चुनाव की बेला है, हर जगह प्रत्याशी मतदाताओं को लुभाने में लगे हैं, और "बेचारा आम आदमी" किसी विरहिणी की तरह सशंकित है। चुनावी सजन के लिए मन की आशंकाओं को व्यक्त करता एक मंगल गान -
मंगल गाओ री सजन घर आए
सजन घर आए, बलम घर आए
कर मीठी बतियाँ मोहे ललचाए
मोरा मन भरमाए
सखी री सजन घर आए
पैयाँ पड़े मोरे करे मोसे विनती
कहे तोरा साथ न छोडूं मैं अबकी
कपटी कहीं न फिर लूट ले जाए
मोरा मन घबराए
सखी री सजन घर आए
सतरंगी सपनों की लाए चुनरिया
महल छोड़ रहे मोरी छपरिया
बड़ी प्रीत से मोरी पूछे खबरिया
फिर न कहीं बिसराए
सखी री सजन घर आए.
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009
सोमवार, 20 अप्रैल 2009
रेख्ता के उस्ताद...
साथियों,
आज से एक और नए ब्लॉग की शुरुआत की है, उम्मीद है कि आपको भी पसंद आएगा।
जिन्हें अक्सर बार-बार पढ़ता हूँ उन रचनाओं को आपसे साझा करने का प्रयास है। यह ब्लॉग उन रचनाकारों को समर्पित है जो मुझे हर समय प्रासंगिक लगे हैं और जिन्हें पढ़ते हुए मैंने ख़ुद को कुरेदना सीखा है।
इसी पेज पर आपको इस नए ब्लॉग का लिंक भी उपलब्ध है.....
"रेख्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो..."
उम्मीद है आपको यह प्रयास पसंद आएगा।
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"रेख्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो..."
उम्मीद है आपको यह प्रयास पसंद आएगा।
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
यार चाँद...
कितने बदल गए हैं हालात यार चाँद
करते भी नहीं हम अब बात यार चाँद
भटके थे कितनी रातें सड़कों पे साथ-साथ
क्या फिर कभी मिलेगी वो रात यार चाँद
बसों का सफर, दफ़्तर थका देता है मुझे तो
तूने भी कोई नौकरी क्या कर ली यार चाँद
मेरे जैसे कई साथी तेरे तो और भी थे
क्या उनसे अब भी होती है बात यार चाँद
खिड़की के पार आकर मिल जा कभी मुझसे
आधी रात तक तो मैं भी जगता हूँ यार चाँद
कैसी कटीं रातें तेरी पिछले इन दिनों की
मैं बताऊँ तुझको दिन की बात यार चाँद
मैंने सुनाई थी जो एक-एक नज़्म तुझको
कुछ याद हों तो मुझको सुना जा यार चाँद
दिन का पता मुझे है रातें तेरी नज़र में
बता तो दिल्ली कैसी लगती है यार चाँद
रफ़्तार में शहर की कहीं ख़ुद को खो न बैठूं
मेरे साथ बैठ कुछ पल कर बात यार चाँद ।
करते भी नहीं हम अब बात यार चाँद
भटके थे कितनी रातें सड़कों पे साथ-साथ
क्या फिर कभी मिलेगी वो रात यार चाँद
बसों का सफर, दफ़्तर थका देता है मुझे तो
तूने भी कोई नौकरी क्या कर ली यार चाँद
मेरे जैसे कई साथी तेरे तो और भी थे
क्या उनसे अब भी होती है बात यार चाँद
खिड़की के पार आकर मिल जा कभी मुझसे
आधी रात तक तो मैं भी जगता हूँ यार चाँद
कैसी कटीं रातें तेरी पिछले इन दिनों की
मैं बताऊँ तुझको दिन की बात यार चाँद
मैंने सुनाई थी जो एक-एक नज़्म तुझको
कुछ याद हों तो मुझको सुना जा यार चाँद
दिन का पता मुझे है रातें तेरी नज़र में
बता तो दिल्ली कैसी लगती है यार चाँद
रफ़्तार में शहर की कहीं ख़ुद को खो न बैठूं
मेरे साथ बैठ कुछ पल कर बात यार चाँद ।
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
छिपकली
कल कपड़े धोते समय
तल्लीन था जब
अपनी कमीज़ को बनाने में
इतना सफ़ेद
कि देखते ही लोग कहें
भला इससे ज़्यादा सफेदी और कहाँ
अचानक
स्नानगृह की छत से चिपकी छिपकली
आ गिरी भरभरा कर
मेरी पीठ पर
अनायास ही आ गए याद
माँ के शब्द
अपशगुन होता है छू जाना
छिपकली का हमारे शरीर से
सोचता रहा था उस वक्त भी
आख़िर ऐसा क्या होता है
छिपकली की देह में
जिसका छू जाना
होता है अपशगुन
और क्या होता होगा उनका
जो मानते हैं उसे भी
एक लज़ीज़ व्यंजन
पता नही कौन सा हिस्सा
बताया था माँ ने हमारे शरीर का
बायाँ या दायाँ
जिस पर छू जाना छिपकली का
होता है अपशगुन
पर कुछ नहीं होता
याद होने पर भी
छिपकली गिरी थी
पीठ के ऐन बीचों-बीच
ठीक मेरी रीढ़ के ऊपर।
तल्लीन था जब
अपनी कमीज़ को बनाने में
इतना सफ़ेद
कि देखते ही लोग कहें
भला इससे ज़्यादा सफेदी और कहाँ
अचानक
स्नानगृह की छत से चिपकी छिपकली
आ गिरी भरभरा कर
मेरी पीठ पर
अनायास ही आ गए याद
माँ के शब्द
अपशगुन होता है छू जाना
छिपकली का हमारे शरीर से
सोचता रहा था उस वक्त भी
आख़िर ऐसा क्या होता है
छिपकली की देह में
जिसका छू जाना
होता है अपशगुन
और क्या होता होगा उनका
जो मानते हैं उसे भी
एक लज़ीज़ व्यंजन
पता नही कौन सा हिस्सा
बताया था माँ ने हमारे शरीर का
बायाँ या दायाँ
जिस पर छू जाना छिपकली का
होता है अपशगुन
पर कुछ नहीं होता
याद होने पर भी
छिपकली गिरी थी
पीठ के ऐन बीचों-बीच
ठीक मेरी रीढ़ के ऊपर।
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