शुक्रवार, 28 जून 2013

ज़ुल्म बढ़ते थे पर झुका न गया


ज़ुल्म बढ़ते थे पर झुका न गया
उनके सजदे में कुछ कहा न गया

तेरी ख़्वाहिश तड़प के बोलूँ कभी
हाय हमसे ये उफ़! कहा न गया

जबसे बाज़ार ख़बरें देने लगा
खेत का हाल कुछ कहा न गया

आज बाज़ार में मैं उतरा था
एक ठप्पे के बिन बिका न गया

लब को उसके गुलाब कैसे कहूँ
बात जिसकी से इक छुरा न गया

अब भी करते हैं भरोसा तो मगर
तेरे वादे पे बस मरा न गया।

रविवार, 23 जून 2013

रांझना: कुछ पूरी-कुछ अधूरी चीजें


कल रांझना देखी और कह सकता हूं कि अरसे बाद कोई अच्छी फिल्म देखी... एंटरटेनमेंट के लिहाज से। वैचारिक स्तर पर कुछ गड़बड़ियां हैं, लेकिन यह देखकर थोड़ी राहत भी मिलती है कि फिल्में भव्य सेट, लकदक परिवेश, स्विटजरलैंड की हसीन वादियों, ढिशुम-ढिशुम और चकाचाौंध से बहार निकलने की कोशिश कर रही हैं। मसाला फिल्मों का दर्शक वर्ग बड़ा है, सो मसाले की मौजूदगी शायद मजबूरी भी है।

एक प्रेम कहानी के लिहाज से फिल्म अच्छी है, लेकिन कुछ दूसरी चीजें जो इस फिल्म से जुड़ी हैं, वे इसकी कमियों को उजागर करती हैं। पहली चीज तो यही कि शायद स्टूडेंट पाॅलिटिक्स के नाम पर जेएनयू एक चिरपरिचित नाम है बस शायद इसीलिए इसे चुन लिया गया। जो जेएनयू से वाकिफ नहीं हैं शायद उन्हें इस बात का आभास न हो, पर जेएनयू के छात्र संगठनों और छात्र राजनीति का चेहरा इतना उथला तो नहीं है, जो फिल्म में दिखाई दिया है। कहानी को आगे बढ़ाने के लिए एक बड़े ही सपाट ढंग से जेएनयू और वहां की छात्र राजनीति का इस्तेमाल किया गया है, वरना तो कोई भी दूसरा विश्वविद्यालय हो सकता था। दूसरी चीज़ ये कि एक छात्र संगठन नुक्कड़ नाटक करता है, अपनी पार्टी बनाता है पाॅलिटिक्स के मैदान में उतरता है, और राज्य सरकार उससे इतनी घबरा जाती है कि उसके खिलाफ सीधे-सीधे हमले (जैसा कि गुप्ता जी द्वारा कुंदन को पीटने के लिए सीधे-सीधे पुलिस का इस्तेमाल) और फिर बम धमाका और गोली मार देने का षडयंत्र रचती है। भ्ई यह तो कुछ ज्यादा हो गया है। यह कुछ कुछ ऐसा ही है कि अरविंद केजरीवाल एक पार्टी बनाते हैं और यह भ्रम फैलता है कि सरकार उनसे खौफजदा है। तकनीकी गड़बड़ी यह है कि इसे जेएनयू की छात्र राजनीति से जोड़ दिया गया। फिर इसमें किसानों का संदर्भ भी आता है, जिसे बस छूकर निकला गया है। यह कहा जा सकता है कि एक कमर्शियल फिल्म में गंभीर विषयों को छूना भी हिम्मत का काम है, लेकिन बस छू भर देना और भी खराब है, क्योंकि कई बार यह उपहास करने जैसा लगता है। हिंदु लड़के से विवाह के लिए एक मुस्लिम परिवार का विरोध भी एकतरफा दृश्यांकन है। आॅटो में नायक के कलाई काट लेने की घटना के बाद नायिका के घर की कट्टरता तो दिखाई दे जाती है, पर नायक के घर की कट्टरता नदारद है, जबकि बिंदिया से विवाह के वक्त समय पर न पहुंचने के लिए नायक को पिता बाल्टी से पीटकर घर से निकाल देता है। हालांकि यहां भी स्पष्ट नहीं है कि नायक अपने विवाह में न पहुंचने के लिए पिटता है या नायिका से प्रेम की वजह से। शायद यही वजह है कि फिल्म का दूसरा भाग कुछ कमजोर लगता है। दूसरा भाग बहुत सी चीजों को स्पष्ट किए बिना बस कहानी को आगे बढ़ाता है।

हां, यह बात जरूर ख़ास है कि अरसे बाद मुख्यधारा की किसी फिल्म में बहुत ही सामान्य से परिवार और लोग दिखे हैं, जिनके किरदारों में कोई एक्स्ट्रा एलिमेंट नहीं डाला गया है। सामान्य सी कहानी को निर्देशक आनंद राय ने अच्छा ट्रीटमेंट दिया है और लेखन के लिए हिमांशु शर्मा तो बधाई के पात्र हैं ही। फिल्म में अभिनय के भी पहले अगर कोई चीज ध्यान आकर्षित करती है, तो वह संवाद हैं। 

अभिनय की बात करें तो चाॅकलेटी चेहरे वाले नायक न होने के बाजूद धनुष इस फिल्म के जरिए अपनी अलग उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हुए हैं। मोहम्मद जीशान अयूब और स्वरा भास्कर ने अपने-अपने किरदार को पूरी संवेदना के साथ जीया है। उनके अभिनय में रंगमंच से जुड़ाव की छाप दिखाई देती है। जहां तक पृष्ठभूमि की बात है तो फिल्म में बनारस डायलेक्ट और परिवेश के लिहाज से कहीं नहीं दिखाई देता, तब भी अगर बनारस की झलक कहीं मिलती है तो वह जीशान अयूब के किरदार में। कुंदन के मित्र के किरदार में उन्होंने कमाल अभिनय किया है।यूं तो पूरी फिल्म में धनुष का अभिनय अच्छा है, लेकिन प्रथम भाग में खासकर स्कूली दिनों के प्रेमी, फिर प्रेम के लिए कुछ भी कर जाने की संवेदनाओं वाले दृश्यों में ज्यादा प्रभावी रहे हैं। धनुष के किरदार को उभारने का जितना श्रेय जीशान के किरदार को मिलना चाहिए उतना ही बिंदिया को भी। बिंदिया के किरदार में दोस्ती और प्रेम दोनों हैं और Swara Bhaskar इसे बहुत बेहतर निभाया है। सहयोगी किरदार होते हुए भी यह अपने-आप में एक पूरी कहानी है। इस तिकड़ी के बरअक्स देखें तो सोनम का अभिनय बहुत अपरिपक्व दिखाई देता है।

फिल्म का गीत-संगीत पूरी तरह सिचुएशनल है। ध्यान देने की बात है कि फिल्म का एक भी दृश्य संगीत के बिना नहीं है और वह दृश्य के भाव से ज़रा सा भी इधर-उधर नहीं है। इरशाद कामिल के गीत और ए.आर. रहमान का संगीत फिल्म को देखते हुए ऐसे नहीं लगते कि कुछ जबरदस्ती शामिल कर दिया गया है। बिल्कुल बैलेंस्ड म्यूजिक।

गुरुवार, 20 जून 2013

नहीं रहना तुम्हारे बंधनों में कैद


सुनो महादेव!
अब नहीं रहना मुझे
तुम्हारी जटाओं में कैद
नहीं बहना वैसे
जैसे तुम नियंत्रित करो
जितनी तुम छूट दो

पहाड़ों पर रहते हुए
बाँधा जैसे तुमने
तुम्हारे अनुयायी भी
बाँधते रहे जगह जगह
रोकते-बाँटते गए
दिखाते गए अपनी-अपनी ताक़त
जब कभी चाहा बहना
स्वतंत्र होकर, निर्विरोध
कहा गया उद्दंड
कि तोड़ दी हैं मर्यादाएं

क्या सब मेरे लिए ही थीं
तुम्हारी नहीं थी कोई?
और तुम्हारे अनुयाइयों की?

जब चाहा ही नहीं तुमने
कि आऊँ मैं समूचे अस्तित्व के साथ
सबके सामने
बाँधे रहे न जाने
किस-किस तरह के जटाबंधनों में
देते रहे बस उतनी ही छूट
कि बस दर्ज होती रहे मेरी उपस्थिति
खुद बने रहे घुमंतू, स्वतंत्र
परवाह ही न की मेरी स्वतंत्रता की

तो क्यों करूँ मैं परवाह
अगर मेरी स्वतंत्रता से
डोलता है तुम्हारा आसन
अगर त्राहिमाम करते हैं
तुम्हारी राह पर चलने वाले

सुनो महादेव!
नहीं रहना अब मुझे
तुम्हारे बंधनों में कैद
मैं बहूँगी पूरे वेग से
पूरी स्वतंत्रता से
सामने आए जो अबकी तुम
बहा ले जाऊँगी तुम्हे भी।

मंगलवार, 18 जून 2013

आडवाणी, मोदी और किसान


इन दिनों भारतीय जनता पार्टी सुर्खियों में है। कारण रहे लालकृष्ण आडवाणी, नरेन्द्र मोदी और बिहार। न्यूज चैनलों, न्यूज पोर्टलों यहां तक कि सोशल मीडिया में भी इस समय अगर चर्चा का कोई केन्द्र है तो बस बीजेपी। एक अरसे तक पार्टी के मास्टर माइंड रहे आडवाणी की अपनी ही पार्टी में ‘घर के रहे न घाट के’ जैसी स्थिति हो जाना निश्चित ही राजनीति के विश्लेषकों और मीडिया के लिए बड़ी ख़बर थी। इसलिए और भी क्योंकि आगामी समय में उनकी जगह नरेंद्र मोदी के बैठे दिखाई देने के आसार नज़र आ रहे हैं। यानी सारथी रथी बनने की ओर अग्रसर है और जो कभी रथी था वह बस टुकुर-टुकुर देखेगा। आडवाणी की इस स्थिति पर टिप्पणी करने वाले कई लोगों का अनुमान है कि अब शायद आडवाणी उस वक्त को याद कर रहे होंगे जब वे नरेन्द्र मोदी की पीठ थपथपा रहे थे। बहुत संभव है कि आडवाणी अपनी गलतियों के लिए भीतर ही भीतर ग्लानि भी अनुभव कर रहे हों।

यहां ‘बोया पेड़ बबूल का तो फूल कहां से पाय’ की कहावत का उपयोग उचित ही होगा। आडवाणी की राजनीति की फसल जिस मौकापरस्ती की जमीन पर लहलहाई उसमें हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता और दंगों पर अपना विकास करने के बीज उन्होंने ही तो बोए थे, जिसकी फसल पहले वे खुद काटते रहे और अब खाद-पानी देकर मोदी काट रहे हैं। यह और बात है कि मोदी ने वक्त की नजाकत समझते हुए इसमें कुछ दूसरी किस्म के बीज भी डाल दिए हैं। बाबरी मस्जिद की घटना से पहले क्या आडवाणी का कद इतना बड़ा था? राम मन्दिर के मुद्दे पर उन्होंने अपनी रोटियां सेंकीं। गुजरात के दंगे के बाद नरेन्द्र मोदी पार्टी के नेशनल हीरो बन गए और अब वे अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। तो इस मौकापरस्ती के खेल में अगर मोदी आडवाणी को किनारे कर आगे बढ़ रहे हैं तो यह कोई अचरज की बात नहीं होनी चाहिए।

हालिया घटना बिहार में बीजेपी-जेडीयू की तकरार है। मोटे तौर पर यह ‘गुड़ से यारी, गुलगुलों से परहेज’ की तरह है, जिसमें आडवाणी गुड़ हैं तो मोदी गुलगुला। लेकिन गौर से देखें तो जिस तरह मोदी भाजपा समर्थक क्षेत्रों में सब पर हावी होते जा रहे हैं, उसके मद्देनजर यह वर्चस्व की लड़ाई ज़्यादा नज़र आती है। हाल ही में हुई सिर-फुटौवल शायद इसी ओर इशारा भी कर रही है। बहरहाल एक तरफ आडवाणी, बीजेपी-जेडीयू वाली उठापटक है और दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी। जहां-जहां भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां हैं, वे गुजरात के विकास के कसीदे पढ़ते नहीं थकते। यह स्पष्ट है कि आगामी चुनावों के लिहाज से मोदी हर तरह से अपने कद को और ऊँचा दिखाने की जुगत में लगे हुए हैं और इसके लिए वे अपने ‘तथाकथित विकास’ को आधार बना रहे हैं। इसी क्रम में हाल ही में सरदार वल्लभ भाई पटेल की 392 फुट ऊंची प्रतिमा के निर्माण की घोषणा के साथ मोदी ने खुद को किसानों का हितैषी दर्शाने की कोशिश भी की है, जो कि मोदी की अवसरवादिता का एक और नमूना है।

गौरतलब है कि इस प्रतिमा के निर्माण के लिए उन्होंने देश के सभी किसानों से लोहे की मांग की है। असल में तो यह राजनीति का एक हथकंडा ही है जिसके सहारे वे देश के उन किसानों के बीच अपनी जगह बनाना चाहते हैं, जिनकी बदहाली का जिम्मा अकेले केन्द्र के सिर पर मढ़़ दिया जाता है। जबकि हकीकत यह है कि किसानों की बदहाली के लिए जितनी जिम्मेदार केन्द्र सरकार है, उतनी ही राज्य सरकारें भी। शायद मोदी यह भूल गए हैं कि उनके अपने राज्य गुजरात में किसान उनसे खुश नहीं हैं।

गुजरात के विकास का ढिंढोरा पीटने वाले मोदी के लिए उनकी सरकार द्वारा किया गया भूमि अधिग्रहण मुसीबत बना ही हुआ है। स्पेशल इन्वेस्टमेंट रीजन के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ गुजरात के चार जिलों के 35 गांवों ने आंदोलन छेड़ रखा है। इस हद तक कि दीवारों पर दर्ज अक्षरों और चस्पां पोस्टरों में सरकारी अधिकारियों और उद्योगपतियों को स्पष्ट चेताया गया है कि वे जमीन अधिग्रहण के मामले में गांव में कदम न रखें अन्यथा उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी। इसी क्षेत्र में किसानों की कई एकड़ उपयोगी जमीन को इस्तेमाल में न आने वाली जमीन बताकर मारुति को दे देने के कारण किसान पहले से ही मोदी सरकार के प्रति गुस्से में हैं। गुजरात के किसान स्पष्ट कहते हैं कि विकास के नाम पर जिस जमीन का अधिग्रहण किया जाता है उस पर सिर्फ उद्योगपतियों का विकास होता है।

29 मई 2013 की एक सूचना के अनुसार जनवरी 2008 से अगस्त 2012 तक गुजरात में 112 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वजह थी सूखा, कर्ज और उसके भुगतान के लिए बैंकों का दबाव। 2005 में जिन किसानों ने फसल सुरक्षा बीमा लिया था, उन्हें सरकार से आज तक एक पैसा भी नहीं मिला है, जबकि किसानों से बीमा के पैसे वसूलने में कोई कोताही नहीं की जाती। गौरतलब है कि 2012 के शुरुआती 5 महीनों में ही 65 किसानों ने आत्महत्या की और यह सिलसिला अब भी जारी है। बावजूद इसके मोदी कृषि मेलों का आयोजन करते हैं और गुजरात में कृषि क्षेत्र की स्थिति बहुत अच्छी होने का दिखावा करते हैं। क्या इन किसानों की मौत के प्रति मोदी सरकार की कोई जवाबदेही नहीं बनती? या फिर मोदी का गुजरात और विकास केवल शहरों और उद्योगपतियों तक ही सीमित है?

मोदी देश के पांच लाख से अधिक गांवों के किसानों से स्टैचू ऑफ़ यूनिटी यानी सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा के निर्माण के लिए लोहा तो मांग रहे हैं, लेकिन शायद उन्हें पता नहीं है कि इसमें शामिल हो सकने वाले 90 लाख लोहे के टुकड़े कम हो चुके हैं और जब तक उनका यह अभियान जोर पकड़ेगा तब तक कमी की यह मात्रा और बढ़ चुकी होगी। ताजा आंकड़ों की मानें तो पिछले एक दशक में देश में 90 लाख किसानों ने कृषि से किनारा कर लिया है और खेतिहर मजदूरों की संख्या में तीन करोड़ 80 लाख की वृद्धि हुई है। लेकिन जब मोदी को अपने ही राज्य के किसानों की दुर्गति नहीं दिखाई देती तो पूरे देश के किसानों की व्यथा से उन्हें क्या लेना-देना। दूसरी बात ये कि अपनी-अपनी परेशानियों में डूबे पूरे देश के किसानों को भी कहां गुजरात के किसानों की स्थिति का अंदाजा होगा। खबरों मे दिखाई देने वाले कृषि मेले बेहतरी का भ्रम फैलाते हैं। अपनी दुर्गति के लिए दोषी ठहराने हेतु किसानों का मुंह कई तरीकों से केंद्र सरकार की ओर मोड़ दिया जाता है, फिर चाहे वह मध्य प्रदेश हो, उत्तर प्रदेश हो या गुजरात। ऐसे में पूरे देश के किसानों में अपनी छवि को ऊंचा करने का अवसर मोदी भला कैसे छोड़ सकते थे, जिसका फायदा चुनावों के इस दौर में उन्हें और उनकी पार्टी को मिल सकता है। इसीलिए देश भर के किसानों से लोहे का टुकड़ा मांगकर उन्होंने मौके का फायदा उठाने की कोशिश की है।

असल में मोदी को किसानों के हालात से कोई सरोकार नहीं है, होता तो वे किसानों के हित में कोई घोषणा करते। वे तो सिर्फ किसानों के खून से लथपथ लोहे के टुकड़ों से सरदार पटेल की प्रतिमा बनवाकर एक मिसाल कायम करना चाहते हैं। दिखाना चाहते हैं कि देखो मैंने स्टैचू ऑफ़ लिबर्टी से दोगुने आकार की प्रतिमा बनवाई। इस प्रतिमा के सहारे वे खुद का कद बड़ा दिखाने के ख्वाहिशमंद हैं। वैसे यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि मोदी किसानों के लोहे की इस प्रतिमा को उसी सरदार सरोवर बांध के किनारे स्थापित करना चाहते हैं, जिसकी नींव में सैकड़ों किसानों के विस्थापन का इतिहास दफन है। शायद मोदी इस ताबूत में एक कील और ठोकना चाहते हैं।

मंगलवार, 11 जून 2013

चंद लम्हे असास रखे थे


चंद लम्हे असास रखे थे          
रंज कुछ अपने पास रखे थे 

तज़रिबे होते नहीं सब मीठे 
हमने नमकीन ख़ास चखे थे 

आसमां में दिखे थे कुछ बादल             
ख़ाली बर्तन भी पास रखे थे 

एक कमरे का मकाँ था जिसमें 
सारी दुनिया के ख़्वाब रखे थे 

मिल गए माज़ी के बक्से में 
कितने उधड़े लिबास रखे थे 

ख़ुद पे उतरेगा कहाँ जाना था 
जाने कब से ये ताब रखे थे 

एक ख़ामोश ग़ज़ल सा था वो 
क़ैद जिसके मजाज़ रखे थे 

वक़्त बदला तो नहीं है यूँ ही 
हमने कुछ नगमे साज़ रखे थे 

जब सुलगते थे धुआँ उठता था 
शोले फ़ितरत में आब रखे थे 

रोज़-ए-अव्वल ही से दुनिया में 
प्यार पे सख्त पास रखे थे 

पारा-पारा ही मिले हैं अक्सर 
कल के हिस्से में आज रखे थे 

अहद का नफ़ा-ज़ियाँ क्या है 
हमने कब ये हिसाब रखे थे 

कच्ची मिट्टी से मकाँ ऊँचे तक 
सबके अपने अज़ाब रखे थे 

चलो तामीर पूरी करते हैं 
कुछ अधूरे से ख़्वाब रखे थे।

असास: बुनियाद /नींव, माज़ी: इतिहास, ताब: गुस्सा, मजाज़: कानूनी रूप से स्वीकृत बात, आब: पानी, 
रोज़-ए-अव्वल: पहला दिन, पास: कब्जा, पारा-पारा: खंड-खंड /टुकड़े-टुकड़े, अहद: वादा, नफ़ा-जियां: लाभ-हानि, अज़ाब: मुश्किलें।

रविवार, 9 जून 2013

ये ख़ून नज़र किसका...

यूँ तो हर एक हाथ उठा है दुआ में
तेज़ाब किसने फिर ये फेंका है हवा में

क्या बात है कि जिससे बरहम है ज़माना
हर सिम्त कोई खौफ़ सा उठा है फ़िज़ा में

जो पीर थी हमारी धू-धू के जल रही
पर ध्यान अब भी उनका ज़्यादा है अदा में

बरसात का है मौसम बादल हैं तुम्हारे
ये ख़ून नज़र किसका आता है घटा में

घर से थे पाँव निकले मंजिल के सफ़र पे
हर मोड़ इस सफ़र का काटा है गुमां में

'साहिल' सुनो की लहरें ख़ामोश हैं बहुत
कोई नाला मगर इनका आता है सदा में।

सोमवार, 3 जून 2013

एक दामाद का दुःख

जकल सुबह बड़ी देर तक सोता हूँ। ऐसे में अगर सुबह-सुबह कोई फ़ोन आ जाए तो बड़ी झल्लाहट होती है। मित्रों से कह भी रखा है कि भई सुबह-सुबह फोन मत करना। पर लल्लन मियाँ को कौन रोक सकता है, वे कभी भी फोन खड़का देते हैं। आज भी वे असमय बरास्ता फोन प्रकट हुए और प्रकट होते ही हमेशा की तरह सवाल फेंका- ‘तुमने शादी कर ली?’ 

झल्लाहट तो बड़ी हुई, सुबह-सुबह ही लल्लन मियाँ यह क्या राग अलापने लगे। मैंने कहा- ‘क्या लल्लन मियाँ आप भी! भई रात दो बजे ही तो आपने बात की थी, तब तक मैं अविवाहित था, इतनी जल्दी विवाहित कैसे हो जाऊँगा?’

लल्लन मियाँ के जवाब ने बता दिया कि वे लखनऊ वाया सहारनपुर के रास्ते पर हैं। बोले- ‘भई जब चंद घंटों में किसी का दामाद ‘पॉपुलर’ हो सकता है, तो यह भी हो सकता है। वैसे इस वक्त हमें अपने पिताजी पर बड़ा गुस्सा आ रहा है। और हमें ही क्या दुनियाभर के मिडल क्लास दामादों को अपने पिताजी पर गुस्सा आ रहा होगा।’

आँखों में नींद भरी थी लेकिन न पूछना बेअदबी कहलाता सो मैंने पूछ लिया- ‘किस बात का गुस्सा?’

‘अब क्या बताएँ, उन्होंने हमारा ‘उज्ज्वल भविष्य’ जो चौपट कर दिया। सिर्फ यह देखकर कि लड़की सुशील है, पढ़ी-लिखी है, पिताजी ने हमारी शादी करा दी। यह देखा ही नहीं कि ससुर किसी ‘लायक’ हैं या नहीं। अगर हमारे ससुर साहब किसी कबड्डी कमेटी के भी अध्यक्ष होते तो हम भी मय्यप्पन की तरह पॉपुलर न हो गए होते।’

‘लेकिन मय्यप्पन इसलिए थोड़े ही पॉपुलर हुए हैं कि श्रीनिवासन के दामाद हैं, फिक्सिंग की वजह से हुए हैं। और फिर वह फिल्मजगत से ताल्लुक रखते परिवार का चश्मोचिराग है, उसकी अपनी हैसियत है इसलिए अध्यक्ष जी का दामाद है।’

‘अमाँ छोड़ो हैसियत की बात। इंटरनेट से ढ़ूँढ़-ढाँढ़कर पता कर लिया होगा कि फिल्मजगती परिवार के चश्मोचिराग हैं, वरना ख़बरें देखने वालों को अब भी कहाँ पता है। और भाई क्या इतनी बड़ी आग लगा पाता वो केवल फिल्मजगती परिवार की आँख और दीपक होकर। फिक्सिंग भला क्यों कर पाता जो अध्यक्ष जी का दामाद न होता?’

‘वो तो इसलिए कि वह ख़ुद एक टीम का सीईओ है।’

‘वो भी क्यों है, क्योंकि अध्यक्ष जी की बेटी उस टीम के मालिकान में से एक है। इसीलिए तो हमें गुस्सा है। अगर हमारे ससुर भी किसी खेल कमेटी के अध्यक्ष होते तो बीवी की मार्फ़त हम भी तो कुछ न कुछ होते। फिर दिखाते मीडिया को कि एक अकेला वही होनहार दामाद नहीं है। उसे ‘अपोर्चुनिटी’ मिली, हमें नहीं मिली तो इसमें हमारा क्या दोष? पर नहीं सबको तो केवल एक वही दामाद नज़र आ रहा है, हम सब तो जैसे निखट्टू हैं। देखते ही नहीं कि सुबह पानी की लाइन, बच्चे के स्कूल एडमिशन, रेड लाइट क्रासिंग, नौकरी की लाइन और न जाने कहाँ-कहाँ हम भी कितनी तरह की फिक्सिंग करते हैं।’

‘लेकिन दामाद की करनी तो देखिए, बेचारे ससुर जी को अध्यक्ष पद से अलग होना पड़ा। संगी-साथियों ने ही उन पर दबाव बनाने के लिए अपना इस्तीफा तक दे दिया था।’

‘महान बनने के लिए कुछ तो छोड़ना ही पड़ता है बंधु। उनका बयान देखो- किसी ने इस्तीफा नहीं माँगा, खुद ही अलग हो गए पद से। दामाद की करनी ने उन्हें महान बनने का मौका दे दिया भई। और मूरख हैं संगी-साथी। अरे भई जब कप्तान चुप है, जिस टीम का सीईओ है उसके मालिकान चुप हैं, ससुर जी का कुछ बिगड़ नहीं रहा, तो ये काहे झमेला कर रहे हैं। इसीलिए कहता हूँ भाई जो अपोर्चुनिटी हमारे पिताजी की वजह से हमें नहीं मिली, उसे तुम मत खो देना। शादी के लिए लड़की ढ़ूँढने के चक्कर में मत पड़ना, बस एक ‘लायक ससुर’ ढ़ूँढो, तुम भी पॉपुलर बनो और हम जैसे दामादों की पीड़ा का निवारण करो।’

‘यानी पॉपुलर होने के लिए घपला करूँ। क्या उल्टी राय दे रहे हैं!’

‘तो क्या तुम यह समझ रहे हो कि कलम घसीट-घसीट कर इतने पॉपुलर हो जाओगे कि अदालत तुम्हें शादी करने के लिए छोड़ देगी। तुम क्या कोई क्रिकेट स्टार हो! तुम्हारे भले के लिए हमें जो कहना था कह दिया, आगे तुम्हारी मर्जी।’

लल्लन मियाँ फोन पटक चुके थे। मैं सोचने लगा था निगेटिव चीजें भी कमाल ‘पॉपुलैरिटी’ देती हैं।