(मुक्तिबोध की डायरी पढते हुए विचारो के लेखन प्रक्रिया से गुज़रने को लेकर जो विचार मन मे आए.)
निश्चय ही जीवनानुभूतियां/भावनाएं, लिखने या शब्दबद्ध होकर प्रस्तुत होने से पृथक होती हैं। जीवनानुभूतियों से उत्पन्न पीड़ा, आनंद और उनके उद्वेग से उत्पन्न भावनाएं स्वयमेव ही एक काव्य हैं, जिन्हें पूर्णत: समझ पाना स्वयं के लिए ही संभव होता है। (कई बार नहीं भी होता क्योंकि मन विचारात्मक दुविधाओ से दो-चार होता है।) परंतु इन समस्त अनुभूतियों को शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया में बहुत ही मंद गति से और स्वयमेव ही अन्य अनुभूतियो, विंबों, व्याख्यात्मक शब्दों के समाहित होने से अनुभूतियां निरंतर परिष्कृत होती हैं। अनुभूतियों से उत्पन्न हुई कलात्मक/सौंदर्यात्मक बिंब दृष्टि नवीन चित्रों, शब्दों, अभिव्यक्ति की भाषा के समावेश होते ही शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया में परिष्कृत होती है और शब्दबद्ध होने के उपरान्त उत्पन्न सौन्दर्यबोध, प्रारंभकि सौन्दर्यबोध से पृथक होता है।
अक्सर जिस बिंब दृष्टि, जिस अनुभूति को हम शब्दबद्ध करके प्रदर्शित करने के अभिलाषी होते हैं, शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया में निरंतर वह अपने मूल रूप से कहीं न कहीं भिन्न होती जाती है। परिणामत: अंत तक पहुंचते-पहुंचते यह आभास होता है कि जिस बिंब को हम प्रदर्शित करना चाहते थे उसमें हम पूर्णत: सफल नहीं हो सके। बहुत कुछ ऐसा छूट गया है जो व्यक्त किया जाना था और बहुत कुछ ऐसा व्यक्त हो गया है जिसे प्रारंभ में सोचा नहीं गया था किन्तु रचना प्रक्रिया में स्वत: ही जुड़ गया है।
निश्चय ही शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया भी अत्यंत जटिल होती है। जीवनानुभूतियां या उनसे उत्पन्न भावबोध जितना मानसिक/भावनात्मक रूप से स्पर्श करता है उस स्पर्श को, उस उद्वेलन को शब्दबद्ध करने में शब्द और भाषा का चयन एक जटिल समस्या है। विचारात्मक या भावनात्मक उद्वेलन जिस गंभीरता, गहनता से अनुभूत होता है उसे व्यक्त करने के लिये प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द या शब्द-समूह वैसी ही गहनता से उसे पाठक के मन में भी अनुभूत करा सके यह सदैव संदेहास्पद है। कई बार लेखक को स्वयं भी वे शब्द-समूह नाकाफ़ी प्रतीत होते हैं। परिणामत: लेखक निरंतर अपनी शैली और भाषा को परिष्कृत करने को प्रयासरत होता है। वह अपनी स्वयं की एक ऐसी भाषा तैयार करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील होता है जो उसकी अनुभूतियों को बिल्कुल वैसा प्रदर्शित कर सके जैसा वह करना चाहता है।
शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया में उपस्थित यह जटिलता ही अनुभूतियों के परिष्कृत होने और मूल रूप से भिन्न हो जाने में संभवत: महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। साथ ही अनायास ही और कई बार व्याख्या या सरल करने की दृष्टि से समाहित हो जाने वाले अनुभूति-चित्र भी अपना सहयोग देते ही हैं। निश्चय ही अभिव्यक्ति की संपूर्ण प्रक्रिया में शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया सर्वाधिक जटिल है।
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