातियों के प्रभाव और राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण या तो पुलिस प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) ही दर्ज नहीं करती या फिर प्राथमिकी में उचित धाराओं का प्रयोग नहीं किया जाता। इसके अतिरिक्त केस वापस लेने और समझौता करने के लिए भी पुलिस द्वारा दबाव बनाया जाना व पुलिस थानों में दलितों के साथ किया जाने वाला अभद्रतापूर्ण व्यवहार भी दलितों को न्याय की पहुंच से दूर रखता है।

एक ओर जहां अधिनियम के अनुसार जांच अधिकारियों की अपर्याप्तता है वहीं दूसरी ओर अधिवक्ताओं  में भी कानून के बारे में पूरी जानकारी न होना और प्रावधान के अनुसार विशिष्ट न्यायालयों का अभाव भी अधिनियम के अनुरूप दलितों को न्याय दिलाने में बाधक है। ऐसे भी उदाहरण मौजूद हैं जहां पुलिस की जानकारी में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं अंजाम दी गई हैं।

दरअसल दलितों के शोषण की सामंतवादी प्रवृत्ति आज भी अपने चरम पर है। उन्हें अपने से नीचा और अपने पर आश्रित मानने वाली विचारधारा के कारण कानून व्यवस्था में दलितों के लिए संवेदनहीनता बढ़ी है। सख्त कानूनी धाराएं होने के बावजूद स्थानीय प्रभावशाली व्यक्तियों व तथाकथित उच्च वर्ग का पोषण करने वाली राजनीति के प्रभाव के चलते यह धाराएं सिर्फ़ कानून की किताबों में ही बंद हैं। इसके अतिरिक्त अधिकांश राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में दलितों के विरुद्ध अपराधों की बढ़ती हुई घटनाओं के ग्राफ को प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति ने भी प्रकरण दर्ज होने को प्रभावित किया है, क्योंकि यह ग्राफ पुलिस प्रशासन और कानून व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।

(मई २००९, पैरवी संवाद में प्रकाशित लेख का अंश)

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

ग्रामीण भारत में दलित - भाग दो (आर्थिक व सांस्कृतिक परिदृश्य)



पिछली पोस्ट में दलितों की सामाजिक स्थिति पर अपनी बात रखी थी। ग्रामीण भारत में दलितों की स्थिति के संदर्भ में अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए इस पोस्ट में आर्थिक सुदृढ़ता के पहलू पर अपनी बात रखने का प्रयास किया है----


आर्थिक परिदृश्य

गौरवपूर्ण जीवन जीने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति एक अहम बिंदु है, जिसके लिए आर्थिक सक्षमता आवश्यक है। ग्रामीण क्षेत्रों में दलित आज भी या तो अपने पारंपरिक व्यवसाय में संलग्न हैं या फिर मज़दूरी पर आश्रित हैं। वे सभी कार्य जिनको करने में हर व्यक्ति को घिन हो, इस समुदाय की आजीविका हैं – जैसे कि मैला साफ करना, मृत जानवरों को फेंकना, चमड़ी उतारना आदि। इसके अलावा उच्च जाति के घरों में तमाम तरह की बेगारी करना भी इस समुदाय के लिए विवशता है क्योंकि इनके पास आजीविका के अन्य स्थाई साधन उपलब्ध् नहीं हैं। खेतों में काम करने के एवज़ में भी उन्हें जितनी मज़दूरी मिलती है वह किसी भी मायने में पर्याप्त या उचित नहीं कही जा सकती। मध्यप्रदेश के कई अंचलों में भूमिस्वामियों के खेतों में फसल काटने की मज़दूरी पचासी या बीसौरी के रूप में दी जाती है (यह फसल की किस्म पर निर्भर करता है) यानि कि जब भूमिस्वामी के लिए पचास या बीस गट्ठे फसल के काट लिए जाते हैं तब मज़दूर अपने लिए एक गट्ठा फसल का पाता है। अब जबकि कुछ स्थितियां बदली हैं तो प्रतिदिन 40 से 50 रुपये मज़दूरी का भी समावेश हुआ है। परंतु फसल बोने, खेतों में पानी देने, कटाई जैसे कार्य होने के बावजूद कृषि कार्य निरंतर वर्ष भर नहीं चलता और मज़दूर उच्च वर्ग के सदस्यों के लिए अन्य कार्य करने को विवश होता है जिसके एवज़ में उसे कई क्षेत्रों में अभी भी सिर्फ़ भोजन प्राप्त होता है, यदा-कदा आवश्यकता पड़ने पर थोड़ी आर्थिक मदद।

वर्तमान समय में जबकि सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम जैसा कानून क्रियान्वित है जिसके ज़िरये यह वर्ग अपनी आर्थिक स्थिति में थोड़ा सुधार कर सकता है, तो उसमें भी इस वर्ग का शोषण स्पष्ट नज़र आता है। ज़ाहिर है कि अकुशल शारीरिक श्रम करने वालों में इस वर्ग की संख्या काफी है और अधिकांश सदस्य अशिक्षित हैं। परिणामस्वरूप मस्टर रोल में काम के दिनों की गलत प्रविष्टियों, निर्धारित से कम मज़दूरी के भुगतान और यदि लाभुक भी दलित है तो उससे तमाम कागज़ी कार्यवाहियों के लिए रिश्वत की मांग के कई उदाहरण सामने हैं।

भूमिहीनों को शासकीय भूमि के आबंटन में भी धांधली की बात आम सुनाई देती है। कई स्थानों पर दलितों को आबंटित की जाने वाली भूमि सवर्णों के नाम कर दी गई। दलितों को आबंटित की गई भूमि पर नाम तो दलित का है परंतु कब्जा किसी और का। ऐसे में वह अपनी ही भूमि का उपयोग नहीं कर पा रहा है। ऐसे भी उदाहरण हैं जहां दलित भूमिहीनों को बंजर या अनुपजाऊ भूमि आबंटित की गई। इसी से स्पष्ट होता है कि जिस वर्ग के पास अपनी कृषि भूमि नहीं है, स्थाई रोज़गार नहीं है, आर्थिक सुदृढ़ता के अवसरों में जिसका शोषण किया जा रहा है, जो जीविकोपार्जन के लिए मज़दूरी, उच्च वर्ग की बेगारी और घृणित कार्यों पर आश्रित है वह किस हद तक आर्थिक सुदृढ़ हो सकता है और बेहतर जीवन की कल्पना कर सकता है।


सांस्कृतिक परिदृश्य

हमारे देश में विभिन्न संस्कृतियों के मिलाप और एकीकरण की बात बड़े ही गर्व से कही जाती है और इस बात से सभी सहमत हैं कि हर वर्ग की, क्षेत्र की अपनी अलग व अनूठी संस्कृति है। किसी क्षेत्र की संस्कृति को निर्मित करने में वहां के प्रत्येक वर्ग की परंपराएं और मान्यताएं प्रमुख कारक होती हैं। हमारे संविधान में भी प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म, संस्कृति के पालन की स्वतंत्रता दी गई है परंतु वास्तविकता में दलितों को अपनी परंपराओं, संस्कृति के पालन की उतनी स्वतंत्रता नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार के सुदूर ग्रामीण अंचलों में दलित परिवारों में धूम-धाम से विवाह करना, धार्मिक आयोजनों में अन्य समुदायों की तरह सक्रिय भागीदारी करना ख़तरे से खाली नहीं है। अभी भी देश के अंदरूनी ग्रामीण अंचलों में यहां तक स्थिति है कि इस समुदाय के सदस्य आधुनिक वस्त्र नहीं पहन सकते, उच्च वर्ग के लोगों के सामने साइकिल पर नहीं चल सकते, धूप का चश्मा नहीं लगा सकते।

धार्मिक मान्यताओं के मामले में भी इस वर्ग की अपनी स्वतंत्रता नहीं है। वर्षों से सामाजिक , आर्थिक और वैचारिक गुलामी सहते और सुविधाओं से दूर रहते इस वर्ग ने जब अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर ईसाई धर्म को अपनाना शुरू किया तो जो विवाद उत्पन्न हुआ उससे सभी वाकिफ़ हैं (जबकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को मानने का अधिकार है)। और उसके बाद घर वापसी के नाम पर चलाई गई मुहिम जिसमें कहा गया कि यह वर्ग हिन्दू समाज का एक अभिन्न हिस्सा है (जिन आदिवासियों को पहले भारत का मूल निवासी ही नहीं माना जा रहा था, वे भी इस मुहिम में हिन्दू समाज का अभिन्न हिस्सा कहे गए), यह स्पष्ट करती है कि इस वर्ग की अपनी संस्कृति स्वीकार्य नहीं है, वह किसी धर्म के शरणागत ही होगी। हालांकि दलितों को अपना अभिन्न हिस्सा कहने वाले, अपने भाई का दर्जा देने वाले कथाकथित धर्मावलम्बियों ने यह स्पष्ट नहीं किया कि घर वापसी के बाद इस समुदाय के सदस्यों का दर्जा क्या होगा। उन्हें भी अन्य समुदायों के सदस्यों के समान बराबरी का अधिकार प्राप्त होगा या फिर से दलित ही रहेंगे? जिस जाति के सदस्य होने के कारण वे आज तक प्रताड़ित और बहिष्कृत होते रहें हैं, क्या फिर से वही जाति उनकी पहचान होगी और सामाजिक स्थितियों को सुनिश्चित करेगी?

(मई २००९, पैरवी संवाद में प्रकाशित लेख का अंश)
(दलितों के स्थिति के सन्दर्भ में राजनैतिक व कानून व्यवस्था सम्बन्धी पहलुओं पर आगामी पोस्ट में...)

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

ग्रामीण भारत में दलित - भाग एक (सामाजिक परिदृश्य)


सूत्र वाक्य के रूप में यह अक्सर सुनाई देता है कि दलितों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक अधिकारों का हनन किया जा रहा है। यह स्पष्ट है कि मानवाधिकारों को जिन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है उसमें यह स्पष्ट वर्गीकरण है। यहां सारे मानवाधिकारों के केन्द्र में गौरवपूर्ण जीवन के अधिकार (Right to Dignity) को मानते हुए वर्तमान परिदृश्य के संदर्भ में अपनी बात रखने का प्रयास किया है।

सामाजिक परिदृश्य – दैनिक जीवन के संदर्भ में

सामाजिक रूप से दलित समुदाय की क्या स्थिति है, यह स्पष्ट करने के लिए किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। देश की आबादी का 73 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण है और देश में दलित समुदाय की जनसंख्या 250 मिलियन है। स्पष्ट है कि ग्रामीण परिस्थितियां हमारे देश की सामाजिक स्थिति का प्रतिनिधित्व करती हैं। गांवों में दलित समुदाय को कितने सामाजिक अधिकार प्राप्त हैं, इसे दैनिक जीवन की सामान्य दिनचर्या से समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के अधिकांश गांवों में दलित परिवारों के घरों में पीने और दैनिक उपयोग के लिए पानी सहज उपलब्ध नहीं है क्योंकि सार्वजनिक जलस्रोतों का उपयोग करने का भी उन्हें अधिकार नहीं है। आज भी मंदिरों के सामने से निकलने के लिए उन्हें अपने पैरों से चप्पल निकालनी होती है। यह स्थिति सिर्फ़ उत्तर प्रदेश की नहीं है, कमोबेश भारत के सभी ग्रामीण क्षेत्रों की है।

ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित है, सामुहिक भोज के अवसरों पर वे अन्य जातियों के साथ नहीं बैठ सकते, यहां तक कि कई क्षेत्रों में तो उन्हें अपने घर से बर्तन लाने होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में (कई शहरी/कस्बाई क्षेत्रों में भी) मैला साफ करना इस समुदाय की एक जाति के लिए एक मात्र कार्य है जिसके एवज़ में उसे कोई नकद पारिश्रमिक प्राप्त नहीं है बल्कि प्रत्येक घर से रोटियां या थोड़ा सा अनाज मिलता है। शासकीय विद्यालयों में इस समुदाय के बच्चे उच्च जाति के बच्चों से अलग बैठने के लिए विवश किये जाते हैं। मध्यान्ह भोजन पकाने वाली महिला यदि दलित समुदाय की है तो उच्च जाति के बच्चों और उनके अभिवावकों द्वारा उसका बहिष्कार किया जाता है। वस्तुओं  के आदान-प्रदान में पूरी सावधानी बरती जाती है कि कहीं शरीर छू न जाए। और यह सिर्फ़ ग्रामीण अंचलों में ही नहीं बल्कि महानगरीय परिवेश में भी उतनी ही तीवृता से मौजूद है। इस समुदाय के सदस्यों के लिए अभद्रतापूर्ण भाषा का उपयोग करना ग्रामीण क्षेत्रों में एक आम बात है जो कि इस हद तक व्यवहार में है कि दलितों के लिए यह मान्य भाषा बन चुकी है। बुन्देलखण्ड (मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा) के ग्रामीण अंचल में इस समुदाय के सदस्यों का सीताराम से सितउआ, लल्लीराम से ललुआ और रतनीदेवी से रतनिया हो जाने से लेकर थोड़े से क्रोध में ही सिर्फ़ जातिसूचक गाली से संबोधित किया जाना एक आम घटना है।

इसके अलावा मूलभूत सुविधाओं तक पहुंच के मामले में भी इस समुदाय के सदस्यों को जानबूझकर दूर रखने का प्रयास किया जाता है। पी.डी.एस., अन्नपूर्णा, अन्त्योदय जैसी योजनाएं जो कि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के दृष्टिकोण से बड़ी सफलता के रूप में परोसी गईं, इस समुदाय की खाद्य सुरक्षा को किस हद तक सुरक्षित कर पाईं और इसके पीछे क्या वजहें हैं? छत्तीसगढ़ में एक ओर जहां पीडीएस के अंतर्गत 50 पैसे प्रति किलो की दर पर नमक उपलब्ध कराने की सफलता है वहीं दूसरी ओर ऐसे अनगिनत दलित परिवार हैं जिनके पास राशनकार्ड ही नहीं है। जिनके पास कार्ड है उनको खाद्यान्न उपलब्ध नहीं हो पाता और कई परिवारों का कार्ड वितरण केन्द्र के संचालक के पास है जिस पर फ़र्जी प्रविष्टियां हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में इस समुदाय के सदस्यों को निर्धारित से अधिक कीमत पर खाद्यान्न प्रदान किया जाता है और कई बार यह कहकर टाल दिया जाता है कि खाद्यान्न समाप्त हो चुका है (जिसे कि खुले बाज़ार में बेच दिया जाता है)। इन योजनाओं की कमोबेश सभी स्थानों पर यही स्थिति है।

(मई २००९, पैरवी संवाद में प्रकाशित लेख का अंश)
(दलितों के स्थिति के सन्दर्भ में आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक पहलुओं पर आगामी पोस्ट में...)

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

दलित शब्द के मायने

         वर्तमान में जबकि दलित शब्द सिर्फ एक समुदाय विशेष का पर्याय बन चुका है तब इस शब्द के सही मायनों में जाना भी बेहद ज़रूरी हो गया है। एक शब्द जब किसी समुदाय की पहचान बन जाए तो इस पर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि आख़िर क्यों वह शब्द एक पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है।
        दलित शब्द की उत्पत्ति में अगर हम जाएं तो यह शब्द संस्कृत के "दल" से बना है, जिसका अर्थ है - अन्य हिस्से से टूटा हुआ, तंगहाल, जिसके साथ ठीक व्यवहार न किया जाता हो, दबा या कुचला हुआ। आर्य समाज द्वारा शुरू किये गए कार्यक्रम "दलितोद्धार" के बाद यह शब्द किसी समुदाय विशेष के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ। दबे हुए या कुचले हुए के संदर्भ में ही एक समुदाय विशेष के लिए 1930 में यह शब्द हिन्दी और मराठी में उपयोग किया गया। 1930 में  पूना से प्रकाशित समाचार-पत्र "दलित-बंधु" में इस शब्द का प्रयोग किया गया  और संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर ने अपने उद्बोधनों में एक समुदाय विशेष के लिए इस शब्द का प्रयोग किया।
          शूद्र,  अंत्याज, अवर्ण, अछूत और महात्मा गांधी द्वारा प्रचलित "हरिजन" अर्थात् ईश्वर के जन (अछूत माने जाने वाले लोगों के साथ भेदभाव समाप्त करने की दृष्टि से महात्मा गांधी ने इस शब्द का उपयोग किया था) जैसे संबोधनों की परिधि में विभिन्न जातियों का यह समुदाय आज अपने लिए "दलित" शब्द को अपना चुका है। शाब्दिक अर्थ के संदर्भ में इस समुदाय द्वारा दलित शब्द को अपनाना उसकी सामाजकि परिस्थितियों को तो दर्शाता ही है साथ ही मनोवैज्ञानिक दशाओं को भी स्पष्ट करता है।
         समुदाय विशेष के लिए "दलित" शब्द का प्रयोग किया जाना और उस समुदाय द्वारा सम्बोधन के रूप में इस शब्द को स्वीकारना, दोनों ही प्रक्रियाएं एक नज़र में समान दिखाई देती हैं परन्तु मूलबोध में दृष्टिकोण का फ़र्क है। किसी हद तक यह फ़र्क दया और रोष का भी है। मानव स्वभाव में किसी को दबा या कुचला हुआ मान लेने पर स्वयं की श्रेष्ठता का मिथ्याभिमान और उसके प्रति दया प्रस्फुटित होना एक साधारण सी बात है क्योंकि यह हमारे अहं तो तुष्टि प्रदान करती है, परंतु स्वयं को दबा या कुचला हुआ मान लेना एक साधारण बात नहीं है क्योंकि यह सबसे कमज़ोर होने, अश्रेष्ठ होने, अक्षम होने, वंचित होने की तमाम कुंठाएं उत्पन्न करता है। यह कुंठाएं सम्मिलित होकर उस रोष को जन्म देती हैं जो व्यक्तिगत से बढ़ते हुए समुदाय का सामुहकि आक्रोश हो जाता है। आज तमाम संगठनों द्वारा दलित अधिकारों के लिए किये जा रह आंदोलन के मूल में यही आक्रोश और इस आक्रोशजनित प्रश्नों के जवाब की तलाश शामिल है।
        "दलित" के शाब्दिक अर्थ के अनुसार हर वह व्यक्ति जो आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक रूप से दबा हुआ है अर्थात् जिसका दैनिक जीवन भी किसी अन्य की इच्छा से नियंत्रित है, दलित है। वह किसी भी  धर्म या जाति का हो सकता है। किन्तु आज यह शब्द एक समुदाय विशेष का पर्याय बन गया है। दरअसल वर्षों पहले निर्मित वर्ण व्यवस्था और मनुवादी नियमावली ने इस एक मात्र वर्ग के लिए कोई अधिकार सुरक्षित नहीं किया, यह वर्ग मात्र सेवा कार्य के लिए था, इसके लिए सिर्फ़ कर्तव्य सुनिश्चित किये गए थे। इस वर्ग का जीवन अन्य उच्च वर्गों की इच्छा पर निर्भर था और दैनिक जीवन के कार्यकलाप भी। हज़ारों वर्षों से व्यवहार में शामिल यह नियमावली और मनुवादी मानसिकता आज भी नहीं बदली है। अब जबकि संविधान ने सबको बराबरी का अधिकार दे दिया है, इस वर्ग को भी अन्य वर्गों के समान अधिकार और सुविधाओं तक पहुँच के अवसर प्रदान किये हैं तब भी इसके सदस्यों को अधिकारों से वंचित रखने के लिए प्रारंभ में उसी नियमावली का प्रयोग किया जाता है और फिर हिंसा, प्रताड़ना के नए-नए आधार व तरीके इस्तेमाल में लाए जाते हैं। आज भी कितने गाँवों में इस वर्ग के सदस्य मंदिरों में प्रवेश कर सकते हैं, सार्वजनिक जलस्रोतों का उपयोग कर सकते हैं, उच्च वर्ग के घरों में बराबरी से बैठ सकते हैं, कितने शासकीय विद्यालयों में अन्य बच्चों के साथ इस वर्ग के बच्चे बैठ सकते हैं? ऐसे ही कुछ आसान सवालों के जवाब पर ग़ौर करने से ही स्पष्ट हो जाता है कि आज भी तथाकथित उच्च वर्ग इस वर्ग के अधिकारों का दमन कर रहा है।
       धर्म, जाति को आधार बनाकर रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य व कई अन्य सुविधाओं से वंचित रखने के लिए हज़ारों सालों से व्यवहार में लाई जा रही साजिशों - जो कि निरंतर व्यवहार में रहने के कारण परंपरा में बदल चुकी हैं - ने इस समुदाय के अधिकांश हिस्से को नियतिवादी बना दिया है। यही उन तमाम साजिशों का मक़सद भी है, क्योंकि अत्याचार, अपमान को अपनी नियति मान लेना विरोध में उठ सकने वाले हर क़दम को पहले ही बेड़ियों में जकड़ देता है।
       इन साजिशों और मनुवादी मानसिकता के चलते यह वह वर्ग है जिससे सदैव उसके अधिकार छीने गए हैं, सुनियोजित ढंग से जिसका दमन किया गया है। अपनी श्रेष्ठता के दंभ में डूबे उच्च वर्ग द्वारा जिसे बद से बद्तर स्थिति में और अपने नियंत्रण में बनाए रखने के लिए निरंतर प्रताड़ित किया जाता है। अब चाहे इसे "दलित - यानि दबा हुआ" संबोधित किया जाए या फिर "दमित - यानि दबाया गया।"
(मई २००९ में अपनी सांगठनिक पत्रिका "पैरवी संवाद" के लिए लिखे गए आलेख का अंश)

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

अभिव्यक्ति और शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया...

(मुक्तिबोध की डायरी पढते हुए विचारो के लेखन प्रक्रिया से गुज़रने को लेकर जो विचार मन मे आए.)



          निश्चय ही जीवनानुभूतियां/भावनाएं, लिखने या शब्दबद्ध होकर प्रस्तुत होने से पृथक होती हैं। जीवनानुभूतियों से उत्पन्न पीड़ा, आनंद और उनके उद्वेग से उत्पन्न भावनाएं स्वयमेव ही एक काव्य हैं, जिन्हें पूर्णत: समझ पाना स्वयं के लिए ही संभव होता है। (कई बार नहीं भी होता क्योंकि मन विचारात्मक दुविधाओ से दो-चार होता है।) परंतु इन समस्त अनुभूतियों को शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया में बहुत ही मंद गति से और स्वयमेव ही अन्य अनुभूतियो, विंबों, व्याख्यात्मक शब्दों के समाहित होने से अनुभूतियां निरंतर परिष्कृत होती हैं। अनुभूतियों से उत्पन्न हुई कलात्मक/सौंदर्यात्मक बिंब दृष्टि नवीन चित्रों, शब्दों, अभिव्यक्ति की भाषा के समावेश होते ही शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया में परिष्कृत होती है और शब्दबद्ध होने के उपरान्त उत्पन्न सौन्दर्यबोध, प्रारंभकि सौन्दर्यबोध से पृथक होता है।

          अक्सर जिस बिंब दृष्टि, जिस अनुभूति को हम शब्दबद्ध करके प्रदर्शित करने के अभिलाषी होते हैं, शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया में निरंतर वह अपने मूल रूप से कहीं न कहीं भिन्न होती जाती है। परिणामत: अंत तक पहुंचते-पहुंचते यह आभास होता है कि जिस बिंब को हम प्रदर्शित करना चाहते थे उसमें हम पूर्णत: सफल नहीं हो सके। बहुत कुछ ऐसा छूट गया है जो व्यक्त किया जाना था और बहुत कुछ ऐसा व्यक्त हो गया है जिसे प्रारंभ में सोचा नहीं गया था किन्तु रचना प्रक्रिया में स्वत: ही जुड़ गया है।

          निश्चय ही शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया भी अत्यंत जटिल होती है। जीवनानुभूतियां या उनसे उत्पन्न भावबोध जितना मानसिक/भावनात्मक रूप से स्पर्श करता है उस स्पर्श को, उस उद्वेलन को शब्दबद्ध करने में शब्द और भाषा का चयन एक जटिल समस्या है। विचारात्मक या भावनात्मक उद्वेलन जिस गंभीरता, गहनता से अनुभूत होता है उसे व्यक्त करने के लिये प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द या शब्द-समूह वैसी ही गहनता से उसे पाठक के मन में भी अनुभूत करा सके यह सदैव संदेहास्पद है। कई बार लेखक को स्वयं भी वे शब्द-समूह नाकाफ़ी प्रतीत होते हैं। परिणामत: लेखक निरंतर अपनी शैली और भाषा को परिष्कृत करने को प्रयासरत होता है। वह अपनी स्वयं की एक ऐसी भाषा तैयार करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील होता है जो उसकी अनुभूतियों को बिल्कुल वैसा प्रदर्शित कर सके जैसा वह करना चाहता है।

          शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया में उपस्थित यह जटिलता ही अनुभूतियों के परिष्कृत होने और मूल रूप से भिन्न हो जाने में संभवत: महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। साथ ही अनायास ही और कई बार व्याख्या या सरल करने की दृष्टि से समाहित हो जाने वाले अनुभूति-चित्र भी अपना सहयोग देते ही हैं। निश्चय ही अभिव्यक्ति की संपूर्ण प्रक्रिया में शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया सर्वाधिक जटिल है।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

सवाल : विवाह संस्था, लिवइन रिलेशन या स्वतंत्रता

पिछले दिनों लिवइन रिलेशन पर ब्लाग जगत हो रही बहस पर काफी कुछ पढ़ा। एक जगह पर आकर यह बहस विवाह संस्था के औचित्य व स्त्री मुक्ति पर आकर केन्द्रित हो गई। कई लोगों का मानना है कि विवाह संस्था स्त्रियों की दासता, उनके शोषण का एक बहुत बड़ा कारण है, विवाह संस्था को नकारना स्त्री मुक्ति में एक बड़ा कदम हो सकता है। बहरहाल साथी अजय झा जी का कहना है कि अभी सिर्फ एक पक्ष को देखकर ही बात की जा रही है. लिव इन रिलेशनशिप :एक अलग दृष्टिकोण (भाग दो )  

बहुत ठीक कहा... अभी कुछ ही पक्षों को देखकर तमाम अटकलें और विचार आए हैं. बहुत बारीकी से विश्लेषण की ज़रूरत है। बहरहाल मुझे ऐसा लगता है कि विवाह संस्था का न होना स्त्री मुक्ति का परिचायक तो नहीं हो सकता। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि विवाह सिर्फ दैहिक संबंध मात्र नहीं है, वह संवेदनात्मक और भावनात्मक भी है। और क्या यही संवेदनात्मक/भावनात्मक संबंध लिवइन रिलेशनशिप में नहीं है।


दरअसल सवाल स्वतंत्रता और फ्री स्पेस का है। एक बात अक्सर उठाई जाती है कि विवाह के बाद पुरुष की इच्छाएं, विचार महिला की इक्षाओं, विचारों पर भारी पड़ते हैं, दूसरे शब्दों में महिला को पुरुष के अनुसार बदलना होता है। परंतु मेरा मानना है कि एक समय बाद दोनों ही के बीच एक साझा सोच/समझ विकसित हो जाती है। और यही सब लिवइन रिलेशन में भी है। उदाहरण मौजूद हैं, बस नज़र डालने की ज़रूरत है।

दरअसल स्त्री को संपत्ति के रूप में स्वीकार करने की ऐतिहासिक घटना ने पुरुष की मानसिकता को इतना संकुचित कर दिया है कि वह आज भी स्त्री को सहगामिनी कम उपभोग्य व मालिकाना हक की वस्तु  अधिक समझता है (भले ही स्वीकार कोई नहीं करता), इसी वजह से स्त्री पर तमाम बंदिशें लगाई जाती हैं, उसका शोषण किया जाता है, और यह विवाह के बाद ही नहीं विवाहपूर्व भी होता है। कोई लड़की विवाहपूर्व जब अपने पिता के घर में होती है क्या तब उसे पूर्णत: स्वतंत्र माना जा सकता है?

मसला इस मानसिकता का है, जब तक यह मानसिकता मौजूद है तब तक स्त्रियों के शोषण की संभावना मौजूद है (कम से कम मानिसक शोषण की तो है ही) क्योंकि तब तक उनकी स्वतंत्रता, ज़रूरी फ्री स्पेस की उपलब्धता संदेह के दायरे में है फिर चाहे वह विवाह संस्था हो चाहे लिवइन रिलेशनशिप।

स्त्री मुक्ति को लेकर विवाह संस्था को नकारने का जो तर्क है उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण शायद इस मानसिकता को बदलने और स्त्री को वांछित स्वतंत्रता, फ्री स्पेस उपलब्ध कराने का सवाल है। विवाह संस्था स्त्री मुक्ति के दायरे में आने वाला एक घटक हो सकता है पर स्त्री की स्वतंत्रता का आधार नहीं। महिलाओं की स्वतंत्रता का मुद्दा इससे कहीं अधिक व्यापक है।