बुधवार, 21 अप्रैल 2010

ग्रामीण भारत में दलित - भाग एक (सामाजिक परिदृश्य)


सूत्र वाक्य के रूप में यह अक्सर सुनाई देता है कि दलितों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक अधिकारों का हनन किया जा रहा है। यह स्पष्ट है कि मानवाधिकारों को जिन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है उसमें यह स्पष्ट वर्गीकरण है। यहां सारे मानवाधिकारों के केन्द्र में गौरवपूर्ण जीवन के अधिकार (Right to Dignity) को मानते हुए वर्तमान परिदृश्य के संदर्भ में अपनी बात रखने का प्रयास किया है।

सामाजिक परिदृश्य – दैनिक जीवन के संदर्भ में

सामाजिक रूप से दलित समुदाय की क्या स्थिति है, यह स्पष्ट करने के लिए किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। देश की आबादी का 73 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण है और देश में दलित समुदाय की जनसंख्या 250 मिलियन है। स्पष्ट है कि ग्रामीण परिस्थितियां हमारे देश की सामाजिक स्थिति का प्रतिनिधित्व करती हैं। गांवों में दलित समुदाय को कितने सामाजिक अधिकार प्राप्त हैं, इसे दैनिक जीवन की सामान्य दिनचर्या से समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के अधिकांश गांवों में दलित परिवारों के घरों में पीने और दैनिक उपयोग के लिए पानी सहज उपलब्ध नहीं है क्योंकि सार्वजनिक जलस्रोतों का उपयोग करने का भी उन्हें अधिकार नहीं है। आज भी मंदिरों के सामने से निकलने के लिए उन्हें अपने पैरों से चप्पल निकालनी होती है। यह स्थिति सिर्फ़ उत्तर प्रदेश की नहीं है, कमोबेश भारत के सभी ग्रामीण क्षेत्रों की है।

ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित है, सामुहिक भोज के अवसरों पर वे अन्य जातियों के साथ नहीं बैठ सकते, यहां तक कि कई क्षेत्रों में तो उन्हें अपने घर से बर्तन लाने होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में (कई शहरी/कस्बाई क्षेत्रों में भी) मैला साफ करना इस समुदाय की एक जाति के लिए एक मात्र कार्य है जिसके एवज़ में उसे कोई नकद पारिश्रमिक प्राप्त नहीं है बल्कि प्रत्येक घर से रोटियां या थोड़ा सा अनाज मिलता है। शासकीय विद्यालयों में इस समुदाय के बच्चे उच्च जाति के बच्चों से अलग बैठने के लिए विवश किये जाते हैं। मध्यान्ह भोजन पकाने वाली महिला यदि दलित समुदाय की है तो उच्च जाति के बच्चों और उनके अभिवावकों द्वारा उसका बहिष्कार किया जाता है। वस्तुओं  के आदान-प्रदान में पूरी सावधानी बरती जाती है कि कहीं शरीर छू न जाए। और यह सिर्फ़ ग्रामीण अंचलों में ही नहीं बल्कि महानगरीय परिवेश में भी उतनी ही तीवृता से मौजूद है। इस समुदाय के सदस्यों के लिए अभद्रतापूर्ण भाषा का उपयोग करना ग्रामीण क्षेत्रों में एक आम बात है जो कि इस हद तक व्यवहार में है कि दलितों के लिए यह मान्य भाषा बन चुकी है। बुन्देलखण्ड (मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा) के ग्रामीण अंचल में इस समुदाय के सदस्यों का सीताराम से सितउआ, लल्लीराम से ललुआ और रतनीदेवी से रतनिया हो जाने से लेकर थोड़े से क्रोध में ही सिर्फ़ जातिसूचक गाली से संबोधित किया जाना एक आम घटना है।

इसके अलावा मूलभूत सुविधाओं तक पहुंच के मामले में भी इस समुदाय के सदस्यों को जानबूझकर दूर रखने का प्रयास किया जाता है। पी.डी.एस., अन्नपूर्णा, अन्त्योदय जैसी योजनाएं जो कि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के दृष्टिकोण से बड़ी सफलता के रूप में परोसी गईं, इस समुदाय की खाद्य सुरक्षा को किस हद तक सुरक्षित कर पाईं और इसके पीछे क्या वजहें हैं? छत्तीसगढ़ में एक ओर जहां पीडीएस के अंतर्गत 50 पैसे प्रति किलो की दर पर नमक उपलब्ध कराने की सफलता है वहीं दूसरी ओर ऐसे अनगिनत दलित परिवार हैं जिनके पास राशनकार्ड ही नहीं है। जिनके पास कार्ड है उनको खाद्यान्न उपलब्ध नहीं हो पाता और कई परिवारों का कार्ड वितरण केन्द्र के संचालक के पास है जिस पर फ़र्जी प्रविष्टियां हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में इस समुदाय के सदस्यों को निर्धारित से अधिक कीमत पर खाद्यान्न प्रदान किया जाता है और कई बार यह कहकर टाल दिया जाता है कि खाद्यान्न समाप्त हो चुका है (जिसे कि खुले बाज़ार में बेच दिया जाता है)। इन योजनाओं की कमोबेश सभी स्थानों पर यही स्थिति है।

(मई २००९, पैरवी संवाद में प्रकाशित लेख का अंश)
(दलितों के स्थिति के सन्दर्भ में आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक पहलुओं पर आगामी पोस्ट में...)

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