शुक्रवार, 3 मई 2013

आवाज़


वह तक़रीबन 80 वर्ष का बुज़ुर्ग था जिसके बस एक पाँव में जूता था। कंधे पर एक छोटी-सी पोटली और तन पर ऐसे मैले कपड़े जिन्हें देखकर ही लग रहा था कि वह पाँच-छः दिन की धूल-धूप खा चुके हैं। वह किसी गाँव से शहर आया था शायद। कह रहा था- ‘भैया कछु कर दो। हमरे मुंडा तक भड़िया लए (जूते तक चोरी कर लिये)। एकई पईसा नईंएँ चाय-रोटी खों। भईया कछु कर दो।’
         आवाज़ में कुछ अजीब-सा था जो भीतर विचलन पैदा कर रहा था। दिल कह रहा था कि वाकई ज़रूरतमंद है, कुछ तो मदद कर ही देनी चाहिए। अरसे बाद उस शहर और बदले हुए हालात को देख रहा था। आसपास के लोगों का उस बुज़ुर्ग के प्रति उदासीन या हड़काने वाला रवैया मन को शंकित भी कर रहा था कि यह कहीं उसका कारोबार न हो।
         मन की शंका और दिल की संवेदनशीलता एक डोर को दो विपरीत धुरों से तान रहे थे। दो बार तो हाथ पर्स वाली जेब तक जाकर लौटा। आख़िरकार बाइक की किक पर पूरी झल्लाहट के साथ पैर पटका और सधा-सधाया जुमला, जो ऐसे मौकों पर अक्सर कहा जाता है, कह दिया - ‘छुट्टे नहीं हैं बाबा।’
         भर्राती हुई, घबराहट औैर बेचैनी से भरी, रोने को तत्पर वह आवाज़ जैसे बाइक पर मेरे पीछे सवार हो गई थी। पर्स की तरफ़ बढ़ते हाथ की तरह बाइक भी वापस मुड़ते-मुड़ते रह गई थी। हर बार शंका बलवती साबित हुई थी- ‘ अगर यह उसका धंधा हुआ तो?’
         ‘हुआ भी तो क्या! उसे कुछ पैसे देकर तेरी उलझन तो दूर होगी कि तूने कुछ क्यों नहीं किया।’ ख़ुद को दिया गया यह तर्क ठीक लगा। बाइक ठिठकी ही थी कि इस तर्क की काट भी सामने आ गई- ‘पर ऐसे तो रोज़ ही कोई न कोई मिलता है।’
         भीतर यह विचार और बाहर बाइक दोनों लगातार चल रहे थे। घर आ गया था। कई गलियों से घूम कर, कई मोड़ों को काट कर आया था। शोर भरे बाज़ारों से होकर आया था। वह कहीं नहीं गिरी। रोने को तत्पर वह आवाज़ रोने लगी थी। अब वह बाइक से उतर कर मेरे कंधों पर सवार थी।

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