बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

तात्कालिक राहत


गलती अपनी ही थी
परवाह ही न की
अब भुगतनी तो होगी ही तकलीफ़ 

हरारत महसूस होने पर हर बार
गले से उतार ली कोई क्रोसिन
टूटा शरीर, फैलने लगा दर्द तो 
गटक ली कॉम्बीफ्लेम या उबाल लिया 
देसी नुस्खा हल्दी वाला दूध
ख़ून में घुलते गए वायरस और हम
रोकते रहे शरीर का गरम होना
दबाते रहे आँखों की जलन 
मार-मार कर पानी के छींटे

मिलती रही तात्कालिक राहत
बना रहा भ्रम ठीक होने का 
कभी किया नहीं ढंग से इलाज
दोहराते रहे सावधानी ही बचाव है 
पर रखी नहीं कभी
नीम-हकीम बहुत थे हमारे आसपास
उनके पास सौ नुस्खों वाली किताब थी,
हमने छोड़ दिया उनके हवाले खुद को 
वे देते रहे हर तरह के बुखार में पेरासिटामोल

गलती अपनी ही थी
नहीं होता जब तक ढंग से इलाज
झेलनी ही होगी तकलीफ़ 
जागना ही होगा रात भर

बीमारियों ने नींद उड़ा रखी है....

कोई बताएगा
कितनी रातें नहीं सोया ये मुल्क?

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

तुम्हारी आवाज़ अपनी ही तो लगी है


कहते हैं कि अगर आप संगीत की बारीकियों को समझते हैं तो इसका आनंद दोगुना हो जाता है. सुर-ताल-लय, राग-रागनियाँ, आरोह-अवरोह के ज्ञान के साथ इस समंदर की लहरों का कुछ अलग ही भान होता है. कुछ अलग ही मज़ा आता है स्वरलहरियों पर तैरने का. पर जब मामला डूबने का हो, तब! 

.....तब कहाँ याद रहता है कि उंगलियों पर दादरा, कहरवा, रूपक या दीपचंदी की चाल पकड़ी जा रही है या नहीं, कि जो किसी किनारे से रिसता हुआ मन को धीरे-धीरे भिगोये दे रहा है वह मल्हार है या मेघ मल्हार, कि कब कौन सा सुर कोमलता से छू गया और कौन सा बार-बार अपने होने को हठात जता रहा है. बस एक आवाज़ गूँजती है कानों में और हम चल पड़ते हैं उसके पीछे-पीछे, चले जाते हैं उतरते हुए..... गहरे और गहरे.

कितना अद्भुत है न कि कभी-कभी कैसे बस एक आवाज़ सुनते हुए अचानक हम उसे जीने लग जाते हैं. लगने लगता है मानो अपने ही भीतर से गूँज रही हो वह. कितनी भूली-बिसरी टीसें कचोटने लगती हैं जब ये आवाज़ कहती है कि कसमें-वादे सब बस बातें भर हैं, कितना क्षणभंगुर सा लगने लगता है जीवन और जब पिंजरे वाली मुनिया के यहाँ-वहाँ जा बैठने का किस्सा सुनाई देता है तो इसी जीवन में कितने रस दिखाई देने लगते हैं. कभी इसी आवाज़ के सहारे प्यार के इक़रार और इश्क़ में डूबकर हँसते हुए जान और ईमान कुर्बान कर देने का दिल हो उठता है तो कभी यही दिल खिले हुए फूलों के बीच ख़ुद के मुरझाने के ग़म में डूब-डूब जाता है और एक हूक सी उठती है कि अब जब सुर ही नहीं सजते तो आख़िर क्या गाऊँ.

अब यह उस आवाज़ का जादू नहीं तो और क्या है कि वह मुड़-मुड़ के न देखने की हिदायत देती हुई भी उतनी ही अपनी लगती है जितनी मधुर चाँदनी के तले मिलन को वीराने में बहार की उपमा देते हुए लगती है. और तब तो कमाल ही कर देती है जब शास्त्रीय संगीत की जटिलताओं में उलझाए बिना हमारे ही विनोदी स्वभाव में लपकते-झपकते बदरवा को बुलाती है या किसी चतुर नार की होशियारी पर चुटकी भरती है.


किस-किस अंदाज़ की बात की जाए. हर मूड, हर अंदाज़ में तुम्हारी आवाज़ अपनी ही तो लगी है मन्ना डे.

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

ख़रामा ख़रामा गजब कर रहे हैं


ख़रामा ख़रामा गजब कर रहे हैं
फ़स्ल-ए-मोहब्बत हड़प कर रहे हैं
हमारी रगों में ज़हर भर रहे हैं

था उन्वान तो ख़ूबसूरत बड़ा
अंजाम पर मुँह के बल गिर पड़ा
किरदार बदलते गए, रंग भी
इक अफ़साने में हम सफ़र कर रहे हैं

अपनी ज़मीं क्यों गई उनकी जानिब
कोई बता दे कारण मुनासिब
अपने ही घर से बेगाने हुए हम
और दुःख बन के मोती उधर झर रहे हैं

मैं उनके फ़साने सुना तो कई दूँ
ज़ालिम के ज़ुल्मों की ला तो बही दूँ
मगर मेरे मुंसिफ़ की देखो अदा तो
कागज़ पे कागज़ महज़ धर रहे हैं

मैं क़तरा सही पर हूँ मौजों का ज़रिया
है अपना सफ़र जैसे इक बहता दरिया
कल-कल तुम इसकी मधुर ही न जानो
कि तूफ़ान इसमें कई भर रहे हैं।