मंगलवार, 26 जून 2012

दास्तान-ए-किस्सागोई




एक था राजा एक थी रानी
दोनों मर गए खतम कहानी
यह वह पंक्तियां हैं, जो बचपन में हम सभी ने कभी न कभी जरूर सुनी हैं। आज यह पंक्तियां अपने सही अर्थों में हमारे सामने भी हैं। बचपन में जब कभी कहानियां सुनने का जी करता था, छुट्टियों में अपनी दादी-नानी के करीब होते थे, तो उनसे कहानी सुनने की जिद भी किया करते थे। आपने भी की होगी।
खुले आसमान के नीचे, सितारों की छांव में दादी-नानी से राजा-रानी, राजकुमार, राक्षसों और परियों की कहानियां सुना करते थे हम। जब दादी या नानी कोई कहानी सुनाती थीं, तो उसका एक-एक पात्र हमारी आंखों के सामने जीवंत हो उठता था। कहानी कितनी ही अकल्पनीय क्यों न हो, सच ही लगती थी। हमारे जीवन में किस्सागोई की शुरुआत भी यहीं से होती है। वैसे, किस्सागोई ठीक-ठीक कब और कैसे शुरू हुई, इसका पता लगा पाना मुश्किल है। इतना तय है कि बचपन में मां की लोरी के साथ हम शब्दों को पहचानना सीखते हैं और कहानियों के साथ किस्सागोई से परिचित होते हैं। बचपन में सुनी कहानियों से किस्सागोई का जो सम्मोहन हम पर तारी होता है, उसका असर ताजिंदगी बरकरार रहता है। इसकी वजह भी है, और वह वजह है कल्पना की मधुरता का रस। किस्सागो यानी किस्से-कहानी कहने वाला अपनी योग्यता और कल्पनाशक्ति का भरपूर इस्तेमाल करता है। सुनाए जाने के मौके के अनुसार वह कहानी को रोचक और अविस्मरणीय बनाने के लिए उसमें बदलाव भी करता है, नाटकीयता भी डालता है और कोशिश रहती है कि सुनने वाला उसकी निरंतरता में डूब जाए।

किस्सागोई के रिश्ते
अब घर की किस्सागोई ही देख लीजिए। जब दादी-नानी कहानियां सुनाती थीं, तो बड़े-बड़ दांतों वाला राक्षस जब राजकुमारी को अपने जादुई उड़नखटोले में बिठाकर ले जाता था, और राजा परेशान होकर राजकुमारी को ढूंढ लाने वाले को राजा बनाने की घोषणा करता था, तो सब सच लगता था। फिर जब कोई राजकुमार राक्षस के किले में जाकर उससे वीरता से लड़कर राजकुमारी को छुड़ाने की कोशिश करता था, तब तक हम कहानी में इतने डूब चुके होते थे कि खुद को राजकुमार की जगह रखकर हम अपनी कल्पनाओं में सारा मंजर सजीव-सा पैदा कर चुके होते थे। घर की किस्सागोई में दादी-नानी इस मंजर को पैदा करने में हर किरदार के भावों के मुताबिक शब्दों की लंबाई, आवाज की गहराई का बखूबी इस्तेमाल करती थीं। वैसे, इन कहानियों से एक और किस्सा भी उपजता है। वह है हमारे घर और रिश्तों की बुनावट का किस्सा। दादी-नानी के बाद कहानियां सुनाने की जिम्मेदारी होती थी हमारी मां, मौसी, चाची, मामी की। इनकी कहानियों में भी दादी-नानी की कहानियों जैसा ही रस होता था। भले ही किसी बात पर मां और चाची के बीच अनबन हो गई हो, लेकिन हमें उससे कभी कोई फर्क नहीं पड़ता था। कहानियों का सम्मोहन इतना होता था कि चले ही जाते थे चाची के पास कहानियां सुनने। चाची भी ऊपर से भले ही हमसे कह दे कि जाओ अपनी मां से सुनो कहानी, लेकिन फिर भी हमारी उत्सुकता को शांत करने के लिए कहानी सुना ही देती थी। इन्हीं किस्से-कहानियों के बीच वह वात्सल्य और प्रेम उपजता था, जो हमेशा के लिए हमारे दिल में घर कर जाता है। फिर परिवार में तनाव चाहे कितना भी हो, दिल के किसी कोने में एक-दूसरे का हिस्सा होने का भाव हमेशा बना रहता है। इस मामले में सिर्फ घर की महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी सहभागी होते हैं। तभी तो चाचा, मामा, नाना के साथ भी रिश्ते की ऐसी ही बुनावट होती है। यह एक अलग बात है कि उनकी कहानियों में परियां नहीं होती थी, बल्कि वीर लड़ाके, हमारे पुरोधा और महान व्यक्तित्व ज्यादा शामिल होते थे। गौर से देखा जाए तो यह दोनों तरह की कहानियां हमारे कल्पना संसार को भी विस्तृत करती थीं और ज्ञान को भी।
मगर अब यह बुनावट कमजोर होती जा रही है। आधुनिक समाज की व्यवस्था में अब बच्चों के करीब न दादी-नानी हैं, न चाची-मौसी और न चाचा-मामा। माता-पिता के पास नौकरी की व्यस्तता है। दरअसल एकल परिवार की परिपाटी ने इस किस्सागोई की निरंतरता को बाधित किया है, जिसका असर बच्चों के कल्पनालोक पर तो पड़ा ही है, किसी हद तक रिश्तों की बुनावट की कमजोर होती गई है।

चेतना और मूल्यबोध
किस्सागोई सिर्फ घर की दहलीज के भीतर ही नहीं रही। यह हमारे समाज और संस्कृति का अहम हिस्सा रही है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि समाज में बड़े-बूढ़े ही किस्सागो की जिम्मेदारी प्रमुखता से निभाते आए हैं। नई पीढ़ी को सामाजिक मूल्यों से परिचित कराने की जिम्मेदारी भी इन्हीं के कंधों पर रही है। पारंपरिक ग्रामीण जीवन में इन मूल्यों का महत्व कितना है, इसे बताने की जरूरत नहीं है। लोग इन मूल्यों से विचलन के खतरों को न केवल जानते-समझते थे, बल्कि जितना हो सके इस विचलन और दूरी से बचने की कोशिश भी करते थे। नैतिक और सामाजिक मूल्यों से नई पीढ़ी को परिचित कराने के लिए उन्हें आज की तरह साहित्य या अन्य किसी माध्यम की जरूरत नहीं होती थी, क्योंकि पास किस्सागोई की कला होती थी। नई पीढ़ी के बीच ग्राम्य जीवन में सहअस्तित्व जैसे सामाजिक मूल्य किस्सागोई के साथ विकसित होते रहे हैं। यही वजह है कि गांवों की चौपालों पर किस्सागोई खूब फली-फूली। यह अलग बात है कि किस्सागोई लोकरंजन का प्रतिरूप है। किस्से-कहानियों के संपर्क में आने वाला श्रोता मुख्यत: मनोरंजन की ही तलाश करता है, उसमें निहित मूल्य उसके बाद ही समझे जाते हैं। इसीलिए किस्सागोई में रोचकता भी बहुत मायने रखती है। इसके अभाव में किस्सागो की सफलता शायद संभव नहीं है।

दुनिया एकाकार
यह किस्सागोई का ही कमाल है कि बिना किसी प्रकाशन व्यवस्था और तकनीकी संचार माध्यमों के भी बीती सदियों में कहानियां दूर देश की यात्रा कर चुकी हैं। पूरी दुनिया का लोकसाहित्य देखा जाए, तो इस किस्सागोई की ताकत का अंदाजा होता है। किस्सागोई के कारण ही पंचतंत्र की कहानियां सारी दुनिया भर में न केवल प्रचलित हैं, बल्कि उनमें स्थानीय रुचियों और परंपराओं के मुताबिक बदलाव भी दिखाई देते हैं। ईसप की कहानियां इसका मजबूत उदाहरण हैं। यूनान में जन्मे ईसप एक बेहतरीन किस्सागो थे। नीति और व्यावहारिक ज्ञान को कहानियों की शक्ल देने में उनका कोई सानी नहीं है। अपनी कई कहानियों में ईसप ने पंचतंत्र की कहानियों का भी उपयोग किया है। तकरीबन सत्रह शताब्दियों तक कहने-सुनने की कला के चलते ही दुनिया भर की सैर करती रही कहानियां, आज भी मौजूद हैं। लू श्युन ने जिन चीनी लोककथाओं का संग्रह किया, उनमें भी हमारी कहानियों जैसा-ही कुछ है और ग्रिम बंधुओं द्वारा संकलित की गई जर्मनी की लोककथाओं में भी। दुनिया के बनने की कथाएं भी मिलती-जुलती हैं और परियों की कहानियां भी। दरअसल यह किस्सागोई का ही नतीजा है कि सारी दुनिया का लोक-साहित्य लगभग एकाकार हो गया है।

बच्चों की दुनिया
इस बात से आप भी सहमत होंगे कि बच्चे कहानियां पढ़ने से ज्यादा सुनना पसंद करते हैं। दरअसल कहानी सुनने के दौरान उनके दिमाग पर वह दबाव नहीं होता, जो पढ़ने के दौरान होता है, और वे कहानी के साथ-साथ अपने कल्पनालोक में उन्मुक्त उड़ान भर सकते हैं। कहानी की घटनाएं, उनके पात्र उनके मानस में जीवंत होते चले जाते हैं और साथ ही कहानी में निहित संदेश भी वे आत्मसात करते चले जाते हैं। किस्सागोई की अंतरंगता के कारण ही यह शैली बच्चों द्वारा सबसे ज्यादा पसंद की जाती है। शायद यही वजह है कि बच्चों के बीच वही कहानीकार ज्यादा लोकप्रिय हुए हैं, जिन्होंने बातचीत के ढंग में उनके मन की बात कही है।
दादी-नानी की किस्सागोई की कम होती निरंतरता के चलते आज बच्चों की कल्पनाशक्ति भी क्षीण हो गई है। इसकी एक वजह यह भी है कि आज उन्हें सब-कुछ मूर्त रूप में देखने को मिल रहा है। आज वे अपनी कल्पना में परी की तस्वीर नहीं बनाते, बल्कि एनिमेशन फिल्मों और टीवी पर दिखाई देने वाली परी को देखते हैं। चाहे राक्षस हो, राजकुमार हो, या चुड़ैल, सब कुछ उनके सामने रख दिया गया है। वे अब अपनी चुड़ैल तैयार नहीं करेंगे, बल्कि पहले से मौजूद चुड़ैल को देखेंगे।  बचपन में जब हम दादी-नानी के मुंह से इन किरदारों का वर्णन सुनते थे, तो अपने मन में उन्हें गढ़ते थे। शायद इसीलिए हम सबके राजा, राक्षस और चुड़ैलें अलग-अलग हुआ करते थे। यह प्रक्रिया हमारी कल्पनाशीलता को भी बढ़ाती थी और हमारे दिमाग को तीवृ भी, लेकिन तकनीक का विस्तार आज बच्चों की कल्पनाशीलता को खत्म करता जा रहा है। दूसरी ओर किस्सागोई की कमी नए किरदारों को गढ़ने में बाधक बनी है।

किस्सागोई का बाजार
देखा जाए तो किस्सागोई कभी खत्म न होने वाली विधा है, उसमें बदलाव होते रहते हैं। किस्सागोई आज भी है, लेकिन अब उसने अपने रूप के साथ-साथ जगह भी बदल ली है। अब वह घर, चौपालों, दोस्तों की बैठकी के बजाय टीवी के पर्दे और विज्ञापन संसार में सिमट गई है। अब किस्सागोई बड़े पैमाने पर उत्पाद बेचने का माध्यम बन गई है। फिर चाहे वह जूजू की बिना आवाज की किस्सागोई हो, या फिर मनुष्य के विकासक्रम का किस्सा दिखाने वाला महज 'दद्दू' की आवाज वाला एक च्युइंग गम का विज्ञापन। आज विज्ञापन जगत किस्सागोई का इस्तेमाल करता है, ताकि दर्शकों की नजर से विज्ञापन आसानी ने न गुजर जाए, उसे विज्ञापन में कुछ रोचक लगे। वैसे भी सेठ गोडिन ने अपनी किताब 'आॅल मार्केटर्स आर लायर्स' में लिखा है कि 'मार्केटिंग एक किस्सागोई है। उत्पादों को उन कहानियों के जरिए ब्रांड्स में बदला जाता है, जो बाजार के खिलाड़ी उनके इर्द-गिर्द बुनते हैं। इन खिलाड़ियों में विज्ञापन एजेंसियां भी हैं। तो जब तक मार्केटिंग बरकरार रहेगी, किस्सागोई भी रहेगी।' अब सवाल यह है कि क्या मार्केटिंग की किस्सागोई, चेतना, मूल्यबोध, रिश्तों की बुनावट और हमारे कल्पनालोक को भी बरकरार रख सकेगी?

गुरुवार, 21 जून 2012

कहानी कहने की कला



- वाल्टर बेंजामिन

हर सुबह अपने साथ दुनिया भर की खबरें लेकर आती है। लेकिन फिर भी हमारे पास अच्छी कहानियों का दारिद्र्य बना रहता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई भी घटना स्पष्टीकरण के बारीक छिद्रों से गुजरे बगैर हम तक नहीं पहुंचती। या यूं कहें कि लगभग हर चीज हमारी जानकारी में इजाफा भर करती है, लेकिन कहानी के पक्ष को बढ़ावा देने वाला उसमें कुछ भी नहीं होता। कहानी कहने की आधी कला इसी में है कि सुनाते समय उसे तमाम स्पष्टीकरणों से मुक्त रखा जाए। इस दृष्टि से आदिकाल के लोग, और उनमें भी हेरोटोटस, इस हुनर में माहिर थे। अपनी किताब 'हिस्टरीज' के तीसरे खंड के चौदहवें अध्याय में वे सैमेनिटस की कहानी सुनाते हैं।

युद्ध में हार के बाद मिस्र के बादशाह सैमेनिटस को ईरान के राजा कैंबिसेस ने बंदी बना लिया था। कैंबिसेस अपने बंदी को नीचा दिखाने पर आमादा था। उसने आदेश दिया कि सैमेनिटस को उस सड़क पर लाया जाए जहां से ईरानी विजेताओं का जुलूस निकल रहा था। उसने यह इंतजाम भी किया कि बंदी अपनी बेटी को एक साधारण नौकरानी के रूप में पानी का घड़ा लिए कुंए की ओर जाता देखे। इस नजारे को देख सारे मिस्रवासी जहां बिलखने और विलाप करने लगे, वहीं सैमेनिटस चुपचाप, बिना बोले जमीन पर नजरें गड़ाए खड़ा रहा। फिर इसके बाद जब उसके बेटे को फांसी देने के लिए जुलूस में ले जाया जा रहा था, तब भी वह खामोश रहा। लेकिन जब उसने अपने एक पुराने बूढ़े नौकर को बंदियों की कतार में भिखारियों की तरह जाते देखा, तो उसने अपने सिर को पीटते हुए गहनतम तकलीफ और दु:ख का इजहार किया। इस कहानी में हम किस्सागोई की असली मिसाल देख सकते हैं। सूचना का महत्व सिर्फ उस क्षण में रहता है, जब वह नई होती है। उस एक क्षण से आगे वह जिंदा नहीं रहती। उस एक क्षण के प्रति समर्पित होकर उसे बिना वक्त गंवाए अपने-आपको व्यक्त कर देना होता है। कहानी के साथ ऐसा नहीं है। वह अपने-आपको खर्च न करते हुए अपनी शक्ति को अपने भीतर जुटाए रहने और लंबे समय बाद उसे मुक्त करने की क्षमता रखती है। और इस तरह मोंतेन ने मिस्र के बादशाह की इस कहानी को पढ़ने के बाद अपने-आप से पूछा कि बादशाह ने अपने नौकर को देखने के बाद ही दु:ख का इजहार क्यों किया, और पहले क्यों नहीं? और मोंतेन ने स्वयं ही उत्तर देते हुए कहा, 'चूंकि वह व्यथा में इस कदर सराबोर हो चुका था कि एक छोटा सा झटका और लगते ही उसके भीतर का बांध टूट गया।'

कहानी को इस तरह से समझा जा सकता है, लेकिन इसमें दूसरे स्पष्टीकरणों की भी गुंजाइश है। मोंतेन के इस प्रश्न को अपने दोस्तों के बीच पूछकर कोई भी इन तक पहुंच सकता है। मेरे एक मित्र ने कहा, 'बादशाह शाही खानदान की नियति से विचलित नहीं होता, क्योंकि यह लहू उसका अपना है।' एक अन्य ने कहा, 'मंच पर हमें बहुत सी ऐसी बातें विचलित करती हैं, जिनसे सचमुच की जिंदगी में शायद हम प्रभावित न हों। बादशाह के लिए यह नौकर सिर्फ एक अभिनेता है।' तीसरा बोला, 'गहरी यंत्रणा तब तक जमा होती जाती है, जब तक थोड़ी सी फुरसत न मिल जाए। बादशाह के लिए नौकर का दिखना फुरसत का ऐसा ही क्षण था।' चौथे ने कहा 'अगर यह घटना आज की दुनिया में घटी होती, तो सभी अखबारों ने यह दावा किया होता कि सैमेनिटस अपने नौकरों को अपने बच्चों से भी अधिक चाहता था।' जो भी हो, यह सच है कि हर रिपोर्टर लगे हाथ कोई-न-कोई स्पष्टीकरण जरूर ईजाद कर लेगा। हेराडोटस कोई स्पष्टीकरण नहीं देता। उसका वृत्तांत सबसे शुष्क है। और यही कारण है कि पुरातन मिस्र की यह कहानी आज हजारों वर्षों बाद भी विस्मय और विचार को जागृत करने में सक्षम है। इसमें अन्न के उन दानों के से गुण हैं, जो पिरामिडों के गर्भग्रहों में सुरक्षित बंद रहने के बाद आज भी अपने भीतर अंकुर प्रस्फुटित करने की क्षमता को बचाए हुए हैं।
अनुवाद: जितेंद्र भाटिया
(पहल 69, सितंबर-नवंबर 2001 से)

गुरुवार, 14 जून 2012

वो लगावट छोड़कर चले गए


‘अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें...’

       अहमद फराज की लिखी यह पंक्तियां जिसने भी मेहदी हसन के गले से निकले सुरों में सुनी हैं, आज उसे जरूर याद आ रही होंगी। असल में यह वह पंक्तियां हैं, जो सुनने के बाद कभी भुलाई ही नहीं जा सकीं। वजह अहमद फराज की लेखनी तो रही ही, उससे कहीं ज्यादा मेहदी हसन की आवाज रही। वह आवाज, जो सुनने वाले को खुद में नहीं रहने देती, रूमानियत से लबरेज खयालों और सकून की अनकही-अनसुनी अनुभूति वाली दुनिया में ले जाती है।
       वे, जो संगीत की बारीकियों को जानते हैं और वे भी, जो सिर्फ शब्दों में छिपे अर्थ को ढूंढते हैं, इस अद्भुत आवाज के मुरीद रहे हैं। जब मेहदी हसन की आवाज में 'चराग-ए-तूर जलाओ बड़ा अंधेरा है' सुनाई देती है, तो वाकई भीतर कोई दीया-सा जल उठता है। 'कुछ उसके दिल में लगावट जरूर थी' का अहसास कुछ इस शिद्दत से होता है मानो कोई अजीज चुपके से 'हाथ दबाकर' गुजर गया हो और 'गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार' चली ही आती है।
       मेहदी हसन ने ताजिंदगी गाया, और सिर्फ गाया। जैसे इसके अलावा दूसरा कोई काम उन्हें था ही नहीं। उन्होंने न जाने कितनी गजलें गार्इं, उन्हें चाहने वालों की संख्या भी बेतहाशा है। उनकी आवाज किसी एक मुल्क की आवाज होकर नहीं रही, वह रॉयल अल्बर्ट हॉल तक गूंजी, जिसके कंसर्ट के रिकॉर्ड मेहदी हसन की अब तक गाई गजलों में सबसे ज्यादा बिकने वाले रिकॉर्ड हैं। यह भी बड़ी ही दिलचस्प बात है कि इस सबके बावजूद उनकी गाई गजलों के बारे में किसी से पूछिए, तो कुछ चुनिंदा गजलों के मुखड़े ही लोगों को याद आते हैं।
       बहरहाल, गजलों को शास्त्रीय संगीत में पिरोने वाले मेहंदी हसन 'शहंशाह-ए-गजल' कहे जाते हैं, तो इस बात के एक पहलू पर भी बात करना जरूरी है। शायद ऐसे लोग बहुत न हों, जिन्हें यह पता हो कि मेहदी हसन ने फिल्मों में भी गाया। पाकिस्तानी फिल्मों में उनके गाए गीत और गजलें जिन्होंने सुनी हैं, वे यह बात बखूबी समझ सकते हैं कि फिल्मी गीतों में वह मेहदी हसन दिखाई नहीं देते, जो गजलों में नुमायां होते हैं। 'भीगी-भीगी रातों में', 'सच्ची बात कहो', 'क्या पूछते हो, क्या तुमसे कहूं', 'मेरे हमदम तुम्हें पाकर करार आया है' जैसे तमाम फिल्मी गीतों में यही आवाज कुछ उथली-सी नजर आती है। इसमें उस गहराई का अहसास नहीं होता, जिसमें डूब जाने का दिल करे। और संगीत की वह रवानी तो इन गीतों में बिल्कुल भी नहीं है, जो खास मेहदी हसन की पहचान है।
       एक तरफ उनकी नॉन-फिल्मी गजलें हैं और दूसरी तरफ उनके फिल्मी गीत, दोनों में आवाज एक ही है, लेकिन दोनों का मेहदी हसन बिल्कुल जुदा है। जहां तक संगीत की बात है, तो मेहदी हसन को सुनने वाले और खासकर वे, जिन्हें संगीत की भी समझ है, ऐसे न जाने कितने ही लोगों के मुंह से सुना है कि 'मेहदी हसन साहब को तो संगतकारों की जरूरत ही नहीं। उनकी आवाज ही ऐसी है कि संगीत खुद-ब-खुद सुनाई देने लगता है। जब वह गजल की शुरुआत में सुर साधते हैं, तो जैसे मन के तार झंकृत हो जाते हैं।' फिर क्या वजह है कि फिल्मी गीतों में हमें ऐसे मेहदी हसन दिखाई नहीं देते? वजह बिल्कुल साफ है। वह एक ऐसे गायक-संगीतज्ञ थे, जिन्होंने संगीत को कभी भाव पर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने जितनी भी बंदिशें कीं, संगीत भाव का साथी रहा, उसका रहनुमा नहीं। वे गाते नहीं थे, बल्कि गजल के भाव को जीते थे। शायद यही वजह थी कि जब शब्द उनके गले से होकर गुजरते थे, तो शब्द नहीं रह जाते थे, अनुभूति में तब्दील हो चुके होते थे। उनके फिल्मी गीतों में संगीत और भाव का यह ताल-मेल कमजोर पड़ता है। जाहिर है कि यह फिल्मकारों की जरूरत के चलते ही हुआ होगा और एक न भुलाई जा सकने वाली आवाज इन जरूरतों के मद्देनजर वह जलवा न बिखरा सकी, जो वह अपनी स्वतंत्रता में हमेशा बिखराती रही और एक अजब सी लगावट का अहसास कराती रही। आज भले ही खान साहब हमारे बीच नहीं हैं, पर यह लगावट मौजूद रहेगी।

एक सुरमयी सांझ का अंत


       संगीत की सुनहरी किताब का एक और पन्ना मुड़ गया और साथ ही मुड़ गया वह रास्ता, जो थके-मांदे दिल-ओ-दिमाग, यायावरी सोच और हर उस लम्हे को, जिसमें कहीं कोई चुभन होती थी, सुकून की मंजिल तक ले जाता था। दुनियाभर के गजलप्रेमियों के बेहद चहेते और शहंशाह-ए-गजल के खिताब से नवाजे गए मेहदी हसन नहीं रहे।
       यह कहने की जरूरत नहीं कि वे लंबे अरसे से बीमार थे, लेकिन यह बात जरूर कहने की है कि उनकी बीमारी ने फिर एक बार यह साफ किया कि सियासत के गलियारों में कला की कोई कद्र नहीं। मेहदी हसन से जुड़कर उनकी जन्मस्थली राजस्थान के झुंझुनू जिले के लूणा गांव का जिक्र उनकी बीमारी के साथ ही शुरू हुआ। हर कोई जानता था कि उन्हें हिंदुस्तान से बहुत प्यार था। उनकी मृत्यु के बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री कहते हैं, ‘मेहदी हसन को इलाज के लिए राजस्थान सरकार ने पाकिस्तान से भारत लाने के लिऐ पूरे प्रयास किए, उनके परिवार के चार लोगों को केंद्रीय विदेश मंत्री के सहयोग से वीजा भी उपलब्ध करा दिया गया, लेकिन दुर्भाग्य से ज्यादा बीमार होने के कारण वे भारत नहीं आ सके।’ अब सवाल यह उठता है कि क्या मेहदी हसन तेरह वर्षों से लगातार इतने बीमार थे, कि उनका भारत की यात्रा करना मुश्किल था, और खासकर पिछले तीन साल, जो उनके लिए सबसे ज्यादा तकलीफदेह रहे, में भी क्या उनकी हालत कभी इस यात्रा के लायक नहीं रही, जबकि 2010 में आए एलबम ‘सरहदें’ के लिए गीत तैयार करने की उनकी स्थिति रही।
       इसे दो देशों के बीच की आपसी राजनैतिक स्थितियों का नतीजा भी नहीं कहा जा सकता कि एक जिंदगी से जूझता फनकार अपने इलाज के लिए उस सरहद को पार नहीं कर सका, जिसे अपनी आवाज के जरिए वह कब का नेस्तोनाबूद कर चुका था। असल में यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही मुल्कों की सरकार की कला और कलाकारों के प्रति उदासीनता का नतीजा है। प्रख्यात शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खां, राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित ढोलक वादक उस्ताद शकूर खां, और ऐसे ही कई नाम पहले भी इस उदासीनता का शिकार हो चुके हैं। यह किसी भी देश की सरकार के लिए एक सवालिया निशान है कि आखिर क्यों जिन फनकारों पर पूरा देश नाज करता है, जिनकी शोहरत को उनका बाजार भुनाता है और सरकार गर्व करती है, वह अपने आखिरी वक्त में सरकार की तरफ से मिल सकने वाली मदद से महरूम रह जाते हैं। मेहदी हसन का किस्सा भी इससे कुछ अलग नहीं है। यहां यह भी सवाल खड़ा होता है कि जब तमाम म्यूजिकल शोज के लिए बीते सालों में कई कलाकारों ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच की सरहद पार की, तब आखिर मेहदी हसन के लिए कौन-सी रुकावट थी? क्या यह कि एक उखड़ी हुई सांस बाजार उपलब्ध नहीं करा सकती थी?
       मेहदी हसन, जिनके लिए हिंदुस्तान और पाकिस्तान में कोई फर्क नहीं था, उन्हें दोनों देशों की सरकार बस शोक संवेदना ही दे सकी और दोनों मुल्कों की आवाम को एक जैसा सुकून देने वाली एक सुरमयी सांझ बिना कोई शिकवा किए ढल गई।

मंगलवार, 12 जून 2012

अपने हिस्से की जमीन


‘चल हट! यहां क्या तेरे बाप ने पट्टा लिखाया था?’

मूंछों पर ताव देते हुए जब वह रमुआ से यह कह रहा था, तब शायद उसने खुद सोचा भी नहीं था कि वहां पट्टा तो उसके सदा शराबखोर स्वर्गवासी पिता ने भी नहीं लिखाया था। पर ठसक थी ठकुराई की, जिसके बूते अपने खलिहान की सीमा के विस्तार में आड़े आती रमुआ की झोंपड़ी उसकी अपनी बपौती थी।

रमुआ यानी रामअवतार, जो देशज उच्चारण के चलते रामौतार और फिर संक्षिप्तिकरण का शिकार हो बस रमुआ ही बचा था, खुद भी इसी तरह सिकुड़ता जा रहा था। वैसे था तो वह इतना हट्टा-कट्टा कि अगर तैश में आ जाता तो सामने वाले को एक हाथ में ही बता देता कि पट्टा तो तुम्हारे बाप ने भी नहीं लिखाया। बस चुप था तो इसलिए कि पैरों में कुछ जंजीरें पड़ी थीं।

जब वह पंद्रह-सोलह की उम्र में था तो अक्सर इस बात पर चिढ़ जाता था कि गांव के सात-आठ बरस के लड़के भी उसे सीधा नाम लेकर बुलाते हैं। दद्दा, दादा कुछ नहीं, बस रमुआ। इस बात पर उसके पिता ने कहा था, ‘वे ठाकुर हैं, ऊंची जात के। एक तो हमारी जात नीची, फिर हम काम भी तो उन्हीं के खेतों में करते हैं।’ तब वह नहीं समझ सका था कि नीची जात का होने की वजह से ठाकुरों के छोटे बच्चे उसका आदर नहीं करते, या इस वजह से कि वह उनके खेतों में काम करता है। पर वजह समझ न आने पर भी उसने इसी को अपने भी जीवन का सत्य मान लिया।

अब जब वह खुद एक पंद्रह-सोलह बरस के लड़के का पिता है और आज जब उसकी झोंपड़ी भी किसी के खलिहान में समाने वाली है, तो वह जान चुका है कि असल में वह सामने खड़े उससे आधी उम्र के लड़के के लिए रमुआ क्यों है। वह जान चुका है कि बिना ऐसा किए उसको नीचा या कमतर होने का एहसास नहीं कराया जा सकता और बिना इस एहसास के वह उन लोगों के तलुवे नहीं चाटेगा, जो उसकी मेहनत का फल भी उसे कृपा की तरह देते हैं।

उसे लग रहा था कि अगर आज वह अपनी झोंपड़ी किसी और के हवाले कर देता है, तो उसका बेटा भी इन्हीं जंजीरों में जकड़ा दूसरा रमुआ होगा। बेशक उसका पिता और आज वह खुद भी जिस जमीन पर बसा हुआ है, वह उसकी नहीं है, लेकिन वह जमीन उसे हड़पने को तैयार शख्स की भी नहीं है।

सामने से पड़ती गालियों की बौछार के बीच आखिरकार वह बोल ही उठा, ‘पट्टा किसके बाप ने लिखाया था, यह तो पटवारी ही आकर बताएगा।’

अपने हिस्से की जमीन पर रमुआ के पैर मजबूती से टिके थे।