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शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

तुम्हारी आवाज़ अपनी ही तो लगी है


कहते हैं कि अगर आप संगीत की बारीकियों को समझते हैं तो इसका आनंद दोगुना हो जाता है. सुर-ताल-लय, राग-रागनियाँ, आरोह-अवरोह के ज्ञान के साथ इस समंदर की लहरों का कुछ अलग ही भान होता है. कुछ अलग ही मज़ा आता है स्वरलहरियों पर तैरने का. पर जब मामला डूबने का हो, तब! 

.....तब कहाँ याद रहता है कि उंगलियों पर दादरा, कहरवा, रूपक या दीपचंदी की चाल पकड़ी जा रही है या नहीं, कि जो किसी किनारे से रिसता हुआ मन को धीरे-धीरे भिगोये दे रहा है वह मल्हार है या मेघ मल्हार, कि कब कौन सा सुर कोमलता से छू गया और कौन सा बार-बार अपने होने को हठात जता रहा है. बस एक आवाज़ गूँजती है कानों में और हम चल पड़ते हैं उसके पीछे-पीछे, चले जाते हैं उतरते हुए..... गहरे और गहरे.

कितना अद्भुत है न कि कभी-कभी कैसे बस एक आवाज़ सुनते हुए अचानक हम उसे जीने लग जाते हैं. लगने लगता है मानो अपने ही भीतर से गूँज रही हो वह. कितनी भूली-बिसरी टीसें कचोटने लगती हैं जब ये आवाज़ कहती है कि कसमें-वादे सब बस बातें भर हैं, कितना क्षणभंगुर सा लगने लगता है जीवन और जब पिंजरे वाली मुनिया के यहाँ-वहाँ जा बैठने का किस्सा सुनाई देता है तो इसी जीवन में कितने रस दिखाई देने लगते हैं. कभी इसी आवाज़ के सहारे प्यार के इक़रार और इश्क़ में डूबकर हँसते हुए जान और ईमान कुर्बान कर देने का दिल हो उठता है तो कभी यही दिल खिले हुए फूलों के बीच ख़ुद के मुरझाने के ग़म में डूब-डूब जाता है और एक हूक सी उठती है कि अब जब सुर ही नहीं सजते तो आख़िर क्या गाऊँ.

अब यह उस आवाज़ का जादू नहीं तो और क्या है कि वह मुड़-मुड़ के न देखने की हिदायत देती हुई भी उतनी ही अपनी लगती है जितनी मधुर चाँदनी के तले मिलन को वीराने में बहार की उपमा देते हुए लगती है. और तब तो कमाल ही कर देती है जब शास्त्रीय संगीत की जटिलताओं में उलझाए बिना हमारे ही विनोदी स्वभाव में लपकते-झपकते बदरवा को बुलाती है या किसी चतुर नार की होशियारी पर चुटकी भरती है.


किस-किस अंदाज़ की बात की जाए. हर मूड, हर अंदाज़ में तुम्हारी आवाज़ अपनी ही तो लगी है मन्ना डे.

शनिवार, 13 जुलाई 2013

‘गद्दार’ का ‘कमीनापन’

आसान नहीं होता कि आपके कमीनेपन के अभिनय को देखकर लोग आपको सचमुच कमीना ही मानने लग जाएं। पर उन्होंने ऐसा कर दिखाया। मुझे याद है बचपने में जब टीवी पर उनकी कोई फिल्म देख रहा होता था, तो उनकी एंट्री होते ही दर्शक कहते थे- ‘ गया गद्दार, जरूर कोई कमीनगी करेगा।’ (मेरे गांव में विलेन को गद्दार ही कहा जाता है।) 

फिल्म गुड्डी का एक दृश्य याद आता है जब धर्मेंद्र उनकी कलाई घड़ी की तारीफ़ करते हैं और वे अपने अपने हाथ से निकाल कर वह घड़ी धर्मेंद्र को भेंट कर देते हैं। इस पर गुड्डी यानी जया भादुड़ी धर्मेंद्र को कहती हैं कि - ‘इसमें ज़रूर इनकी कोई चाल होगी, ये बहुत बुरे आदमी हैं।’ (ठीक-ठीक डायलॉग तो याद नहीं पर भाव यही था।) फिल्म में जया धर्मेंद्र की जबरदस्त फैन दिखाई गई हैं और यह दृश्य तब का है जब वे फिल्म की शूटिंग देखने जाती हैं।
गुड्डीमें एक दर्शक के रूप में जया भादुड़ी का नज़रिया और मेरे गांव के दर्शकों की प्रतिक्रया एक ही भाव लिए है। इसे उनके अभिनय की तारीफ़ ही माना जाना चाहिए। वरना क्या यह संभव है कि बेहद ख़ूबसूरत शक्लोसूरत, शानदार कद-काठी और बेहतरीन आवाज़ वाले शख़्स को परदे पर देख लोग एक अलग से ख़ौफ़ अनिष्ट की आशंका से भर जाएं और फिल्मों को असली ज़िंदगी की तरह देखने वाले उन्हें निजी ज़िन्दगी में भी बुरा ही समझने लगें।
बेशक वे अपने द्वारा निभाए गए कई दूसरे चरित्रों जैसे कि मलंग चाचा, शेरखान, जसजीत, अमरनाथ कपूर आदि के लिए भी याद किए जाएंगे लेकिन खलनायकी के किरदार सब पर भारी ही पड़ेंगे। हिन्दी सिनेमा में संभवतः वह पहले खलनायक रहे जिनके प्रशंसकों की संख्या ने नायकों की फैनफाॅलोइंग को टक्कर दी। उनके अभिनय की बानगी क्या रही इसके बारे में इससे ज्यादा क्या कहा जाए कि बाद के दौर में आए कई खलनायकों ने उनका कमीनापन उधार तो लिया, पर उनके जितने कमीने बन सके।
यकीनन प्राण कृष्ण सिकंद जैसेगद्दारकाकमीनेपनसे भरा अभिनय याद आता रहेगा।

शुक्रवार, 31 मई 2013

दृश्यों से लुभाता शख्स

फिल्म के क्रेडिट्स में हम यह तो देख लेते हैं कि फिल्म के कलाकार कौन हैं, निर्माता-नर्देशक कौन है, संगीत किसका है, गीत किसके हैं, लेकिन इन्हीं के बीच आने वाले उस व्यक्ति का नाम हम देखते की जहमत भी नहीं उठाते, जिसकी आंखों से हम फिल्म देखते हैं।


जब हम कोई फिल्म देखते हैं, तो अक्सर किसी दृश्य को देखकर हम अभिभूत हो जाते हैं कि वाह! कितना खूबसूरत फिल्माया गया है। कई बार यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि यह दृश्य फिल्माया कैसे गया होगा? और अंत में हम निर्देशक की तारीफ करते हैं कि भई वाह! क्या दिमाग लगाया है, कमाल कर दिया है, वगैरह-वगैरह। लेकिन उन आंखों को हम अक्सर भूल जाते हैं, जिनके जरिए हमने वह दृश्य देखा और साथ ही भूल जाते हैं उस शख्स को, जिसकी वे आंखें हैं। जबकि वह फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है यानी सिनेमेटोग्राफर। एक सिनेमेटोग्राफर के बिना फिल्म का निर्माण भला कैसे संभव हो सकता है।

तमाम बेहतरीन सिनेमेटोग्राफरों की सूची में एक ऐसा नाम है, जिसने अपनी आंखों, यानी कैमरे से हमें ऐसे
यादगार दृश्य दिखाए हैं, जो आज भी मिसाल के तौर पर सामने रखे जाते हैं। यह नाम है गुरुदत्त की तकरीबन सारी फिल्मों की सिनेमेटोग्राफी करने वाले वीके मूर्ति का।

26 नवंबर 1923 को मैसूर में जन्मे वीके मूर्ति बचपन से ही सामान्य-सी घटनाओं और रोजमर्रा के दृश्यों को आंखों में कैद करने में खासी दिलचस्पी लिया करते थे। वे सिर्फ दृश्यों को आंखों में कैद ही नहीं करते थे, बल्कि उनमें अपनी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करते हुए, एक नए तरीके से उन्हें तरतीब में रखने के ख्वाब भी बुनते थे। चीजों को नए दृष्टिकोण से देखने का यही नजरिया उन्हें बैंगलौर के राजेन्द्र पॉलीटेक्निक तक लेकर गया, जहां से 1946 में उन्होंने सिनेमेटोग्राफी का डिप्लोमा हासिल किया।

फिल्म 'बाजी' में सिर्फ एक शॉट फिल्माने का मौका मिलने पर वीके मूर्ति ने वह कमाल दिखाया कि वे गुरुदत्त की टीम का अभिन्न हिस्सा बन गए। गुरुदत्त की फिल्में अपने कला सौंदर्य के लिए खास तौर से जानी जाती हैं, लेकिन यह कला सौंदर्य सिर्फ गुरुदत्त का नहीं था, वीके मूर्ति उनके जोड़ीदार हुआ करते थे। फिल्मांकन के समय के ऐसे कई किस्से हैं, जिनमें किसी दृश्य के फिल्मांकन के दौरान निर्देशक की जगह पर मूर्ति खड़े होते थे, क्योंकि वे उस दृश्य को बेहतर ढंग से शूट करना चाहते थे।

मूर्ति अपने काम में बेतरह डूब जाने वाले इंसान थे और उनकी हमेशा कोशिश होती थी कि वे अपनी सीमाओं से परे जाकर भी दृश्यों को यादगार बना सकें। 1959 में आई फिल्म 'कागज के फूल' उनकी इसी लगन और धुन का एक अनूठा उदाहरण है। भारतीय हिंदी सिनेमा में सिनेमेटोग्राफी को नए आयाम देने वाली इस फिल्म का वह दृश्य, जहां मंच पर सूर्य की किरण गिर रही है, जिसकी रोशनी में फिल्म का नायक मौजूद है, अपनी कलात्मकता के लिए आज भी मील का पत्थर है। इस दृश्य की कलात्मकता मूर्ति की ही देन थी। गुरुदत्त का खुद का कहना था कि उन्होंने भी वह दृश्य उतना खूबसूरत नहीं सोचा था, जितना कुछ आईनों का प्रयोग करके मूर्ति ने बना दिया था। यह भारतीय सिनेमा की पहली सिनेमास्कोप फिल्म भी थी और वह फिल्म भी, जिसने पहली बार एक सिनेमेटोग्राफर को फिल्मफेयर के मंच तक पहुंचाया। अपनी नायाब कलात्मकता का नमूना पेश करने वाले वीके मूर्ति को 'कागज के फूल' के लिए बेस्ट सिनेमेटोग्राफर का फिल्मफेयर का पुरस्कार मिला। अपनी इस कामयाबी को मूर्ति ने 1962 में फिर दोहराया, जब 'साहब बीवी और गुलाम' के लिए उन्हें एक बार फिर फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया।

गुरुदत्त के जीवनकाल में मूर्ति ने किसी अन्य निर्देशक के साथ काम नहीं किया। शायद इसमें गुरुदत्त के साथ उनके प्रोफेशनल से ज्यादा, मित्रवत और आत्मीय रिश्तों की मजबूती एक वजह रही, लेकिन गुरुदत्त की मौत के बाद उन्होंने अन्य निर्देशकों के साथ भी काम किया। हालांकि गुरुदत्त के बाद उन्होंने कम ही काम किया, लेकिन जो भी किया, वह बेमिसाल किया। कमाल अमरोही की 'पाकीजा' और 'रजिया सुल्तान', प्रमोद चक्रवती की 'नया जमाना' और 'जुगनू' की यादगार सिनेमेटोग्राफी मिर्ति ने ही की थी। इसके अलावा श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी (तमस) के साथ भी उन्होंने यादगार दृश्यों को जन्म दिया है। हिंदी के अलावा 1993 में उन्होंने राजेंद्र सिंह बाबू के निर्देशन में बनी सुपर हिट कन्नड़ फिल्म 'होवू हन्नू' की सिनेमेटोग्राफी भी की। वे इस फिल्म के न केवल सिनेमेटोग्राफर रहे, बल्कि उन्होंने इसमें अभिनय भी किया।

मूर्ति ने भारतीय सिनेमा जगत में न सिर्फ सिनेमेटोग्राफी को एक नए मुकाम पर पहुंचाया, बल्कि फिल्मफेयर हासिल करने वाला पहला सिनेमेटोग्राफर बनकर इस विधा से जुड़े लोगों की हौसलाअफजाई भी की। रंगीन फिल्मों की सिनेमेटोग्राफी की ट्रेनिंग हासिल करने इंग्लैंड गए मूर्ति ने 'द गंस ऑफ़ नेवरॉन' जैसी फिल्म की
यूनिट के साथ भी काम किया और अपनी छाप छोड़ी। सिनेमा जगत में उल्लेखनीय योगदान के लिए वीके मूर्ति को 2005 में आईफा लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड और 19 जनवरी 2010 को वर्ष 2008 के लिए दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। 2001 में मूर्ति सिनेमा को अलविदा कहकर वापस बैंगलौर जा बसे। उन्होंने भले ही फिल्मों को अलविदा कह दिया है, लेकिन उनका कलात्मक पक्ष आज भी दूसरे सिनेमेटोग्राफर्स को प्रेरणा देने का काम करता है।

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

दादासाहब फालके: बोलते रास्तों का खामोश सूत्रधार


 दादा साहब फालके
पुण्यतिथि: 16 फरवरी 
आज बैकग्राउण्ड म्यूजिक, स्पेशल इफेक्ट्स, सराउण्ड साउण्ड और विविध कैमरा तकनीकों की मौजूदगी में दिखाई देने वाले अभिनेता के सिर्फ़  आंगिक अभिनय पर ध्यान दे पाना आसान नहीं रहा है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि अभिनय में यदि कोई कमी रह जाती है, तो उसे संगीत और इन विविध तकनीकों के सहारे ‘कवर’ किया जा सकता है। अब ज़रा सोचिये कि उस वक़्त में, जबकि फिल्मों में आवाज़ भी नहीं हुआ करती थी, तब कहानी के एक-एक भाव को महज़ आंगिक अभिनय के ज़रिये ही जीवंत करना अभिनेताओं के लिए और उसका बेहतरीन ढंग से फ़िल्मांकन करना फ़िल्मकारों के लिए कितनी बड़ी चुनौती होती होगी। खासकर तब, जब आज जैसी उन्नत तकनीक भी फ़िल्मांकन  के लिए उपलब्ध नहीं थी। लेकिन तब भी फ़िल्में बनती थीं और ऐसा करने की शुरुआत जिस शख्स ने की उसका नाम आज भी भारतीय सिने जगत का सबसे बड़ा नाम है। यह नाम है ढुंडिराज गोविन्द फालके यानी दादासाहब फालके का। 
भारतीय सिने जगत के पिता कहे जाने वाले दादा साहब फालके ने जिस दौर में फिल्में बनाना शुरू किया था, उस दौर में इतिहास और मिथकों के महान पात्रों की कथाओं का वर्चस्व रहा। इन पात्रों की कहानियाँ सुनी भी जाती थीं और रंगमंच पर प्रदर्शित भी की जाती थीं। फ़िल्मों में इन पात्रों को प्रदर्शित करने की शुरुआत दादासाहब फाल्के ने 1913 में फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ से की। इसी फ़िल्म को पहली भारतीय फ़ीचर फ़िल्म होने का गौरव हासिल है। बहरहाल, हम यहाँ बात भारत की पहली फ़ीचर फ़िल्म की नहीं, उसे बनाने वाले की कर रहे हैं। दादा साहब फालके ने जिन 90 फ़िल्मों का निर्माण किया, उनमें से अधिकाँश की कहानियाँ धार्मिक पृष्ठभूमि की थीं। यह उस दौर का प्रभाव तो था ही, लेकिन उससे कहीं ज्यादा प्रभाव था द लाइफ ऑफ क्राइस्ट का। 
मूक फ़िल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ दादा साहब फालके ने 1910 के आसपास तब देखी थी जब उन्होंने अपने तीसरे व्यवसाय यानी प्रिंटिंग प्रेस को छोड़ा था। इस मूक फिल्म को देखकर ही उनके मन में विचार आया था कि क्यों न भारतीय देवताओं को परदे पर उतारा जाये। इसी विचार की व्यावहारिक परिणति थी ‘राजा हरिश्चंद्र’, जो 1912 में बनकर तैयार हुई, 3 मई 1913 को मुंबई के कॉरोनेशन सिनेमा में प्रदर्शित हुई और जिसके साथ एक विवाद भी जुड़ा। विवाद यह था कि इसके एक साल पहले ही रामचन्द्र गोपाल यानी दादा साहब तोरने ने एक नाटक ‘पुण्डालिक’ का फिल्मांकन किया था और इसी सिनेमाघर में उसे प्रदर्शित भी किया था। इस लिहाज से ‘पुण्डालिक’ को भारत की पहली फ़िल्म कहा जाना चाहिये था। बावजूद इस विवाद के ‘राजा हरिश्चंद्र’ को भारत की पहली फ़ीचर फ़िल्म और दादा साहब फालके को भारतीय सिनेमा का जनक होने का ख़िताब हासिल हुआ, क्योंकि यह पूरी तरह से भारतीय कलाकारों द्वारा बनायी गयी फिल्म थी, जबकि ‘पुण्डालिक’ का फ़िल्मांकन ब्रिटिश सिनेमेटोग्राफर्स ने किया था। इसके बाद दादा साहब फालके धार्मिक और ऐतिहासिक पात्रों पर फ़िल्में बनाते गये और साथ ही शॉर्ट फिल्म्स, डॉक्युमेंट्री पर भी काम करते रहे। इसी सफ़र के आरम्भिक वर्षों में उन्होंने मुम्बई के पाँच व्यवसायियों के साथ मिलकर एक फिल्म कम्पनी हिन्दुस्तान फिल्म्स’ बनायी थी, जिससे जल्द ही 1920 में उन्होंने विदा भी ले ली।
सीमित तकनीक के बावजूद दादा साहब फालके की फिल्मों का कला पक्ष बड़ा ही महत्वपूर्ण रहा है, और ऐसा क्यों है, इसे उनकी पूरी जीवन यात्रा में शामिल कला को जाने बिना समझना आसान नहीं है। त्रयम्बकेश्वर में जन्मे दादा साहब फालके के पिता संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, जिनसे उन्हें पठन-पाठन की रुचि विरासत में मिली। उन्होंने अपनी शिक्षा भी कला क्षेत्र में ही सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई से प्राप्त की और फिर चले गए कला भवन, बड़ौदा, जहां उन्होंने मूर्तिकला, चित्रकला, फोटोग्राफी और इन्जीनियरिंग की शिक्षा हासिल की। उन्होंने अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत भी एक कला माध्यम के ज़रिये ही की। वह गोधरा में बतौर फोटोग्राफर काम करने लगे थे, लेकिन प्लेग जैसी महामारी में अपनी पत्नी और बच्चे की मौत के बाद उन्होंने गोधरा छोड़ दिया। इसी समय में उनकी मुलाकात हुई जर्मन जादूगर कार्ल हर्ट्ज़ से, जिनके साथ उन्होंने कुछ समय बिताया और कला के एक नये आयाम नज़दीकी से जाना-समझा। फिर उन्होंने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया में बतौर ड्राफ्टमैन काम किया। भले ही उन्होंने ड्राइंग की शिक्षा हासिल की थी, लेकिन इस नौकरी में सिर्फ एक मशीनी हाथ की तरह काम करना उन्हें रास नहीं आया। प्राप्त की हुई शिक्षा का कलात्मक उपयोग करने का विचार हमेशा मन को विचलित करता रहा, सो उन्होंने प्रिंटिंग का व्यवसाय अपनाया। लिथोग्राफी और ओलियोग्राफ में विशिष्टता हासिल की, जर्मनी जाकर नई मशीनरी को समझा और काम शुरू किया प्रख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा के साथ। यह काम उनकी रुचि का था, लेकिन इसे उन्होंने अकेले नहीं बल्कि पार्टनरशिप में शुरू किया था. जल्द ही पार्टनर से कुछ व्यावसायिक और वैचारिक मतभेद सामने आने लगे, नतीजतन उन्होंने यह काम भी छोड़ दिया। इसी वक़्त में उन्होंने देखी थी ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट।’ 
यह उल्लेखनीय है कि दादा साहब फालके ने जब भी कोई काम शुरू किया, कला के नये माध्यम में किया। पहले फोटोग्राफी, फिर ड्राइंग, फिर पेंटिंग और फिर फ़िल्म। शायद यही वजह रही कि उन्होंने कला के विविध रूपों की बारीक़ी को नज़दीकी से जाना-समझा और जब फ़िल्म बनायी तो सबके सम्मिलन से कलापक्ष प्रभावी हो उठा। चूंकि फ़िल्में मूक थीं और महज़ शारीरिक हाव-भाव से ही सब कुछ बयाँ करना था, इसलिये उन्होंने आंगिक अभिनय पर भी गंभीरता से काम किया।
यह भी एक महत्वपूर्ण बात है कि उन्होंने कला और व्यावसायिकता के बीच समझौते को कभी स्वीकार नहीं किया। प्रिंटिंग व्यवसाय में भी जब कला से ज्यादा व्यवसाय को तरजीह देने के बात आई तो उन्होंने उस व्यवसाय को ही अलविदा कह दिया। ठीक यही आलम ‘हिन्दुस्तान फिल्म्स’ के साथ रहा। 1920 में अपने पार्टनर्स से मतभेद के बाद जब उन्होंने हिन्दुस्तान फ़िल्म्स छोड़ी, तब घोषणा कर दी थी कि अब वह फ़िल्में नहीं बनाएंगे। इसके बाद वह लेखन में जुट गये और लिखा चर्चित नाटक ‘रंगभूमि।' हालाँकि उन्होंने फ़िल्म न बनाने की घोषणा कर दी थी, लेकिन जब हिंदुस्तान फ़िल्म्स आर्थिक संकट से जूझने लगी तो एक बार फिर उन्होंने इसकी कमान सँभाली।
यूँ तो दादासाहब फालके अपने जीवन में नये-नये कला माध्यमों और तकनीक को अपनाते रहे थे, लेकिन फ़िल्मों के मामले में आगे चलकर वे ऐसा नहीं कर सके। 1931 में पहली बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ के आने के साथ मूक फ़िल्मों का आकर्षण कम होने लगा था और दादासाहब फालके बोलती फिल्मों की तकनीक के साथ अपनापा नहीं बना सके। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि वह मूक फ़िल्मों की दुनिया में इतने रच-बस गये थे कि उसके मोहजाल से बाहर आना भी नहीं चाहते थे। बहरहाल, वजह जो भी रही हो, लेकिन 1932 में उन्होंने अपनी आख़िरी मूक फ़िल्म ‘सेतुबंधन’ रिलीज की और बतौर निर्माता उनकी आख़िरी फ़िल्म थी 1937 में आई ‘गंगावतरण।’
16 फरवरी 1944 को नासिक में दादासाहब फालके की मृत्यु के साथ ही भारतीय सिनेमा का मूक फिल्मों का अध्याय भी बन्द हो गया। बिना आवाज़ के शुरू हुआ यह श्वेत-श्याम सफ़र अब जब 100 साल की यात्रा में रंग, ध्वनि, तरंग में आ चुका है और कल्पनालोक से बाहर निकलकर यथार्थ की बात भी करने लगा है, तब पीछे मुड़कर देखने पर हम पाते हैं कि दादासाहब फालके उस सूत्रधार की तरह थे, जिसकी ख़ामोश शुरुआत ने भविष्य के पात्रों को आवाज दी।