सोमवार, 12 नवंबर 2012

बीमार मानसिकता और शब्दों से बलात्कार


मुझे नहीं पता कि क्या लिखूँगा? कुछ लिख भी पाऊँगा या नहीं? पर आज बहुत बेचैनी और गुस्सा है। किसके ख़िलाफ़? मुझे नहीं पता। आख़िर पता हो भी कैसे सकता है? कोई एक नाम या शक्ल सामने नहीं है। है तो बस एक विशेष पहचान, एक विशेष भाव, एक बीमार मानसिकता, जिससे ग्रस्त हजारों लोग हमारे बीच हैं। चाहे अपनों की बात हो, चाहे गली-मोहल्ले की या फिर शहर, देश, दुनिया की, एक स्त्री की ‘औकात’ क्या है? क्या सिर्फ यही उसका अंतिम अस्तित्व है कि पुरुष किसी भी बहाने से उसकी देह को भोगे, वास्तविकता में नहीं तो कल्पनालोक में ही सही! 
     छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएं जिस गति से बढ़ रही हैं और जितना उनके बारे में लिखा, कहा जा रहा है वह तो सबके सामने है, पर एक स्त्री के लिए संकट सिर्फ तब ही नहीं है, जब वह पुरुष की पहुँच में है। बहुत सारे लोगों ने किसी लड़के को किसी लड़की के बारे में अनाप-शनाप बकते सुना होगा, आपने भी। यहां तक कि अगर उनके बीच रहे निःतांत निजी अंतरंग संबंधों के बारे में भी सुना हो तो कोई बड़ी बात नहीं। 
पर क्या जो कुछ आपने सुना वह सच ही होता है? जी नहीं, ऐसा कतई जरूरी नहीं है। एक स्त्री का पुरुष की पहुँच में न होना भी इन बातों को जन्म देता है। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी घटनाओं का खुली तरह से उल्लेख करना भी परेशानी का सबब बन सकता है, इसलिए इससे परहेज ही रखूँगा, लेकिन ऐसी कई घटनाओं की तह में जाने का जो नतीजा हासिल हुआ वह यह है कि किसी लड़की के साथ अपने या किसी और के अंतरंग संबंधों के अधिकांश किस्से एक बीमार मानसिकता, यौनिक कुंठा, उस लड़की को हासिल करने की दबी हुई इच्छा और उसके पूरा न होने के कारण उपजे हैं। उदाहरण के लिए बिना व्यक्ति और शहर का नाम लिए एक किस्सा कुछ यूं है- 
     एक लड़की पढ़ाई के लिए किसी दूसरे शहर में थी। वह बीमार हुई तो उसी शहर में मौजूद अपने रिश्तेदार के घर चली गई और तकरीबन 15-20 दिन वहीं रही। जब तबियत ने सुधरने का नाम नहीं लिया तो उसके रिश्तेदार का बेटा, जो कि रिश्ते में उसका भाई था, उसे उसके घर छोड़ आया। लड़की बड़ी ही कमजोर हालत में अपने घर पहुंची और एक महीना वहीं रही। इस दौरान वह घर से बाहर भी बहुत कम निकली। जब वह वापस अपनी पढ़ाई के लिए पहुंची तो सारा माहौल बदला हुआ था। सहपाठी लड़के और लड़कियां उसे अजीब से नज़रों से देखते, शोहदे चुटकियां लेते हुए अभद्र इशारे करते। आखिर ऐसा क्यों हुआ? इसकी वजह तब सामने आई जब उस लड़की का वह भाई, जो मेरा करीबी था, एक दिन बेहद गुस्से में भरा मेरे साथ था। गुस्सा इतना था कि उसकी आवाज़ कांप रही थी, हालात को सही न कर पाने की बेबसी इतनी थी कि गला भर-भर आता था। हुआ यह था कि उस लड़की के साथ ‘संपर्क’ बढ़ाने के ख़्वाहिशमंद एक लड़के ने शराब के नशे में उस लड़की को लेकर अपने कुंठित सपने कुछ दोस्तों को कह सुनाए, कुछ इस ढंग से कि ‘मेरा उसके साथ पुराना संबंध है..., वह बहुत .... है, दोनों कई रातें साथ गुजार चुके हैं आदि-आदि’ और फिर अंतरंग संबंधों का वर्णन। 
     ...अब बात तो बात होती है, एक मुंह से निकली तो सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। कुछ उस लड़के की कल्पना और कुछ जिस-जिस तक बात पहुँची उसकी कल्पना, लब्बोलुआब यह कि लड़की प्रेगनेंट हो गई थी, गर्भपात कराना पड़ा जिसकी वजह से उसकी हालत गिर गई थी। बात यहाँ-वहाँ फैली और लड़की के दामन पर एक ऐसा दाग लगा गई कि वह न जाने कितनी नज़रों के लिए बस एक ‘भोग्या’ भर बन कर रह गई। एक लड़के की कुंठित मानसिकता के अपराध की सजा यह कि वह लड़की कहीं निकलती तो अपनी नज़रें नीची करके, ताकि वह किसी की नजरों का सामना न करे जिनमें तमाम तरह के सवाल और कीड़े बिलबिलाते दिखाई देते थे। 
     ऐसे कई मामलों की कभी भनक पड़ी, तो कई के बारे में बहुत करीब से जाना। आज जब फिर से किसी के दामन पर ऐसी ही कीचड़ उछलते देखी (जिसके निर्दोष होने का इत्तफ़ाकन मैं खुद गवाह हूँ) तो उस लड़की के भाई के रुंधे गले से निकली वह बात किसी खंजर की तरह फिर दिल में उतर गई कि ‘भैया, मुझे पता है कि मेरी बहिन निर्दोष है। अगर यह बात सच होती तो क्या हमें पता न चलता? वह जिस दिन बीमार हुई थी उसी दिन हमारे घर आ गई थी। मैं खुद उसे डॉक्टर के पास लेकर गया था, उसे तो बस टाइफाइड हुआ था। लेकिन यह बात मैं किस-किस को समझाऊँ? किस-किस का मुँह पकड़ूँ? उस ..... लड़के को मैं खुद मार डालूं या पुलिस कार्यवाही करूँ, तो भी यह बदनामी पीछा नहीं छोड़ेगी। बेचारी को घर से निकलते डर लगता है। आखिर मैं करूँ तो क्या करूँ?’ 
     उसके इस ‘क्या करूँ?’ का जवाब न तब मेरे पास था, न आज है। किसी एक को समझाया भी जा सकता है, पर..... बात तो बात होती है, एक बार मुँह से निकली तो सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। 
     बलात्कार को एक गंभीर अपराध माना जाता है। क्या यह भी बलात्कार नहीं, जिसे एक कुंठित बीमार मानसिकता महज शब्दों से ही अंजाम देती है। क्या इन घटनाओं की शिकार लड़कियाँ भी उसी मानसिक वेदना और परिस्थिति से नहीं गुजरतीं, जिनसे एक बलात्कार पीड़िता गुजरती है। वह भाई ‘क्या करूँ?’ का गंभीर प्रश्न करने के बाद रोने लगा था। ऐसे में इन परिस्थितियों की शिकार हुई लड़की पर क्या गुजरती होगी, इसका शायद अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। 
     छोटे-बड़े कस्बों-शहरों में न जाने कितनी लड़कियाँ रोज ही इस कुंठाग्रस्त मानसिकता द्वारा शब्दों से किए गए बलात्कार की शिकार होती हैं। शायद उससे कहीं ज्यादा जितनी कि शारीरिक बलात्कार की शिकार होती हैं। और जब शारीरिक अपराध की शिकायत दर्ज कराने में आज भी बदनामी बढ़ने के ख़तरे के बारे में पहले सोचा जाता हो, वहाँ  इस शाब्दिक अपराध की शिकायत भला कितनी होती होगी? और शिकायत भी क्या कि ‘यह कल्पनाओ में मेरे साथ.....’ या ‘इसने लोगों से कहा कि इसने मुझे इस-इस तरह से....।’ 
     यहाँ यह बात भी गौरतलब है कि कस्बों में पुलिस को रिपोर्ट लिखाते वक्त यह लिखाने से काम नहीं चलता कि ‘अश्लील बातें कहीं’ या ‘अश्लील हरकतें कीं’, वह सब हू-ब-हू वैसा ही लिखाना होता है, जैसा कि कहा गया या किया गया। माँ-बहन की गालियों से लेकर अंगों के नाम और उनसे की गई हरकतों तक। और फिर इस तरह के मामलों को सुलझने में लगने वाले वक्त के दौरान न जाने कितनी ही बार लजा देने वाली परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। पुरुष इस बेशर्मी का सार्वजनिक रूप से जितना आदी और अभ्यस्त है, महिलाएँ अब तक नहीं हैं। शायद यही वजह है कि इस अपराध की शिकायत अमूमन नहीं ही होती और एक व्यक्ति की कुंठा और सड़ी-गली कल्पनाओं की बदबू का बादल एक निर्दोष के जीवन में कई बार इस तरह छा जाता है कि उसके कॅरियर और भविष्य के उजालों को ग्रहण लग जाता है। 
     वर्तमान स्थितियों में यह मानसिकता सिर्फ शब्दों को मुँह से निकालने तक ही सीमित नहीं है। इंटरनेट पर न जाने कितनी लड़कियों की पहचान का इस्तेमाल करके फेक अकाउंट हैं, पोर्न साइट्स बॉलीवुड, हॉलीवुड से लेकर आपके-हमारे बीच की स्कूल-कॉलेज की छात्राओं, घरेलू और कामकाजी महिलाओं की मॉर्फ़ और फेक तस्वीरों से भरी पड़ी हैं। तकनीक का इस तरह दुरुपयोग करने में भारत सबसे अव्वल है। बावजूद इसके आलम यह है कि इन फेक अकाउंट्स की शिकायत करने के बाद भी उनमें से कई बंद नहीं होते, चलते रहते हैं।
     यह सच है कि किसी के दिमाग पर काबू नहीं पाया जा सकता है, उसे सोचने से रोका नहीं जा सकता लेकिन गुस्सा इस बात का है कि इस तरह की सोच को व्यक्त करने पर भी जो दोषी है उसके बजाय निर्दोष ही क्यों दण्डित और परेशान होता है? क्या कभी सुना है कि किसी लड़की ने एक लड़के के बारे में ऐसा-वैसा कुछ कहा हो और उस लड़के का किसी से नजरें मिलाना मुश्किल हो गया हो? नहीं न! और अगर लड़के के बारे में ऐसा कह भी दिया जाए, तो भी लड़का ‘मर्द का बच्चा’ कहलाएगा, मगर लड़की, एक स्त्री..... क्या है वह? वह तो इन बीमारों के लिए बस एक मांस का लोथड़ा भर है और बाकी समाज के लिए ‘इज्जत’ की टोकरी सिर पर उठाने वाली सबसे कमजोर कड़ी। किसी ने कुछ कहा नहीं कि ‘इज्जत’ गई नहीं। 
     कितनी हैरत की बात है कि बीमार पुरुष है और तकलीफ स्त्री सहन करती है, बेइज्जत महिलाओं को किया जाता है और इज्जत की टोकरी भी उन्हीं के सिर पर लाद दी जाती है। इलाज भी महिलाओं के लिए नियम बनाकर खोजे जाते हैं। सभ्यता, संस्कृति और स्त्री के पूजनीय होने की झंडाबरदारी करने वाले बताएँ कि उनके पास इस बीमारी का क्या इलाज है? यह सवाल इसलिए नहीं है कि कोई संस्कृति रक्षा आंदोलन चलाना है, न ही कोई नैतिकता का पाठ पढ़ाना है, बल्कि इसलिए है कि महिलाओं के सिर पर इज्जत का ठीकरा फोड़ने वाली, बात-बात पर संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाली, नैतिकता का झंडा उठाए फिरने वाली और आज भी भीतर से पुरुषवादी यह समाज व्यवस्था पुरुषों की ‘बदतमीजी’ और महिलाओं के ‘सब्र’ के फर्क को समझे, कुंठित और बीमार मानसिकता के इस शाब्दिक अपराध के दूरगामी प्रभावों-परिणामों के बारे में सोचे, अपने गिरेबां में झांके और इस सवाल का जबाब दे, जो ऐसी परिस्थितियों में किसी भी महिला और उसके हितचिंतकों के सामने खड़ा होता है कि - ‘क्या करूँ?’