शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

इन तीस सालों में

मेरी जिंदगी के तीस सालों में
अट्ठाइस और बीस साल इंतजार के हैं
इंतजार कई लोगों का सामूहिक

मेरे जन्मदिन के दो दिन पहले
और एक दिन बाद का इंतजार
न्याय प्रक्रिया की बेहतरी का इंतजार
इस्तेमाल से अलग
इंसान समझे जाने का इंतजार
समझ आने का इंतजार

मैं पैदा हुआ 5 दिसंबर 1982 को
3 दिसंबर 1984 का भोपाल
6 दिसंबर 1992 की अयोध्या
बहुत बदल गई है अब तक
गवाह-मुलजिम कई
विदा ले चुके हैं दुनिया से

मेरी जिंदगी के तीस सालों में
अट्ठाइस और बीस साल इंतजार के हैं।






सोमवार, 12 नवंबर 2012

बीमार मानसिकता और शब्दों से बलात्कार


मुझे नहीं पता कि क्या लिखूँगा? कुछ लिख भी पाऊँगा या नहीं? पर आज बहुत बेचैनी और गुस्सा है। किसके ख़िलाफ़? मुझे नहीं पता। आख़िर पता हो भी कैसे सकता है? कोई एक नाम या शक्ल सामने नहीं है। है तो बस एक विशेष पहचान, एक विशेष भाव, एक बीमार मानसिकता, जिससे ग्रस्त हजारों लोग हमारे बीच हैं। चाहे अपनों की बात हो, चाहे गली-मोहल्ले की या फिर शहर, देश, दुनिया की, एक स्त्री की ‘औकात’ क्या है? क्या सिर्फ यही उसका अंतिम अस्तित्व है कि पुरुष किसी भी बहाने से उसकी देह को भोगे, वास्तविकता में नहीं तो कल्पनालोक में ही सही! 
     छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएं जिस गति से बढ़ रही हैं और जितना उनके बारे में लिखा, कहा जा रहा है वह तो सबके सामने है, पर एक स्त्री के लिए संकट सिर्फ तब ही नहीं है, जब वह पुरुष की पहुँच में है। बहुत सारे लोगों ने किसी लड़के को किसी लड़की के बारे में अनाप-शनाप बकते सुना होगा, आपने भी। यहां तक कि अगर उनके बीच रहे निःतांत निजी अंतरंग संबंधों के बारे में भी सुना हो तो कोई बड़ी बात नहीं। 
पर क्या जो कुछ आपने सुना वह सच ही होता है? जी नहीं, ऐसा कतई जरूरी नहीं है। एक स्त्री का पुरुष की पहुँच में न होना भी इन बातों को जन्म देता है। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी घटनाओं का खुली तरह से उल्लेख करना भी परेशानी का सबब बन सकता है, इसलिए इससे परहेज ही रखूँगा, लेकिन ऐसी कई घटनाओं की तह में जाने का जो नतीजा हासिल हुआ वह यह है कि किसी लड़की के साथ अपने या किसी और के अंतरंग संबंधों के अधिकांश किस्से एक बीमार मानसिकता, यौनिक कुंठा, उस लड़की को हासिल करने की दबी हुई इच्छा और उसके पूरा न होने के कारण उपजे हैं। उदाहरण के लिए बिना व्यक्ति और शहर का नाम लिए एक किस्सा कुछ यूं है- 
     एक लड़की पढ़ाई के लिए किसी दूसरे शहर में थी। वह बीमार हुई तो उसी शहर में मौजूद अपने रिश्तेदार के घर चली गई और तकरीबन 15-20 दिन वहीं रही। जब तबियत ने सुधरने का नाम नहीं लिया तो उसके रिश्तेदार का बेटा, जो कि रिश्ते में उसका भाई था, उसे उसके घर छोड़ आया। लड़की बड़ी ही कमजोर हालत में अपने घर पहुंची और एक महीना वहीं रही। इस दौरान वह घर से बाहर भी बहुत कम निकली। जब वह वापस अपनी पढ़ाई के लिए पहुंची तो सारा माहौल बदला हुआ था। सहपाठी लड़के और लड़कियां उसे अजीब से नज़रों से देखते, शोहदे चुटकियां लेते हुए अभद्र इशारे करते। आखिर ऐसा क्यों हुआ? इसकी वजह तब सामने आई जब उस लड़की का वह भाई, जो मेरा करीबी था, एक दिन बेहद गुस्से में भरा मेरे साथ था। गुस्सा इतना था कि उसकी आवाज़ कांप रही थी, हालात को सही न कर पाने की बेबसी इतनी थी कि गला भर-भर आता था। हुआ यह था कि उस लड़की के साथ ‘संपर्क’ बढ़ाने के ख़्वाहिशमंद एक लड़के ने शराब के नशे में उस लड़की को लेकर अपने कुंठित सपने कुछ दोस्तों को कह सुनाए, कुछ इस ढंग से कि ‘मेरा उसके साथ पुराना संबंध है..., वह बहुत .... है, दोनों कई रातें साथ गुजार चुके हैं आदि-आदि’ और फिर अंतरंग संबंधों का वर्णन। 
     ...अब बात तो बात होती है, एक मुंह से निकली तो सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। कुछ उस लड़के की कल्पना और कुछ जिस-जिस तक बात पहुँची उसकी कल्पना, लब्बोलुआब यह कि लड़की प्रेगनेंट हो गई थी, गर्भपात कराना पड़ा जिसकी वजह से उसकी हालत गिर गई थी। बात यहाँ-वहाँ फैली और लड़की के दामन पर एक ऐसा दाग लगा गई कि वह न जाने कितनी नज़रों के लिए बस एक ‘भोग्या’ भर बन कर रह गई। एक लड़के की कुंठित मानसिकता के अपराध की सजा यह कि वह लड़की कहीं निकलती तो अपनी नज़रें नीची करके, ताकि वह किसी की नजरों का सामना न करे जिनमें तमाम तरह के सवाल और कीड़े बिलबिलाते दिखाई देते थे। 
     ऐसे कई मामलों की कभी भनक पड़ी, तो कई के बारे में बहुत करीब से जाना। आज जब फिर से किसी के दामन पर ऐसी ही कीचड़ उछलते देखी (जिसके निर्दोष होने का इत्तफ़ाकन मैं खुद गवाह हूँ) तो उस लड़की के भाई के रुंधे गले से निकली वह बात किसी खंजर की तरह फिर दिल में उतर गई कि ‘भैया, मुझे पता है कि मेरी बहिन निर्दोष है। अगर यह बात सच होती तो क्या हमें पता न चलता? वह जिस दिन बीमार हुई थी उसी दिन हमारे घर आ गई थी। मैं खुद उसे डॉक्टर के पास लेकर गया था, उसे तो बस टाइफाइड हुआ था। लेकिन यह बात मैं किस-किस को समझाऊँ? किस-किस का मुँह पकड़ूँ? उस ..... लड़के को मैं खुद मार डालूं या पुलिस कार्यवाही करूँ, तो भी यह बदनामी पीछा नहीं छोड़ेगी। बेचारी को घर से निकलते डर लगता है। आखिर मैं करूँ तो क्या करूँ?’ 
     उसके इस ‘क्या करूँ?’ का जवाब न तब मेरे पास था, न आज है। किसी एक को समझाया भी जा सकता है, पर..... बात तो बात होती है, एक बार मुँह से निकली तो सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। 
     बलात्कार को एक गंभीर अपराध माना जाता है। क्या यह भी बलात्कार नहीं, जिसे एक कुंठित बीमार मानसिकता महज शब्दों से ही अंजाम देती है। क्या इन घटनाओं की शिकार लड़कियाँ भी उसी मानसिक वेदना और परिस्थिति से नहीं गुजरतीं, जिनसे एक बलात्कार पीड़िता गुजरती है। वह भाई ‘क्या करूँ?’ का गंभीर प्रश्न करने के बाद रोने लगा था। ऐसे में इन परिस्थितियों की शिकार हुई लड़की पर क्या गुजरती होगी, इसका शायद अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। 
     छोटे-बड़े कस्बों-शहरों में न जाने कितनी लड़कियाँ रोज ही इस कुंठाग्रस्त मानसिकता द्वारा शब्दों से किए गए बलात्कार की शिकार होती हैं। शायद उससे कहीं ज्यादा जितनी कि शारीरिक बलात्कार की शिकार होती हैं। और जब शारीरिक अपराध की शिकायत दर्ज कराने में आज भी बदनामी बढ़ने के ख़तरे के बारे में पहले सोचा जाता हो, वहाँ  इस शाब्दिक अपराध की शिकायत भला कितनी होती होगी? और शिकायत भी क्या कि ‘यह कल्पनाओ में मेरे साथ.....’ या ‘इसने लोगों से कहा कि इसने मुझे इस-इस तरह से....।’ 
     यहाँ यह बात भी गौरतलब है कि कस्बों में पुलिस को रिपोर्ट लिखाते वक्त यह लिखाने से काम नहीं चलता कि ‘अश्लील बातें कहीं’ या ‘अश्लील हरकतें कीं’, वह सब हू-ब-हू वैसा ही लिखाना होता है, जैसा कि कहा गया या किया गया। माँ-बहन की गालियों से लेकर अंगों के नाम और उनसे की गई हरकतों तक। और फिर इस तरह के मामलों को सुलझने में लगने वाले वक्त के दौरान न जाने कितनी ही बार लजा देने वाली परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। पुरुष इस बेशर्मी का सार्वजनिक रूप से जितना आदी और अभ्यस्त है, महिलाएँ अब तक नहीं हैं। शायद यही वजह है कि इस अपराध की शिकायत अमूमन नहीं ही होती और एक व्यक्ति की कुंठा और सड़ी-गली कल्पनाओं की बदबू का बादल एक निर्दोष के जीवन में कई बार इस तरह छा जाता है कि उसके कॅरियर और भविष्य के उजालों को ग्रहण लग जाता है। 
     वर्तमान स्थितियों में यह मानसिकता सिर्फ शब्दों को मुँह से निकालने तक ही सीमित नहीं है। इंटरनेट पर न जाने कितनी लड़कियों की पहचान का इस्तेमाल करके फेक अकाउंट हैं, पोर्न साइट्स बॉलीवुड, हॉलीवुड से लेकर आपके-हमारे बीच की स्कूल-कॉलेज की छात्राओं, घरेलू और कामकाजी महिलाओं की मॉर्फ़ और फेक तस्वीरों से भरी पड़ी हैं। तकनीक का इस तरह दुरुपयोग करने में भारत सबसे अव्वल है। बावजूद इसके आलम यह है कि इन फेक अकाउंट्स की शिकायत करने के बाद भी उनमें से कई बंद नहीं होते, चलते रहते हैं।
     यह सच है कि किसी के दिमाग पर काबू नहीं पाया जा सकता है, उसे सोचने से रोका नहीं जा सकता लेकिन गुस्सा इस बात का है कि इस तरह की सोच को व्यक्त करने पर भी जो दोषी है उसके बजाय निर्दोष ही क्यों दण्डित और परेशान होता है? क्या कभी सुना है कि किसी लड़की ने एक लड़के के बारे में ऐसा-वैसा कुछ कहा हो और उस लड़के का किसी से नजरें मिलाना मुश्किल हो गया हो? नहीं न! और अगर लड़के के बारे में ऐसा कह भी दिया जाए, तो भी लड़का ‘मर्द का बच्चा’ कहलाएगा, मगर लड़की, एक स्त्री..... क्या है वह? वह तो इन बीमारों के लिए बस एक मांस का लोथड़ा भर है और बाकी समाज के लिए ‘इज्जत’ की टोकरी सिर पर उठाने वाली सबसे कमजोर कड़ी। किसी ने कुछ कहा नहीं कि ‘इज्जत’ गई नहीं। 
     कितनी हैरत की बात है कि बीमार पुरुष है और तकलीफ स्त्री सहन करती है, बेइज्जत महिलाओं को किया जाता है और इज्जत की टोकरी भी उन्हीं के सिर पर लाद दी जाती है। इलाज भी महिलाओं के लिए नियम बनाकर खोजे जाते हैं। सभ्यता, संस्कृति और स्त्री के पूजनीय होने की झंडाबरदारी करने वाले बताएँ कि उनके पास इस बीमारी का क्या इलाज है? यह सवाल इसलिए नहीं है कि कोई संस्कृति रक्षा आंदोलन चलाना है, न ही कोई नैतिकता का पाठ पढ़ाना है, बल्कि इसलिए है कि महिलाओं के सिर पर इज्जत का ठीकरा फोड़ने वाली, बात-बात पर संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाली, नैतिकता का झंडा उठाए फिरने वाली और आज भी भीतर से पुरुषवादी यह समाज व्यवस्था पुरुषों की ‘बदतमीजी’ और महिलाओं के ‘सब्र’ के फर्क को समझे, कुंठित और बीमार मानसिकता के इस शाब्दिक अपराध के दूरगामी प्रभावों-परिणामों के बारे में सोचे, अपने गिरेबां में झांके और इस सवाल का जबाब दे, जो ऐसी परिस्थितियों में किसी भी महिला और उसके हितचिंतकों के सामने खड़ा होता है कि - ‘क्या करूँ?’

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

मंटो: थप्पड़ मारने वाला कहानीकार

 -रजनीश ‘साहिल’
‘सब कुछ अच्छा भला चल रहा था। दिन-रात, चौबीस घंटे कभी विज्ञापन में, तो कभी धारावाहिकों-फ़िल्मों में दिखती साड़ी से लेकर बिकनी तक में मौजूद देहयष्टि की कल्पना करते दिमाग को जो कुछ पढ़ने में मज़ा आ सकता था, उसके लिहाज से सब अच्छा भला ही चल रहा था। फिर अचानक लगा कि किसी ने अपनी पूरी ताकत से एक झन्नाटेदार थप्पड़ मार दिया हो। एक ऐसा थप्पड़, जो रंगीन कल्पनाओं की दुनिया से खींचकर सीधे उस हकीकत से रू-ब-रू कराता है, जो तकलीफ़देह है, घिनौनी है, इंसान के जानवर होने की तसदीक़ करती है और जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। और भी कुछ ऐसा महसूस होता है यार, जिसे मैं कह नहीं पा रहा हूं।’
     जब मेरे मित्र ने मुझसे यह कहा था, तब मैं बखूबी समझ रहा था कि वह क्या महसूस कर रहा है, क्या कहना चाहता है, जिसके लिए सही शब्द नहीं ढूंढ पा रहा है। वह जो कुछ महसूस कर रहा था, तकरीबन वैसा ही कुछ मैंने भी महसूस किया था, जब उस बदनाम कहानीकार की कहानी सही मायनों में पहली बार पढ़ी थी। फिर जितनी कहानियां पढ़ता गया, हर बार एक थप्पड़ का इजाफ़ा होता गया। मुझे यकीन है कि यह हर उस शख्स के साथ हुआ होगा, जिसने सआदत हसन मंटो की कहानियां पढ़ी हैं, ढंग से पढ़ी हैं।
     एक नजर में मंटो को थप्पड़ मारने वाला कहानीकार कहा जा सकता है, मगर हर कहानी में इस थप्पड़ की किस्म जुदा है। कभी वह झन्नाटेदार थप्पड़ मारते हैं, तो कभी हल्की सी चपत लगाते हैं। उनकी तकरीबन कहानियों में यह भाव है। बावजूद इसके उनकी बहुतेरी कहानियां हैं, जहां इंसान के दुर्भावनापूर्ण चेहरे के अलावा संवेदनाओं से लबरेज़ चेहरे भी दिखाई देते हैं। ‘काली सलवार’ जैसी कहानियां इसका उदाहरण हैं, जहां एक-दूसरे से नितांत दो अजनबी एक-दूसरे की अभिलाषाओं के बारे में सोचते हैं। 
     बहरहाल, मंटो की कहानियों के पात्रों के बारे में अगर बात करें, तो वे आज भी वैसे ही हैं, जैसे मंटो के समय में थे। यानी मंटो की कहानियों के पात्र सर्वकालिक हैं। कल भी वैसे ही थे, आज भी वैसे ही हैं। अपनी एक कहानी ‘सरकंडों के पीछे’ में मंटो खुद शुरुआत में ही लिखते हैं, ‘देखिए मैं उस स्त्री का नाम बताना भूल गया। बात असल में यह है कि उसका नाम कोई मायने नहीं रखता। उसका नाम आप कुछ भी समझ जाइए। सकीना, महताब, गुलशन या कोई और। आख़िर नाम में क्या रखा है।’ सच है, नाम में कुछ नहीं रखा। मंटो की कहानियों के पात्र हमारे चारों ओर हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि मंटो ने उनके बारे में लिखा और हम उनके बारे में सोचने से भी क़तराने लगे हैं। ठीक ऐसे ही जब मंटो लिखते हैं, ‘कौन-सा शहर था, जहां तक मैं जानता हूं आपको मालूम करने और मुझे बताने की कोई जरूरत नहीं।’ तो यकीन जानिए कि जिस जगह का जिक्र मंटो कर रहे हैं, वह पेशावर भी हो सकती है, कोलकाता भी, मुंबई भी और उजाड़ में बसा कोई गांव भी। वह आज की पूरी दुनिया का कोई भी हिस्सा हो सकता है, जहां हर हाल में रोटी का जुगाड़ आज भी सबसे अहम सवाल है।
      मंटो के बारे में अमूमन यही कहा जाता है कि विभाजन, उसके दौरान और उसके बाद की विभीषिका पर उनसे ज्यादा दहलाने वाली कहानियां शायद किसी ने नहीं लिखीं। यह सच भी है, फिर भी मुझे लगता है कि यह मंटो जिस वक्त में कहानियां लिख रहे थे, उस वक्त के हालात से जोड़कर उन्हें देखने का नतीजा है। वरना उन्होंने ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जो किसी खास वक्त की हो ही नहीं सकतीं। ठीक है कि आज हालात में काफ़ी तब्दीली आ चुकी है लेकिन ‘हीरामंडी’ के सलाहू और दूदा पहलवान हों, चाहे ‘लायसेंस’ की इनायत उर्फ नीति का अंजाम, आज भी चीजें वैसी ही हैं। आज जिस ढंग से तमाम तरीकों की आड़ में हिंदुस्तान, पाकिस्तान, ब्रिटेन, अमेरिका, अफगानिस्तान और अरब देशों में ऑनर किलिंग के मामले सामने आ रहे हैं, ऐसे में मंटो की कहानी ‘इश्क पर ज़ोर नहीं’ कुछ अलग ढंग की कहानी लगती है। शरुआत में ही मंटो लिखते हैं, ‘लोगों को यह शिकायत है कि मैं रोमांटिक कहानियां नहीं लिखता। मैं अब इश्क़िया कहानी लिख रहा हूं, ताकि लोगों की यह शिकायत भी किसी हद तक दूर हो जाए।’ इसके बाद मंटो बाकायदा एक इश्क़िया कहानी लिखते हैं, जहां नायक जमील पूरी तरह इश्क़ियाया हुआ दिखाई देता है। मगर यह कोई फिल्मी कहानी नहीं है, जिसका अंत सुखद हो। जमील पूरी कहानी के दौरान इश्क़ तलाशता रह जाता है और अंत में पता चलता है कि मूर्खता की हद तक सादा और सीधी अजरा ने सिर्फ इसलिए ख़ुदकुशी कर ली कि उसे जमील से बेइंतहा मोहब्बत थी और जमील की शादी कहीं और तय हो चुकी थी, जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सकी। जहां तक समझ आता है मंटो ने अजरा की ख़ुदकुशी का ताना सिर्फ इसलिए नहीं बुना कि वह इश्क़ में हार जाने से टूट गई थी। हारना कैसा, जबकि उसने इज़हार-ए-मोहब्बत कभी किया ही नहीं। असल में यह ख़ुदकुशी उन ख़्वाबों की है, जो एक नौजवान स्त्री देखती है, जिनका इज़हार करने तक की उसे इजाज़त नहीं है। आज भी ऑनर किलिंग के नाम पर दुनियाभर के देशों में जो सबसे ज़्यादा आसान शिकार है, वह महिलाएं ही हैं। वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के कारण मारी जा रही हैं, और अजरा बिना व्यक्त किए मर गई। फ़र्क क्या है? 
     देखा जाए तो मंटो उर्दू के वैसे ही कहानीकार हैं, जैसे हिंदी के प्रेमचंद या बांग्ला के शरतचंद्र। या शायद उससे भी कहीं ज़्यादा, क्योंकि इंसानियत को जिस बुरी तरह से झिंझोड़ा जा सकता है, उसकी पराकाष्ठा सिर्फ मंटो के यहां मिलती है। मंटो की कहानियां किसी भी दौर में क़ैद नहीं की जा सकतीं। वह हर दौर में उसी के मुताबिक झंझोड़ती हैं, दिमाग की चूलें हिलाती हैं और सवाल खड़े करती हैं। ‘नंगी आवाज़े’, ‘तमाशा’, ‘दो क़ौमें’, ‘सड़क के किनारे’, ‘नारा’, ‘डरपोक’, ‘नया कानून’ जैसी उनकी तमाम कहानियों का ज़िक्र इस सिलसिले में किया जा सकता है। भले ही यह कहानियां बहुत अलग-अलग तरीके से अलग-अलग चीजों को बयां करती हैं, लेकिन अंतत: हमारे आसपास और बीच की स्थितियों को लेकर सवाल खड़े करती हैं। इसके बरअक्स ‘टोबा टेकसिंह’, ‘काली सलवार’, ‘मंजूर’, ‘हीरामंडी’ जैसी कहानियां इंसान की अतिशय संवेदनशीलता को भी नुमायां करती हैं, जहां कहानी के दो पात्र एक-दूसरे से किसी मुलाहजे में नहीं बंधे हैं, लेकिन एक की तक़लीफ से दूसरा द्रवित होता है। 
     कहानी कहने की विधाओं के बारे में अगर बात की जाए तो मुख्यत: दो किस्म की कहानियां सामने आती हैं। एक वह जो दृश्य वर्णन के साथ-साथ उसके मायने भी साथ ही व्यक्त करती जाती हैं, दूसरी वह जो महज़ एक कथ्य के माध्यम से पूरा दृश्य और उसका विस्तृत आख्यान वर्णित करती हैं। मंटो की कहानियां दूसरी किस्म की हैं, लेकिन फिर भी अलग हैं। वह कहानी लिखते नहीं, सुनाते हैं। अक्सर कहानियों में वह किस्सागो नज़र आते हैं। चाहे वह स्त्री देह का वर्णन हो या अस्पताल में पड़े मरीज़ों के बीच की बातचीत, वह अपनी हर पंक्ति के साथ एक दृश्य दिखाते हैं। दृश्य-दर-दृश्य चलती एक जीवंत कथा कहते हैं और अंत की तीन या चार पंक्तियों में पूरी कहानी की असलियत बयां करते हैं। कुछ इस तरह कि वह आखिरी पंक्तियां ही असली कहानी हो जाती हैं, बाकी पूरा वृत्तांत तो महज़ भूमिका भर लगता है। बकौल वाल्टर बेंजामिन कहानी कहने की आधी कला इसी में है कि सुनाते समय उसे तमाम स्पष्टीकरणों से मुक्त रखा जाए। इस नज़रिए से दुनियाभर के किस्सागो कहानी कहने की जिस शैली को सबसे बेहतर मानते रहे हैं, वही शैली मंटो की कहानियों में मौजूद है, यानी जहां अंत ही सबकुछ है। मंटो ऐसा ही करते हैं, वह कहानी के क्लाइमैक्स के साथ ऐसा कुछ छोड़ जाते हैं, जिस पर बात करनी अभी बाकी है। जिस पर सामाजिक नज़रिये से कदम उठाऐ जाने की अभी भी ज़रूरत बाकी है। अपने शब्दों में कहूं तो यह कि वह हर कहानी के अंत के साथ हमारे मुंह पर एक ऐसा तमाचा जड़ते हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वाकई हम इसी लायक हैं।
(जनपथ के जुलाई 2012 अंक में प्रकाशित)

रविवार, 16 सितंबर 2012

बिखरे रंग

(16 सितम्बर को जनवाणी में प्रकाशित )
रोजाना एक न एक एक्सीडेंट की खबर सामने आती ही है। कभी अखबार के जरिए, कभी चर्चाओं में। यूं तो एक्सीडेंट की घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी भी रहा हूं और कई बार चोटिलों को अस्पताल तक भी पहुंचाया है, पर जब भी तेज रफ्तार दौड़ते वाहनों को टकराते देखा है, यही सवाल दिमाग में आया है कि आखिर सबको इतनी जल्दी क्यों है? ओवरटेक करने की इतनी आपाधापी क्यों है? क्या यह हमारी आदत बन चुका है या हमेशा पहले नंबर पर रहने की लालसा भर है? या कि यह भी उसी तरह है कि ‘आखिर किसी और की कमीज हमारी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों हो!’
बहरहाल, अभी तीन दिन पहले ही मेरठ से दिल्ली जा रहा था, तब भी एक एक्सीडेंट का दृश्य देखा। जो देखा वह घटना घट चुकने के बाद का दृश्य था। एक आदमी बीच सड़क पर लहूलुहान पड़ा था। सड़क पर बिखरे दिमाग और बगल से झांकती पसलियों को देखकर मेरे बस के कुछ सहयात्री उबकाइयां लेने लगे थे, महिलाओं ने मुंह-नाक पर रूमाल रखते हुए नजरें फेर ली थीं। कुछ पुरुषों का भी यही हाल था। कोई बड़ी बात नहीं थी, जब एक्सीडेंट में चोटिल हुए व्यक्ति की तरफ से लोग नजरें फेर लेते हैं ताकि ‘व्यर्थ के झंझट’ में पड़ने से बचा जा सके, तो फिर यह आदमी तो मर चुका था। लेकिन मरकर भी यह आदमी लोगों के लिए ‘मुसीबत’ था, क्योंकि बीच रोड पर पड़ी उसकी मृत देह के पास भीड़ जमा थी, ट्रैफिक जाम था और लोगों को अपने-अपने गंतव्य तक पहुंचने की ‘जल्दी’ में बाधा बन रहा था। मेरे सहयात्री एक सज्जन का कहना था, ‘पता नहीं लोगों को इतनी जल्दी क्यों रहती है! देखो, जल्दबाजी में सड़क पार कर रहा था और ट्रक ने ठोक दिया। अब इसकी वजह से ट्रैफिक जाम हुआ पड़ा है। मुझे आठ बजे घर पहुंचना था, बच्चों के साथ फिल्म देखने का प्रोग्राम था। ...अरे ड्राइवर साहब, धीरे-धीरे गाड़ी बढ़ाओ यार, जल्दी पहुंचना है।’
उस आदमी की मृत देह से थोड़ी दूरी पर कुछ सामान बिखरा पड़ा था। एक पॉलीथिन से बाहर छिटक कर गिरीं वाटर कलर की कुछ शीशियों का सड़क पर बिखरा हुआ रंग, कुछ पेंसिलें और बच्चों के इस्तेमाल में आने वाली ड्राइंग बुक। उसके बच्चे के हाथों से बनने वाले न जाने कितने ही चित्र दिमाग में कौंध गए, जिन्हें देखने की शायद उसे भी जल्दी थी। मगर रंग तो बिखर चुके। सहयात्री के शब्द दिमाग में गूंज रहे थे- ‘बच्चे... फिल्म का प्रोग्राम... जल्दी...।’

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कुछ कदम...


कुछ साथ चले तुम कदम काफ़ी है
कोई साथ मिला ये भरम काफ़ी है

मंज़िल-ए-दिल का पता यूं भी सही
हासिल-ए-सब्र-ओ-सदा यूं भी सही
कितना है ज़ब्त कितने उथले हैं
अपनी सीरत का पता यूं भी सही
जो तुमने याद दिलाया वो दम काफ़ी है

चुपचाप रहे लब कोई बात नहीं
सुबह के नाम रही शब कोई बात नहीं
मुश्क़िलें आती रहीं शिकवे भी होते रहे
लाख पहरों में रहा हक़ कोई बात नहीं
न हुई आंख तुम्हारी जो नम काफी है

आएगा वक़्त भी जब न इम्तिहां होगा
ख़िज्र न होगा कोई अपना ही इम्कां होगा
ज़र्द पत्तों का भी तो रंग होता है कोई
जो जल उठेंगे रोशन तो कुछ समां होगा
जो हसरतों में ढला है वो ख़म काफी है।

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

एक मार्गदर्शक की सक्रियता

इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ए के हंगल को याद करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र  रघुवंशी से फ़ोन पर हुई बातचीत का छोटा सा हिस्सा...

रंगमंच और फिल्मों में उन्होंने फर्क नहीं किया। वह कहते थे, 'अपनी बात कहने के लिए हर स्पेस का इस्तेमाल करो।’

खुद ए के हंगल ने अपनी आत्मकथा ‘लाइफ एंड टाइम्स ऑफ़  ए के हंगल’ में लिखा है कि ‘जीवन शाश्वत है और जीना सीमित।’ लेकिन एक सीमित जीवन में कितना कुछ पूरी ईमानदारी के साथ ऐसा किया जा सकता है जो शाश्वत जीवन के लिए महत्वपूर्ण होता है, यह उनकी जिंदगी को जानने से पता चलता है। ए के हंगल का जन्म एक फरवरी 1916 को सियालकोट में हुआ था। यह एक अलग बात है कि लंबे समय तक सही जन्मतिथि ज्ञात न होने के कारण उनका जन्मदिन 15 अगस्त को मनाया जाता रहा। उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा पेशावर में पाई थी। यहीं वह खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी की पारिवारिक परंपरा को तोड़ आजादी के आंदोलन में शामिल हो गए। 1931 में जब चंदेर सिंह गढ़वाली ने निर्दोष लोगों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया और इसके जवाब में अंग्रेजों ने सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया, तो इस घटना ने उन्हें बहुत उद्वेलित किया और वे इसके खिलाफ खड़े हुए।
वह आजादी को सिर्फ अंग्रेजों के भारत से चले जाने के रूप में नहीं देखते थे, बल्कि इसके मूल में बेहतर जिंदगी देखते थे। उन्होंने जीवन-यापन करने के लिए टेलरिंग की, तो टेलर्स यूनियन में सक्रिय भूमिका निभाई। चूंकि कला से उन्हें बचपन से ही लगाव था, उन्होंने बाकायदा संगीत-नाटक की शिक्षा भी ली थी, सो रंगमंच को भी अपनी बात कहने का माध्यम बनाया। यह वह दौर था जब देश न केवल गुलाम था, बल्कि सांप्रदायिकता का माहौल भी था। कुल मिलाकर हालात खराब थे, पुलिस लगातार उनके पीछे लगी रहती थी, लेकिन ए के हंगल सक्रिय थे। यह सक्रियता ताउम्र बरकरार रही। वह गोआ की आजादी के लिए सक्रिय रहे, पड़ोसी देशों से मित्रता के लिए सक्रिय रहे, सीनियर सिटीजन मूवमेंट में सक्रिय रहे और सांस्कृतिक आंदोलनों में तो खैर हमेशा ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ए के हंगल 1947 में अहमदाबाद में आयोजित भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय अधिवेशन में शामिल हुए थे। इसी अधिवेशन में उन्होंने निर्णय लिया था कि वापस कराची जाकर वह पाकिस्तान पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन का गठन करेंगे। लेकिन तब भी उनके लिए हालात मुश्किल ही थे। वापस जाकर उन्हें पाकिस्तान सरकार के विरोध का सामना करना पड़ा और दो साल जेल में गुजारने पड़े। 1949 में जब छूटे, तो मुंबई का रुख किया। जब वे मुंबई आए थे, तो उनकी जेब में सिर्फ 20 रुपये थे। वे फ्रीडम फाइटर भी थे और रिफ्यूजी भी, लेकिन उन्होंने इसके आधार पर मिलने वाली पेंशन की मांग नहीं की। उन्होंने इप्टा के साथियों से मुलाकात की और मुंबई इप्टा को फिर से सक्रिय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1985 में इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने और 2002 से अंतिम सांस तक इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे।
ए के हंगल राजनैतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को अलहदा नहीं देखते थे। वे मानते थे कि दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और आम आदमी दोनों से प्रभावित होता है। उनकी सांस्कृतिक और राजनैतिक गतिविधियों पर हमेशा नजर रहती थी। रंगमंच और फिल्मों में उन्होंने फर्क नहीं किया। वे कहते थे, ‘अपनी बात कहने के लिए हर स्पेस का इस्तेमाल करो।’ शोले में अपने अंधे व्यक्ति के किरदार को वह महज एक किरदार नहीं मानते थे। वह कहते थे कि ‘एक नेत्रहीन व्यक्ति अपनी आंखें खोजता रहता है।’ इस एक वाक्य के बहाने वे समाज, मार्क्स के लेख और वर्तमान परिस्थितियों का जिक्र भी करते थे। वे आजीवन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे और हमारा सांस्कृतिक-राजनैतिक मार्गदर्शन करते रहे। एक आम आदमी के प्रति उनकी सोच और संवेदनशीलता को अपनी आत्मकथा में लिखे उनके इस अंश से समझा जा सकता है कि ‘फिल्म के परदे और नाटक के मंच पर मृत्यु के बाद में पुनर्जीवित होता रहा हूं। क्या इस बार ऐसा कर सकूंगा?’

शनिवार, 21 जुलाई 2012

आज बस कुछ चीथड़े हैं हाथ में...


हर तरफ बर्बर शिकारी घात में, क्या करें
रास्ते पर ही चलें या ओट में, क्या करें

संवेदनाएं लुट गईं  उस महजबीं के साथ कल
आज बस कुछ चीथड़े हैं हाथ में, क्या करें

इक दिन पहनकर देखिए शर्म-ओ-हया
भूलकर सारी नसीहत पूछोगे, क्या करें

न छुई उंगली भी तो क्या फ़र्क है
तन-बदन नजरों से है छलनी किया, क्या करें

दर्द कुछ ऐसा है कि किससे कहें
मरहम लगाते हाथ में भी है सुआ, क्या करें

है एक दुश्मन, दोस्त इक, इक अजनबी
सबका मक़सद एक है बस लूटना, क्या करें

जब तक सलामत वो नहीं पहुंचा उधर
इस तरफ बढ़ती रही बेज़ारगी, क्या करें

सबकी ज़ुबां पर जिक्र है, ऐसा हुआ
कोई ये कहता नहीं क्योंकर हुआ, क्या करें

बाद उसके जाने के आलम था ये
भटका किये, सोचा किये हम हर घड़ी, क्या करें

मंगलवार, 26 जून 2012

दास्तान-ए-किस्सागोई




एक था राजा एक थी रानी
दोनों मर गए खतम कहानी
यह वह पंक्तियां हैं, जो बचपन में हम सभी ने कभी न कभी जरूर सुनी हैं। आज यह पंक्तियां अपने सही अर्थों में हमारे सामने भी हैं। बचपन में जब कभी कहानियां सुनने का जी करता था, छुट्टियों में अपनी दादी-नानी के करीब होते थे, तो उनसे कहानी सुनने की जिद भी किया करते थे। आपने भी की होगी।
खुले आसमान के नीचे, सितारों की छांव में दादी-नानी से राजा-रानी, राजकुमार, राक्षसों और परियों की कहानियां सुना करते थे हम। जब दादी या नानी कोई कहानी सुनाती थीं, तो उसका एक-एक पात्र हमारी आंखों के सामने जीवंत हो उठता था। कहानी कितनी ही अकल्पनीय क्यों न हो, सच ही लगती थी। हमारे जीवन में किस्सागोई की शुरुआत भी यहीं से होती है। वैसे, किस्सागोई ठीक-ठीक कब और कैसे शुरू हुई, इसका पता लगा पाना मुश्किल है। इतना तय है कि बचपन में मां की लोरी के साथ हम शब्दों को पहचानना सीखते हैं और कहानियों के साथ किस्सागोई से परिचित होते हैं। बचपन में सुनी कहानियों से किस्सागोई का जो सम्मोहन हम पर तारी होता है, उसका असर ताजिंदगी बरकरार रहता है। इसकी वजह भी है, और वह वजह है कल्पना की मधुरता का रस। किस्सागो यानी किस्से-कहानी कहने वाला अपनी योग्यता और कल्पनाशक्ति का भरपूर इस्तेमाल करता है। सुनाए जाने के मौके के अनुसार वह कहानी को रोचक और अविस्मरणीय बनाने के लिए उसमें बदलाव भी करता है, नाटकीयता भी डालता है और कोशिश रहती है कि सुनने वाला उसकी निरंतरता में डूब जाए।

किस्सागोई के रिश्ते
अब घर की किस्सागोई ही देख लीजिए। जब दादी-नानी कहानियां सुनाती थीं, तो बड़े-बड़ दांतों वाला राक्षस जब राजकुमारी को अपने जादुई उड़नखटोले में बिठाकर ले जाता था, और राजा परेशान होकर राजकुमारी को ढूंढ लाने वाले को राजा बनाने की घोषणा करता था, तो सब सच लगता था। फिर जब कोई राजकुमार राक्षस के किले में जाकर उससे वीरता से लड़कर राजकुमारी को छुड़ाने की कोशिश करता था, तब तक हम कहानी में इतने डूब चुके होते थे कि खुद को राजकुमार की जगह रखकर हम अपनी कल्पनाओं में सारा मंजर सजीव-सा पैदा कर चुके होते थे। घर की किस्सागोई में दादी-नानी इस मंजर को पैदा करने में हर किरदार के भावों के मुताबिक शब्दों की लंबाई, आवाज की गहराई का बखूबी इस्तेमाल करती थीं। वैसे, इन कहानियों से एक और किस्सा भी उपजता है। वह है हमारे घर और रिश्तों की बुनावट का किस्सा। दादी-नानी के बाद कहानियां सुनाने की जिम्मेदारी होती थी हमारी मां, मौसी, चाची, मामी की। इनकी कहानियों में भी दादी-नानी की कहानियों जैसा ही रस होता था। भले ही किसी बात पर मां और चाची के बीच अनबन हो गई हो, लेकिन हमें उससे कभी कोई फर्क नहीं पड़ता था। कहानियों का सम्मोहन इतना होता था कि चले ही जाते थे चाची के पास कहानियां सुनने। चाची भी ऊपर से भले ही हमसे कह दे कि जाओ अपनी मां से सुनो कहानी, लेकिन फिर भी हमारी उत्सुकता को शांत करने के लिए कहानी सुना ही देती थी। इन्हीं किस्से-कहानियों के बीच वह वात्सल्य और प्रेम उपजता था, जो हमेशा के लिए हमारे दिल में घर कर जाता है। फिर परिवार में तनाव चाहे कितना भी हो, दिल के किसी कोने में एक-दूसरे का हिस्सा होने का भाव हमेशा बना रहता है। इस मामले में सिर्फ घर की महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी सहभागी होते हैं। तभी तो चाचा, मामा, नाना के साथ भी रिश्ते की ऐसी ही बुनावट होती है। यह एक अलग बात है कि उनकी कहानियों में परियां नहीं होती थी, बल्कि वीर लड़ाके, हमारे पुरोधा और महान व्यक्तित्व ज्यादा शामिल होते थे। गौर से देखा जाए तो यह दोनों तरह की कहानियां हमारे कल्पना संसार को भी विस्तृत करती थीं और ज्ञान को भी।
मगर अब यह बुनावट कमजोर होती जा रही है। आधुनिक समाज की व्यवस्था में अब बच्चों के करीब न दादी-नानी हैं, न चाची-मौसी और न चाचा-मामा। माता-पिता के पास नौकरी की व्यस्तता है। दरअसल एकल परिवार की परिपाटी ने इस किस्सागोई की निरंतरता को बाधित किया है, जिसका असर बच्चों के कल्पनालोक पर तो पड़ा ही है, किसी हद तक रिश्तों की बुनावट की कमजोर होती गई है।

चेतना और मूल्यबोध
किस्सागोई सिर्फ घर की दहलीज के भीतर ही नहीं रही। यह हमारे समाज और संस्कृति का अहम हिस्सा रही है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि समाज में बड़े-बूढ़े ही किस्सागो की जिम्मेदारी प्रमुखता से निभाते आए हैं। नई पीढ़ी को सामाजिक मूल्यों से परिचित कराने की जिम्मेदारी भी इन्हीं के कंधों पर रही है। पारंपरिक ग्रामीण जीवन में इन मूल्यों का महत्व कितना है, इसे बताने की जरूरत नहीं है। लोग इन मूल्यों से विचलन के खतरों को न केवल जानते-समझते थे, बल्कि जितना हो सके इस विचलन और दूरी से बचने की कोशिश भी करते थे। नैतिक और सामाजिक मूल्यों से नई पीढ़ी को परिचित कराने के लिए उन्हें आज की तरह साहित्य या अन्य किसी माध्यम की जरूरत नहीं होती थी, क्योंकि पास किस्सागोई की कला होती थी। नई पीढ़ी के बीच ग्राम्य जीवन में सहअस्तित्व जैसे सामाजिक मूल्य किस्सागोई के साथ विकसित होते रहे हैं। यही वजह है कि गांवों की चौपालों पर किस्सागोई खूब फली-फूली। यह अलग बात है कि किस्सागोई लोकरंजन का प्रतिरूप है। किस्से-कहानियों के संपर्क में आने वाला श्रोता मुख्यत: मनोरंजन की ही तलाश करता है, उसमें निहित मूल्य उसके बाद ही समझे जाते हैं। इसीलिए किस्सागोई में रोचकता भी बहुत मायने रखती है। इसके अभाव में किस्सागो की सफलता शायद संभव नहीं है।

दुनिया एकाकार
यह किस्सागोई का ही कमाल है कि बिना किसी प्रकाशन व्यवस्था और तकनीकी संचार माध्यमों के भी बीती सदियों में कहानियां दूर देश की यात्रा कर चुकी हैं। पूरी दुनिया का लोकसाहित्य देखा जाए, तो इस किस्सागोई की ताकत का अंदाजा होता है। किस्सागोई के कारण ही पंचतंत्र की कहानियां सारी दुनिया भर में न केवल प्रचलित हैं, बल्कि उनमें स्थानीय रुचियों और परंपराओं के मुताबिक बदलाव भी दिखाई देते हैं। ईसप की कहानियां इसका मजबूत उदाहरण हैं। यूनान में जन्मे ईसप एक बेहतरीन किस्सागो थे। नीति और व्यावहारिक ज्ञान को कहानियों की शक्ल देने में उनका कोई सानी नहीं है। अपनी कई कहानियों में ईसप ने पंचतंत्र की कहानियों का भी उपयोग किया है। तकरीबन सत्रह शताब्दियों तक कहने-सुनने की कला के चलते ही दुनिया भर की सैर करती रही कहानियां, आज भी मौजूद हैं। लू श्युन ने जिन चीनी लोककथाओं का संग्रह किया, उनमें भी हमारी कहानियों जैसा-ही कुछ है और ग्रिम बंधुओं द्वारा संकलित की गई जर्मनी की लोककथाओं में भी। दुनिया के बनने की कथाएं भी मिलती-जुलती हैं और परियों की कहानियां भी। दरअसल यह किस्सागोई का ही नतीजा है कि सारी दुनिया का लोक-साहित्य लगभग एकाकार हो गया है।

बच्चों की दुनिया
इस बात से आप भी सहमत होंगे कि बच्चे कहानियां पढ़ने से ज्यादा सुनना पसंद करते हैं। दरअसल कहानी सुनने के दौरान उनके दिमाग पर वह दबाव नहीं होता, जो पढ़ने के दौरान होता है, और वे कहानी के साथ-साथ अपने कल्पनालोक में उन्मुक्त उड़ान भर सकते हैं। कहानी की घटनाएं, उनके पात्र उनके मानस में जीवंत होते चले जाते हैं और साथ ही कहानी में निहित संदेश भी वे आत्मसात करते चले जाते हैं। किस्सागोई की अंतरंगता के कारण ही यह शैली बच्चों द्वारा सबसे ज्यादा पसंद की जाती है। शायद यही वजह है कि बच्चों के बीच वही कहानीकार ज्यादा लोकप्रिय हुए हैं, जिन्होंने बातचीत के ढंग में उनके मन की बात कही है।
दादी-नानी की किस्सागोई की कम होती निरंतरता के चलते आज बच्चों की कल्पनाशक्ति भी क्षीण हो गई है। इसकी एक वजह यह भी है कि आज उन्हें सब-कुछ मूर्त रूप में देखने को मिल रहा है। आज वे अपनी कल्पना में परी की तस्वीर नहीं बनाते, बल्कि एनिमेशन फिल्मों और टीवी पर दिखाई देने वाली परी को देखते हैं। चाहे राक्षस हो, राजकुमार हो, या चुड़ैल, सब कुछ उनके सामने रख दिया गया है। वे अब अपनी चुड़ैल तैयार नहीं करेंगे, बल्कि पहले से मौजूद चुड़ैल को देखेंगे।  बचपन में जब हम दादी-नानी के मुंह से इन किरदारों का वर्णन सुनते थे, तो अपने मन में उन्हें गढ़ते थे। शायद इसीलिए हम सबके राजा, राक्षस और चुड़ैलें अलग-अलग हुआ करते थे। यह प्रक्रिया हमारी कल्पनाशीलता को भी बढ़ाती थी और हमारे दिमाग को तीवृ भी, लेकिन तकनीक का विस्तार आज बच्चों की कल्पनाशीलता को खत्म करता जा रहा है। दूसरी ओर किस्सागोई की कमी नए किरदारों को गढ़ने में बाधक बनी है।

किस्सागोई का बाजार
देखा जाए तो किस्सागोई कभी खत्म न होने वाली विधा है, उसमें बदलाव होते रहते हैं। किस्सागोई आज भी है, लेकिन अब उसने अपने रूप के साथ-साथ जगह भी बदल ली है। अब वह घर, चौपालों, दोस्तों की बैठकी के बजाय टीवी के पर्दे और विज्ञापन संसार में सिमट गई है। अब किस्सागोई बड़े पैमाने पर उत्पाद बेचने का माध्यम बन गई है। फिर चाहे वह जूजू की बिना आवाज की किस्सागोई हो, या फिर मनुष्य के विकासक्रम का किस्सा दिखाने वाला महज 'दद्दू' की आवाज वाला एक च्युइंग गम का विज्ञापन। आज विज्ञापन जगत किस्सागोई का इस्तेमाल करता है, ताकि दर्शकों की नजर से विज्ञापन आसानी ने न गुजर जाए, उसे विज्ञापन में कुछ रोचक लगे। वैसे भी सेठ गोडिन ने अपनी किताब 'आॅल मार्केटर्स आर लायर्स' में लिखा है कि 'मार्केटिंग एक किस्सागोई है। उत्पादों को उन कहानियों के जरिए ब्रांड्स में बदला जाता है, जो बाजार के खिलाड़ी उनके इर्द-गिर्द बुनते हैं। इन खिलाड़ियों में विज्ञापन एजेंसियां भी हैं। तो जब तक मार्केटिंग बरकरार रहेगी, किस्सागोई भी रहेगी।' अब सवाल यह है कि क्या मार्केटिंग की किस्सागोई, चेतना, मूल्यबोध, रिश्तों की बुनावट और हमारे कल्पनालोक को भी बरकरार रख सकेगी?

गुरुवार, 21 जून 2012

कहानी कहने की कला



- वाल्टर बेंजामिन

हर सुबह अपने साथ दुनिया भर की खबरें लेकर आती है। लेकिन फिर भी हमारे पास अच्छी कहानियों का दारिद्र्य बना रहता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई भी घटना स्पष्टीकरण के बारीक छिद्रों से गुजरे बगैर हम तक नहीं पहुंचती। या यूं कहें कि लगभग हर चीज हमारी जानकारी में इजाफा भर करती है, लेकिन कहानी के पक्ष को बढ़ावा देने वाला उसमें कुछ भी नहीं होता। कहानी कहने की आधी कला इसी में है कि सुनाते समय उसे तमाम स्पष्टीकरणों से मुक्त रखा जाए। इस दृष्टि से आदिकाल के लोग, और उनमें भी हेरोटोटस, इस हुनर में माहिर थे। अपनी किताब 'हिस्टरीज' के तीसरे खंड के चौदहवें अध्याय में वे सैमेनिटस की कहानी सुनाते हैं।

युद्ध में हार के बाद मिस्र के बादशाह सैमेनिटस को ईरान के राजा कैंबिसेस ने बंदी बना लिया था। कैंबिसेस अपने बंदी को नीचा दिखाने पर आमादा था। उसने आदेश दिया कि सैमेनिटस को उस सड़क पर लाया जाए जहां से ईरानी विजेताओं का जुलूस निकल रहा था। उसने यह इंतजाम भी किया कि बंदी अपनी बेटी को एक साधारण नौकरानी के रूप में पानी का घड़ा लिए कुंए की ओर जाता देखे। इस नजारे को देख सारे मिस्रवासी जहां बिलखने और विलाप करने लगे, वहीं सैमेनिटस चुपचाप, बिना बोले जमीन पर नजरें गड़ाए खड़ा रहा। फिर इसके बाद जब उसके बेटे को फांसी देने के लिए जुलूस में ले जाया जा रहा था, तब भी वह खामोश रहा। लेकिन जब उसने अपने एक पुराने बूढ़े नौकर को बंदियों की कतार में भिखारियों की तरह जाते देखा, तो उसने अपने सिर को पीटते हुए गहनतम तकलीफ और दु:ख का इजहार किया। इस कहानी में हम किस्सागोई की असली मिसाल देख सकते हैं। सूचना का महत्व सिर्फ उस क्षण में रहता है, जब वह नई होती है। उस एक क्षण से आगे वह जिंदा नहीं रहती। उस एक क्षण के प्रति समर्पित होकर उसे बिना वक्त गंवाए अपने-आपको व्यक्त कर देना होता है। कहानी के साथ ऐसा नहीं है। वह अपने-आपको खर्च न करते हुए अपनी शक्ति को अपने भीतर जुटाए रहने और लंबे समय बाद उसे मुक्त करने की क्षमता रखती है। और इस तरह मोंतेन ने मिस्र के बादशाह की इस कहानी को पढ़ने के बाद अपने-आप से पूछा कि बादशाह ने अपने नौकर को देखने के बाद ही दु:ख का इजहार क्यों किया, और पहले क्यों नहीं? और मोंतेन ने स्वयं ही उत्तर देते हुए कहा, 'चूंकि वह व्यथा में इस कदर सराबोर हो चुका था कि एक छोटा सा झटका और लगते ही उसके भीतर का बांध टूट गया।'

कहानी को इस तरह से समझा जा सकता है, लेकिन इसमें दूसरे स्पष्टीकरणों की भी गुंजाइश है। मोंतेन के इस प्रश्न को अपने दोस्तों के बीच पूछकर कोई भी इन तक पहुंच सकता है। मेरे एक मित्र ने कहा, 'बादशाह शाही खानदान की नियति से विचलित नहीं होता, क्योंकि यह लहू उसका अपना है।' एक अन्य ने कहा, 'मंच पर हमें बहुत सी ऐसी बातें विचलित करती हैं, जिनसे सचमुच की जिंदगी में शायद हम प्रभावित न हों। बादशाह के लिए यह नौकर सिर्फ एक अभिनेता है।' तीसरा बोला, 'गहरी यंत्रणा तब तक जमा होती जाती है, जब तक थोड़ी सी फुरसत न मिल जाए। बादशाह के लिए नौकर का दिखना फुरसत का ऐसा ही क्षण था।' चौथे ने कहा 'अगर यह घटना आज की दुनिया में घटी होती, तो सभी अखबारों ने यह दावा किया होता कि सैमेनिटस अपने नौकरों को अपने बच्चों से भी अधिक चाहता था।' जो भी हो, यह सच है कि हर रिपोर्टर लगे हाथ कोई-न-कोई स्पष्टीकरण जरूर ईजाद कर लेगा। हेराडोटस कोई स्पष्टीकरण नहीं देता। उसका वृत्तांत सबसे शुष्क है। और यही कारण है कि पुरातन मिस्र की यह कहानी आज हजारों वर्षों बाद भी विस्मय और विचार को जागृत करने में सक्षम है। इसमें अन्न के उन दानों के से गुण हैं, जो पिरामिडों के गर्भग्रहों में सुरक्षित बंद रहने के बाद आज भी अपने भीतर अंकुर प्रस्फुटित करने की क्षमता को बचाए हुए हैं।
अनुवाद: जितेंद्र भाटिया
(पहल 69, सितंबर-नवंबर 2001 से)

गुरुवार, 14 जून 2012

वो लगावट छोड़कर चले गए


‘अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें...’

       अहमद फराज की लिखी यह पंक्तियां जिसने भी मेहदी हसन के गले से निकले सुरों में सुनी हैं, आज उसे जरूर याद आ रही होंगी। असल में यह वह पंक्तियां हैं, जो सुनने के बाद कभी भुलाई ही नहीं जा सकीं। वजह अहमद फराज की लेखनी तो रही ही, उससे कहीं ज्यादा मेहदी हसन की आवाज रही। वह आवाज, जो सुनने वाले को खुद में नहीं रहने देती, रूमानियत से लबरेज खयालों और सकून की अनकही-अनसुनी अनुभूति वाली दुनिया में ले जाती है।
       वे, जो संगीत की बारीकियों को जानते हैं और वे भी, जो सिर्फ शब्दों में छिपे अर्थ को ढूंढते हैं, इस अद्भुत आवाज के मुरीद रहे हैं। जब मेहदी हसन की आवाज में 'चराग-ए-तूर जलाओ बड़ा अंधेरा है' सुनाई देती है, तो वाकई भीतर कोई दीया-सा जल उठता है। 'कुछ उसके दिल में लगावट जरूर थी' का अहसास कुछ इस शिद्दत से होता है मानो कोई अजीज चुपके से 'हाथ दबाकर' गुजर गया हो और 'गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार' चली ही आती है।
       मेहदी हसन ने ताजिंदगी गाया, और सिर्फ गाया। जैसे इसके अलावा दूसरा कोई काम उन्हें था ही नहीं। उन्होंने न जाने कितनी गजलें गार्इं, उन्हें चाहने वालों की संख्या भी बेतहाशा है। उनकी आवाज किसी एक मुल्क की आवाज होकर नहीं रही, वह रॉयल अल्बर्ट हॉल तक गूंजी, जिसके कंसर्ट के रिकॉर्ड मेहदी हसन की अब तक गाई गजलों में सबसे ज्यादा बिकने वाले रिकॉर्ड हैं। यह भी बड़ी ही दिलचस्प बात है कि इस सबके बावजूद उनकी गाई गजलों के बारे में किसी से पूछिए, तो कुछ चुनिंदा गजलों के मुखड़े ही लोगों को याद आते हैं।
       बहरहाल, गजलों को शास्त्रीय संगीत में पिरोने वाले मेहंदी हसन 'शहंशाह-ए-गजल' कहे जाते हैं, तो इस बात के एक पहलू पर भी बात करना जरूरी है। शायद ऐसे लोग बहुत न हों, जिन्हें यह पता हो कि मेहदी हसन ने फिल्मों में भी गाया। पाकिस्तानी फिल्मों में उनके गाए गीत और गजलें जिन्होंने सुनी हैं, वे यह बात बखूबी समझ सकते हैं कि फिल्मी गीतों में वह मेहदी हसन दिखाई नहीं देते, जो गजलों में नुमायां होते हैं। 'भीगी-भीगी रातों में', 'सच्ची बात कहो', 'क्या पूछते हो, क्या तुमसे कहूं', 'मेरे हमदम तुम्हें पाकर करार आया है' जैसे तमाम फिल्मी गीतों में यही आवाज कुछ उथली-सी नजर आती है। इसमें उस गहराई का अहसास नहीं होता, जिसमें डूब जाने का दिल करे। और संगीत की वह रवानी तो इन गीतों में बिल्कुल भी नहीं है, जो खास मेहदी हसन की पहचान है।
       एक तरफ उनकी नॉन-फिल्मी गजलें हैं और दूसरी तरफ उनके फिल्मी गीत, दोनों में आवाज एक ही है, लेकिन दोनों का मेहदी हसन बिल्कुल जुदा है। जहां तक संगीत की बात है, तो मेहदी हसन को सुनने वाले और खासकर वे, जिन्हें संगीत की भी समझ है, ऐसे न जाने कितने ही लोगों के मुंह से सुना है कि 'मेहदी हसन साहब को तो संगतकारों की जरूरत ही नहीं। उनकी आवाज ही ऐसी है कि संगीत खुद-ब-खुद सुनाई देने लगता है। जब वह गजल की शुरुआत में सुर साधते हैं, तो जैसे मन के तार झंकृत हो जाते हैं।' फिर क्या वजह है कि फिल्मी गीतों में हमें ऐसे मेहदी हसन दिखाई नहीं देते? वजह बिल्कुल साफ है। वह एक ऐसे गायक-संगीतज्ञ थे, जिन्होंने संगीत को कभी भाव पर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने जितनी भी बंदिशें कीं, संगीत भाव का साथी रहा, उसका रहनुमा नहीं। वे गाते नहीं थे, बल्कि गजल के भाव को जीते थे। शायद यही वजह थी कि जब शब्द उनके गले से होकर गुजरते थे, तो शब्द नहीं रह जाते थे, अनुभूति में तब्दील हो चुके होते थे। उनके फिल्मी गीतों में संगीत और भाव का यह ताल-मेल कमजोर पड़ता है। जाहिर है कि यह फिल्मकारों की जरूरत के चलते ही हुआ होगा और एक न भुलाई जा सकने वाली आवाज इन जरूरतों के मद्देनजर वह जलवा न बिखरा सकी, जो वह अपनी स्वतंत्रता में हमेशा बिखराती रही और एक अजब सी लगावट का अहसास कराती रही। आज भले ही खान साहब हमारे बीच नहीं हैं, पर यह लगावट मौजूद रहेगी।

एक सुरमयी सांझ का अंत


       संगीत की सुनहरी किताब का एक और पन्ना मुड़ गया और साथ ही मुड़ गया वह रास्ता, जो थके-मांदे दिल-ओ-दिमाग, यायावरी सोच और हर उस लम्हे को, जिसमें कहीं कोई चुभन होती थी, सुकून की मंजिल तक ले जाता था। दुनियाभर के गजलप्रेमियों के बेहद चहेते और शहंशाह-ए-गजल के खिताब से नवाजे गए मेहदी हसन नहीं रहे।
       यह कहने की जरूरत नहीं कि वे लंबे अरसे से बीमार थे, लेकिन यह बात जरूर कहने की है कि उनकी बीमारी ने फिर एक बार यह साफ किया कि सियासत के गलियारों में कला की कोई कद्र नहीं। मेहदी हसन से जुड़कर उनकी जन्मस्थली राजस्थान के झुंझुनू जिले के लूणा गांव का जिक्र उनकी बीमारी के साथ ही शुरू हुआ। हर कोई जानता था कि उन्हें हिंदुस्तान से बहुत प्यार था। उनकी मृत्यु के बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री कहते हैं, ‘मेहदी हसन को इलाज के लिए राजस्थान सरकार ने पाकिस्तान से भारत लाने के लिऐ पूरे प्रयास किए, उनके परिवार के चार लोगों को केंद्रीय विदेश मंत्री के सहयोग से वीजा भी उपलब्ध करा दिया गया, लेकिन दुर्भाग्य से ज्यादा बीमार होने के कारण वे भारत नहीं आ सके।’ अब सवाल यह उठता है कि क्या मेहदी हसन तेरह वर्षों से लगातार इतने बीमार थे, कि उनका भारत की यात्रा करना मुश्किल था, और खासकर पिछले तीन साल, जो उनके लिए सबसे ज्यादा तकलीफदेह रहे, में भी क्या उनकी हालत कभी इस यात्रा के लायक नहीं रही, जबकि 2010 में आए एलबम ‘सरहदें’ के लिए गीत तैयार करने की उनकी स्थिति रही।
       इसे दो देशों के बीच की आपसी राजनैतिक स्थितियों का नतीजा भी नहीं कहा जा सकता कि एक जिंदगी से जूझता फनकार अपने इलाज के लिए उस सरहद को पार नहीं कर सका, जिसे अपनी आवाज के जरिए वह कब का नेस्तोनाबूद कर चुका था। असल में यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही मुल्कों की सरकार की कला और कलाकारों के प्रति उदासीनता का नतीजा है। प्रख्यात शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खां, राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित ढोलक वादक उस्ताद शकूर खां, और ऐसे ही कई नाम पहले भी इस उदासीनता का शिकार हो चुके हैं। यह किसी भी देश की सरकार के लिए एक सवालिया निशान है कि आखिर क्यों जिन फनकारों पर पूरा देश नाज करता है, जिनकी शोहरत को उनका बाजार भुनाता है और सरकार गर्व करती है, वह अपने आखिरी वक्त में सरकार की तरफ से मिल सकने वाली मदद से महरूम रह जाते हैं। मेहदी हसन का किस्सा भी इससे कुछ अलग नहीं है। यहां यह भी सवाल खड़ा होता है कि जब तमाम म्यूजिकल शोज के लिए बीते सालों में कई कलाकारों ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच की सरहद पार की, तब आखिर मेहदी हसन के लिए कौन-सी रुकावट थी? क्या यह कि एक उखड़ी हुई सांस बाजार उपलब्ध नहीं करा सकती थी?
       मेहदी हसन, जिनके लिए हिंदुस्तान और पाकिस्तान में कोई फर्क नहीं था, उन्हें दोनों देशों की सरकार बस शोक संवेदना ही दे सकी और दोनों मुल्कों की आवाम को एक जैसा सुकून देने वाली एक सुरमयी सांझ बिना कोई शिकवा किए ढल गई।

मंगलवार, 12 जून 2012

अपने हिस्से की जमीन


‘चल हट! यहां क्या तेरे बाप ने पट्टा लिखाया था?’

मूंछों पर ताव देते हुए जब वह रमुआ से यह कह रहा था, तब शायद उसने खुद सोचा भी नहीं था कि वहां पट्टा तो उसके सदा शराबखोर स्वर्गवासी पिता ने भी नहीं लिखाया था। पर ठसक थी ठकुराई की, जिसके बूते अपने खलिहान की सीमा के विस्तार में आड़े आती रमुआ की झोंपड़ी उसकी अपनी बपौती थी।

रमुआ यानी रामअवतार, जो देशज उच्चारण के चलते रामौतार और फिर संक्षिप्तिकरण का शिकार हो बस रमुआ ही बचा था, खुद भी इसी तरह सिकुड़ता जा रहा था। वैसे था तो वह इतना हट्टा-कट्टा कि अगर तैश में आ जाता तो सामने वाले को एक हाथ में ही बता देता कि पट्टा तो तुम्हारे बाप ने भी नहीं लिखाया। बस चुप था तो इसलिए कि पैरों में कुछ जंजीरें पड़ी थीं।

जब वह पंद्रह-सोलह की उम्र में था तो अक्सर इस बात पर चिढ़ जाता था कि गांव के सात-आठ बरस के लड़के भी उसे सीधा नाम लेकर बुलाते हैं। दद्दा, दादा कुछ नहीं, बस रमुआ। इस बात पर उसके पिता ने कहा था, ‘वे ठाकुर हैं, ऊंची जात के। एक तो हमारी जात नीची, फिर हम काम भी तो उन्हीं के खेतों में करते हैं।’ तब वह नहीं समझ सका था कि नीची जात का होने की वजह से ठाकुरों के छोटे बच्चे उसका आदर नहीं करते, या इस वजह से कि वह उनके खेतों में काम करता है। पर वजह समझ न आने पर भी उसने इसी को अपने भी जीवन का सत्य मान लिया।

अब जब वह खुद एक पंद्रह-सोलह बरस के लड़के का पिता है और आज जब उसकी झोंपड़ी भी किसी के खलिहान में समाने वाली है, तो वह जान चुका है कि असल में वह सामने खड़े उससे आधी उम्र के लड़के के लिए रमुआ क्यों है। वह जान चुका है कि बिना ऐसा किए उसको नीचा या कमतर होने का एहसास नहीं कराया जा सकता और बिना इस एहसास के वह उन लोगों के तलुवे नहीं चाटेगा, जो उसकी मेहनत का फल भी उसे कृपा की तरह देते हैं।

उसे लग रहा था कि अगर आज वह अपनी झोंपड़ी किसी और के हवाले कर देता है, तो उसका बेटा भी इन्हीं जंजीरों में जकड़ा दूसरा रमुआ होगा। बेशक उसका पिता और आज वह खुद भी जिस जमीन पर बसा हुआ है, वह उसकी नहीं है, लेकिन वह जमीन उसे हड़पने को तैयार शख्स की भी नहीं है।

सामने से पड़ती गालियों की बौछार के बीच आखिरकार वह बोल ही उठा, ‘पट्टा किसके बाप ने लिखाया था, यह तो पटवारी ही आकर बताएगा।’

अपने हिस्से की जमीन पर रमुआ के पैर मजबूती से टिके थे।

शनिवार, 26 मई 2012

छोड़ो ये बेकार की बातें


अच्छी बातें, प्यारी बातें
छोड़ो ये बेकार की बातें

दो पल हंसकर बोले थे
बन बैठी हैं प्यार की बातें

उसकी ग़लती इतनी थी
कर बैठा था ख़ार-सी बातें

दोस्त बहुत गहरे हैं लेकिन
हो गई हैं दुश्वार भी बातें

आजिज़ अपनों से आकर
करता है बेज़ार-सी बातें

छूट गया वो हमसे ‘साहिल’
डुबा न दें मझधार-सी बातें

बुधवार, 16 मई 2012

मेरा हक़ तो मिल जाता...


दुनिया भर की बातों में अपनी सुनना सीख गया
बातों से निकली बातों को अब मैं गुनना सीख गया

अब कितने दिन रह पाएगी इस घर में वीरानी ये
मैं दीवारों की सीलन में तस्वीरें बुनना सीख गया

मेरा हक़ तो मिल जाता येन-केन-प्रकरेण मुझे
अपने जैसों की ख़ातिर मैं सिर धुनना सीख गया

उनकी नज़रों में बेशक अब भी ख़ाली हाथ सही
बेहतर दुनिया के टुकड़े पर मैं चुनना सीख गया

झूठ बोलता हूं अक्सर ताकि उनको दुःख न हो
सच के गहरे ज़ख़्मों को मैं तो सिलना सीख गया

बात मज़े की इतनी है ‘साहिल’ चुप-चुप बैठा है
ख़ामोश ज़ुबां में वो भी अब कहना-सुनना सीख गया

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

बिल्ली, चूहा और चंद खाली डिब्बे


कल वह हुआ जो पिछले कई दिनों से नहीं हुआ था। दिन तो क्या महीनों से नहीं हुआ था। कल संध्याकालीन बेला में जब मैं शीतल मंद समीर का सेवन करता हुआ चांद को निहार रहा था और एक नई गजल कहने की कोशिश में था, एक बिल्ली मेरी गायबखयाली का लाभ उठाते हुए घर में घुस गई। यह जरूर मोहल्ले में नई आई थी, वरना घर में घुसने के पहले दस बार सोचती और यही निर्णय लेती कि इस घर की तरफ तो नजर उठाकर भी नहीं देखना। जरूर उसने अपनी और सहेलियों से मशविरा नहीं किया होगा।
       खैर, वह मेरी अर्द्धध्यानावस्था के दौरान छत के रास्ते घर में प्रवेश कर गई और जा पहुंची सीधे रसोई में। पहुंचते ही उसकी बांछें जरूर खिल गई होंगी। सोचा होगा कि ‘वाह! आज तो मजा आ गया, इतने सारे डिब्बे-डिब्बियां। बर्तन भी तमाम बिखरे पड़े हैं। आज तो मौज हो गई।’ इसी खुशी में उसने एक-एक कर डिब्बे-डिब्बयों को खोलना शुरू किया। मगर यह क्या! दो चार डिब्बों पर जोरआजमाइश के बाद ही उसका मिजाज बदलने लगा। जरूर उसने तभी से कोसना शुरू कर दिया होगा कि ‘एक तो कमबख्त ने एयरटाइट डिब्बे रखे हुए हैं, दूसरे उनमें भी काम की कोई चीज नहीं मिल रही। बुरा हो इन प्लास्टिक की फैक्ट्रियों का, जिन्होंने एयर टाईट डिब्बे बनाये, पहले टीन, एल्युमीनियम और स्टील के डिब्बे तो रखते थे लोग, जो कम से कम आसानी से खुल तो जाते थे।’
       तो साहब जैसे-जैसे बिल्ली आगे बढ़ती गई, उसे आटा, दलिया, दाल, चावल, पापड़, हल्दी, मिर्ची, जीरा, धनिया के कुछ भरे और ज्यादातर खाली डिब्बे ही मिलते गए और उसका पारा चढ़ता गया। क्योंकि सब कच्चा माल ही उसके पल्ले पड़ रहा था और आजकल तो बिल्लियों को भी पकी-पकाई खाने की आदत हो गई है। वैसे वे कच्चा माल भी खा लेती हैं, लेकिन या तो वह मोटे-ताज़ा चूहा हो या फिर दूध-मलाई जैसा हैल्दी फूड, जिसके लिए आजकल वैल्थ बहुत खर्च होती है। वैसे आटा, दाल, चावल देखकर दूध-मलाई की उम्मीद उसने की होगी, जिसे पंख लगाए उस चायपत्ती के डिब्बे ने, जिसने उसने सबसे आखिर में पटक कर खोला था। सोचा होगा कि चायपत्ती है, तो बंदा चाय तो बनाता ही होगा, इसलिए दूध तो होना ही चाहिए। इसी सोच के चलते उसने बर्तनों की तलाशी लेनी शुरू की और माथा पीट लिया कि न जाने किस कंगले के घर में घुस गई। जब पारा आसमान छूने लगा तो उसने किसी नाराज पत्नी की तरह बर्तन पटकने शुरू कर दिए।
       मैं धड़धड़ाते हुए सीढ़ियां उतरा। देखा तो बिल्ली मुझे घूर रही थी। लगा जैसे कह रही हो, ‘कैसा आदमी है! अरे आज तो महीने की आठ तारीख ही है, तनख्वाह मिले एक हफ्ता ही बीता है और यह हाल है। घर आए मेहमान के स्वागत के लिए कुछ भी नहीं है। धिक्कार है तुझ पर।’ अब मैं मेहमान से कैसे कहता कि अब तक तनख्वाह नहीं मिली है। तभी बिल्ली के हाथ वह दूध पाउडर का पैकेट लग गया, जो दो महीने पहले लाया था। उसने आव देखा न ताव, बस पैकेट फर्श पर दे मारा और बड़े क्रोध में मुझे देखा। जैसे तंज कस रही हो कि ‘वाह बेटा! अपना इंतजाम कर रखा है। मार्केट डिपेंडेंट हो गए हो और आलसी इतने कि गर्म न करना पड़े इसलिए दूध की जगह दूध पाउडर। समझ आ रहा है तुम्हारी सेहत का राज। मगर हम तुम्हारी तरह डिब्बा बंद उत्पादों के हिमायती नहीं है। बोलो! हमारा क्या इंतजाम है?’ मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि 'भई घर में अकेला प्राणी रहता हूं, तो अपनी सहूलियत के लिहाज से ही तो इंतजामात रखूंगा। आजकल तो दोस्त-यार भी बिना बताए नहीं आते, तुम अचानक आ धमकीं तो इसमें मेरा क्या कसूर। पहले कोई हिंट दिया होता, तो इंतजाम करके रखता।
       इतने में ही वह चूहा आ धमका, जो रोज रात को मेरे सिरहाने कुछ धमाचौकड़ी मचाया करता था। उसने अपने मुंह में रखा अखबार का टुकड़ा बिल्ली के सामने ऐसे पटका मानो कह रहा हो, ‘बहन जी! इससे ज्यादा क्या हो सकता है कि मैं इस घर में इस आदमी के होते हुए कागज खा कर गुज़ारा कर रहा हूं। पहले तो इसने दो महीने तक खूब बना-बना कर फेंका और मुझे खिलाया। इतना खिलाया कि मेरी आदत खराब हो गई। मुझे भी इन्हीं लोगों की तरह हराम का माल उड़ाने में मजा आने लगा। इसकी वैल्थ पर अपनी हैल्थ मस्त हो रही थी। अब कमबख्त ने ऐसा इंतजाम कर रखा है कि सब कुछ एयर टाइट डिब्बों में। रोज रात को इससे कहता हूं कि अबे दिन भर तो भूखा रखा है, अब क्या सुलाएगा भी भूखा, पर इसके कान पर जूं नहीं रेंगती। यह भी नहीं समझता कि इसने ही तो मेरी आदतें खराब की हैं, अब मेरी सेहत का ध्यान रखना इसकी जिम्मेदारी बनती है कि नहीं। इसने तो मेरी यह हालत कर दी है कि मुझे मरने से भी डर नहीं लगता, तभी तो आपके सामने आ गया हूं। अब आप ही मेरा उद्धार करो।’
       मैं और चूहा दोनों ही बिल्ली की और टकटकी लगाए देख रहे थे। बिल्ली ने बारी-बारी से मुझे और चूहे को देखा और शायद यह बड़बड़ाती हुई बाहर निकल गई कि ‘तुम दोनों का कुछ नहीं हो सकता। एक मार्केट ओरिएंटेड, अपने में मग्न है, जिसे सिर्फ अपनी सुविधाएं दिख रही हैं, और दूसरा खुद पर नियंत्रण न रख पाने की जिम्मेदारी भी दूसरों पर डाल रहा है। तुम दोनों को ही अपने अलावा किसी और चीज से सरोकार नहीं है। मैं ही बेवकूफ हूं, जो तुम जैसों से कोई उम्मीद लगा बैठी थी।’

रविवार, 1 अप्रैल 2012

न आज से सरोकार, न कल की फ़िक्र


अखबारी कतरन की झलक

श्रमिक, यानी जिनका जीवन मेहनत की धुरी पर चलता है। जिनकी सबसे बड़ी पूंजी होती है उनकी ताकत, जिसके बूते वे दुरूह परिस्थितियों में भी अपने जीवन की गाड़ी को खींचने का हौसला रखते हैं। पर यह सुनना शायद थोड़ा अटपटा लगे कि श्रमिकों का एक तबका ऐसा भी है, जो तब तक मेहनत नहीं करता, जब तक उसे रोटी के लाले न पड़ जाएं। कुछ ऐसा ही कहा जाता है बिहार के बांका जिले में रहने वाले समुदाय ‘लैया’ के बारे में, जिसे ‘कादर’ भी कहा जाता है।

आबाद बस्ती से दूर कहीं बाहर आठ-दस झोंपड़ियों का एक समूह है। समूह के भीतर जाते ही खाट पर बैठे या पसरे पड़े कुछ पुरुष दिखाई देते हैं। काली रंगत, शरीर इतना दुबला कि एक-एक हड्डी गिनी जा सके, कई नसें तक गिनी जा सकती हैं। आधे से ज्यादा लोगों के सिर घुटे हुए। कपड़ों के नाम पर बस एक तहमद और ज्यादा से ज्यादा एक बनियान। आस-पास मिट्टी में खेलते बच्चे, जिनके फूले हुए पेट उनके कुपोषित होने की चुगली करते हैं। यह एक आम दृश्य है किसी ‘कादर बस्ती’ का। घर में चंद बर्तनों के अलावा कुछ भी नहीं होता इस समुदाय के पास और जीवन-यापन का एक मात्र जरिया है दिहाड़ी मजदूरी। मजदूरी का भी इस समुदाय के लोगों का अपना अलग अंदाज है। यह या तो खेतीबाड़ी का काम करेंगे या फिर लोडिंग-अनलोडिंग की तरह का काम, जिसमें बस चीजों को उठाकर एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना हो। इन लोगों के लिए काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था सेवा भारती के प्रमुख सुधीर कुमार कहते हैं, ‘असल में यह लोग कुछ सीखना ही नहीं चाहते। ऐसा लगता है, जैसे इनके अंदर से सीखने की ललक खत्म हो गई है। हो सकता है कि यह वर्षों से मिल रही उपेक्षा का परिणाम हो। दूसरी चीज यह भी रही कि इनसे या तो खेती का ही काम करवाया गया, या फिर बेगारी करवाई गई। यह लोग पीढ़ियों से यही काम करते आ रहे हैं, शिक्षा-दीक्षा से इनका कोई नाता नहीं रहा, जिसका परिणाम है कि एक तरह से पूरा समुदाय ही प्रगति से दूर हो गया। अलबत्ता अब थोड़ा फर्क पैदा हुआ है, लेकिन सिर्फ इतना कि अब ये रिक्शा चलाने लगे हैं।’

संसाधनविहीन और गरीब-पिछड़ों की प्रगति के लिए केंद्र और राज्य सरकार की कई योजनाएं हैं। क्या इन तक वह योजनाएं नहीं पहुंचती? इसका जवाब भी बड़ा दिलचस्प है, जिसे समझने के लिए कुछ मूलभूत बातों की जानकारी होना जरूरी है। पहली तो यही कि 2001 की जनगणना से पहले ‘कादर’ या ‘लैया’ जैसी कोई जाति या समुदाय सरकारी कागजों में था ही नहीं। आदिवासियों पर कार्य करने वाले बिहार के कई लोगों का मानना है कि यह मूलत: एक आदिवासी समुदाय है, लेकिन सरकार ने इसे अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में रखा है। यानी इसे जिन सरकारी योजनाओं का लाभ असल में मिलना चाहिए था, उनका दायरा सिमट गया है। इस समुदाय की कुल आबादी तकरीबन 6000 है और यह पूरे बिहार में सिर्फ बांका जिले में ही है, जिसकी सबसे ज्यादा तादाद बौंसी से लेकर झारखंड के जसीडीह तक के बीच बसी है। जसीडीह की एक स्वयंसेवी संस्था लोक विकास संस्थान के प्रमुख सुभाषचंद्र दुबे बताते हैं, ‘चूंकि यह समुदाय पढ़ाई-लिखाई लिखाई से दूर ही रहा है, इसलिए इसे योजनाओं की जानकारी होना एक बेमानी सवाल है। और यही जानकारी का अभाव इसकी प्रगति के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है। आज के समय में जब अपना अधिकार मांगने पर भी मुश्किल से ही मिलता हो, वहां इन तक भी केवल वही योजनाएं पहुंच पाती हैं, जिन्हें पूरा किए बिना सरकारी अमले का काम नहीं चलता।’ इस समुदाय की आजीविका कैसे चलती है? इस बारे में जानना भी कम दिलचस्पी से भरा नहीं है। इनके मामले में ‘प्यास लगने पर कुआं खोदने’ वाली कहावत शब्दश: सच होती दिखाई पड़ती है। आंखों देखी ने किस्सों को हकीकत का जामा पहनाया, जिसका लब्बोलुआब यह था कि एक जगह काम करके जब इनके पास कुछ पैसे जमा हो जाते हैं, तो ये तब तक कोई और काम नहीं करते, जब तक कि वह पैसे खत्म न हो जाएं और आटा-दलिया खरीदने के लिए पैसों की जरूरत न आ पड़े। हालांकि जहां इनकी बड़ी बस्तियां हैं, वहां कुछ ‘चतुर-सुजान’ भी हैं, जो इनके बीच के होते हुए भी इन्हीं के लिए बड़ी मछली बन गए हैं। पढ़े-लिखे भले ही न हों, पर क्षेत्रीय राजनीति के दांव-पेंच सीख चुके हैं। आगे बढ़ते वक्त में इस समुदाय के बीच दिखने वाला यह एक बदलाव है। जो बस्तियां शहर या कस्बे के नजदीक हैं, उनमें एक बदलाव यह भी है कि इन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया है। पर यह प्रतिशत कुल 6000 की आबादी में न के बराबर है। 20 कादर बस्तियों में स्कूल जाने वाले कुल आठ-दस बच्चे ही मिले। कुछ लोगों ने बंटाई पर जमीन लेकर खेतीबाड़ी करने की शुरुआत के साथ जीवन स्तर को बेहतर बनाने का सपना भी देखा है।
इन बदलावों के बावजूद जो तस्वीर सामने आती है, वह यह है कि यह एक निर्लिप्त समुदाय है। सत्तू और लाई के भरोसे दिन काट देने वाले इन लोगों को बेहतर कपड़े, अच्छे खाने और पढ़ा-लिखा कर बच्चों को कुछ बनाने की कोई लालसा नहीं है। कल की इन्हें कोई फिक्र नहीं है और आज से भी कोई खास सरोकार नजर नहीं आता। इनकी यह निर्लिप्तता सरकारी खेमों में तक पसर गई है। तभी तो जिला कार्यालय में यह जानकारी तक उपलब्ध नहीं है कि जिले में कहां-कहां इस समुदाय की बसाहट है। इसके आगे बाकी बातें तो फिर बेमानी हो ही जाती हैं। कुल मिलाकर जो दिखता है, वह है एक उदासीन समुदाय के प्रति उदासीन सरकारी रवैया।
(01 अप्रैल 2012 को दैनिक जनवाणी, मेरठ में प्रकाशित)

शनिवार, 24 मार्च 2012

उनको नहीं हूँ मैं

न जाने कौन किस बात से मुझको समझ जाये
अब तक तो वरना सबके लिए बस बतकही हूँ मैं


एक चुभन है जो पूछता हूँ सबके दर्द की वजहें
किसी ने मुझसे पूछा नहीं परेशां तो नहीं हूँ मैं

बोलता हूँ इसलिए कि कुछ तो वज़न कम हो
कोई सुनता नहीं मुझे क्या जानता नहीं हूँ मैं

गले पड़ता हूँ मैं अक्सर ये होता है इसलिए
वो बहुत हैं मुझे अजीज़ उनको नहीं हूँ मैं

न कोई कहने वाला है न कोई सुनने वाला है
अपने होंठ से बस कान तक की रफ्तागी हूँ मैं

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

वाह गान में छुपे आह सुर...

बीते कुछ महीनों, सालों में अक्सर ट्रेन में गा-बजाकर पैसा मांगने वालो को देखकर दिल में उठी कुलबुलाहट को शांत करने के लिए उनसे कुछ बेतरतीब बातें की थीं. और जब से उनकी जुबानी, जो कुछ जाना, वो किसी स्थायी और अंतरे की तरह लगातार ज़ेहन में बजता रहा. उनकी लय, ताल और तान में जो सुर शामिल थे, वे 'सा' से 'सा' तक के सात सुरों के अलावा भी थे, जो डायरी की शक्ल में मैंने लिख छोड़े थे, उनसे की गई बेतरतीब बातों की ही तरह बिखरे हुए. थोड़ी कोशिश की थी तरतीब में सजाने की, ताकि कोई धुन बन सके, इसी का नतीजा है यह, जो 'वाह गान में छुपे आह सुरों' के रूप में सामने है. कामयाब कितना हुआ हूँ, पता नहीं....


रविवार, 8 जनवरी 2012

हर बात तो कहता रहा...

न हमने ही कोई बात की, न उसने ही हाल-ए-दिल कहा
खामोशी का एक तार था, जो दरमियाँ बजता रहा

कुछ लफ्ज़ थे जो कहे नहीं, सुने मगर फिर भी गए
चुपचाप लब, पर सरगोशियों का सिलसिला चलता रहा

इक शिकायत उसे रही, मैं दिखा नहीं हँसते हुए
वो ही तो था मेरा आइना, जैसा मैं था दिखता रहा

लिखूं जो उसको ख़त कभी, लिखूंगा क्या उलझन में हूँ
वो इतना मेरे करीब है, हर बात तो कहता रहा

अपनी ख़ामोशी से तू यूँ ही, लेना साहिल हौसला
मौज-ए-दरिया सा जहां, उठता रहा गिरता रहा.