‘चल हट! यहां क्या तेरे बाप ने पट्टा लिखाया था?’
मूंछों पर ताव देते हुए जब वह रमुआ से यह कह रहा था, तब शायद उसने खुद सोचा भी नहीं था कि वहां पट्टा तो उसके सदा शराबखोर स्वर्गवासी पिता ने भी नहीं लिखाया था। पर ठसक थी ठकुराई की, जिसके बूते अपने खलिहान की सीमा के विस्तार में आड़े आती रमुआ की झोंपड़ी उसकी अपनी बपौती थी।
रमुआ यानी रामअवतार, जो देशज उच्चारण के चलते रामौतार और फिर संक्षिप्तिकरण का शिकार हो बस रमुआ ही बचा था, खुद भी इसी तरह सिकुड़ता जा रहा था। वैसे था तो वह इतना हट्टा-कट्टा कि अगर तैश में आ जाता तो सामने वाले को एक हाथ में ही बता देता कि पट्टा तो तुम्हारे बाप ने भी नहीं लिखाया। बस चुप था तो इसलिए कि पैरों में कुछ जंजीरें पड़ी थीं।
जब वह पंद्रह-सोलह की उम्र में था तो अक्सर इस बात पर चिढ़ जाता था कि गांव के सात-आठ बरस के लड़के भी उसे सीधा नाम लेकर बुलाते हैं। दद्दा, दादा कुछ नहीं, बस रमुआ। इस बात पर उसके पिता ने कहा था, ‘वे ठाकुर हैं, ऊंची जात के। एक तो हमारी जात नीची, फिर हम काम भी तो उन्हीं के खेतों में करते हैं।’ तब वह नहीं समझ सका था कि नीची जात का होने की वजह से ठाकुरों के छोटे बच्चे उसका आदर नहीं करते, या इस वजह से कि वह उनके खेतों में काम करता है। पर वजह समझ न आने पर भी उसने इसी को अपने भी जीवन का सत्य मान लिया।
अब जब वह खुद एक पंद्रह-सोलह बरस के लड़के का पिता है और आज जब उसकी झोंपड़ी भी किसी के खलिहान में समाने वाली है, तो वह जान चुका है कि असल में वह सामने खड़े उससे आधी उम्र के लड़के के लिए रमुआ क्यों है। वह जान चुका है कि बिना ऐसा किए उसको नीचा या कमतर होने का एहसास नहीं कराया जा सकता और बिना इस एहसास के वह उन लोगों के तलुवे नहीं चाटेगा, जो उसकी मेहनत का फल भी उसे कृपा की तरह देते हैं।
उसे लग रहा था कि अगर आज वह अपनी झोंपड़ी किसी और के हवाले कर देता है, तो उसका बेटा भी इन्हीं जंजीरों में जकड़ा दूसरा रमुआ होगा। बेशक उसका पिता और आज वह खुद भी जिस जमीन पर बसा हुआ है, वह उसकी नहीं है, लेकिन वह जमीन उसे हड़पने को तैयार शख्स की भी नहीं है।
सामने से पड़ती गालियों की बौछार के बीच आखिरकार वह बोल ही उठा, ‘पट्टा किसके बाप ने लिखाया था, यह तो पटवारी ही आकर बताएगा।’
अपने हिस्से की जमीन पर रमुआ के पैर मजबूती से टिके थे।
गाँव के माहौल को चित्रित करती सुंदर कहानी
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