सोमवार, 26 जुलाई 2010

टाट में मखमल का पैबंद

शीर्षक कुछ अजीब सा लगता है। लगता है कि शायद उल्टा लिख दिया गया है, कहावत तो कुछ और है। दरअसल ऐसा है नहीं। बदली परिस्थितियों और ख़ासकर वर्तमान में विकास की जिस परिभाषा के अंतर्गत भारत एक नई शक्ति और तेजी से आगे बढ़ते विकासशील देश के रूप में उभर कर सामने आ रहा है, उसके संदर्भ में कहावत का यह संस्करण ही ज्यादा सटीक है।

किसी भी देश के नागरिकों की प्राथमिक ज़रूरतें क्या हैं- भोजन, आवास, स्वास्थ्य, रोज़गार। खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए हमारे देश में भी बड़े-बड़े और अनूठे प्रयास किये गए हैं और अब भी किये ही जा रहे हैं। विश्व की सबसे बड़ी जन-वितरण व्यवस्था कायम करने का गौरव हमारे देश के पास है और आने वाले खाद्य सुरक्षा कानून व बीज कानून पर जो हो-हल्ला मचा हुआ है वह ऐसे ही तो नहीं है! और एक यह बुद्धिजीवी वर्ग है जो सरकार के इस नेक काम में नाहक ही बहसें कर-करके अड़ंगा डाल रहा है। इसे समझना चाहिए कि अभी-अभी राजस्थान, हरियाणा, बिहार के गोदामों में लाखों क्विंटल अनाज सड़-गलकर ख़राब हुआ है, ऐसी स्थिति में पूरे देश में सबको 35 किलो अनाज सस्ते दाम में मुहैया कराना कितना मुश्किल काम है। फिर भी सरकार 25 किलो अनाज देने का वादा कर रही है यह क्या कम बात है!

कुछ लोग इस पर भी सरकार का ही गला पकड़ते हैं। कहते हैं कि "गोदामों में अनाज सड़ना भी तो सरकार की ही लापरवाही है। अनाज रखने के लिए अगर पर्याप्त जगह नहीं है तो और गोदाम क्यों नहीं बनवाती सरकार?" हद्द है भई ये तो! अरे! हमारे देश की परंपरा है - "अतिथि देवो भव:।" हमारे देश में कामनवेल्थ गेम होने जा रहे हैं। तमाम देशों के खिलाड़ियों, राजनैतिक हस्तियों और न जाने किस-किस रूप में अतिथि पधारेंगे। सरकार उनके स्वागत की तैयारी करे या तुम्हारी सुने! सरकार उनके बिना अवरोध आवागमन और सुविधा से ठहरने के लिए फ्लाईओवर और खेल-गांव का निर्माण कराए या अनाज रखने के लिए कोठरियों का! हमारी परंपरा रही है कि स्वयं भूखे रहकर भी अतिथि का स्वागत धूम-धाम से किया जाता है। अब जब हमारी सरकार देश की इस गौरवशाली परंपरा का निर्वाह कर रही है तो क्या देश की जनता साल-दो साल भूखी नहीं रह सकती! और फिर सरकार पूरी तरह भूखा रहने को तो कह नहीं रही है, बस 10 किलो अनाज की कमी करने को ही तो कह रही है।

अनाज के सड़ने में भी तो जनता का ही फायदा है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र सरकार के निर्णय को ही देख लीजिए कितना दया भरा कदम उठाया है। महाराष्ट्र के किसानों की सारी चिंता ही हर ली, और जो चिंता बर्दाश्त न कर पाने की कमज़ोरी के कारण आत्महत्या कर चुके उनकी आत्माओं को भी निश्चित रूप से शांति मिल जाएगी। पिछले साल महाराष्ट्र में ज्वार, बाजरा की फसल ख़राब होने से किसानों को जो नुक़सान हुआ उससे महाराष्ट्र सरकार इतनी आहत हुई कि इस सोच में डूब गई कि अगर आगे फिर से किसानों की फ़सल ख़राब हुई तो क्या किया जाएगा। अंतत: एक बेजोड़ उपाय ढूंढ ही लिया। अब अगर किसानों की फसल ख़राब हो जाए तो उन्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, वे अपनी फसल शराब बनाने वाली कंपनियों/उद्यमों को बेच सकते हैं क्योंकि महाराष्ट्र सरकार ने अनाज से शराब बनाने वाले 32 उद्यमों को अनुमति प्रदान कर दी है। कहीं ये उद्यम किसी प्रकार के अभाव के चलते बंद न हो जाएं इसके लिए सरकार इन्हें भारी सब्सिडी भी देगी। हालांकि इनके बंद होने की संभावना कम ही है क्योंकि ये उद्यम (अधिकांश) या तो जनता के चुने गए प्रतिनिधियों के हैं या फिर उनके भाई-भतीजों के। शराब की एक बोतल बनाने के लिए लगभग 2.5 किलोग्राम अनाज की ज़रूरत होती है यानि कि किसानों को अनाज की अच्छी कीमत मिलेगी, और फिर जब बढ़िया कीमत मिलेगी तो गेहूं-चावल-दाल उगाने की ज़रूरत ही क्या है? ज्वार, बाजरा उगाओ - पैसा कमाओ, भूख मिटाने के लिए मैक्डोनाल्ड का हैप्पी प्राइस मैन्यू तो है ही! चाहें तो इस सब्सिडाइज्ड शराब का भी मज़ा ले सकते हैं क्योंकि यह महाराष्ट्र के बाहर नहीं बिकेगी।

अब जबकि सरकार इतने अचूक नुस्खे निकाल रही है तब भी देखिए लोगों को चैन नहीं है। लोग  कहते हैं कि  "वैसे ही देश में कई लोगों  के  पास रहने को  घर  नहीं  है और सरकार तमाम विकास  कार्यों  के नाम पर लोगों को  विस्थापित कर रही  है।  सेज, बड़े बांधों,  विद्युत परियोजनाओं  के  नाम पर लोगों को उनके गांवों से उजाड़ रही है, किसानों को उनकी ज़मीन से बेदख़ल कर रही है।" तो भई इसका तो एक ही जवाब है - कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। विद्वतजनों ने कहा भी है कि बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता।  जब तक कुछ लोग डूबेंगे नहीं बाकी लोगों को बिजली कैसे मिलेगी? खेतों की सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी कैसे मिलेगा। जिन जगहों पर खेती के लिए किसानों को पानी नहीं मिलता उन तक पानी पहुंचाने के लिए अगर सरकार बांध बनाती है और इस सब में कुछ लोगों की ज़मीन डूब जाती है तो कौन सा बड़ा नुक़सान हो गया! और फिर जनता ही तो है जो बेरोज़गारी का हल्ला मचाए रहती है। जब सरकार रोज़गार के लिए उद्योगों को बढ़ावा देती है और विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना करती है तो यही लोग हाय-तौबा मचाने लगते हैं। अरे भई! ज़मीन नहीं दोगे तो उद्योग कहां स्थापित होंगे? और जब उद्योग स्थापित नहीं होंगे तो मल्टीनेशनल कंपनियां देश में क्यों आएँगी? जब ये कंपनियां नहीं आएँगी तो देश में विदेशी निवेश कैसे होगा, जब विदेशी निवेश नहीं होगा तो देश का व्यापार कैसे बढ़ेगा और जब यह नहीं होगा तो सरकार (?) को लाभ कैसे होगा, देश का विकास कैसे होगा? भूल गए  हरित क्रांति को जिसने देश में कृषि का स्वरुप ही बदल दिया था, कितनी उन्नत हो गई थी देश की कृषि व्यवस्था। क्या वर्ल्ड बैंक की सहायता के बिना ये सब हो पाता! और फिर ये लोग जो ज़मीन डूबने, रोज़गार नष्ट होने की शिकायत करते हैं ये यह क्यों नहीं सोचते कि लाभ तो इन्हें ही मिलेगा। अभी कई सारे गांवों को बिजली नहीं मिलती फिर सबको बिजली मिलेगी, सबको खेती के लिए पानी मिलेगा, सबको रोज़गार मिलेगा, और फिर सुविधाओं से वंचित गांवों की संख्या में भी तो कमी होगी कि नहीं!

कब तक यही भूख और ग़रीबी का रोना रोते रहोगे, इतने साल गुज़र गए अब तक तो इसकी आदत हो जानी चाहिए थी। सारी दुनिया मानती है कि भारत भी तरक्की कर रहा है पर इसे दिखाने की भी तो ज़रूरत है। अब जब सारी दुनिया हमारे बाज़ार में आना चाहती है तो हमें इसका लाभ उठाना चाहिए इसलिए हमें दिखाना होगा कि हम भी अमीर हो रहे हैं वरना ग़रीब के पास कौन जाता है। हमें और तरक्की करनी है इसलिए ज़रूरी है कि हम विदेशी/मल्टीनेशनल कंपनियों को अपने देश में आने दें, उन्हें यहां तरक्की करने दें और उनकी पूंछ पकड़कर हम भी तरक्की करें। अब इस सबके लिए कुछ तो ऐसा दिखाना होगा न जिससे उन कंपनियों में यहां आने का उत्साह जागे। तो भई, देश के अंदरूनी हिस्सों में भले ही हालत टाट जैसी हो पर दुनिया को लुभाने के लिए मखमल तो दिखाना पड़ेगा न, इसलिए हमारी सरकार सही रास्ते पर जा रही है जो टाट में मखमल का पैबंद लगा रही है। पर देश की जनता है कि कहावत का सही मतलब अभी तक नहीं समझी। मखमल में टाट का पैबंद होने को मतलब है कि स्थिति जो पहले बेहतर थी अब ख़राब हो रही है। पर हमारा देश तो तरक्की कर रहा है इसलिए हम टाट में मखमल का पैबंद लगा रहे हैं।