गुरुवार, 18 जुलाई 2013

जानवरों का विरोध प्रदर्शन


अभी-अभी लल्लन मियाँ का फोन आया था। यूँ तो वे आसानी से होते नहीं हैं लेकिन बड़े परेशान थे। उनका परेशान होना ही गंभीर मसले का आभास देता है, सो इस बार तो वे बड़े परेशान थे। बोले- ‘भाई मियाँ गजब हो गया। मेरे मोहल्ले के सारे जानवर अचानक से विरोधी हो उठे हैं। गाय, भैंस, गधे, कुत्ते, मुर्गे-मुर्गियां, सुअर सब इतनी रात गए इकट्ठे होकर गलियों में रैली निकाल रहे हैं और नारे लगा रहे हैं।’
(कल्पतरु एक्सप्रेस में 16 जुलाई 2013 को प्रकाशित)

मैंने कहा कि ‘यूँ ही मौज में आए होंगे। अभी भी गर्मी अच्छी-खासी है तो रात की ठंडक का मजा लेने निकले होंगे और हँसी-ठिठोली कर रहे होंगे। दिन में तो आप लोग उन्हें घूमने नहीं देते, कभी लट्ठ मारते हो कभी लतिया देते हो तो कभी अपनी गाड़ी के नीचे कुचलकर भी शर्म नहीं करते। अब जब खुल्ली सड़कें मिली हैं तो वे भी अपना कोटा पूरा कर रहे होंगे।’ इस पर लल्लन मियाँ बोले- ‘अमाँ यार तुम बकवास न करो। हम क्या उनकी हँसी-ठिठोली समझते नहीं हैं। रात-दिन देखते हैं उन्हें। मियाँ मामला इतना सरल नहीं है, वे नारे ही लगा रहे हैं और कह रहे हैं कि इस इन्सानी जिन्स का कुछ इलाज करना पड़ेगा। अब वक़्त आ गया है कि हम अपने प्रति अन्याय का इससे हिसाब माँगें।’

जिज्ञासावश मैंने पूछा कि आपको कैसे पता कि वे क्या कह रहे हैं? क्या आप उनकी भाषा समझते हैं? तो लल्लन मियाँ बोले- ‘लो कल्लो बात! अरे जब इन्सान उनकी तरह चुनावों में एक-दूसरे पर भौंक सकते हैं, उल्टी पड़ जाने पर मिमिया सकते हैं, समर्थन में डेंचू-डेंचू बोल सकते हैं, दुलत्ती मारकर भी गाय की तरह भोलेपन से रँभा सकते हैं तो क्या वे हमारी भाषा नहीं सीख सकते, टूटी-फूटी ही सही। वे सुबह चौक पर इकट्ठे होकर इन्सानों से जवाब तलब करने की माँग कर रहे हैं और ऐसा न होने पर पूरे शहर में चक्का जाम करने की धमकी दे रहे हैं। मियाँ हमें तो समझ नहीं आ रहा कि क्या करें?’

मैंने उन्हें मशविरा दिया कि आप सुबह उनकी बात सुन ही आइए, एक दफा बातचीत कर लेने में हर्ज भी कोई नहीं है। लगे कि बात संभल नहीं रही तो आप भी चुनावी वक्तव्यों टाइप का कुछ इस्तेमाल कर लीजिएगा, उन्हें अपना भाई-बहिन कह दीजिएगा। कह दीजिएगा कि आप खुद में और उनमें कोई भेद नहीं समझते, जैसा कि हाल ही में एक नेताजी ने कहा है।

लल्लन मियाँ थोड़े आश्वस्त हुए। बोले- ‘ठीक है मियाँ। सुन लेते हैं कि आखिर ये सारे जानवर चाहते क्या हैं। लेकिन यार धुकधुकी तो फिर भी लगी है, पता नहीं वे किन सवालों के जवाब चाहते हैं? ख़ैर सुबह जाते हैं चौक पर और लौटकर बताते हैं क्या हुआ?’

लल्लन मियाँ तो फोन रखकर गायब हो गए लेकिन मेरा दिमाग उलझन में पड़ गया कि आख़िर माजरा क्या है? किस अन्याय से इन जानवरों की आत्मा आहत हो गई है? किसी की भावनाओं को सबसे जल्दी ठेस तो तब लगती है जब बाचतीत में उसके धर्म का ज़िक्र आ जाए, पर इन्सान तो हमेशा एक-दूसरे के धर्म का तिया-पाँचा करने में लगा रहा, इनके धर्म की तो कभी बात ही नहीं हुई? कभी इनकी माँ-बहनों को भी नहीं छेड़ा क्योंकि इन्सान को अभी तक अपनी ही प्रजाति का चीरहरण करने से फुरसत नहीं मिली। न जाने क्या मामला है?
पता नहीं क्या-क्या दिमाग में घूम रहा है। अब तो लल्लन मियाँ ही इन गुत्थियों को सुलझा सकते हैं जब वे चौक पर आयोजित जानवरों की सभा से लौटेंगे। 

बुधवार, 17 जुलाई 2013

निशाँ कुछ बचे हैं मिटाते-मिटाते


तीन साल पहले एक शेर कहा था, दो साल पहले दो और कहे और फिर तीन शेर अभी कुछ दिन पहले। तीन साल का सफ़र तय करके एक गज़ल बनी और मजे की बात यह कि मतला, जो किसी ग़ज़ल का प्रस्थान बिंदु होता है और सबसे पहले अस्तित्व में आता है, सबसे आख़िर में कहा गया। बहरहाल ग़ज़ल यूं है-

हम रह गए थे बुलाते-बुलाते
कुछ अरमान जागे सुलाते-सुलाते

लगता नहीं जी कहीं अब हमारा
जो तुम याद आए भुलाते-भुलाते

बस इक ख़ता ने ये अंजाम पाया
नज़र मिल गई थी चुराते-चुराते

निस्बत तो उसको हमसे भी थी कुछ
न यूँ अश्क़ बोता छुपाते-छुपाते

यूँ तो शहर ये बदला बहुत है
निशाँ कुछ बचे हैं मिटाते-मिटाते

कम तो नहीं है 'साहिल' कि इक दिन
वो हँस पड़ा था रुलाते-रुलाते।

शनिवार, 13 जुलाई 2013

‘गद्दार’ का ‘कमीनापन’

आसान नहीं होता कि आपके कमीनेपन के अभिनय को देखकर लोग आपको सचमुच कमीना ही मानने लग जाएं। पर उन्होंने ऐसा कर दिखाया। मुझे याद है बचपने में जब टीवी पर उनकी कोई फिल्म देख रहा होता था, तो उनकी एंट्री होते ही दर्शक कहते थे- ‘ गया गद्दार, जरूर कोई कमीनगी करेगा।’ (मेरे गांव में विलेन को गद्दार ही कहा जाता है।) 

फिल्म गुड्डी का एक दृश्य याद आता है जब धर्मेंद्र उनकी कलाई घड़ी की तारीफ़ करते हैं और वे अपने अपने हाथ से निकाल कर वह घड़ी धर्मेंद्र को भेंट कर देते हैं। इस पर गुड्डी यानी जया भादुड़ी धर्मेंद्र को कहती हैं कि - ‘इसमें ज़रूर इनकी कोई चाल होगी, ये बहुत बुरे आदमी हैं।’ (ठीक-ठीक डायलॉग तो याद नहीं पर भाव यही था।) फिल्म में जया धर्मेंद्र की जबरदस्त फैन दिखाई गई हैं और यह दृश्य तब का है जब वे फिल्म की शूटिंग देखने जाती हैं।
गुड्डीमें एक दर्शक के रूप में जया भादुड़ी का नज़रिया और मेरे गांव के दर्शकों की प्रतिक्रया एक ही भाव लिए है। इसे उनके अभिनय की तारीफ़ ही माना जाना चाहिए। वरना क्या यह संभव है कि बेहद ख़ूबसूरत शक्लोसूरत, शानदार कद-काठी और बेहतरीन आवाज़ वाले शख़्स को परदे पर देख लोग एक अलग से ख़ौफ़ अनिष्ट की आशंका से भर जाएं और फिल्मों को असली ज़िंदगी की तरह देखने वाले उन्हें निजी ज़िन्दगी में भी बुरा ही समझने लगें।
बेशक वे अपने द्वारा निभाए गए कई दूसरे चरित्रों जैसे कि मलंग चाचा, शेरखान, जसजीत, अमरनाथ कपूर आदि के लिए भी याद किए जाएंगे लेकिन खलनायकी के किरदार सब पर भारी ही पड़ेंगे। हिन्दी सिनेमा में संभवतः वह पहले खलनायक रहे जिनके प्रशंसकों की संख्या ने नायकों की फैनफाॅलोइंग को टक्कर दी। उनके अभिनय की बानगी क्या रही इसके बारे में इससे ज्यादा क्या कहा जाए कि बाद के दौर में आए कई खलनायकों ने उनका कमीनापन उधार तो लिया, पर उनके जितने कमीने बन सके।
यकीनन प्राण कृष्ण सिकंद जैसेगद्दारकाकमीनेपनसे भरा अभिनय याद आता रहेगा।