गुरुवार, 14 जून 2012

वो लगावट छोड़कर चले गए


‘अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें...’

       अहमद फराज की लिखी यह पंक्तियां जिसने भी मेहदी हसन के गले से निकले सुरों में सुनी हैं, आज उसे जरूर याद आ रही होंगी। असल में यह वह पंक्तियां हैं, जो सुनने के बाद कभी भुलाई ही नहीं जा सकीं। वजह अहमद फराज की लेखनी तो रही ही, उससे कहीं ज्यादा मेहदी हसन की आवाज रही। वह आवाज, जो सुनने वाले को खुद में नहीं रहने देती, रूमानियत से लबरेज खयालों और सकून की अनकही-अनसुनी अनुभूति वाली दुनिया में ले जाती है।
       वे, जो संगीत की बारीकियों को जानते हैं और वे भी, जो सिर्फ शब्दों में छिपे अर्थ को ढूंढते हैं, इस अद्भुत आवाज के मुरीद रहे हैं। जब मेहदी हसन की आवाज में 'चराग-ए-तूर जलाओ बड़ा अंधेरा है' सुनाई देती है, तो वाकई भीतर कोई दीया-सा जल उठता है। 'कुछ उसके दिल में लगावट जरूर थी' का अहसास कुछ इस शिद्दत से होता है मानो कोई अजीज चुपके से 'हाथ दबाकर' गुजर गया हो और 'गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार' चली ही आती है।
       मेहदी हसन ने ताजिंदगी गाया, और सिर्फ गाया। जैसे इसके अलावा दूसरा कोई काम उन्हें था ही नहीं। उन्होंने न जाने कितनी गजलें गार्इं, उन्हें चाहने वालों की संख्या भी बेतहाशा है। उनकी आवाज किसी एक मुल्क की आवाज होकर नहीं रही, वह रॉयल अल्बर्ट हॉल तक गूंजी, जिसके कंसर्ट के रिकॉर्ड मेहदी हसन की अब तक गाई गजलों में सबसे ज्यादा बिकने वाले रिकॉर्ड हैं। यह भी बड़ी ही दिलचस्प बात है कि इस सबके बावजूद उनकी गाई गजलों के बारे में किसी से पूछिए, तो कुछ चुनिंदा गजलों के मुखड़े ही लोगों को याद आते हैं।
       बहरहाल, गजलों को शास्त्रीय संगीत में पिरोने वाले मेहंदी हसन 'शहंशाह-ए-गजल' कहे जाते हैं, तो इस बात के एक पहलू पर भी बात करना जरूरी है। शायद ऐसे लोग बहुत न हों, जिन्हें यह पता हो कि मेहदी हसन ने फिल्मों में भी गाया। पाकिस्तानी फिल्मों में उनके गाए गीत और गजलें जिन्होंने सुनी हैं, वे यह बात बखूबी समझ सकते हैं कि फिल्मी गीतों में वह मेहदी हसन दिखाई नहीं देते, जो गजलों में नुमायां होते हैं। 'भीगी-भीगी रातों में', 'सच्ची बात कहो', 'क्या पूछते हो, क्या तुमसे कहूं', 'मेरे हमदम तुम्हें पाकर करार आया है' जैसे तमाम फिल्मी गीतों में यही आवाज कुछ उथली-सी नजर आती है। इसमें उस गहराई का अहसास नहीं होता, जिसमें डूब जाने का दिल करे। और संगीत की वह रवानी तो इन गीतों में बिल्कुल भी नहीं है, जो खास मेहदी हसन की पहचान है।
       एक तरफ उनकी नॉन-फिल्मी गजलें हैं और दूसरी तरफ उनके फिल्मी गीत, दोनों में आवाज एक ही है, लेकिन दोनों का मेहदी हसन बिल्कुल जुदा है। जहां तक संगीत की बात है, तो मेहदी हसन को सुनने वाले और खासकर वे, जिन्हें संगीत की भी समझ है, ऐसे न जाने कितने ही लोगों के मुंह से सुना है कि 'मेहदी हसन साहब को तो संगतकारों की जरूरत ही नहीं। उनकी आवाज ही ऐसी है कि संगीत खुद-ब-खुद सुनाई देने लगता है। जब वह गजल की शुरुआत में सुर साधते हैं, तो जैसे मन के तार झंकृत हो जाते हैं।' फिर क्या वजह है कि फिल्मी गीतों में हमें ऐसे मेहदी हसन दिखाई नहीं देते? वजह बिल्कुल साफ है। वह एक ऐसे गायक-संगीतज्ञ थे, जिन्होंने संगीत को कभी भाव पर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने जितनी भी बंदिशें कीं, संगीत भाव का साथी रहा, उसका रहनुमा नहीं। वे गाते नहीं थे, बल्कि गजल के भाव को जीते थे। शायद यही वजह थी कि जब शब्द उनके गले से होकर गुजरते थे, तो शब्द नहीं रह जाते थे, अनुभूति में तब्दील हो चुके होते थे। उनके फिल्मी गीतों में संगीत और भाव का यह ताल-मेल कमजोर पड़ता है। जाहिर है कि यह फिल्मकारों की जरूरत के चलते ही हुआ होगा और एक न भुलाई जा सकने वाली आवाज इन जरूरतों के मद्देनजर वह जलवा न बिखरा सकी, जो वह अपनी स्वतंत्रता में हमेशा बिखराती रही और एक अजब सी लगावट का अहसास कराती रही। आज भले ही खान साहब हमारे बीच नहीं हैं, पर यह लगावट मौजूद रहेगी।

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