गुरुवार, 29 सितंबर 2011

सरकारी योजनाएं और श्रम


भारतीय व्यवस्था में 1936 से लेकर अब तक कई कानून श्रमिकों को केंद्र में रखते हुए बनाए गए हैं। राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर श्रमिकों के जीवन स्तर में सुधार के लिए तमाम शासकीय योजनाएं भी संचालित की गईं। कुछ में सुधार किए गए, कुछ का अन्य योजनाओं में विलयन कर दिया गया। फिर भी आज श्रमिक वर्ग की स्थिति कैसी है यह किसी से छुपा नहीं है। बेशक श्रमिकों में जागरूकता  है, अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रवृत्ति व हौसला है। स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के तमाम संगठन हैं, लेकिन क्या श्रमिकों की स्थिति में सुधार हुआ है? कानूनों, शासकीय योजनाओं, प्रयासों के प्रकाश में यह सवाल बचकाना लग सकता है, पर शायद इतना छोटा भी नहीं है कि इसके बारे में गंभीरता से बात न की जाए। यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि श्रमिक का तात्पर्य सिर्फ कुदाल हाथ में लिए, सिर पर बोझा लादे और नंगे बदन वाली तस्वीर ही नहीं है, श्रमिकों का दायरा इससे कहीं अधिक व्यापक है।

शासकीय योजनाओं की बात करें, तो संप्रग सरकार की मनरेगा योजना पूर्णत: मजदूरों की योजना है। नरेगा से मनरेगा तक का सफर तय कर चुकने के बाद भी स्थिति यह है कि तकरीबन 30 प्रतिशत मजदूर आबादी रोजगार की तलाश में अब भी पलायन करती है। पिछले सालों की रिपोर्टों पर नजर डालें तो पाएंगे कि कुछ अपवादों को छोड़कर पूरे सौ दिन का काम कहीं भी मजदूरों को नहीं मिला है। यह अधिकतम 60 से 80 दिनों तक आकर अटक जाता है। यानी अब तक सरकार एक वर्ष में 100 दिन का रोजगार सभी मजदूरों को पूरे भारत में कहीं भी सुनिश्चित नहीं कर सकी। ऐसी स्थिति में यदि लोगों की सहभागिता कम हो रही है, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

हाथकरघा व अन्य घरेलू उद्योगों में लगे लोगों की स्थिति तो और भी खराब है। अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आपके पास उत्पादन के लिए कच्चा माल है, उत्पादन की क्षमता है, तैयार उत्पाद हैं लेकिन बेचने के लिए स्थाई और पर्याप्त बाजार उपलब्ध नहीं है। सरकार हथकरघा उद्योग के लिए आर्थिक सहयोग प्रदान करती है, परंतु तैयार माल को बेचने के लिए खुले बाजार के नाम पर सिर्फ इतनी सुविधा प्रदान करती है कि जिला, राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर 6 से 10 दिन की एक प्रदर्शनी लगाई जाए। रोजमर्रा के इस्तेमाल की वस्तुएं बहुत कम मूल्य पर घरेलू उद्योगों से उपलब्ध हो सकती हैं, परंतु उसे बाजार तक पहुंचाने के सरकारी प्रयास अपर्याप्त हैं। नतीजतन जब यही उत्पाद निजी कंपनियों द्वारा बाजार में पहुंचते हैं, तो कीमत तीन से चार गुना ज्यादा होती है और लाभ निजी कंपनियों की जेब में पहुंचता है। हालांकि इन उत्पादों की एक बड़ी खरीदार भारत सरकार खुद है, जिसके लिए उद्योगों का शासकीय खरीद योजना में पंजीकृत होना जरूरी है, परंतु वर्तमान में निरंतर रोजगार के लिए बढ़ते पलायन और इन उद्योगों से प्राप्त उत्पादों की बाजार में उपलब्धता के प्रतिशत को देखें, तो इस व्यवस्था की सफलता और क्रियान्वयन प्रक्रिया पर प्रश्न खड़ा होता है। सरकारी योजनाओं में इन उद्योगों को कम कीमत पर कच्चा माल उपलब्ध कराने, उद्योग स्थापना के लिए आवश्यक धनराशि मुहैया कराने, प्रशिक्षण प्रदान करने जैसी तमाम बातों का समावेश है, लेकिन उद्योग को बरकरार रखने के लिए सबसे आवश्यक तत्व 'बाजार तक पहुंच' को सुनिश्चित करने के कोई ठोस और वृहद इंतजाम नजर नहीं आते।

ऐसे ही कुछ तथ्य कानूनों के संदर्भ में भी हैं। यदि बाल श्रम उन्मूलन अधिनियम को ही देखा जाए तो काम में लगे बच्चों को शिक्षा की ओर ले जाना बहुत महत्वपूर्ण व सार्थक कदम है। बच्चों से काम कराने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई करना भी कानून के क्रियान्वयन में उपयोगी है। तमाम सामाजिक संस्थाएं इसके लिए कार्यरत हैं, फिर भी बच्चे काम करते दिख ही जाएंगे। सवाल यह है कि बच्चे आखिर काम कर क्यों रहे हैं? जवाब आसान है - सरकार के लिए वे सिर्फ बच्चे हैं, उनके परिवार के लिए कमाऊ सदस्य। यदि 8-10 साल का बच्चा कहीं काम कर रहा है, तो निश्चित ही वह मजे के लिए नहीं कर रहा, अपने परिवार की आर्थिक आवश्यकता को पूरा करने में सहयोग कर रहा है। यानी उसके परिवार के पास रोजगार के पर्याप्त साधन नहीं हैं।

न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के संदर्भ में अगर उत्तर प्रदेश की ही बात करें, तो न्यूनतम कृषि मजदूरी 100 रुपये है, यानी रोज काम करने पर वर्ष भर में एक व्यक्ति 36,500 रुपये कमाता है। मनरेगा में 100 दिन के काम का प्रावधान है यानी 10,000 रुपये सालाना। सरकार के आंकड़ों को ही मानें, तो प्रतिदिन भोजन के लिए औसतन 20 रुपये की जरूरत होती है, यानी साल भर में 7300 रुपये भोजन पर खर्च होते हैं। बाकी बचे 2700 रुपये से क्या साल भर के लिए स्वास्थ्य, कपड़े, आवास, शिक्षा व अन्य मूलभूत सुविधाएं प्राप्त की जा सकती हैं? खासकर तब, जबकि न्यूनतम मजदूरी वर्ष में एक बार बढ़ी हो और उपभोग्य वस्तुओं की कीमत चार बार।
यह तथ्य भी विचारणीय है कि एक तरफ तो सरकार गरीबों/श्रमिकों के जीवनस्तर में सुधार के लिए नित नई योजनाओं को अंजाम देती आई है, दूसरी ओर उन्हें निशाना भी बनाती है। जल विद्युत परियोजनाओं, बड़े बांधों, विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों (सेज) के नाम पर जो विकास है, उसके विस्थापितों का आज तक पूर्णत: पुनर्वास नहीं हो सका है। मैंगलौर, उड़ीसा, झारखंड, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश व और भी कई स्थानों पर विकास परियोजनाओं के चलते आज भी विस्थापन जारी है। इन विस्थापितों के सामने रोजगार की समस्या पहले से नहीं है, बल्कि सरकार निर्मित है। जिनके पास अपने जीवन-यापन के लिए कृषि भूमि या प्राकृतिक संसाधन थे, उनसे वह भी छीने जा रहे हैं और बदले में हैं सिर्फ आश्वासन। नतीजतन जो आत्मनिर्भर थे, आज मजदूरी पर निर्भर हैं। महानगरों में निर्माण और विकास कार्यों के लिए जो मजदूर कम पारिश्रमिक पर लाए जाते हैं, काम खत्म होने पर अपेक्षा की जाती है कि वे वापस अपने गृहनगर चले जाएं, जहां से वे अपने रोजगार के संसाधनों को छोड़कर आए हैं। प्रश्न यह है कि क्या वे वापस जाकर पुन: वह रोजगार पा सकेंगे? कॉमनवेल्थ खेलों के लिए तमाम मजदूर दिल्ली आयातित किए गए और अब उनके रहने की व्यवस्था पर भी सरकार की कोई चिंता नहीं है। इस हालत में यह एक बड़ा सवाल है कि महानगरों में रह रहे मजदूरों के रोजगार के लिए क्या ठोस कदम उठाए गए हैं, सिवाय रजिस्ट्रेशन करने के।

शनिवार, 17 सितंबर 2011

कव्वाली का सफ़र



अमीर खुसरो, बाबा बुल्ले शाह, बाबा फरीद, ख्वाजा गुलाम फरीद, हजरत सुल्तान बाहू, सचल सरमस्त और वारिस शाह। ये नाम सुनते ही जो याद आता है, वह है सूफियाना रंगत में डूबा कलाम। मोहब्बत के दीन को फैलाता कलाम। और सहसा ही याद आ जाती हैं कव्वालियां। 8वीं सदी में आज के ईरान और अफगानिस्तान में संगीत की इस अद्भुत विधा ने अपनी दस्तक दी थी। अपने शुरुआती दौर से ही सूफी रंगत में डूबी यह विधा 13वीं सदी में भारत में आई। अमीर खुसरो और उनके अनुयायियों ने भारतीय संगीत के साथ इसे मिलाकर एक नया रूप दिया। आज कव्वाली के जिस रूप को हम जानते और सुनते हैं, वह यही रूप है। तकरीबन 700 साल पहले पंजाब और सिंध प्रांतों में जन-जन के बीच गहरी पैठ बना चुकी कव्वाली आज हिंदुस्तान के हर कोने और हर जुबान में गाई जाती है। फिर भला कैसे हो सकता है कि पूरे हिंदुस्तान के संगीत को एक बड़ा मंच देने वाली हमारी फिल्म इंडस्ट्री इससे अछूती रह जाती।

धूम मचाती कव्वाली
1934 में जब पहली बार फिल्म 'नाइट बर्ड' में 'हसीनों के लिए' कब्वाली आई थी, तब शायद किसी ने यह सोचा नहीं होगा, कि एक दिन कव्वाली फिल्मों का अहम हिस्सा बन जाएगी। लेकिन यह हुआ और कुछ ऐसे हुआ कि आज भी फिल्मों पर कव्वालियों का खुमार छाया हुआ है। कई फिल्में तो ऐसी रहीं, जो अपनी कहानी या अदाकारों के लिए कम जानी गईं, लेकिन उनके संगीत में शामिल कव्वाली के लिए बेतहाशा शोहरत बटोरी। ऐसी ही एक फिल्म थी 1958 में आई 'अल हिलाल'। इस फिल्म का नाम भले ही याद न रहा हो, लेकिन इसमें शामिल कव्वाली 'हमे तो लूट लिया मिल के हुस्नवालों ने' शायद ही कोई होगा, जिसने न सुनी होगी। हालांकि फिल्मी कव्वालियों में संगीत और अंदाज को लेकर शुरुआती दौर से अब तक काफी प्रयोग हुए हैं। कव्वालियों के गायन और मूल अंदाज से जितने हम परिचित है, उसके मुताबिक देखा जाए तो फिल्मी कव्वालियां एक अलग ही ढंग में नुमायां हुई हैं। बावजूद इसके कव्वाली की रूह और अंदाज को बरकरार रखती बंदिशों की भी कमी नहीं है। और देखा जाए तो असल अंदाज के नजदीक रही इन कव्वालियों ने ही सबसे ज्यादा शोहरत भी बटोरी है। फिल्म 'बरसात की रात' की कव्वाली 'न तो कारवां की तलाश है' इसी तरह की कव्वाली थी। इसके अलावा 'तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर' (मुगल-ए-आजम), 'निगाहें मिलाने को जी चाहता है' (दिल ही तो है), 'ऐ मेरी जोहराजबीं' (वक्त), 'ये माना मेरी जां' (हंसते जख्म), 'झूम बराबर झूम शराबी' (फाइव राइफल्स), 'हम किसी से कम नहीं' (हम किसी से कम नहीं), 'पल दो पल का साथ हमारा' (द बर्निंग ट्रेन) और 'इस शाने करम का क्या कहना' (कच्चे धागे) जैसी कव्वालियां हर दौर में आती रही हैं, जिन्होंने फिल्मों में शामिल होते हुए भी अपनी अलग मकबूलियत हासिल की है और आज भी सुनने वालों के दिलों में धूम मचाए हुए हैं।

वे जो कव्वाल थे
फिल्मी कव्वालियों का इतिहास अगर टटोला जाए, तो सामने आता है कि जिन कव्वालियों ने सबसे ज्यादा मकबूलियत हासिल की, उनमें से अधिकांश को आवाज देने वाले गायक पारंपरिक कव्वाली से वास्ता रखते हैं। इस्माइल आजाद, आगा सरवर, शकीला बानो भोपाली, अजीज नाजां, यूसुफ आजाद, राशिदा खातून, जानी बाबू, उस्ताद नुसरत फतेह अली खान, अल्ताफ राजा और मुनव्वर मासूम कुछ ऐसे ही नाम हैं, जो मूलत: महफिल-ए-समा (कव्वाली की महफिल) की रौनक रहे, लेकिन जिनकी गाई फिल्मी कव्वालियों ने भी जबरदस्त धूम मचाई। हिंदी सिनेमा में यह शुरुआत होती है, इस्माइल आजाद के साथ। 'ये जालिम हसीं हैं सितमगर निराले' (जहाजी लुटेरा), 'मोहब्बत की दुनिया' (आलमआरा की बेटी) को अपनी आवाज देने वाले इस्माइल आजाद की गाई कव्वाली 'हमे तो लूट लिया' की शोहरत किसी से छुपी नहीं है। 'सांझ की बेला', 'आलमआरा', 'टैक्सी ड्राइवर', 'सरहदी लुटेरा', 'आज और कल', 'जीनत' और 'सीआईडी' जैसी फिल्मों में अपनी आवाज का जादू बिखेरने वाली शकीला बानो भोपाली की ख्याति तो देश ही नहीं विदेशों तक में अपने परवान पर रही है। महज 22 साल में कव्वाली गायन के मामले में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पा लेने वाले अजीज नाजां की तो बात ही अलग है। शायद आपको यकीन न हो कि फिल्मी कव्वालियों में शुमार होने के पहले ही अजीज नाजां की दो कव्वालियां बेहद लोकप्रिय हो चुकी थीं। 1972 तक उनकी गाई 'निगाहे करम' और 'झूम बराबर झूम शराबी' अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो चुकी थीं। उसके बाद 1973 में आई फिल्म 'मेरे गरीब नवाज' में इन दोनों की झलकियां दिखाई गई थीं। फिर जब 1974 में आई एस जौहर की फिल्म 'फाइव राइफल्स' आई, तो उसमें 'झूम बराबर झूम' पूरी तरह से शामिल की गई। इसके बाद 'रफूचक्कर', 'फकीरा', 'लैला मजनूं', 'नहले पे दहला', 'कुर्बानी' और 'उस्तादी उस्ताद से' जैसी कई फिल्मों में उनकी गाई कव्वालियों की धूम बरकरार रही। बीच-बीच में पारंपरिक कव्वालियों से हटकर कुछ फ्यूजन कव्वालियां भी आती रहीं या फिर सॉफ्ट कव्वालियों जैसा कुछ भी चलता रहा, लेकिन कव्वालियों का मूल अंदाज फिल्मों में दिखाई देता रहा। हालांकि 90 के दशक तक आते-आते कव्वालियां फिल्मों से तकरीबन नदारद हो गई थीं, या फिर जिस तरह की कव्वालियां आ रही थीं, वे परंपरागत स्वरूप से बहुत अलग किस्म की थीं, लेकिन जब 1997 में नुसरत फतेह अली खान 'जिंदगी झूमकर मुस्कुराने को है' (और प्यार हो गया) लेकर आए, तो फिर से पारंपरिक कव्वाली गाने वालों की फिल्मों में जगह बनी और अल्ताफ राजा, मुनव्वर मासूम जैसी कव्वालों ने अपनी आवाज का जादू बिखेरा।

जो नहीं थे कव्वाल
पारंपरिक कव्वाली के हुनर से ताल्लुक रखते गायकों ने तो अपनी धूम मचाई ही, लेकिन सुगम-संगीत और शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों ने भी कम धमाल नहीं मचाया। मन्ना डे, मोहम्मद रफी, शमशाद बेगम, लता मंगेशकर, किशोर कुमार और आशा भोंसले की आवाजों में सुनाई देने वाली कव्वालियां आज भी अपना जलवा बिखेरती हैं। 'ऐ मेरी जोहराजबीं' (वक्त), 'निगाहें मिलाने को जी चाहता है' (दिल ही तो है), 'कहा है उन्होंने ये राजे मोहब्बत' (अनहोनी), 'कभी बेकसी ने मारा' (अलग-अलग), 'पर्दा है पर्दा' (अमर अकबर एंथनी), 'कभी हमसे कभी गैरों से' (अरब का सितारा) जैसी कव्वालियों में जहां इन गायकों ने  अलग-अलग इस विधा को जबरदस्त प्रस्तुति दी है, वहीं 'न तो कारवां की तलाश है' (बरसात की रात), 'निगाहे शौक से कह दो' (वांटेड) और 'महंगाई मार गई' (रोटी कपड़ा और मकान) जैसी कव्वालियों में इन्होंने मिलकर एक अनूठा समां बांधा है, जिसमें मुकेश, नरेंद्र चंचल जैसे फिल्मी और बातिश, जानी बाबू जैसे कव्वाली गायक भी शामिल रहे हैं। पारंपरिक कव्वाली के मंझे हुए गायकों से शुरू हुआ फिल्मी कव्वालियों का सफर 60 के दशक तक एक नई राह मुड़ चुका था और इसके मुसाफिरों की संख्या में भी भारी बदलाव हो चुका था। पारंपरिक अंदाज से हटकर एक नए कलेवर में कव्वालियां सामने आने लगी थीं और कव्वाली गायन के लिए रफी, मन्ना डे और आशा भोंसले पहली पसंद बन चुके थे। जहां एकल गायन की बात आती तो बाजी अधिकतर रफी और आशा भोंसले के ही हाथ आती। हालांकि लता भी इस मामले में किसी कदर पीछे नहीं रहीं। 'मुगल-ए-आजम' में शमशाद बेगम के साथ गाई 'तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर' जितनी लोकप्रिय हुई, उतनी ही लोकप्रियता उस कव्वाली को भी मिली, जिसे लता ने अकेले ही गाया था। यह कव्वाली थी फिल्म 'अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में, रूठें पल में न माने महीनों में' (मेरे हमदम मेरे दोस्त)। बाद के दौर में मोहम्मद अजीज, सोनू निगम, विनोद राठौर जैसे गायकों ने भी कव्वाली गायन में ऐसी ही शोहरत हासिल की।

लिखने का हुनर
कव्वालियों ने खूब शोहरत बटोरी और उन्हें गाने वालों ने भी, लेकिन उन्हें मकबूलियत दिलाने में उनके शब्दों ने भी बड़ी अहम भूमिका निभाई है। फिल्मी कव्वालियों में एक तरफ जहां अमीर खुसरो का लिखा 'आज रंग है री' जैसा कलाम शामिल किया गया, वहीं बाबा बुल्ले शाह, वारिस शाह और गुलाम फरीद जैसे सूफी संतों का कलाम भी खूब इस्तेमाल किया गया। अगर फिल्मी गीतकारों की बात की जाए तो कव्वालियां लिखने में नख्शब, साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी इस विधा के विशेषज्ञ माने जाते थे। नख्शब 60 के दशक से पहले के गीतकार थे, उस दौर में आईं अधिकांश कव्वालियां उन्होंने ही लिखी हैं। नख्शब निर्देशक भी थे। 1945 में आई फिल्म 'जीनत' की मशहूर कव्वाली 'आहें न भरीं शिकवे न किए' नख्शब की ही लिखी हुई है। बाद के दशकों में कव्वाली लेखन के मामले में साहिर लुधियानवी फिल्मकारों की पहली पसंद थे। 'न तो कारवां की तलाश है' (बरसात की रात), 'निगाहें मिलाने को जी चाहता है'(दिल ही तो है), 'चांदी का बदन' (ताज महल), 'वाकिफ हूं खूब इश्क के' (बहू बेगम), 'ऐ मेरी जोहराजबीं' (वक्त) जैसी मशहूर कव्वालियां साहिर ने ही लिखी हैं। वैसे 'हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम' (अनोखी अदा), 'पर्दा है पर्दा' (अमर अकबर एंथनी) जैसी कव्वालियों में मजरूह सुल्तानपुरी की लेखनी ने भी कमाल ढाया है। इसके अलावा नाजा शोलापुरी (झूम बराबर झूम शराबी), शेवन रिजवी (हमे तो लूट लिया), शकील बदायूंनी (तेरी महफिल में), आनंद बख्शी (सच्चाई छुप नहीं सकती), वर्मा मलिक (महंगाई मार गई - रोटी कपड़ा और मकान, राज की बात कह दूं तो - धर्मा) ने भी फिल्मी कव्वालियों को शोहरत के सातवें आसमान पर पहुंचाने में शब्दों की जबरदस्त बाजीगरी दिखाई है।

संगीत का तड़का
फिल्मी कव्वालियों से श्रोताओं को झूमने के लिए मजबूर कर देने वाला संगीत का जादू जगाने में रोशन का नाम पहले नंबर पर आता है। हालांकि रोशन के पहले भी कव्वालियां कम लोकप्रिय नहीं थीं, लेकिन उनका रंग पारंपरिक कव्वाली वाला ही था। आज फिल्मी कव्वालियों के जिस रूप से हम वाकिफ हैं, वह रोशन की ही देन है। रोशन की फिल्मी कव्वालियों का रंग ऐसा चढ़ा कि आज तक नहीं उतरा है। पाकिस्तान यात्रा के दौरान रोशन ने सुनी कव्वाली 'ये इश्क इश्क है', और अनुमति लेकर अपनी फिल्म 'बरसात की रात' में इसका जो बेहतरीन इस्तेमाल एक नए अंदाज में किया, तो यह आज तक की सबसे चर्चित कव्वाली बन गई। संगीतकार रोशन के बाद यह जादू बिखेरा लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और कल्याणजी-आनंदजी ने। इन जोड़ियों ने 'अनोखी अदा', 'द बर्निंग ट्रेन' 'शंकर शंभू' जैसी कई फिल्मों में कव्वाली का अद्भुत जादू जगाया। 'पर्दा है पर्दा' तो लक्ष्मी-प्यारे की सबसे लोकप्रिय कव्वालियों में शुमार की जाती है। हालांकि रोशन के जगाए जादू में भी बाद के दशकों में परिवर्तन हुए, खासकर 90 के दशक के बाद जब फिर से कव्वालियां फिल्मों में शुमार हुईं, तो एक नया ही रूप सामने था। इस नए रूप को कहा गया टेक्नो कव्वाली। पारंपरिक के साथ पॉप और रॉक म्युजिक के फ्यूजन से बना था यह रूप। कमाल की बात तो यह कि हिंदी फिल्मों में संभवत: पहली टेक्नो कव्वाली पारंपरिक कव्वाली की अजीम शख्सियत उस्ताद नुसरत फतेह अली खान ने गाई थी। फिल्म 'और प्यार हो गया' की कव्वाली 'जिंदगी झूम कर मुस्कुराने को है', संभवत: पहली टेक्नो कव्वाली है। इसके बाद तो 'इश्क का रुतबा इश्क ही जाने' (कारतूस), 'तुमसे मिलके दिल का है जो हाल' (मैं हूं न) और 'कजरारे-कजरारे' (बंटी और बबली) जैसी टेक्नो कव्वालियों ने बेतहाशा धूम मचाई, जिनमें नुसरत फतेह अली खान, अनु मलिक और शंकर-अहसान-लॉय जैसे संगीतकारों ने गजब के प्रयोग किए। हालांकि नुसरत ने 'इस शाने करम का' (कच्चे धागे) जैसी पारंपरिक कव्वाली से भी लोगों को झूमने पर मजबूर किया है। यह भी बड़ी ही दिलचस्प बात है कि संगीत के क्षेत्र में तमाम सफल प्रयोग करने वाले संगीतकार ए आर रहमान कव्वाली के मामले में पारंपरिक अंदाज को ही तरजीह देते हैं। टेक्नो कव्वालियों के दौर में रहमान ने फिल्म 'फिजा' में 'पिया हाजी अली' जैसी पारंपरिक कव्वाली देकर जो धूम मचाई थी, वह आज भी बरकरार है। उनकी 'ख्वाजा मेरे ख्वाजा' (जोधा अकबर) और 'अर्जिंयां' (दिल्ली-6) जैसी कव्वालियां पारंपरिक कव्वालियों की परंपरा को फिल्मों में आज भी एक खास मुकाम दिलाने में कामयाब रही हैं।
(२० मई २०११ को जनवाणी में प्रकाशित)