बहुत दिनों से
लल्लन मियाँ की कोई खोज-ख़बर नहीं थी तो मैं सुबह-सुबह उनके घर जा धमका. लल्लन
मियाँ सिर के बल खड़े होने की कोशिश कर रहे थे. वे बार-बार सिर तकिए पर टिकाकर दोनों
टाँगें ऊपर को उछालते और नाकाम होते. पास में ही अखबार और चाय के तीन ख़ाली कप पड़े
थे. उन्हें इस हाल में देख मैंने पूछा – ‘शीर्षासन करने का शौक़ कब से हो गया लल्लन
मियाँ? या पेट में कुछ अलामत है?’
लल्लन मियाँ
रुककर बोले- ‘भाड़ में जाए शीर्षासन, और पेट भी दुरुस्त है. हम तो दिमाग ठिकाने
लगाकर नज़रिया समझने की कोशिश कर रहे हैं.’
मैंने पूछा कि ‘क्या
हुआ दिमाग को और किसका नज़रिया?’ तो अपनी कोशिश में लगे-लगे ही आँखों से अख़बार की
तरफ़ इशारा करके बोले- ‘अख़बार पढ़ो अख़बार.’ और उसी सांस में अपनी बेगम को आवाज़ दी, ‘सुनो!
एक चाय और बढ़ा लो, कलमघसीट भी आ गया.’
मैं जानता था कि
दो-चार बातों के बाद ही लल्लन मियाँ मुद्दे पर आएँगे सो अखबार उठाते हुए मैं बोला-
‘ख़बरों से तो अख़बार का नज़रिया तक साफ़ पता चल जाता है. इसमें भला ऐसा क्या होगा जो
आपको उलझाए.’
इससे पहले कि
लल्लन मियाँ कुछ कहते उनकी बेगम चाय लिए आ गईं. मैंने अपना कप कब्जाते हुए उनसे
पूछा- ‘ये क्या हरकतें कर रहे हैं? ऐसा क्या पढ़ लिया इन्होंने जिसने इनका दिमाग़
हिला दिया?’
वे बोलीं- ‘हरकतों
का तो इनसे ही पूछो तुम, पर जब से ये ख़बर पढ़ी है कि भीमा कोरेगांव मामले में जज ने
पूछा है कि घर में युद्ध और शान्ति किताब क्यों थी, तब से तीन बार चाय बनवा चुके
हैं. ये चौथी है. ऊपर से उल्टे-सीधे हो रहे हैं.’ चाय की चुस्की लेते हुए बोलीं
‘अब तुम ही पूछो कि क्या माजरा है, मैं पूछती हूँ तो ग़ालिब का मिसरा पढ़ देते हैं –
कोई बतला दे के हम बतलाएं क्या.’
माजरा मेरी समझ
में आ चुका था. मैंने लल्लन मियाँ से पूछा – ‘टॉलस्टॉय को शांतिदूत कहा गया है और
उनकी किताब युद्ध और शान्ति को पुलिस ने आपत्तिजनक कहा है. जज ने भी पूछा है कि ये
आपत्तिजनक किताब घर में क्यों थी? बताइए, जैसा कहा जा रहा है, वैसे वह किताब भी
उकसाती है क्या भला?'
'जैसा कहा जा रहा
है वैसे तो नहीं, लेकिन वह उकसाती तो है भाई मियाँ.' उन्होंने जवाब दिया.
'वो कैसे? आपकी
क्या राय है युद्ध और शान्ति के बारे में?’ मैंने पूछा.
लल्लन मियाँ सीधे
हुए, चाय का एक घूँट भरा और बोले – ‘वही क़ायम करने के लिए तो नज़रिया समझने की
कोशिश कर रहे थे हम.'
मैंने पूछा कि क्या
समझे तो बोले - 'देखो भाई मियां, युद्ध कई प्रकार का होता है. मल्ल युद्ध, वाक् युद्ध, द्वंद्व युद्ध से लेकर कम्बल परेड, किचाइन तक. आमतौर पर इसे लड़ाई-झगड़ा भी कहा जाता है.’
उनकी बेगम ज़रा
झुंझलाकर बोलीं – ‘यही मुसीबत है इनकी, फैलते बहुत हैं. अरे परिभाषा काहे बघार रहे
हो! सीधे-सीधे राय बताओ न.’ लल्लन मियाँ चाय चुसकते हुए बोले – ‘भगवान भला करे
तुम्हारा, पर अब जब हमारे आसपास चाय है, चाय पर चर्चा है तो फैलना तो बनता है.
वैसे भी अभी लोकतंत्र है, शाही फ़रमान ज़ारी नहीं हुआ अब तक कि कोई और नहीं फ़ैल
सकता.’
मैंने याद दिलाया
कि बात युद्ध की हो रही थी तो लल्लन मियाँ आगे बढ़े. बोले- ‘हाँ तो भाई मियाँ, ऐसा पाया
जाता है कि जब लड़ाई-झगड़ा होता है तो सब को फैलने का सुभीता होता है. जो जिस हद तक जा
सकता है उस हद तक जाकर फैलता है. जिसका लड़ाई-झगड़े से सीधा संबंध नहीं होता वो भी फैलता
है. मने के घर की दीवार का सालों का झगड़ा न सुलटा पाने वाले पड़ोसी दूसरों के
दीवानी मुकदमों पर राय देते हैं. अपने इलाके के थाने की सीमा के मामलों को न
जाननेवाले भी कश्मीर और पाकिस्तान का नाम सुनकर समस्या का हल बताते ही हैं, नेहरू
को गलियां दे ही लेते हैं.’
‘मतलब यही न कि
लड़ाई-झगड़े में हर कोई अपना ज्ञान बांटता है. तुम्हारी तरह.’ बेगम ने बीच में कहा,
जिस पर लल्लन मियाँ बोले- ‘यार तुम ज्ञान को मत पकड़ो, फैलने को पकड़ो. और बात सिर्फ
ज्ञान बांटने की नहीं है. अपन बदला उतारू लोग हैं. पुरानी दुश्मनी निकालने को अपने
यहां लोग तैयार ही बैठे मिलते हैं. खानदानी दुश्मनियों की परंपरा का देश है अपना.
तुम्हारे दादा ने हमारे बाप को मारा था अब हम तुम्हारे बेटे को मारेंगे. मतलब बाबर
की ग़लतियों पर जुम्मन पीटा जाता है. फिर मौके की नज़ाकत एक और पहलू है जिसका फ़ायदा
उठाना हर कोई अपना कर्तव्य मानता है. लड़ाई दो लोगों की होती है, अमरीका की तरह हाथ साफ़ तीसरा कर लेता है. दंगे
होते हैं तो लोग दुकानें लूट लेते हैं. किचाइनप्रेमियों को हर झगड़े में बतकुच्चन
के लिए माल मिलता है. कुल मिलाकर फैलने वालों के लिए लड़ाई काम का अवसर है. बड़ी लड़ाई
और बड़ा अवसर.‘
मैंने पूछा ‘और
बड़े अवसर से क्या मतलब?’
चाय चुसकते लल्लन
मियाँ बोले – ‘अभी जो मामला चल रहा है सो तुम देख ही रहे हो कि
हिंदुस्तान-पाकिस्तान दोनों की ही बड़ी आबादी का मन युद्ध के लिए हिलोरें मार रहा
है. उनके लिए युद्ध आशंका नहीं, संभावना है, जिसमें रस आ रहा है. लड़ाई हो तो रस
फूटकर बाहर छलकेगा. तो भाई मियाँ हमको लगता नहीं है कि युद्ध से किसी को कोई
आपत्ति है.’
‘चलिए माना कि
युद्ध में लोगों को रस मिल रहा है इसलिए युद्ध से कोई आपत्ति नहीं हो सकती. पर
शान्ति में तो चीज़ें ज्यादा बेहतर होती हैं, उसमें और ज्यादा रस है.’ लल्लन मियाँ
की बेगम बोलीं. मैंने भी समर्थन करते हुए बात आगे बढाई - ‘बिलकुल. शान्ति युद्ध से
हमेशा बेहतर है तो शान्ति से भी किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?’
लल्लन मियाँ
हँसते हुए बोले – ‘तुम दोनों भी कमाल करते हो. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के जमाने
में ख़ाली इंटेलीजेंस की बात कर रहे हो. भई जैसे युद्ध कई तरह का होता है वैसे ही
शान्ति भी दो तरह की होती है. आर्टिफिशियल शान्ति और असली वाली शान्ति. दूसरी वाली
आपत्तिजनक है.’
‘मतलब?’ मैं और
लल्लन मियाँ की बेगम दोनों एक साथ हैरत से बोले. लल्लन मियाँ को मज़ा आया. ठहाका
लगाते हुए बोले – ‘ये देक्खो! इत्ती से बात समझ नहीं आती. कल से ट्यूशन लेना हमसे.’
फिर बिना हमारे बोलने का इंतजार किए आगे बोले – ‘अरे भाई, छोटे-मोटे झगड़े में भी
मार-पीट भले बंद हो जाए पर जहाँ मौका मिले सामने वाले को लोग बुरा-भला कहते हैं कि
नहीं. गलियाँ देते हैं कि नहीं. अब मान लो युद्ध हो गया, हम जीत गए. उसके बाद? लोग
जीत का जश्न मनाएंगे, फिर कुछ दिन तक मानेंगे कि शान्ति है क्योंकि सरकार कह रही
है. फिर कुछ दिन बाद पहले तो महंगाई और दूसरी चीज़ों की किल्लत से होगा उनके दिमाग़
का दही, फिर फैलेगा रायता. मने आदमी कटी पतंग-सा अशांत डोलेगा और कहा जाएगा युद्ध
के बाद शान्ति है. दिस इस कॉल्ड आर्टिफ़िशियल शान्ति. इससे भी ज़्यादा लोगों को
आपत्ति नहीं है. जिन्हें युद्ध के पहले और दौरान फैलने का मौका मिलेगा वो तब फैलेंगे,
कुछ को आर्टिफिशियल शान्ति में फैलने का मौका मिल जाएगा. अपने-अपने हिसाब से सब
फैल लेंगे.
‘जब आर्टिफिशियल शान्ति से तक आपत्ति नहीं है तो फिर असली वाली
शान्ति में भला क्या आपत्तिजनक है?’ मैंने पूछा.
लल्लन मियाँ बोले
– ‘उसमें फैलने वालों को फैलने के अवसर नहीं मिलते न भाई मियाँ. यह क्या कम
आपत्तिजनक है.’
‘पर युद्ध और
शान्ति किताब कैसे आपत्तिजनक हो गई?’ लल्लन मियाँ की बेगम ने सवाल किया.
लल्लन मियाँ ने
ठंडी हो चुकी चाय का आख़िरी घूँट लिया और शान्ति से बोले – ‘क्योंकि वह असली वाली
शान्ति के लिए उकसाती है.’