मंगलवार, 15 नवंबर 2011

सवाल खड़े करती शहादत


सूचना के अधिकार ने एक विश्वास पैदा किया था। यह विश्वास था अनियमितताओं में कमी आने का। क्योंकि जानकारी देने के लिए कोई जवाबदेह था, जानकारी पाना आसान था और इस बहाने किसी की चोरी पकड़ना भी आसान हो गया था। इसके साथ ही इस बात को बल मिला कि सरकारी योजनाओं में जो पैसा खर्च होता है, वह जनता का पैसा है और जनता को पूरा हक है कि वह उस पैसे का हिसाब-किताब खर्च करने वालों से मांगे। बेशक यह सब हुआ और हो रहा है, पर रास्ता कठिन से दुर्गम होता जा रहा है। शायद ही किसी ने यह कल्पना की होगी कि अपने ही पैसे का हिसाब-किताब मांगना, अपनी ही मिल्कियत को बचाना और सच का दामन पकड़ कर झूठ का नकाब खींचना इतना मंहगा भी पड़ सकता है कि जान से हाथ धोना पड़ जाएगा। सूचना का अधिकार निश्चित ही जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह बनाने के लिए एक सशक्त औजार है, जिसका इस्तेमाल जनता के हाथ में है। सरकार इस औजार को उपयोग करने की नसीहतें भी भरपूर देती है, और उपयोग होता भी है। इसकी सफलता के उदाहरण भी छोटे से लेकर बड़े स्तर तक काफी मौजूद हैं। पर यह एक विडंबना ही है कि इन सफलताओं को प्राप्त करने में हमारे कितने निर्भीक साथी हमसे बिछुड़ गए हैं।
हाल ही में अहमदाबाद में हुई आरटीआई एक्टिविस्ट नदीम सैयद की हत्या से लेकर शेहला मसूद, नियाम अंसारी, इरफान यूसुफ काजी, बाबू सिंह, अमित जेठवा, सतीश शेट्टी, दत्तात्रेय पाटिल, विट्ठल गीते और न जाने कितने ही नाम हैं, जो महज इसलिए मौत के घाट उतार दिए गए कि वे जानना चाहते थे, जान चुके थे और उन लोगों के चेहरे पर चढ़ा भलमनसाहत का नकाब खींच रहे थे, जो सुरक्षा, विकास, बेहतरी और सेवा के नाम पर किसी दीमक की तरह काम रहे हैं। नदीम की निर्मम हत्या ने फिर से उन तमाम साथियों की याद ताजा कर दी है, जिन्होंने इस अधिकार के प्रयोग से अनियमितताओं को उजागर करने का प्रयास किया और बदले में अपना जीवन दांव पर लगा दिया। आखिर नदीम की गलती क्या थी? सिर्फ इतनी कि उन्होंने सरकार के ही एक घोषित टूल का उपयोग कर अवैध पशुवधशाला के मामले का पर्दाफाश किया, या यह कि वे पाटिया दंगा कांड के गवाह थे। क्या सतीश शेट्टी की गलती यह थी कि उन्होंने भू-माफिया को बेनकाब करने की कोशिश की, यानि सरकार के काम में अपना सहयोग दिया। यह कहा जा सकता है कि इन्होंने बड़े और ताकतवर लोगों से पंगा लिया, लेकिन बाबू सिंह और सोला रंगाराव ने तो महज अपने गांव में लड़ाई लड़ी। एक ने सरकारी फंड में प्रधान द्वारा की गई धांधली की जांच की मांग की, तो दूसरे ने नाली व्यवस्था का मुद्दा उठाया।
पूरे देश में हाल ही के वर्षों में ललित मेहता, सोमय गगरई, नारायण हरेका, विश्राम लक्ष्मण डोडिया, रामदास धावेडकर, अरुण सावंत और लांग्टुक फांको जैसे छोटे-बड़े सामाजिक कार्यकताओं, जिन्होंने सूचना के अधिकार को अपना हथियार बनाया, को मौत के घाट उतार दिया गया है।  विचारणीय बिंदु यह भी है कि जिस मसले पर काम को आगे बढ़ाते हुए ये मौत के अंजाम तक पहुंचे, वह फिर भी सरकार या स्थानीय प्रशासन की प्राथमिकता नहीं बन सका। यह बड़ा ही खेदपूर्ण है कि व्यवस्था की बेहतरी के लिए जिन्होंने अपनी जान से हाथ धोया, उन्हें केवल श्रेष्ठ कार्यकर्ता कहकर व्यवस्था-निर्माता अपनी जवाबदेही से मुक्त हो जाते हैं, बजाय इसके कि उन्होंने जो प्रश्न खड़े किए, हालात सामने लाए उन पर जिम्मेदारीपूर्ण ढंग से कार्यवाही करें। यह सच की ताकत की उपेक्षा नहीं तो और क्या है?
बेहतरी के लिए लड़ रहे इन सिपाहियों की मौत की जांच भी कई सवाल खड़े करती है। इनमें से कई हत्याओं की जांच सीबीआई तक को सौंपी गई है, लेकिन कुछ मामलों में तो यह भी पता नहीं चल सका है कि जांच कहां तक पहुंची। हमारे देश की काबिल जांच एजेंसी जब अपराधियों के गिरेबां तक नहीं पहुंच पा रही है, तो पुलिस प्रशासन की तो बात ही छोड़िए। इसकी वजह भी समझ पाना इतना मुश्किल तो नहीं है। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन सबके हत्यारे लोगों के लिए जाने-पहचाने हैं, पर सरकार/प्रशासन के लिए अंजाने। और यह किसी एक क्षेत्र या राज्य की बात भी नहीं है, देश के हर कोने का आलम यही है। नदीम सैयद की हत्या भी जिन स्थितियों की ओर इशारा कर रही है, वह सत्ता के उन गलियारों की गंदगी की बदबू भर है, जहां सफाई करने की नीयत से दाखिल हुए आदमी को पता भी नहीं होता कि किस पत्ते के नीचे से जहरीला डंक निकलेगा।
बहरहाल, जितनी यह बातें साफ हैं, उतना ही यह भी साफ है कि राजा के डर से दिन को रात कहने से इनकार करने वाले कम नहीं होंगे।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

बस एक चिट्ठी, आपके लिए...


प्रिय दोस्तो,
एक वक्त था जब खत लिखे जाते थे, संजो कर रखे जाते थे, और जब खात्मे की नौबत आती थी, तो तकलीफ की नदी में आग लग जाती थी। बकौल शायर राजेंद्रनाथ रहबर ये खत अपनी खूशबू के साथ जलाते हुए हम तड़प के उस अहसास से गुजरते थे, जहां सब कुछ खाक लगता है। इश्क की रूमानियत अब नहीं रही। बस कुछ क्लिक की हिम्मत और बीच के सारे तार टूट जाते हैं। या फिर मोबाइल में सिम बदलनी होती है, और कह दिया जाता है, सब कुछ अनकहा, एक साथ। मुहब्बत की नर्मी के बीच वे खत भी याद आते हैं, जो उस दोस्त को लिखे जाते थे, जिसके साथ बचपन बीता लेकिन किशोरवय और जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही रास्ते जुदा हो गए। मौसी से मामा और बुआ से चाची तक के रिश्तों को आत्मीय संबोधनों के साथ लिखे गए खत हों या अपने समकक्ष और अधिकारियों को लिखे गए कार्यालयीन पत्र, सभी में संवेदना से लेकर प्रतिरोध का खास अंदाज होता था। इनमें हाल-चाल की बारीकी से लेकर खत के अंत में घर आने की जिद्दी टेक भी शामिल होती थी।
पहला खत
आपको याद ही होंगे वे स्कूली दिन, हिंदी और अंग्रेजी की वे कक्षाएं जिनमें पत्र लिखना सिखाया जाता था। एक अजनबी सा नाम और पता होता था, फिर कभी आप किताबें खरीदने के लिए पिताजी से पैसे मंगाने हेतु पत्र लिखते थे, तो कभी अपने भाई की शादी में मित्र को बुलाने के लिए आमंत्रण-पत्र भेजते थे। इस दौरान पत्रों के प्रकार जानते हुए हम सभी ने अपना पहला पत्र उत्तर पुस्तिकाओं में पूरे मन से लिखा था। नंबर पाने के लिए रट्टा लगाकर याद किया गया वह पत्र कुछ इस तरह जेहन में बैठता था कि अगर आप याद करें उस पत्र को जो आपने वाकई किसी को पहली बार लिखा था, तो पाएंगे कि उसकी भाषा और शब्द विन्यास तकरीबन वैसा ही था, जैसा आपसे स्कूल में लिखवाया जाता था।
पहले प्यार की पहली चिट्ठी
प्रेम में लिखे खतों की तो दुनिया ही बड़ी रूमानी है। वो रातों को जागकर लिखे गए खत, किताबों में छुपाकर दिए गए खत, और फिर जिसका इंतजार किया जाता था, वो जवाबी खत। इश्क के रंग में डूबे इन खतों ने शाइरों, गीतकारों को लुभाया और कई कालजयी रचनाएं सामने आर्इं। एक तरफ जहां कबूतर के जरिए पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन तक पहुंची, तो वहीं खत में फूल भेजकर उसे दिल समझने की बात भी कही गई है। दिल-ए-बेकरार का किस्सा लिखकर लफ्जों में हाल-ए-दिल बयां करने का एक वक्त में जो जरिया था, वह खत ही था। यह प्यार के कागज पर दिल की कलम से लिखा जाता था और अब कंप्यूटर या मोबाइल के स्क्रीन रूपी कागज पर की-बोर्ड की कलम से लिखा जाता है। बहरहाल, जवाबी खत यानी ईमेल या मैसेज का इंतजार अब भी तड़प वैसी ही पैदा करता है। फर्क इतना है कि पहले काफी मशक्कतों के बाद एक खत पहुंचाने के बाद जवाब न आया, तो दूसरा भेजते वक्त लगता था, अब इंतजार में एक के बाद एक संदेशों की झड़ी लग जाती है। हाथ की लिखाई में रचे-बसे खतों से प्रियतम का चेहरा झलकता था, और इन्हें खत्म करने के लिए बढ़े हाथ थम जाया करते थे। लेकिन अब इलेक्ट्रॉनिक फार्म में मौजूद खतों से न दिलबर के हाथों की महक उठती है, न ही उसका चेहरा दिखाई देता है, उसकी लिखावट को पहचानने की तो बात दूर ही है। शायद इसीलिए इन पर डिलीट कमांड चलाने में ज्यादा तकलीफ भी नहीं होती।
चिट्ठी आई है
फिल्म ‘नाम’ का वह गीत शायद आप भूले नहीं होंगे, जिसमें वतन से चिट्ठी आने का जिक्र है। घर, गांव, शहर छोड़ किसी दूसरे नगर में बसे हर आदमी को लुभाया है इस गीत ने। कल्पना कीजिए उस वक्त की, जब ईमेल और मोबाइल नहीं थे। ऐसे में डाकिया आवाज लगाता था, तो बच्चे भागते थे दरवाजे की ओर। और चिट्ठी लेकर शोर मचाते लौटते थे कि अम्मा-पिताजी फलां की चिट्ठी आई है। चिट्ठी करीबी रिश्तेदार की हुई तो पूरा घर या तो एक-एक कर चिट्ठी पढ़ता था या फिर एक साथ बैठकर सुनता था। छुट्टियों में महिलाओं को जानकारी मिलती थी कि फलां तारीख को भाई आ रहा है, तो बच्चे खुशी से भर उठते थे कि अब मामा के यहां जाएंगे। खुशी और उल्लास का सारा माहौल बस एक चिट्ठी का ही जहूरा होता था। एक परंपरा थी कि किसी की चिट्ठी आई है, अपनी कुशल-क्षेम के समाचार के साथ उसने हमारा हाल जानना चाहा है, तो उसका जवाब देना ही है। पत्र मिलते ही उसका जवाब लिखने बैठ जाना लोगों की आदत में शुमार हो चुका था, जिसमें यह भी जिक्र किया जाता था कि परिवार का कौन-सा सदस्य कहां है और कैसा है। कई टुकड़ों में बंटा परिवार चिट्ठी में एक साथ समा जाता था।  हमारी सरकार ने भी इस सामाजिक हकीकत के ही तहत जवाबी पोस्टकार्ड का चलन दिया था।
मित्रों को लिखे पत्रों में शब्द कुछ यूं बयां होते थे मानो आमने-सामने बैठकर बात कर रहे हों। बदले वक्त में संचार माध्यम बढ़े, तो यह बानगी कम होती गई। ईमेल की तेजी और फॉन्ट्स की कारीगरी वह उल्लास पैदा नहीं कर पाती जो 25 पैसे के पोस्टकार्ड में होता था। भागती-दौड़ती जिंदगी में टुकड़ों में बंटा परिवार ईमेल में एक-साथ दिखाई नहीं देता। घर के बुजुर्गों के लिए ईमेल आज भी एक दूसरी दुनिया का शब्द है, सो हम उनके हाल-चाल जानने और गांव की गलियों की लय सुनने से महरूम हो गए हैं। याद कीजिए जरा कि आखिरी बार मौसी, बुआ, दादी या नानी की लिखी हुई कोई चिट्ठी-पत्री कब पढ़ी थी। यह भी तो हमारे समय का ही सच है कि ईमेल एड्रेस में दोस्त ज्यादा हैं, परिवार के सदस्य कम।
गुम हो गया पता
कहते हैं कि अगर आप कागज-कलम का इस्तेमाल करके कुछ लिख रहे हैं, तो वह अरसे तक जेहन में मौजूद रहता है। एक जमाना था जब लोगों के पते जुबानी याद थे। डायरी देखने तक की जरूरत नहीं होती थी। जबकि तब आप किसी को उतने पत्र भी नहीं लिखते थे, जितने आज ईमेल करते हैं। गौरतलब है कि पहले पूरे परिवार का एक ही पता होता था, जिसे चिट्ठी में दर्ज किया जाता था, अब एक ही परिवार के कई पते हैं, कई बार तो एक ही आदमी के कई पते हो जाते हैं। एक बहुत छोटा सा सवाल है जनाब, आपको अपने कितने मित्रों के ईमेल एड्रेस याद हैं? ....आठ-दस नामों के बाद दिक्कत पेश आने लगी न। जनाब यही है वह नतीजा जो पत्र लेखन के खात्मे से उपजा है।
सिर्फ पता ही नहीं बदला
बदलते परिवेश में न सिर्फ पते बदल गए हैं, बल्कि कागज कलम के जरिए जज्बात उकेरने की रवायत भी बदली है। कुछ खत सहेजकर रखे हों, तो जरा देखिए कि सहेजा गया आखिरी खत किस तारीख का है। उसे पढ़िए, एक-एक लफ्ज एक चित्र उकेरता है, उन यादों का, उन बातों का जिनसे उपजे हैं वे लफ्ज। फोन या ईमेल के दौर में आप कितनी बातें हूबहू वैसी याद कर सकते हैं, जैसी वे बातचीत में थीं। हूबहू तो दूर की बात, कई बार तो बातचीत ही याद नहीं होगी। खत लिखने के साथ उनकी कांट-छांट और ऊपर नीचे करने की कसरत भी खत्म हो गई। अब मेल या मैसेज में कोई बात सामने वाले को ठीक से समझ नहीं आई, तो दूसरा कर देंगे वाली स्थिति है। वाक्यों को दोहराकर फिर-फिर लिखने की आदत भी खत्म हो चुकी कवायद है। और इसी के साथ खत्म हो रही है भाषायी शुद्धता।
पत्रों में हमने कई स्मृतियां संजो रखी हैं। जो पत्र लिखा है या पाया है, उससे जुड़ी कोई स्मृति अभी तक जेहन में बाकी है। अब, जबकि तकनीकी रूप से परिष्कृत दूरभाष यंत्रों के संदेश बक्से में या ईमेल के इनबॉक्स में एकट्ठे संदेश भी मौजूद हैं, तब आखिर क्यों उनकी संख्या के अनुपात में वैसी स्मृतियां नहीं हैं, जैसे पत्रों के साथ थीं। सीधी बात है जनाब, उनकी लिखावट में हाथ की वो कारीगरी नहीं होती, जिसे देखते ही आप कह दें कि यह अमुक व्यक्ति का लिखा खत है। उसके शब्दों में वो इत्तमीनान नहीं होता जिसका रंग शब्दों के साथ-साथ कागज पर भी उभरता था। वह शब्द विन्यास नहीं रहा, जिसमें दिल की किताब नुमायां होती थी। अरसा हो गया है न कोई खत पाए हुए। ऐसा खत जिसे आप संजो कर रख सकें, बार-बार पढ़ सकें। बहुत सुखद अनुभव होगा न, जब फिर से कोई ऐसा खत लिए डाकिया आपके दरवाजे पर दस्तक देगा। यह सुखद अनुभव ज्यादा दूर नहीं है आपसे, बस एक बार अपने करीबी को पत्र लिखकर तो देखिए, जवाबी पत्र की डाक डाकिया जरूर लाएगा।

                                                                                                                                    आपका
                                                                                                                                           मैं.