गुरुवार, 14 जून 2012

एक सुरमयी सांझ का अंत


       संगीत की सुनहरी किताब का एक और पन्ना मुड़ गया और साथ ही मुड़ गया वह रास्ता, जो थके-मांदे दिल-ओ-दिमाग, यायावरी सोच और हर उस लम्हे को, जिसमें कहीं कोई चुभन होती थी, सुकून की मंजिल तक ले जाता था। दुनियाभर के गजलप्रेमियों के बेहद चहेते और शहंशाह-ए-गजल के खिताब से नवाजे गए मेहदी हसन नहीं रहे।
       यह कहने की जरूरत नहीं कि वे लंबे अरसे से बीमार थे, लेकिन यह बात जरूर कहने की है कि उनकी बीमारी ने फिर एक बार यह साफ किया कि सियासत के गलियारों में कला की कोई कद्र नहीं। मेहदी हसन से जुड़कर उनकी जन्मस्थली राजस्थान के झुंझुनू जिले के लूणा गांव का जिक्र उनकी बीमारी के साथ ही शुरू हुआ। हर कोई जानता था कि उन्हें हिंदुस्तान से बहुत प्यार था। उनकी मृत्यु के बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री कहते हैं, ‘मेहदी हसन को इलाज के लिए राजस्थान सरकार ने पाकिस्तान से भारत लाने के लिऐ पूरे प्रयास किए, उनके परिवार के चार लोगों को केंद्रीय विदेश मंत्री के सहयोग से वीजा भी उपलब्ध करा दिया गया, लेकिन दुर्भाग्य से ज्यादा बीमार होने के कारण वे भारत नहीं आ सके।’ अब सवाल यह उठता है कि क्या मेहदी हसन तेरह वर्षों से लगातार इतने बीमार थे, कि उनका भारत की यात्रा करना मुश्किल था, और खासकर पिछले तीन साल, जो उनके लिए सबसे ज्यादा तकलीफदेह रहे, में भी क्या उनकी हालत कभी इस यात्रा के लायक नहीं रही, जबकि 2010 में आए एलबम ‘सरहदें’ के लिए गीत तैयार करने की उनकी स्थिति रही।
       इसे दो देशों के बीच की आपसी राजनैतिक स्थितियों का नतीजा भी नहीं कहा जा सकता कि एक जिंदगी से जूझता फनकार अपने इलाज के लिए उस सरहद को पार नहीं कर सका, जिसे अपनी आवाज के जरिए वह कब का नेस्तोनाबूद कर चुका था। असल में यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही मुल्कों की सरकार की कला और कलाकारों के प्रति उदासीनता का नतीजा है। प्रख्यात शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खां, राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित ढोलक वादक उस्ताद शकूर खां, और ऐसे ही कई नाम पहले भी इस उदासीनता का शिकार हो चुके हैं। यह किसी भी देश की सरकार के लिए एक सवालिया निशान है कि आखिर क्यों जिन फनकारों पर पूरा देश नाज करता है, जिनकी शोहरत को उनका बाजार भुनाता है और सरकार गर्व करती है, वह अपने आखिरी वक्त में सरकार की तरफ से मिल सकने वाली मदद से महरूम रह जाते हैं। मेहदी हसन का किस्सा भी इससे कुछ अलग नहीं है। यहां यह भी सवाल खड़ा होता है कि जब तमाम म्यूजिकल शोज के लिए बीते सालों में कई कलाकारों ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच की सरहद पार की, तब आखिर मेहदी हसन के लिए कौन-सी रुकावट थी? क्या यह कि एक उखड़ी हुई सांस बाजार उपलब्ध नहीं करा सकती थी?
       मेहदी हसन, जिनके लिए हिंदुस्तान और पाकिस्तान में कोई फर्क नहीं था, उन्हें दोनों देशों की सरकार बस शोक संवेदना ही दे सकी और दोनों मुल्कों की आवाम को एक जैसा सुकून देने वाली एक सुरमयी सांझ बिना कोई शिकवा किए ढल गई।

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