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मंगलवार, 8 जुलाई 2014

बंद दरवाज़ों के पार स्त्री


यह सब कुछ हो रहा है अभी में
वे जो कहते हैं अब नहीं है ऐसा
उन्हें चाहिए
पड़ताल करें अपने 'अब' की
झाँकें अभी की झिर्रियों से
अभी भी बंद दरवाज़ों के पार

अभी-अभी ख़त्म हुआ है
अधिकारों पर भाषण
अभी-अभी कहा गया है
लड़ो अपनी स्वतंत्रता के लिए
अभी-अभी निकली है
कई संगठनों की रैली
अभी-अभी गूँजे हैं
नारे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के

क्योंकि उसे इजाज़त नहीं है
अपने आँगन में भी खड़े होने की
इनमें से कुछ भी
नहीं पहुँचा उसके कानों तक

क्योंकि उसे इजाज़त नहीं है
एक निश्चित आवृति से ऊपर
कर सके अपनी आवाज़
नहीं पहुँचा किसी के कानों तक
उसके कंठ से निकला मूक क्रंदन

यह कहते हुए कि बस एक बार
लेने दो मुझे अपनी मर्ज़ी से साँस
बस एक बार
करने दो मुझे अपने मन का
एक चारदीवारी के भीतर
बंद दरवाज़ों के पीछे पस्त पड़ी स्त्री ने
घोंट दिया है अपना गला अभी-अभी.

गुरुवार, 20 जून 2013

नहीं रहना तुम्हारे बंधनों में कैद


सुनो महादेव!
अब नहीं रहना मुझे
तुम्हारी जटाओं में कैद
नहीं बहना वैसे
जैसे तुम नियंत्रित करो
जितनी तुम छूट दो

पहाड़ों पर रहते हुए
बाँधा जैसे तुमने
तुम्हारे अनुयायी भी
बाँधते रहे जगह जगह
रोकते-बाँटते गए
दिखाते गए अपनी-अपनी ताक़त
जब कभी चाहा बहना
स्वतंत्र होकर, निर्विरोध
कहा गया उद्दंड
कि तोड़ दी हैं मर्यादाएं

क्या सब मेरे लिए ही थीं
तुम्हारी नहीं थी कोई?
और तुम्हारे अनुयाइयों की?

जब चाहा ही नहीं तुमने
कि आऊँ मैं समूचे अस्तित्व के साथ
सबके सामने
बाँधे रहे न जाने
किस-किस तरह के जटाबंधनों में
देते रहे बस उतनी ही छूट
कि बस दर्ज होती रहे मेरी उपस्थिति
खुद बने रहे घुमंतू, स्वतंत्र
परवाह ही न की मेरी स्वतंत्रता की

तो क्यों करूँ मैं परवाह
अगर मेरी स्वतंत्रता से
डोलता है तुम्हारा आसन
अगर त्राहिमाम करते हैं
तुम्हारी राह पर चलने वाले

सुनो महादेव!
नहीं रहना अब मुझे
तुम्हारे बंधनों में कैद
मैं बहूँगी पूरे वेग से
पूरी स्वतंत्रता से
सामने आए जो अबकी तुम
बहा ले जाऊँगी तुम्हे भी।

शनिवार, 5 जनवरी 2013

ज़रूरत शिक्षा की: ताकि दामिनी खुलकर चमके


-रजनीश ‘साहिल’

(3 जनवरी 2013 को दैनिक जनवाणी, मेरठ में प्रकाशित अंश)
16 दिसंबर की रात आज की रात से कहीं ज़्यादा सर्द थी। शायद इन सर्दियों की सबसे सर्द रात। इस मायने में नहीं कि ठिठुरन से हाथ-पांवों ने चलना बंद कर दिया था, बल्कि इस मायने में कि उस रात दिलो-दिमाग ने भी चलना बंद कर दिया था। जिसे भी वाकये की खबर लगी उसके पास बस एक सवाल था, ‘आखिर कोई इतना बर्बर कैसे हो सकता है?’ जवाब देने लायक दिमाग शायद ही किसी का चल रहा हो, सब बंद हो चुके थे। बलात्कार की खबरें लोग रोज की अखबारों में पढ़ते हैं, न्यूज चैनलों पर देखते हैं, थोड़ी ‘हाय-हाय, धिक्-धिक्’ करते हैं और फिर लग जाते हैं अपने काम में। पर इस बार ऐसा नहीं कर सके। उन्होंने अपने काम छोड़े, एकत्रित हुए, सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, देश के अलग-अलग हिस्सों में भी, और दोषियों को सजा, कानून में बदलाव की मांग की आवाजें उठाईं। दामिनी बुझते-बुझते भी लोगों को रास्ता दिखा गई।
       महिला अधिकारों की बात सालों से की जा रही है, लेकिन इस घटना के बाद उन्हें इस हद तक राजनीतिक मुद्दा बनते कम से कम बीते दस बरस में तो पहली बार देखा है। पर क्या यह सिर्फ राजनीतिक मुद्दा है? क्या इन घटनाओं पर सिर्फ कानून को सख्त बनाकर काबू पाया जा सकता है? इस कानून की मांग कर रहे लोगों का भी मानना है कि ऐसा नहीं है, क्योंकि यह राजनीतिक से कहीं ज्यादा एक सामाजिक मुद्दा है। और जहां तक बात कानून के सख्त होने की है, तो हिंदुस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया के उदाहरण मौजूद हैं कि किसी भी अपराध की सजा कितनी भी सख्त क्यों न हो, अपराध फिर भी होते हैं। कहने का आशय यह कतई नहीं है कि कानून सख्त नहीं होना चाहिए, वह सख्त होना चाहिए और इस हद तक होना चाहिए कि उसमें लचीलेपन की कोई गुंजाइश बाकी न रहे। सख्त कानून अपराध की आशंका को मानसिक दबाव के जरिए कम करने में मददगार होता है। पर जब बात महिलाओं के साथ होने वाले यौन दुव्यर्वहार की, और वह भी ताजा आंकडों के परिप्रेक्ष्य में आती है, तो यह और भी साफ हो जाता है कि यह किसी सख्त कानून के बनने, उसके ठीक ढंग से लागू होने, दोषियों को सजा मिलने से कहीं पहले आपके-हमारे बीच के संबंधों और सोच को बदलने की मांग करती है।
       यह बात साफ तौर पर सामने है कि महिलाओं के प्रति यौन हिंसा की घटनाओं में भारत में तेजी से इजाफा हुआ है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक पूरे देश में दर्ज हुए बलात्कार को मामलों में 2010 में 7.1 प्रतिशत और 2011 में 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2012 की रिपोर्ट क्या कहेगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अब अगर इन कुल दर्ज मामलों के विभाजन पर नजर डाली जाए, तो इस बात पर गर्व करना छोड़ देना होगा कि भारत में स्त्रियों को देवी का दर्जा प्राप्त है, वह घर की लक्ष्मी होती है। कुल दर्ज मामलों में से 94.2 प्रतिशत मामलों में बलात्कार करने वाला उस महिला का अपना पिता, भाई, चाचा, मामा, मौसा, ससुर, देवर, जीजा या ऐसा ही कोई रिश्तेदार या पड़ोसी या पारिवारिक मित्र था। यानी महज 5.2 प्रतिशत मामलों में महिला किसी अपरिचित की कुदृष्टि की शिकार हुई वरना उसे लूटने वाले उसके अपने थे। इस स्थिति में जब ऐसी खबरें आती हैं कि किसी लड़की का पिता उसका दो साल तक लगातार बलात्कार करता रहा, तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था में होने वाले बलात्कार के कितने मामले दर्ज ही नहीं होते। दो साल बाद भी अगर पता न चलता तो कानून-व्यवस्था अंतर्यामी तो है नहीं! यहीं यह सवाल भी खड़ा होता है कि कोई कानून किस हद तक कारगर हो सकता है? इन स्थितियों में कानून की भूमिका सिर्फ सजा देने भर तक सिमट कर रह जाती है; और जाहिर है कि महिला के सम्मान की रक्षा का मतलब उसका अपमान करने वाले को सजा देना भर तो नहीं है।
       महिलाओं के सम्मान और स्वतंत्रता की प्रारंभिक इकाई समाज है। पिछले बहुत थोड़े से वक्फे में ऐसे कई बयान और फरमान सामने आ चुके हैं, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बलात्कार की घटनाओं के लिए महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। यह बयान या फरमान समाज के ही प्रतिष्ठित लोगों द्वारा दिए गए हैं। कुछ तथ्यों पर नजर डालना जरूरी हो जाता है, जो इन बयानों और फरमानों की की धज्जियां उड़ाते हैं, जिनमें लड़कियों के कम कपड़़े पहनने का, मोबाइल इस्तेमाल करने का या लड़कों से संपर्क बढ़ने का हवाला दिया गया।
       एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि बलात्कार के कुल दर्ज मामलों में से लगभग 11 प्रतिशत मामलों में पीड़िता की उम्र 14 वर्ष से कम थी। क्या 14 वर्ष से कम उम्र की बालिकाओं के बलात्कार के संदर्भ में भी यह तर्क दिए जा सकते हैं? ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनमें पूरी तरह पारंपरिक पोशाक पहने, बुर्के में सिर से पांव तक ढंकी महिलाएं भी बलात्कार की शिकार हुई हैं। मोबाइल का तर्क तो और भी बचकाना है। स्टॉकिंग, यानी फोन पर परेशान करने, अश्लील मैसेज भेजने, अभद्र बातें करने और धमकाने के लगभग 91 प्रतिशत मामलों में लड़के दोषी पाए गए हैं।
       इन तथ्यों और इन बयानों से साफ जाहिर होता है कि गड़बड़ी कहीं न कहीं हमारी सामाजिक व्यवस्था और सोच में है। तभी तो घर के भीतर से लेकर समाज के बाहरी हिस्सों तक हर कोई महिलाओं को ही बचकर निकलने की, कन्नी काट जाने की सलाह देता है, जबकि यह पुरुषों से कहना ज्यादा जरूरी है कि वे महिलाओें को ससम्मान निकलने के लिए रास्ता दें।
       यदि बारीकी से देखें, तो बलात्कार का मुद्दा कई और मुद्दों से भी जुड़ा हुआ है। यह जानकर शायद आपको हैरानी हो कि डायन कहकर मार डाले जाने के कई मामलों के मूल में किसी पुरुष द्वारा महिला को हासिल करने की कोशिश और महिला का प्रतिरोध रहा है। असफल होने पर पुरुष का दंभ अशिक्षित और अंधविश्वासी  समाज में डायन प्रथा का रूप लेता है, तो शिक्षित समाज में प्रताड़ना के नये-नये तरीके अपनाता है। यह संभवतः पुरुष होने का दंभ और स़्त्री को कमजोर समझने की पीढ़ियों से हासिल हुई ट्रेनिंग ही है जो मणिपुर से लेकर छत्तीसगढ़ तक, मनोरमा से लेकर सोनी सोरी तक महिलाएं सुरक्षा और शांति के लिए तैनात फौज और पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार की शिकार होती हैं, और उतनी ही बर्बरता से जितनी बर्बरता से दिल्ली में दामिनी। यह एक पितृसत्तात्मक समाज का, पुरुष होने का दंभ ही है, वरना ऐसा करने की इजाजत उन्हें कानून या संविधान ने तो नहीं दी।
       कुल मिलाकर सारे तथ्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि इन घटनाओं के पीछे की सबसे महत्वपूर्ण वजह महिलाओं के बारे में वह सोच है, जो उन्हें पुरुष से कमतर मानती है। यानी यह एक सामाजिक व्यवस्था की कमी है। निश्चित है कि इस कमी को एक झटके में जादू के जोर से दूर नहीं किया जा सकता। यह एक सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया है, जो वक्त लेगी। लेकिन इसके लिए संदर्भित कानून के प्रस्तावों में से उस प्रस्ताव पर गंभीरता से ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है जो सबसे जरूरी है, और जिस पर कि शायद अब तक सबसे कम बात की गई है। शिक्षा में जेंडर इक्वलिटी और उससे जुड़े बिंदुओं को विषय के रूप में शामिल किए जाने का प्रस्ताव। विचार, सोच की पुरातन बेड़ियों को हमेशा से ही नये ज्ञान स्रोतों और अध्ययन की नयी कोशिशों  ने काटा है। कानून समाज को नियंत्रित रखने की एक पद्धति है, जिसका होना भी ज़रूरी है; लेकिन समाज में बदलाव हमेशा एक सकारात्मक विचार और ज्ञान स्रोतों के माध्यम से आया है। इसलिए इन स्थितियों में बदलाव लाने का और सही मायनों में महिला और पुरुष को बराबरी पर खड़ा करने का इससे बेहतर कोई और विकल्प संभव नहीं है कि हम न केवल अपनी अकादमिक शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाएं, बल्कि ऐसे विकल्प भी तलाशें जिनके माध्यम से समाज के हर तबके में महिलाओं के प्रति बराबरी और संवेदनशीलता के बीज बोए जा सकें। संविधान और कानून व्यवस्था में तो अब तक कई संशोधन हम करके देख चुके हैं, क्यों न इस बार शिक्षा में संशोधन करके देख लिया जाए, ताकि आने वाले समय में कोई दामिनी अपने सपनों के फलक पर खुल कर चमक सके और हमें शर्मसार न होना पड़े।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

बीमार मानसिकता और शब्दों से बलात्कार


मुझे नहीं पता कि क्या लिखूँगा? कुछ लिख भी पाऊँगा या नहीं? पर आज बहुत बेचैनी और गुस्सा है। किसके ख़िलाफ़? मुझे नहीं पता। आख़िर पता हो भी कैसे सकता है? कोई एक नाम या शक्ल सामने नहीं है। है तो बस एक विशेष पहचान, एक विशेष भाव, एक बीमार मानसिकता, जिससे ग्रस्त हजारों लोग हमारे बीच हैं। चाहे अपनों की बात हो, चाहे गली-मोहल्ले की या फिर शहर, देश, दुनिया की, एक स्त्री की ‘औकात’ क्या है? क्या सिर्फ यही उसका अंतिम अस्तित्व है कि पुरुष किसी भी बहाने से उसकी देह को भोगे, वास्तविकता में नहीं तो कल्पनालोक में ही सही! 
     छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएं जिस गति से बढ़ रही हैं और जितना उनके बारे में लिखा, कहा जा रहा है वह तो सबके सामने है, पर एक स्त्री के लिए संकट सिर्फ तब ही नहीं है, जब वह पुरुष की पहुँच में है। बहुत सारे लोगों ने किसी लड़के को किसी लड़की के बारे में अनाप-शनाप बकते सुना होगा, आपने भी। यहां तक कि अगर उनके बीच रहे निःतांत निजी अंतरंग संबंधों के बारे में भी सुना हो तो कोई बड़ी बात नहीं। 
पर क्या जो कुछ आपने सुना वह सच ही होता है? जी नहीं, ऐसा कतई जरूरी नहीं है। एक स्त्री का पुरुष की पहुँच में न होना भी इन बातों को जन्म देता है। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी घटनाओं का खुली तरह से उल्लेख करना भी परेशानी का सबब बन सकता है, इसलिए इससे परहेज ही रखूँगा, लेकिन ऐसी कई घटनाओं की तह में जाने का जो नतीजा हासिल हुआ वह यह है कि किसी लड़की के साथ अपने या किसी और के अंतरंग संबंधों के अधिकांश किस्से एक बीमार मानसिकता, यौनिक कुंठा, उस लड़की को हासिल करने की दबी हुई इच्छा और उसके पूरा न होने के कारण उपजे हैं। उदाहरण के लिए बिना व्यक्ति और शहर का नाम लिए एक किस्सा कुछ यूं है- 
     एक लड़की पढ़ाई के लिए किसी दूसरे शहर में थी। वह बीमार हुई तो उसी शहर में मौजूद अपने रिश्तेदार के घर चली गई और तकरीबन 15-20 दिन वहीं रही। जब तबियत ने सुधरने का नाम नहीं लिया तो उसके रिश्तेदार का बेटा, जो कि रिश्ते में उसका भाई था, उसे उसके घर छोड़ आया। लड़की बड़ी ही कमजोर हालत में अपने घर पहुंची और एक महीना वहीं रही। इस दौरान वह घर से बाहर भी बहुत कम निकली। जब वह वापस अपनी पढ़ाई के लिए पहुंची तो सारा माहौल बदला हुआ था। सहपाठी लड़के और लड़कियां उसे अजीब से नज़रों से देखते, शोहदे चुटकियां लेते हुए अभद्र इशारे करते। आखिर ऐसा क्यों हुआ? इसकी वजह तब सामने आई जब उस लड़की का वह भाई, जो मेरा करीबी था, एक दिन बेहद गुस्से में भरा मेरे साथ था। गुस्सा इतना था कि उसकी आवाज़ कांप रही थी, हालात को सही न कर पाने की बेबसी इतनी थी कि गला भर-भर आता था। हुआ यह था कि उस लड़की के साथ ‘संपर्क’ बढ़ाने के ख़्वाहिशमंद एक लड़के ने शराब के नशे में उस लड़की को लेकर अपने कुंठित सपने कुछ दोस्तों को कह सुनाए, कुछ इस ढंग से कि ‘मेरा उसके साथ पुराना संबंध है..., वह बहुत .... है, दोनों कई रातें साथ गुजार चुके हैं आदि-आदि’ और फिर अंतरंग संबंधों का वर्णन। 
     ...अब बात तो बात होती है, एक मुंह से निकली तो सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। कुछ उस लड़के की कल्पना और कुछ जिस-जिस तक बात पहुँची उसकी कल्पना, लब्बोलुआब यह कि लड़की प्रेगनेंट हो गई थी, गर्भपात कराना पड़ा जिसकी वजह से उसकी हालत गिर गई थी। बात यहाँ-वहाँ फैली और लड़की के दामन पर एक ऐसा दाग लगा गई कि वह न जाने कितनी नज़रों के लिए बस एक ‘भोग्या’ भर बन कर रह गई। एक लड़के की कुंठित मानसिकता के अपराध की सजा यह कि वह लड़की कहीं निकलती तो अपनी नज़रें नीची करके, ताकि वह किसी की नजरों का सामना न करे जिनमें तमाम तरह के सवाल और कीड़े बिलबिलाते दिखाई देते थे। 
     ऐसे कई मामलों की कभी भनक पड़ी, तो कई के बारे में बहुत करीब से जाना। आज जब फिर से किसी के दामन पर ऐसी ही कीचड़ उछलते देखी (जिसके निर्दोष होने का इत्तफ़ाकन मैं खुद गवाह हूँ) तो उस लड़की के भाई के रुंधे गले से निकली वह बात किसी खंजर की तरह फिर दिल में उतर गई कि ‘भैया, मुझे पता है कि मेरी बहिन निर्दोष है। अगर यह बात सच होती तो क्या हमें पता न चलता? वह जिस दिन बीमार हुई थी उसी दिन हमारे घर आ गई थी। मैं खुद उसे डॉक्टर के पास लेकर गया था, उसे तो बस टाइफाइड हुआ था। लेकिन यह बात मैं किस-किस को समझाऊँ? किस-किस का मुँह पकड़ूँ? उस ..... लड़के को मैं खुद मार डालूं या पुलिस कार्यवाही करूँ, तो भी यह बदनामी पीछा नहीं छोड़ेगी। बेचारी को घर से निकलते डर लगता है। आखिर मैं करूँ तो क्या करूँ?’ 
     उसके इस ‘क्या करूँ?’ का जवाब न तब मेरे पास था, न आज है। किसी एक को समझाया भी जा सकता है, पर..... बात तो बात होती है, एक बार मुँह से निकली तो सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। 
     बलात्कार को एक गंभीर अपराध माना जाता है। क्या यह भी बलात्कार नहीं, जिसे एक कुंठित बीमार मानसिकता महज शब्दों से ही अंजाम देती है। क्या इन घटनाओं की शिकार लड़कियाँ भी उसी मानसिक वेदना और परिस्थिति से नहीं गुजरतीं, जिनसे एक बलात्कार पीड़िता गुजरती है। वह भाई ‘क्या करूँ?’ का गंभीर प्रश्न करने के बाद रोने लगा था। ऐसे में इन परिस्थितियों की शिकार हुई लड़की पर क्या गुजरती होगी, इसका शायद अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। 
     छोटे-बड़े कस्बों-शहरों में न जाने कितनी लड़कियाँ रोज ही इस कुंठाग्रस्त मानसिकता द्वारा शब्दों से किए गए बलात्कार की शिकार होती हैं। शायद उससे कहीं ज्यादा जितनी कि शारीरिक बलात्कार की शिकार होती हैं। और जब शारीरिक अपराध की शिकायत दर्ज कराने में आज भी बदनामी बढ़ने के ख़तरे के बारे में पहले सोचा जाता हो, वहाँ  इस शाब्दिक अपराध की शिकायत भला कितनी होती होगी? और शिकायत भी क्या कि ‘यह कल्पनाओ में मेरे साथ.....’ या ‘इसने लोगों से कहा कि इसने मुझे इस-इस तरह से....।’ 
     यहाँ यह बात भी गौरतलब है कि कस्बों में पुलिस को रिपोर्ट लिखाते वक्त यह लिखाने से काम नहीं चलता कि ‘अश्लील बातें कहीं’ या ‘अश्लील हरकतें कीं’, वह सब हू-ब-हू वैसा ही लिखाना होता है, जैसा कि कहा गया या किया गया। माँ-बहन की गालियों से लेकर अंगों के नाम और उनसे की गई हरकतों तक। और फिर इस तरह के मामलों को सुलझने में लगने वाले वक्त के दौरान न जाने कितनी ही बार लजा देने वाली परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। पुरुष इस बेशर्मी का सार्वजनिक रूप से जितना आदी और अभ्यस्त है, महिलाएँ अब तक नहीं हैं। शायद यही वजह है कि इस अपराध की शिकायत अमूमन नहीं ही होती और एक व्यक्ति की कुंठा और सड़ी-गली कल्पनाओं की बदबू का बादल एक निर्दोष के जीवन में कई बार इस तरह छा जाता है कि उसके कॅरियर और भविष्य के उजालों को ग्रहण लग जाता है। 
     वर्तमान स्थितियों में यह मानसिकता सिर्फ शब्दों को मुँह से निकालने तक ही सीमित नहीं है। इंटरनेट पर न जाने कितनी लड़कियों की पहचान का इस्तेमाल करके फेक अकाउंट हैं, पोर्न साइट्स बॉलीवुड, हॉलीवुड से लेकर आपके-हमारे बीच की स्कूल-कॉलेज की छात्राओं, घरेलू और कामकाजी महिलाओं की मॉर्फ़ और फेक तस्वीरों से भरी पड़ी हैं। तकनीक का इस तरह दुरुपयोग करने में भारत सबसे अव्वल है। बावजूद इसके आलम यह है कि इन फेक अकाउंट्स की शिकायत करने के बाद भी उनमें से कई बंद नहीं होते, चलते रहते हैं।
     यह सच है कि किसी के दिमाग पर काबू नहीं पाया जा सकता है, उसे सोचने से रोका नहीं जा सकता लेकिन गुस्सा इस बात का है कि इस तरह की सोच को व्यक्त करने पर भी जो दोषी है उसके बजाय निर्दोष ही क्यों दण्डित और परेशान होता है? क्या कभी सुना है कि किसी लड़की ने एक लड़के के बारे में ऐसा-वैसा कुछ कहा हो और उस लड़के का किसी से नजरें मिलाना मुश्किल हो गया हो? नहीं न! और अगर लड़के के बारे में ऐसा कह भी दिया जाए, तो भी लड़का ‘मर्द का बच्चा’ कहलाएगा, मगर लड़की, एक स्त्री..... क्या है वह? वह तो इन बीमारों के लिए बस एक मांस का लोथड़ा भर है और बाकी समाज के लिए ‘इज्जत’ की टोकरी सिर पर उठाने वाली सबसे कमजोर कड़ी। किसी ने कुछ कहा नहीं कि ‘इज्जत’ गई नहीं। 
     कितनी हैरत की बात है कि बीमार पुरुष है और तकलीफ स्त्री सहन करती है, बेइज्जत महिलाओं को किया जाता है और इज्जत की टोकरी भी उन्हीं के सिर पर लाद दी जाती है। इलाज भी महिलाओं के लिए नियम बनाकर खोजे जाते हैं। सभ्यता, संस्कृति और स्त्री के पूजनीय होने की झंडाबरदारी करने वाले बताएँ कि उनके पास इस बीमारी का क्या इलाज है? यह सवाल इसलिए नहीं है कि कोई संस्कृति रक्षा आंदोलन चलाना है, न ही कोई नैतिकता का पाठ पढ़ाना है, बल्कि इसलिए है कि महिलाओं के सिर पर इज्जत का ठीकरा फोड़ने वाली, बात-बात पर संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाली, नैतिकता का झंडा उठाए फिरने वाली और आज भी भीतर से पुरुषवादी यह समाज व्यवस्था पुरुषों की ‘बदतमीजी’ और महिलाओं के ‘सब्र’ के फर्क को समझे, कुंठित और बीमार मानसिकता के इस शाब्दिक अपराध के दूरगामी प्रभावों-परिणामों के बारे में सोचे, अपने गिरेबां में झांके और इस सवाल का जबाब दे, जो ऐसी परिस्थितियों में किसी भी महिला और उसके हितचिंतकों के सामने खड़ा होता है कि - ‘क्या करूँ?’

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

सवाल : विवाह संस्था, लिवइन रिलेशन या स्वतंत्रता

पिछले दिनों लिवइन रिलेशन पर ब्लाग जगत हो रही बहस पर काफी कुछ पढ़ा। एक जगह पर आकर यह बहस विवाह संस्था के औचित्य व स्त्री मुक्ति पर आकर केन्द्रित हो गई। कई लोगों का मानना है कि विवाह संस्था स्त्रियों की दासता, उनके शोषण का एक बहुत बड़ा कारण है, विवाह संस्था को नकारना स्त्री मुक्ति में एक बड़ा कदम हो सकता है। बहरहाल साथी अजय झा जी का कहना है कि अभी सिर्फ एक पक्ष को देखकर ही बात की जा रही है. लिव इन रिलेशनशिप :एक अलग दृष्टिकोण (भाग दो )  

बहुत ठीक कहा... अभी कुछ ही पक्षों को देखकर तमाम अटकलें और विचार आए हैं. बहुत बारीकी से विश्लेषण की ज़रूरत है। बहरहाल मुझे ऐसा लगता है कि विवाह संस्था का न होना स्त्री मुक्ति का परिचायक तो नहीं हो सकता। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि विवाह सिर्फ दैहिक संबंध मात्र नहीं है, वह संवेदनात्मक और भावनात्मक भी है। और क्या यही संवेदनात्मक/भावनात्मक संबंध लिवइन रिलेशनशिप में नहीं है।


दरअसल सवाल स्वतंत्रता और फ्री स्पेस का है। एक बात अक्सर उठाई जाती है कि विवाह के बाद पुरुष की इच्छाएं, विचार महिला की इक्षाओं, विचारों पर भारी पड़ते हैं, दूसरे शब्दों में महिला को पुरुष के अनुसार बदलना होता है। परंतु मेरा मानना है कि एक समय बाद दोनों ही के बीच एक साझा सोच/समझ विकसित हो जाती है। और यही सब लिवइन रिलेशन में भी है। उदाहरण मौजूद हैं, बस नज़र डालने की ज़रूरत है।

दरअसल स्त्री को संपत्ति के रूप में स्वीकार करने की ऐतिहासिक घटना ने पुरुष की मानसिकता को इतना संकुचित कर दिया है कि वह आज भी स्त्री को सहगामिनी कम उपभोग्य व मालिकाना हक की वस्तु  अधिक समझता है (भले ही स्वीकार कोई नहीं करता), इसी वजह से स्त्री पर तमाम बंदिशें लगाई जाती हैं, उसका शोषण किया जाता है, और यह विवाह के बाद ही नहीं विवाहपूर्व भी होता है। कोई लड़की विवाहपूर्व जब अपने पिता के घर में होती है क्या तब उसे पूर्णत: स्वतंत्र माना जा सकता है?

मसला इस मानसिकता का है, जब तक यह मानसिकता मौजूद है तब तक स्त्रियों के शोषण की संभावना मौजूद है (कम से कम मानिसक शोषण की तो है ही) क्योंकि तब तक उनकी स्वतंत्रता, ज़रूरी फ्री स्पेस की उपलब्धता संदेह के दायरे में है फिर चाहे वह विवाह संस्था हो चाहे लिवइन रिलेशनशिप।

स्त्री मुक्ति को लेकर विवाह संस्था को नकारने का जो तर्क है उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण शायद इस मानसिकता को बदलने और स्त्री को वांछित स्वतंत्रता, फ्री स्पेस उपलब्ध कराने का सवाल है। विवाह संस्था स्त्री मुक्ति के दायरे में आने वाला एक घटक हो सकता है पर स्त्री की स्वतंत्रता का आधार नहीं। महिलाओं की स्वतंत्रता का मुद्दा इससे कहीं अधिक व्यापक है।