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मंगलवार, 8 जुलाई 2014

बंद दरवाज़ों के पार स्त्री


यह सब कुछ हो रहा है अभी में
वे जो कहते हैं अब नहीं है ऐसा
उन्हें चाहिए
पड़ताल करें अपने 'अब' की
झाँकें अभी की झिर्रियों से
अभी भी बंद दरवाज़ों के पार

अभी-अभी ख़त्म हुआ है
अधिकारों पर भाषण
अभी-अभी कहा गया है
लड़ो अपनी स्वतंत्रता के लिए
अभी-अभी निकली है
कई संगठनों की रैली
अभी-अभी गूँजे हैं
नारे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के

क्योंकि उसे इजाज़त नहीं है
अपने आँगन में भी खड़े होने की
इनमें से कुछ भी
नहीं पहुँचा उसके कानों तक

क्योंकि उसे इजाज़त नहीं है
एक निश्चित आवृति से ऊपर
कर सके अपनी आवाज़
नहीं पहुँचा किसी के कानों तक
उसके कंठ से निकला मूक क्रंदन

यह कहते हुए कि बस एक बार
लेने दो मुझे अपनी मर्ज़ी से साँस
बस एक बार
करने दो मुझे अपने मन का
एक चारदीवारी के भीतर
बंद दरवाज़ों के पीछे पस्त पड़ी स्त्री ने
घोंट दिया है अपना गला अभी-अभी.

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

तात्कालिक राहत


गलती अपनी ही थी
परवाह ही न की
अब भुगतनी तो होगी ही तकलीफ़ 

हरारत महसूस होने पर हर बार
गले से उतार ली कोई क्रोसिन
टूटा शरीर, फैलने लगा दर्द तो 
गटक ली कॉम्बीफ्लेम या उबाल लिया 
देसी नुस्खा हल्दी वाला दूध
ख़ून में घुलते गए वायरस और हम
रोकते रहे शरीर का गरम होना
दबाते रहे आँखों की जलन 
मार-मार कर पानी के छींटे

मिलती रही तात्कालिक राहत
बना रहा भ्रम ठीक होने का 
कभी किया नहीं ढंग से इलाज
दोहराते रहे सावधानी ही बचाव है 
पर रखी नहीं कभी
नीम-हकीम बहुत थे हमारे आसपास
उनके पास सौ नुस्खों वाली किताब थी,
हमने छोड़ दिया उनके हवाले खुद को 
वे देते रहे हर तरह के बुखार में पेरासिटामोल

गलती अपनी ही थी
नहीं होता जब तक ढंग से इलाज
झेलनी ही होगी तकलीफ़ 
जागना ही होगा रात भर

बीमारियों ने नींद उड़ा रखी है....

कोई बताएगा
कितनी रातें नहीं सोया ये मुल्क?

गुरुवार, 20 जून 2013

नहीं रहना तुम्हारे बंधनों में कैद


सुनो महादेव!
अब नहीं रहना मुझे
तुम्हारी जटाओं में कैद
नहीं बहना वैसे
जैसे तुम नियंत्रित करो
जितनी तुम छूट दो

पहाड़ों पर रहते हुए
बाँधा जैसे तुमने
तुम्हारे अनुयायी भी
बाँधते रहे जगह जगह
रोकते-बाँटते गए
दिखाते गए अपनी-अपनी ताक़त
जब कभी चाहा बहना
स्वतंत्र होकर, निर्विरोध
कहा गया उद्दंड
कि तोड़ दी हैं मर्यादाएं

क्या सब मेरे लिए ही थीं
तुम्हारी नहीं थी कोई?
और तुम्हारे अनुयाइयों की?

जब चाहा ही नहीं तुमने
कि आऊँ मैं समूचे अस्तित्व के साथ
सबके सामने
बाँधे रहे न जाने
किस-किस तरह के जटाबंधनों में
देते रहे बस उतनी ही छूट
कि बस दर्ज होती रहे मेरी उपस्थिति
खुद बने रहे घुमंतू, स्वतंत्र
परवाह ही न की मेरी स्वतंत्रता की

तो क्यों करूँ मैं परवाह
अगर मेरी स्वतंत्रता से
डोलता है तुम्हारा आसन
अगर त्राहिमाम करते हैं
तुम्हारी राह पर चलने वाले

सुनो महादेव!
नहीं रहना अब मुझे
तुम्हारे बंधनों में कैद
मैं बहूँगी पूरे वेग से
पूरी स्वतंत्रता से
सामने आए जो अबकी तुम
बहा ले जाऊँगी तुम्हे भी।

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

ताकि जब चाहें वे चुन सकें फूल

बार-बार लिखता हूँ और डिलीट कर देता हूँ। क्योंकि बात एक नहीं कई हैं जो दिलो दिमाग में घुमड़ रही हैं।  क्योंकि बात सिर्फ एक दामिनी की या एक शहर और उसके प्रशासन व समाज व्यवस्था की नहीं है। रोज़ देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग अख़बारों में न जाने कितनी ही दामिनियों का ज़िक्र होता रहा है और अब भी जारी है, जो इस इंतजार में हैं कि उन्हें वह मिले जिसे देने की ज़िम्मेदारी समाज और सरकार दोनों पर है, नैतिक भी और संवैधानिक भी। यानी बराबरी का अधिकार, स्वतंत्रता और शोषण मुक्त समाज।....
      समाज, जो अब तक पितृ सत्तात्मक सोच से मुक्त नहीं हो पाया।... सरकार, प्रशासन और तथाकथित राजनीति, जिसकी मंशा पर एक प्रश्न खड़ा करते ही पचास प्रश्न अपने-आप खड़े हो जाते हैं।... और फिर हम खुद, जो अच्छी-अच्छी बातों को बस नारा बनाकर दोहराने के आदी हो गए हैं। मणिपुर, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, असम, देश के किस हिस्से से यह दामिनी सामने आकर खड़ी नहीं हुई?
     बार-बार लिखता हूँ और डिलीट कर देता हूँ। क्योंकि बहुत कुछ एक साथ और तरतीब से लिखने लायक शांत दिमाग फ़िलहाल मुझमे नहीं है। बस बहुत साल पहले लिखी एक कविता और कुछ अरसा पहले ही बनाया गया एक अधूरा चित्र बार-बार याद आ रहा है-


मैंने कहा
बहार आई है
उन्होंने कहा
ख़ुशगवार है

मैंने कहा
नयी कोपलें फूटी हैं
उन्होंने कहा
कितनी कोमल हैं

मैंने कहा
पौधों पर
हरियाली छा रही है
उन्होंने कहा
कितनी मनमोहक है

मैंने कहा
फूल खिल रहे हैं
उन्होंने कहा
कितनी सुंदर पंखुड़ियाँ हैं

मैंने कहा
फूलों की सुरक्षा के लिए
उग आए हैं काँटे भी
उन्होंने कहा
काँटे नष्ट कर दो

फिर उन्होंने तान दिये
फूलों के चारों ओर
कंटीले तार
ताकि जब चाहें
वे चुन सकें फूल।

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

इन तीस सालों में

मेरी जिंदगी के तीस सालों में
अट्ठाइस और बीस साल इंतजार के हैं
इंतजार कई लोगों का सामूहिक

मेरे जन्मदिन के दो दिन पहले
और एक दिन बाद का इंतजार
न्याय प्रक्रिया की बेहतरी का इंतजार
इस्तेमाल से अलग
इंसान समझे जाने का इंतजार
समझ आने का इंतजार

मैं पैदा हुआ 5 दिसंबर 1982 को
3 दिसंबर 1984 का भोपाल
6 दिसंबर 1992 की अयोध्या
बहुत बदल गई है अब तक
गवाह-मुलजिम कई
विदा ले चुके हैं दुनिया से

मेरी जिंदगी के तीस सालों में
अट्ठाइस और बीस साल इंतजार के हैं।






रविवार, 7 अगस्त 2011

यादों में शुमार बेटियां

पता ही नहीं चला
कि कब हो गईं वे बड़ी
हर बीतते पल के साथ
कब शामिल हो गईं 
वे हमारी आदतों में 
हमारे सपनों को कब
बना लिया उन्होंने अपना

जब सो रहे होते थे हम
अपनी थकन से चूर
तब कितनी बार माथे को छूकर
जाँची हमारी तबीयत
कब चाहिए हमे क्या
कैसे याद रह जाता है उन्हें
हमने सोचा ही नहीं कभी

पर जब चली गईं वे
पराये घरों की आदतों का ध्यान रखने
तब अक्सर याद आई हैं
हमारी यादों में शुमार हो चुकीं 
बेटियां.

बुधवार, 25 मई 2011

काम का मन नहीं है


आज काम करने का मन नहीं है
आज बस सोचना चाहता हूं
वही सब जो काम से जुड़ा है
मेरे या किसी के भी
जो किया जा चुका है
या फिर बाकी है जिसका किया जाना
लेकिन सोचना...

सोचना, काम नहीं होता
कोई नहीं मानता इसे काम
भले ही क्यों न होता हो यह
हर काम के पीछे की वजह
लेकिन सोचना सिर्फ सोचना होता है
काम नहीं होता

इसीलिए कहना पड़ रहा है मुझे
आज काम करने का मन नहीं है
आज बस सोचना चाहता हूं।

सोमवार, 21 जून 2010

तुम्हारी याद में मेरा वजूद

वक्त की शोख़ सरगर्मियों से
दूर जा गिरा हूँ छिटककर
नहीं आता कोई बरसों का साथी नज़र
चेहरा अपना भी

कुछ चेहरे टटोले हैं यादों में अक्सर
पर धुंधला इक कोलाज-सा कुछ बन रह जाता है
अपना चेहरा ढूंढा है उसमें कई बार
हर चेहरे पर अटकती आँखें
आगे बढ़ जाती हैं
क्या गुज़रे वक़्त में मेरा कोई दख्ल नहीं था ?

आईने में देखा है जिसको अभी-अभी
कल शायद इसको फिर न देख सकूं
माथे पे उग आएं शायद कुछ और लकीरें
आवाज़ हो बदली-बदली सी
आँखों में बदले सालों की बदली तारीख़ें
जब दफ्तर से लौटूं

बैठ के इक दिन खोजूंगा ख़ुद को शायद

है शुकर, बचाए रखा है
तुमने अपनी यादों में मुझे।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

भूख की कीमत

(1)
पोस्टमार्टम रिपोर्ट में
पाया गया अगर
अनाज का एक भी दाना पेट में
तो नहीं दिया जा सकता इसे क़रार
भूख से मौत

भले ही मौत के दिन ही
क्यों न मिला हो भोजन
एक माह बाद।

(2)
अनाज
गोदामों में पड़ा-पड़ा सड़ गया
दे दिया गया
शराब बनाने के लिए
शराब पर दी गई उतनी सब्सिडी
जितने में पहुँचाया जा सकता था
सब तक

अब
पैंतीस किलो की जगह
पच्चीस किलो अनाज से भरेगा
परिवार का पेट

शायद भूख हो गई है
कम
लोगों की
या शायद ज़्यादा
अन्नदाताओं की।

(3)
अब नहीं मिलते
आम, संतरे, चीकू
पपीते, नाशपाती
सेब, तरबूज़
किलो के हिसाब से
और केले दर्जन के
एक-एक नग पर
चिपका हुआ है प्राइज टैग
घोषणा करता हुआ
आज सुनहरा मौका है
लाभ उठाइये और ले जाइये
पंद्रह रुपये में एक आम
या पच्चीस रुपये में एक सेब

कार्बोनेटेड शीतल पेयों का सेवन करते हुए
याद करेंगे कभी आपके बच्चे
पापा लाया करते थे कभी
और स्मृतियों में बचे रह जायेंगे

आम, संतरे, सेब…..

(4)
अगर आपके पास
लाल या पीला
है कार्ड
तो नहीं मर सकते
भूख से आप
यह सुनिश्चितता नहीं
फ़रमान है सरकारी

(5)
शकर हो गई चालीस रुपये
दाल सत्तर की
और चावल
सबसे सस्ता वाला भी पच्चीस रुपये
सबको जगाने वाली
टाटा टी भी
हो गई पचास रुपये की ढाई सौ ग्राम
और गुड़ मिल रहा है थैलियों में बंद
साढ़े बारह का सौ ग्राम
आटा पच्चीस रुपये किलो

दाल-रोटी
और गुड़ की चाय
है ग़रीब का भोजन

क्या सचमुच?

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

मेरी कुदाल...

कुछ अरसा पहले बिहार-झारखण्ड में दैनिक मजदूरी पर जीवन यापन करने वाले लोगों के बीच बिताये वक्त में लिखी थीं ये पंक्तियाँ, और वहीं अपने कैमरे में संजोई हुई तस्वीरों में से एक तस्वीर के साथ ये पोस्टर तैयार किया।


मंगलवार, 11 अगस्त 2009

बातें

(१)
वे नहीं जानते
मेरे बारे में
उसके बारे में
बात कर रहे हैं लेकिन
हमारे बारे में

(2)
पूरा परिवार परेशान है
वह हिंदू है तो क्या
हमारी जात की नहीं है

(३)
उसके माता-पिता
चिंतित हैं
मैं क्यों रखता हूँ ख़याल
उसकी ज़रूरतों का

(४)
लोग परेशान हैं
जिसकी छोटी उम्र से ही
रखे थे नज़र
वो क्यों है मेरे इतने करीब
और उनकी पहुँच से दूर

(५)
सब ले रहे हैं मज़े
परिवार की प्रतिष्ठा पर
अंगुली उठाने का
कैसे चूक सकते हैं वे मौका

(६)
अपना-अपना जीवन
बेहतर बनाने की दिशा में
दोनों ने ही रखा था
कस्बे से कदम बाहर
और दोनों ही
भाग गए थे आगे-पीछे
लोगों की बातों में

(७)
मरणासन्न कर देने वाली बीमारी भी
बन गई मुसीबत उसके लिए
मेरा करीब होना तो
मंज़ूर नहीं था कतई
बातों में गर्म था
गर्भपात का चर्चा

(८)
नौकरी नहीं थी उसके पास
पढ़ाई भी चल ही रही थी
कर दी गई थी बंद
घर से दी जाने वाली आर्थिक मदद
मेरा मदद करना
जो हो सकता था लोगों की बातों में
वे मान चुके थे उसे

(९)
सब खुश हैं
वो वापस अपने घर में है
नहीं निकलती चारदीवारी के बाहर
नौकरी का तो प्रश्न ही नहीं उठता
भले ही दक्ष है
कंप्यूटर नेट्वर्किंग में
तो क्या!

(१०)
सुबह की चाय से
रात के खाने तक
अपने ही घर में बस
काम वाली बाई ही बची है
बिना वेतन के
इस पर
कोई बात नहीं करता
कोई भी

(११)
सब खुश हैं
सब सफल हैं
प्रतिबंधित है
उससे बात करना भी मेरे लिए

(१२)
सब हुआ सबकी बातों में
सब हुआ सबकी बातों से
सब खुश हैं सब हो जाने से
किसने समझा
कितना आहत हुआ सब होने से
उसका मन
मेरा मन

(१३)
अपना-अपना सबने कहा
मिलकर सबका अपना-अपना
सबका हो गया
सबका कहा सब सच माना गया
हमारा सच कुछ नहीं रहा
बावजूद इसके कि
हम दोस्त थे बहुत अच्छे
मैं करता था उसे प्रेम
पिता की तरह।

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

आख़िर

आख़िर क्यों न कहें उन्हें धन्य
आख़िर थे ही वे इस काबिल कि
बन सके हमारे प्रतिनिधि

आख़िर कौन मिला गरीबों से
एकाध जगह की बात नहीं
गाँव - गाँव
जगह - जगह
पूरे राज्य में जाकर
आख़िर कौन मिला हम गरीबों से

जिनके डूब गए थे बाढ़ में
और जो थे गरीब बेघर
घर देने की उन्हें
बात भी तो कही उन्होंने
आख़िर उनका क्या कुसूर
अगर बाबू घूस माँगता है तो

कोई कसर तो नहीं छोड़ी उन्होंने
आख़िर किया ही है विकास
बरसात में निकलना भी दूभर होता था
उन्होंने गाँव - गाँव तक
आख़िर पहुँचा तो दी हैं सड़कें
सबूत है इस बात का
उनकी विकास-यात्रा

अब बन गईं हैं सड़कें
तो आसानी होगी
जाकर गाँव से शहर
मजदूरी तलाशने में

फूस से छप्पर तो बन जाता है
आख़िर पेट तो नहीं भरता।

मंगलवार, 2 जून 2009

हँसी


बहुत अरसा पहले लिखी थी ये कविता, आज अचानक से याद आ गई। अभी भी लगता है कि अधूरी है, पर जो भी है प्रस्तुत है।

हँसना यूँ तो बहुत अच्छा होता है
पर कभी-कभी मुझे चुभती है हँसी
बेवजह, छोटी-छोटी बात पर
अगर ना हँसें लोग
तो शायद जीवन की आपाधापी
लोगों को मौका भी ना दे हँसने का

जानता हूँ फिर भी
कभी-कभी गुस्से से भर देती है हँसी
जब कोई गिरता है केले के छिलके पर फिसलकर
तो लोग हँसते हैं
मानो वो गिरा हो आपको हँसाने के लिए ही
जानबूझकर किसी सर्कस के जोकर की तरह

लोग हँसते हैं
नहीं समझते मन:स्थिति
गिरने के बाद अपने ही भीतर
सिमट जाने को आतुर उस व्यक्ति की

मुझे चुभती है ये हँसी और
मैं देखता हूँ उस केले के छिलके की ओर
जिसमें लगा बाकी का गूदा भी
निकाल बाहर किया फिसलकर लोगों को हँसाने वाले पैर ने.

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

छिपकली

कल कपड़े धोते समय
तल्लीन था जब
अपनी कमीज़ को बनाने में
इतना सफ़ेद
कि देखते ही लोग कहें
भला इससे ज़्यादा सफेदी और कहाँ
अचानक
स्नानगृह की छत से चिपकी छिपकली
आ गिरी भरभरा कर
मेरी पीठ पर

अनायास ही आ गए याद
माँ के शब्द
अपशगुन होता है छू जाना
छिपकली का हमारे शरीर से

सोचता रहा था उस वक्त भी
आख़िर ऐसा क्या होता है
छिपकली की देह में
जिसका छू जाना
होता है अपशगुन
और क्या होता होगा उनका
जो मानते हैं उसे भी
एक लज़ीज़ व्यंजन

पता नही कौन सा हिस्सा
बताया था माँ ने हमारे शरीर का
बायाँ या दायाँ
जिस पर छू जाना छिपकली का
होता है अपशगुन

पर कुछ नहीं होता
याद होने पर भी
छिपकली गिरी थी
पीठ के ऐन बीचों-बीच
ठीक मेरी रीढ़ के ऊपर।