गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

बेवकूफ़ बनोगे ?


यूँ तो इसका कोई ख़ास महत्व नहीं रह गया है क्योंकि रोज़ ही कई-कई तरह से आदमी बनता-बनाता है। फिर भी, जैसी कि परंपरा है कि एक अप्रैल को आप ख़ास तौर से बेवकूफ़ बनाए जा सकते हैं, सो सतर्कता रखना लाजिमी था। मैं पूरी तरह सतर्क था और सोच रहा था कि वैसे ठीक ही है कि एक दिन लोग घोषित तरीके से एक-दूसरे को बेवकूफ़ बनाने की कोशिश करते हैं, बेचारे साल भर तो अनजाने में बनते ही रहते हैं, किसी दिन वे इस बात का भी तो सुख पाएँ कि देखो हम डंके की चोट पर भी बेवकूफ़ बना लेते हैं। रोज़ तो रोजी-रोटी और तमाम दुनियावी झंझटों में दबे-दबे रहते हैं, किसी दिन तो ललकार कर लड़ाई जीतने का सुख मिले। पर उन्हें ये सुख मैं क्यों दूँ? वे किसी और से पाएँ।

दूसरों को सुखी करना पुण्य का काम होता है, मैं अन्य लोगों को पुण्य कमाने का मौका देना चाहता था। सो मैं सतर्क था। जिनका छठे-चैमासे ही कभी फोन आता था, वे भी इस सुख की लालसा में मुझे फोन कर रहे थे और मैं कॉल अटेण्ड न करके उन्हे सुख से वंचित किए हुए था। छोड़ी गई कॉल की सूची बढ़ती जा रही थी कि इसी बीच मोबाइल के चित्र-पटल पर लल्लन मियाँ अवतरित हुए।

लल्लन मियाँ से अप्रैल फ़ूल वाला ख़तरा नहीं होता। सीधे-साधे आदमी हैं। इतने कि हर साल इस दिन बहुत सारा पुण्य कमा लेते हैं। सो बिना झिझक उनकी कॉल रिसीव की। हैल्लो बोलते ही सवाल सुनाई दिया – ‘भाई मियाँ, बेवकूफ़ बनोगे?’ मैंने कहा – ‘क्या लल्लन मियाँ! अब आप भी बेवकूफ़ बनाएँगे, वो भी पूछ कर। कोई जान-बूझकर भी बेवकूफ़ बनता है भला?’ वे बोले- ‘क्या बात करते हो मियाँ! अरे आजकल जान-बूझकर बेवकूफ़ बनने का ही रिवाज है। शायद तुम्हें पता नहीं है कि बेवकूफ़ बनना आजकल समझदारी का सर्टिफिकेट है। अगर आप अब तक नहीं बने हैं तो नालायक या कमअक़्ल समझे जा सकते हैं। इसलिए लोग जान-बूझकर बेवकूफ़ बन रहे हैं।’

जब मैंने कहा कि भई साफ़-साफ़ कहिए कि जान-बूझकर बेवकूफ़ बनने से आपकी मुराद क्या है, तो वे अपने चिर-परिचित अंदाज में गरियाते हुए बोले- ‘यार पता नहीं क्यों लोग तुम्हें समझदार कहते हैं! ज़रा-सी बात तो खुलासा किए बिना तुम्हारे पल्ले नहीं पड़ती। खैर छोड़ो... बात ये है कि बहुत लोग ‘आप’ में मच रही कलह के बारे में कह रहे हैं कि हमें तो पहले से पता था ऐसा होगा। आज नहीं तो कल महत्वाकांक्षाएँ और अहंकार टकराते ही, और पार्टी में टूटन आती ही। जब हमने उनसे पूछा कि भाई जब इतना सब पहले से ही पता था तो क्यों उस पार्टी के समर्थन में लिख-लिखकर काग़ज़ और फेसबुक काला कर रहे थे, जिसकी दो दिन की चाँदनी थी? जवाब में लोगों ने कहा कि अरे सबका कच्चा चिट्ठा दिखाती हुई, सबको गरियाने वाली, ईमानदार और क्रांतिकारी टाइप पार्टी बनी थी। इतने बड़े-बड़े विद्वान उससे जुड़ रहे थे। अगर उसे सपोर्ट न करके पुरानी भ्रष्टाचारी पार्टियों का समर्थन करते तो लोग हमें बेवकूफ़ न कहते।’

थोड़ा रुक कर लल्लन मियाँ आगे बढ़े- ‘कल ऐसे ही टहलते हुए तीन-चार भाजपा के वोटरों से भी बात हो गई। वे कह रहे थे कि हमें पता है कि काला धन वापस आ भी जाए तो किसी के खाते में एक पैसा नहीं आने वाला और कांग्रेस ने जितना बेड़ागर्क किया बताते हैं उस हिसाब से सौ दिन तो क्या सौ हफ़्ते में भी कोई अच्छे खाँ अच्छे दिन नहीं ला सकता। हमने उनसे भी पूछा कि फिर क्यों वोट दिया? वे बोले- क्या बात करते हैं साहब! अरे मोदी की लहर चल रही थी। कांग्रेस की नैया तो डूबनी ही थी। पिछले चुनावों में कांग्रेस को वोट दिया था। पर अब डूबती नैया पर सवार होकर बेवकूफ़ तो न कहलाते।’

‘अब तुम ही बताओ भाई मियाँ, बेवकूफ़ न कहलाएँ, इस चाहत में लोग अगर एक पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी से सहर्ष बेवकूफ़ बनना स्वीकारें तो  यह जान-बूझकर बेवकूफ़ बनना हुआ कि नहीं।’

इधर मैं यह सोचने लगा कि बहती हवा के साथ रुख़ बदलने के तो कई उदाहरण हैं पर क्या वाकई यह संभव है कि लोग सिर्फ़ इसलिए किसी पार्टी का समर्थन करने लगें कि वे बेवकूफ़ न कहलाएँ। उधर लल्लन मियाँ गला साफ करते हुए बोले – ‘वैसे भाई मियाँ हम सोच रहे हैं कि सरकार को एक कानून बना देना चाहिए कि हर आदमी को साल में न्यूनतम आठ-दस या जितना सरकार निश्चित करे उतनी बार सरकारी तौर पर बेवकूफ़ बनना अनिवार्य होगा। अगर आप बेवकूफ़ बनने की अपनी न्यूनतम सीमा तक नहीं पहुँचते हैं तो माना जाएगा कि आप राष्ट्रहित में अपना योगदान नहीं दे रहे हैं।’

मैंने पूछा इससे क्या होगा, तो लल्लन मियाँ बोले- ‘भाई एक तो जनता के सिर से यह बोझ उतर जाएगा कि वह ठगी गई, सरकार ने उसे झूठे सब्ज़बाग़ दिखाए। जनता को पता रहेगा कि हम बेवकूफ बन रहे हैं और संतोष रहेगा कि सब कानून के हिसाब से हो रहा है। दूसरे, सरकार को भी एक ही चीज़ के लिए एक के बाद एक सौ झूठ नहीं बोलने पड़ेंगे। अब जैसे अपने प्रधानमंत्री जी भूमि अधिग्रहण को लेकर कभी बोल रहे हैं कि किसानों का विकास होगा, कभी कहते हैं उनके बच्चों का भविष्य संवरेगा, कभी कहते हैं रोज़गार बढ़ेगा, कभी कहते हैं देश प्रगति करेगा। इतना कुछ नहीं कहना पड़ेगा न। एक जुमले में बात निपट जाएगी कि मित्रो, आपको सरकारी तौर पर बेवकूफ बनना है कि विकास होगा।’