शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कुछ कदम...


कुछ साथ चले तुम कदम काफ़ी है
कोई साथ मिला ये भरम काफ़ी है

मंज़िल-ए-दिल का पता यूं भी सही
हासिल-ए-सब्र-ओ-सदा यूं भी सही
कितना है ज़ब्त कितने उथले हैं
अपनी सीरत का पता यूं भी सही
जो तुमने याद दिलाया वो दम काफ़ी है

चुपचाप रहे लब कोई बात नहीं
सुबह के नाम रही शब कोई बात नहीं
मुश्क़िलें आती रहीं शिकवे भी होते रहे
लाख पहरों में रहा हक़ कोई बात नहीं
न हुई आंख तुम्हारी जो नम काफी है

आएगा वक़्त भी जब न इम्तिहां होगा
ख़िज्र न होगा कोई अपना ही इम्कां होगा
ज़र्द पत्तों का भी तो रंग होता है कोई
जो जल उठेंगे रोशन तो कुछ समां होगा
जो हसरतों में ढला है वो ख़म काफी है।

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