सोमवार, 1 दिसंबर 2008

कबीर मुंड गए....

कुछ ही अरसा पहले जब मैं अपने कस्बे के सालों से मुझे मूंडते आ रहे हज्जाम की दुकान पर गया था कि एक घटना घट गई। हुआ यूँ कि जब मैं पहुँचा तो हज्जाम और उसका मित्र दोनों ही यूँ खुश हो गए जैसे कि खजाना मिल गया हो। हज्जाम बोला - बड़े सही मौके पर आए भाईसाब, आइये बैठिये और लीजिये चाय पीजिये। मेरे मना करने के बावजूद मुझे चाय पिलाई गई, चाय ख़त्म हुई तो तम्बाखू पेश किया गया। मैंने कहा - भाई तम्बाखू बाद में पहले मेरे चेहरे पर उगी इस खरपतवार को मूंड दो।
चेहरे पर पानी कि बौछार मार, सारी दाढ़ी को साबुन के झाग में डुबो, उस्तरे में नई ब्लेड डाल मेरे चेहरे से सटाता हुआ हज्जाम बोला - भाईसाब एक सवाल है, सही-सही जवाब देना। आप हिंदू हो या मुसलमान। मैंने कहा - भाई जो तेरी मर्ज़ी हो वो ही मान। वो बोला - मेरे मानने से ही कुछ होता तो आपसे क्यों पूछता ?
मैंने कहा - पहले ये बताओ कि क्यों पूछ रहे हो मेरा मज़हब ?
वो बोला - बस यूँ ही जानना चाहता हूँ।
मैंने कहा - भइया मैं तो सभी धर्मों को बराबर मानता हूँ, और व्यक्तिगत रूप से किसी धर्म को नही मानता।
वो बोला - भाईसाब टालिए मत।
मैंने कहा - अरे भाई सच कह रहा हूँ जब किसी धर्म को मैं मानता ही नहीं तो तुम्हे कैसे बताऊँ कि मेरा धर्म क्या है।
उसका मित्र बोला - तो भाईसाब अपना उपनाम ही बता दीजिये।
मैंने कहा - भैये हाथ घुमाकर भी आख़िर कान ही तो पकड़ना चाहते हो। और जो काम उपनाम से लेना चाहते हो वो तो अकेले नाम से भी ले लोगे।
वो बोला - नहीं साहब। नाम तो बड़ा धोखा देते हैं। कल एक सज्जन मिले नाम था समीर। हमने सोचा खां साहब हैं तो बोल दिया - अस्सलामालैकुम। भाई साब ये सुनते ही भड़क गए लगे गालियाँ देने। बाद में पता चला कि वे साहब दुबे जी थे।
मैंने कहा - सो तो ठीक है। पर आख़िर मेरा धर्म जानकर करोगे क्या ?
वो बोला - करेंगे क्या ? कुछ नहीं।
मैंने पूछा - फिर क्यों जानना चाहते हो ?
वो बोला - वजह भी आपको बता देंगे, पहले आप बताइए तो कि आपका धर्म क्या है ?
मैंने कहा - भाई जिस परिवार में पैदा हुआ हूँ अगर उसके धर्म को ही तुम मेरा धर्म मानते हो तो बताये देता हूँ।
और साहब मैंने वो धर्म बता दिया। धर्म सुनते ही हज्जाम का चेहरा लटक गया और उसके मित्र के चेहरे पर हज़ार वाट कि हेलोजन की रौशनी छा गई। मैंने पूछा - भाई अब तो बताओ क्या माजरा है ?
हज्जाम बोला - भाई साब, आपकी वजह से मेरा नुक्सान हो गया।
मैंने पूछा - कैसे ?
वो बोला - आप उर्दू बहुत बोलते हो, हिन्दी भी जबरदस्त बोलते हो, मस्जिद जाते आपको कभी देखा नही, गले में तावीज़ आप लटकाते नहीं, मन्दिर में या तिलक लगाये आप कभी दिखे नहीं, हाथ में कभी पूजा का धागा होता नहीं, आपके नाम से कुछ पता चलता नहीं कि हम जान पाते आपका धर्म। बस हम दोनों में आपके धर्म पर शर्त लग गई २०० रुपये की और आपने मुझे शर्त हरा दी। खैर लाइए दाढ़ी बनाने के १० रुपये दीजिये।
मुझे अनायास ही याद आ गईं कबीर कि पंक्तियाँ - मूंड मुंडावत जुग गया अजहूँ न मिल्या राम।
मेरे धर्म ने जिसे मूंड दिया उसको अपनी दाढी मूंडने के १० रुपये दे रहा था और सोच रहा था कि आज कबीर मुंड गए।

1 टिप्पणी:

  1. sahil bhai,
    adbhut likha hai aapane. hamare desh ki halat is mamale me bahut kharab hai.dharm poochhenge. usake bad aapase jati aur usake bad bhi man nahin bharega to gotra poochhenge. usake bad sabase bada rupaiya hai. yadi aapake pas hai to phir ek alag kismka vibhajan aapako dekhane ko milega.
    aapane bahut achchhe se prstut kiya. bahut achchha laga. kabir ke marphat bat ko kahkar bahut unchai pradan ki. is disha me hame bahut kam karana hoga. badhai.

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