कल कपड़े धोते समय
तल्लीन था जब
अपनी कमीज़ को बनाने में
इतना सफ़ेद
कि देखते ही लोग कहें
भला इससे ज़्यादा सफेदी और कहाँ
अचानक
स्नानगृह की छत से चिपकी छिपकली
आ गिरी भरभरा कर
मेरी पीठ पर
अनायास ही आ गए याद
माँ के शब्द
अपशगुन होता है छू जाना
छिपकली का हमारे शरीर से
सोचता रहा था उस वक्त भी
आख़िर ऐसा क्या होता है
छिपकली की देह में
जिसका छू जाना
होता है अपशगुन
और क्या होता होगा उनका
जो मानते हैं उसे भी
एक लज़ीज़ व्यंजन
पता नही कौन सा हिस्सा
बताया था माँ ने हमारे शरीर का
बायाँ या दायाँ
जिस पर छू जाना छिपकली का
होता है अपशगुन
पर कुछ नहीं होता
याद होने पर भी
छिपकली गिरी थी
पीठ के ऐन बीचों-बीच
ठीक मेरी रीढ़ के ऊपर।
achchi vyanjana hai
जवाब देंहटाएंसोचता रहा था उस वक्त भी
जवाब देंहटाएंआख़िर ऐसा क्या होता है
छिपकली की देह में
जिसका छू जाना
होता है अपशगुन
और क्या होता होगा उनका
जो मानते हैं उसे भी
एक लज़ीज़ व्यंजन
अशोक जी बहुत खूब ....!!
एक बार मैंने भी एक ऐसी ही कविता लिखी थी ...बिल्ली का रास्ता काटना, उल्लू का छत पर बैठना या जाते समय खाली balti का milna आदि कैसे अपशगुन हो जाते हैं पता नहीं ....!!