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सोमवार, 5 अगस्त 2013

बज़्मे ख़ुश है सजी हुई...

एक ताज़ा ग़ज़ल -

बज़्मे ख़ुश है सजी हुई रंग शाद डाले बैठे हैं
ये बात अपने तक रही कि ग़म संभाले बैठे हैं

इक अजनबी सा शख़्स है रिश्ता है मुस्कान का
यूँ भी हम जीने का इक अन्दाज़ पाले बैठे हैं

ग़म बरसता खूब है चश्म पुरनम भी मगर
दिल में अब तक रंज की इक आग पाले बैठे हैं

जब से हमने चाँद से बात करना कम किया
जाने किस किस बात के अशआर ढाले बैठे हैं

दोस्ती दुनिया को अपनी ख़ार सी बनकर चुभी
और अपने दिल पे हम अब ख़ाक डाले बैठे हैं

धीरे धीरे झर गईं शाख से सब पत्तियाँ
हम अभी भी छाँव के कुछ ख़्वाब पाले बैठे हैं।

बुधवार, 17 जुलाई 2013

निशाँ कुछ बचे हैं मिटाते-मिटाते


तीन साल पहले एक शेर कहा था, दो साल पहले दो और कहे और फिर तीन शेर अभी कुछ दिन पहले। तीन साल का सफ़र तय करके एक गज़ल बनी और मजे की बात यह कि मतला, जो किसी ग़ज़ल का प्रस्थान बिंदु होता है और सबसे पहले अस्तित्व में आता है, सबसे आख़िर में कहा गया। बहरहाल ग़ज़ल यूं है-

हम रह गए थे बुलाते-बुलाते
कुछ अरमान जागे सुलाते-सुलाते

लगता नहीं जी कहीं अब हमारा
जो तुम याद आए भुलाते-भुलाते

बस इक ख़ता ने ये अंजाम पाया
नज़र मिल गई थी चुराते-चुराते

निस्बत तो उसको हमसे भी थी कुछ
न यूँ अश्क़ बोता छुपाते-छुपाते

यूँ तो शहर ये बदला बहुत है
निशाँ कुछ बचे हैं मिटाते-मिटाते

कम तो नहीं है 'साहिल' कि इक दिन
वो हँस पड़ा था रुलाते-रुलाते।

शुक्रवार, 3 मई 2013

आवाज़


वह तक़रीबन 80 वर्ष का बुज़ुर्ग था जिसके बस एक पाँव में जूता था। कंधे पर एक छोटी-सी पोटली और तन पर ऐसे मैले कपड़े जिन्हें देखकर ही लग रहा था कि वह पाँच-छः दिन की धूल-धूप खा चुके हैं। वह किसी गाँव से शहर आया था शायद। कह रहा था- ‘भैया कछु कर दो। हमरे मुंडा तक भड़िया लए (जूते तक चोरी कर लिये)। एकई पईसा नईंएँ चाय-रोटी खों। भईया कछु कर दो।’
         आवाज़ में कुछ अजीब-सा था जो भीतर विचलन पैदा कर रहा था। दिल कह रहा था कि वाकई ज़रूरतमंद है, कुछ तो मदद कर ही देनी चाहिए। अरसे बाद उस शहर और बदले हुए हालात को देख रहा था। आसपास के लोगों का उस बुज़ुर्ग के प्रति उदासीन या हड़काने वाला रवैया मन को शंकित भी कर रहा था कि यह कहीं उसका कारोबार न हो।
         मन की शंका और दिल की संवेदनशीलता एक डोर को दो विपरीत धुरों से तान रहे थे। दो बार तो हाथ पर्स वाली जेब तक जाकर लौटा। आख़िरकार बाइक की किक पर पूरी झल्लाहट के साथ पैर पटका और सधा-सधाया जुमला, जो ऐसे मौकों पर अक्सर कहा जाता है, कह दिया - ‘छुट्टे नहीं हैं बाबा।’
         भर्राती हुई, घबराहट औैर बेचैनी से भरी, रोने को तत्पर वह आवाज़ जैसे बाइक पर मेरे पीछे सवार हो गई थी। पर्स की तरफ़ बढ़ते हाथ की तरह बाइक भी वापस मुड़ते-मुड़ते रह गई थी। हर बार शंका बलवती साबित हुई थी- ‘ अगर यह उसका धंधा हुआ तो?’
         ‘हुआ भी तो क्या! उसे कुछ पैसे देकर तेरी उलझन तो दूर होगी कि तूने कुछ क्यों नहीं किया।’ ख़ुद को दिया गया यह तर्क ठीक लगा। बाइक ठिठकी ही थी कि इस तर्क की काट भी सामने आ गई- ‘पर ऐसे तो रोज़ ही कोई न कोई मिलता है।’
         भीतर यह विचार और बाहर बाइक दोनों लगातार चल रहे थे। घर आ गया था। कई गलियों से घूम कर, कई मोड़ों को काट कर आया था। शोर भरे बाज़ारों से होकर आया था। वह कहीं नहीं गिरी। रोने को तत्पर वह आवाज़ रोने लगी थी। अब वह बाइक से उतर कर मेरे कंधों पर सवार थी।

शनिवार, 26 मई 2012

छोड़ो ये बेकार की बातें


अच्छी बातें, प्यारी बातें
छोड़ो ये बेकार की बातें

दो पल हंसकर बोले थे
बन बैठी हैं प्यार की बातें

उसकी ग़लती इतनी थी
कर बैठा था ख़ार-सी बातें

दोस्त बहुत गहरे हैं लेकिन
हो गई हैं दुश्वार भी बातें

आजिज़ अपनों से आकर
करता है बेज़ार-सी बातें

छूट गया वो हमसे ‘साहिल’
डुबा न दें मझधार-सी बातें

शनिवार, 24 मार्च 2012

उनको नहीं हूँ मैं

न जाने कौन किस बात से मुझको समझ जाये
अब तक तो वरना सबके लिए बस बतकही हूँ मैं


एक चुभन है जो पूछता हूँ सबके दर्द की वजहें
किसी ने मुझसे पूछा नहीं परेशां तो नहीं हूँ मैं

बोलता हूँ इसलिए कि कुछ तो वज़न कम हो
कोई सुनता नहीं मुझे क्या जानता नहीं हूँ मैं

गले पड़ता हूँ मैं अक्सर ये होता है इसलिए
वो बहुत हैं मुझे अजीज़ उनको नहीं हूँ मैं

न कोई कहने वाला है न कोई सुनने वाला है
अपने होंठ से बस कान तक की रफ्तागी हूँ मैं

रविवार, 8 जनवरी 2012

हर बात तो कहता रहा...

न हमने ही कोई बात की, न उसने ही हाल-ए-दिल कहा
खामोशी का एक तार था, जो दरमियाँ बजता रहा

कुछ लफ्ज़ थे जो कहे नहीं, सुने मगर फिर भी गए
चुपचाप लब, पर सरगोशियों का सिलसिला चलता रहा

इक शिकायत उसे रही, मैं दिखा नहीं हँसते हुए
वो ही तो था मेरा आइना, जैसा मैं था दिखता रहा

लिखूं जो उसको ख़त कभी, लिखूंगा क्या उलझन में हूँ
वो इतना मेरे करीब है, हर बात तो कहता रहा

अपनी ख़ामोशी से तू यूँ ही, लेना साहिल हौसला
मौज-ए-दरिया सा जहां, उठता रहा गिरता रहा. 

शनिवार, 12 नवंबर 2011

बस एक चिट्ठी, आपके लिए...


प्रिय दोस्तो,
एक वक्त था जब खत लिखे जाते थे, संजो कर रखे जाते थे, और जब खात्मे की नौबत आती थी, तो तकलीफ की नदी में आग लग जाती थी। बकौल शायर राजेंद्रनाथ रहबर ये खत अपनी खूशबू के साथ जलाते हुए हम तड़प के उस अहसास से गुजरते थे, जहां सब कुछ खाक लगता है। इश्क की रूमानियत अब नहीं रही। बस कुछ क्लिक की हिम्मत और बीच के सारे तार टूट जाते हैं। या फिर मोबाइल में सिम बदलनी होती है, और कह दिया जाता है, सब कुछ अनकहा, एक साथ। मुहब्बत की नर्मी के बीच वे खत भी याद आते हैं, जो उस दोस्त को लिखे जाते थे, जिसके साथ बचपन बीता लेकिन किशोरवय और जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही रास्ते जुदा हो गए। मौसी से मामा और बुआ से चाची तक के रिश्तों को आत्मीय संबोधनों के साथ लिखे गए खत हों या अपने समकक्ष और अधिकारियों को लिखे गए कार्यालयीन पत्र, सभी में संवेदना से लेकर प्रतिरोध का खास अंदाज होता था। इनमें हाल-चाल की बारीकी से लेकर खत के अंत में घर आने की जिद्दी टेक भी शामिल होती थी।
पहला खत
आपको याद ही होंगे वे स्कूली दिन, हिंदी और अंग्रेजी की वे कक्षाएं जिनमें पत्र लिखना सिखाया जाता था। एक अजनबी सा नाम और पता होता था, फिर कभी आप किताबें खरीदने के लिए पिताजी से पैसे मंगाने हेतु पत्र लिखते थे, तो कभी अपने भाई की शादी में मित्र को बुलाने के लिए आमंत्रण-पत्र भेजते थे। इस दौरान पत्रों के प्रकार जानते हुए हम सभी ने अपना पहला पत्र उत्तर पुस्तिकाओं में पूरे मन से लिखा था। नंबर पाने के लिए रट्टा लगाकर याद किया गया वह पत्र कुछ इस तरह जेहन में बैठता था कि अगर आप याद करें उस पत्र को जो आपने वाकई किसी को पहली बार लिखा था, तो पाएंगे कि उसकी भाषा और शब्द विन्यास तकरीबन वैसा ही था, जैसा आपसे स्कूल में लिखवाया जाता था।
पहले प्यार की पहली चिट्ठी
प्रेम में लिखे खतों की तो दुनिया ही बड़ी रूमानी है। वो रातों को जागकर लिखे गए खत, किताबों में छुपाकर दिए गए खत, और फिर जिसका इंतजार किया जाता था, वो जवाबी खत। इश्क के रंग में डूबे इन खतों ने शाइरों, गीतकारों को लुभाया और कई कालजयी रचनाएं सामने आर्इं। एक तरफ जहां कबूतर के जरिए पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन तक पहुंची, तो वहीं खत में फूल भेजकर उसे दिल समझने की बात भी कही गई है। दिल-ए-बेकरार का किस्सा लिखकर लफ्जों में हाल-ए-दिल बयां करने का एक वक्त में जो जरिया था, वह खत ही था। यह प्यार के कागज पर दिल की कलम से लिखा जाता था और अब कंप्यूटर या मोबाइल के स्क्रीन रूपी कागज पर की-बोर्ड की कलम से लिखा जाता है। बहरहाल, जवाबी खत यानी ईमेल या मैसेज का इंतजार अब भी तड़प वैसी ही पैदा करता है। फर्क इतना है कि पहले काफी मशक्कतों के बाद एक खत पहुंचाने के बाद जवाब न आया, तो दूसरा भेजते वक्त लगता था, अब इंतजार में एक के बाद एक संदेशों की झड़ी लग जाती है। हाथ की लिखाई में रचे-बसे खतों से प्रियतम का चेहरा झलकता था, और इन्हें खत्म करने के लिए बढ़े हाथ थम जाया करते थे। लेकिन अब इलेक्ट्रॉनिक फार्म में मौजूद खतों से न दिलबर के हाथों की महक उठती है, न ही उसका चेहरा दिखाई देता है, उसकी लिखावट को पहचानने की तो बात दूर ही है। शायद इसीलिए इन पर डिलीट कमांड चलाने में ज्यादा तकलीफ भी नहीं होती।
चिट्ठी आई है
फिल्म ‘नाम’ का वह गीत शायद आप भूले नहीं होंगे, जिसमें वतन से चिट्ठी आने का जिक्र है। घर, गांव, शहर छोड़ किसी दूसरे नगर में बसे हर आदमी को लुभाया है इस गीत ने। कल्पना कीजिए उस वक्त की, जब ईमेल और मोबाइल नहीं थे। ऐसे में डाकिया आवाज लगाता था, तो बच्चे भागते थे दरवाजे की ओर। और चिट्ठी लेकर शोर मचाते लौटते थे कि अम्मा-पिताजी फलां की चिट्ठी आई है। चिट्ठी करीबी रिश्तेदार की हुई तो पूरा घर या तो एक-एक कर चिट्ठी पढ़ता था या फिर एक साथ बैठकर सुनता था। छुट्टियों में महिलाओं को जानकारी मिलती थी कि फलां तारीख को भाई आ रहा है, तो बच्चे खुशी से भर उठते थे कि अब मामा के यहां जाएंगे। खुशी और उल्लास का सारा माहौल बस एक चिट्ठी का ही जहूरा होता था। एक परंपरा थी कि किसी की चिट्ठी आई है, अपनी कुशल-क्षेम के समाचार के साथ उसने हमारा हाल जानना चाहा है, तो उसका जवाब देना ही है। पत्र मिलते ही उसका जवाब लिखने बैठ जाना लोगों की आदत में शुमार हो चुका था, जिसमें यह भी जिक्र किया जाता था कि परिवार का कौन-सा सदस्य कहां है और कैसा है। कई टुकड़ों में बंटा परिवार चिट्ठी में एक साथ समा जाता था।  हमारी सरकार ने भी इस सामाजिक हकीकत के ही तहत जवाबी पोस्टकार्ड का चलन दिया था।
मित्रों को लिखे पत्रों में शब्द कुछ यूं बयां होते थे मानो आमने-सामने बैठकर बात कर रहे हों। बदले वक्त में संचार माध्यम बढ़े, तो यह बानगी कम होती गई। ईमेल की तेजी और फॉन्ट्स की कारीगरी वह उल्लास पैदा नहीं कर पाती जो 25 पैसे के पोस्टकार्ड में होता था। भागती-दौड़ती जिंदगी में टुकड़ों में बंटा परिवार ईमेल में एक-साथ दिखाई नहीं देता। घर के बुजुर्गों के लिए ईमेल आज भी एक दूसरी दुनिया का शब्द है, सो हम उनके हाल-चाल जानने और गांव की गलियों की लय सुनने से महरूम हो गए हैं। याद कीजिए जरा कि आखिरी बार मौसी, बुआ, दादी या नानी की लिखी हुई कोई चिट्ठी-पत्री कब पढ़ी थी। यह भी तो हमारे समय का ही सच है कि ईमेल एड्रेस में दोस्त ज्यादा हैं, परिवार के सदस्य कम।
गुम हो गया पता
कहते हैं कि अगर आप कागज-कलम का इस्तेमाल करके कुछ लिख रहे हैं, तो वह अरसे तक जेहन में मौजूद रहता है। एक जमाना था जब लोगों के पते जुबानी याद थे। डायरी देखने तक की जरूरत नहीं होती थी। जबकि तब आप किसी को उतने पत्र भी नहीं लिखते थे, जितने आज ईमेल करते हैं। गौरतलब है कि पहले पूरे परिवार का एक ही पता होता था, जिसे चिट्ठी में दर्ज किया जाता था, अब एक ही परिवार के कई पते हैं, कई बार तो एक ही आदमी के कई पते हो जाते हैं। एक बहुत छोटा सा सवाल है जनाब, आपको अपने कितने मित्रों के ईमेल एड्रेस याद हैं? ....आठ-दस नामों के बाद दिक्कत पेश आने लगी न। जनाब यही है वह नतीजा जो पत्र लेखन के खात्मे से उपजा है।
सिर्फ पता ही नहीं बदला
बदलते परिवेश में न सिर्फ पते बदल गए हैं, बल्कि कागज कलम के जरिए जज्बात उकेरने की रवायत भी बदली है। कुछ खत सहेजकर रखे हों, तो जरा देखिए कि सहेजा गया आखिरी खत किस तारीख का है। उसे पढ़िए, एक-एक लफ्ज एक चित्र उकेरता है, उन यादों का, उन बातों का जिनसे उपजे हैं वे लफ्ज। फोन या ईमेल के दौर में आप कितनी बातें हूबहू वैसी याद कर सकते हैं, जैसी वे बातचीत में थीं। हूबहू तो दूर की बात, कई बार तो बातचीत ही याद नहीं होगी। खत लिखने के साथ उनकी कांट-छांट और ऊपर नीचे करने की कसरत भी खत्म हो गई। अब मेल या मैसेज में कोई बात सामने वाले को ठीक से समझ नहीं आई, तो दूसरा कर देंगे वाली स्थिति है। वाक्यों को दोहराकर फिर-फिर लिखने की आदत भी खत्म हो चुकी कवायद है। और इसी के साथ खत्म हो रही है भाषायी शुद्धता।
पत्रों में हमने कई स्मृतियां संजो रखी हैं। जो पत्र लिखा है या पाया है, उससे जुड़ी कोई स्मृति अभी तक जेहन में बाकी है। अब, जबकि तकनीकी रूप से परिष्कृत दूरभाष यंत्रों के संदेश बक्से में या ईमेल के इनबॉक्स में एकट्ठे संदेश भी मौजूद हैं, तब आखिर क्यों उनकी संख्या के अनुपात में वैसी स्मृतियां नहीं हैं, जैसे पत्रों के साथ थीं। सीधी बात है जनाब, उनकी लिखावट में हाथ की वो कारीगरी नहीं होती, जिसे देखते ही आप कह दें कि यह अमुक व्यक्ति का लिखा खत है। उसके शब्दों में वो इत्तमीनान नहीं होता जिसका रंग शब्दों के साथ-साथ कागज पर भी उभरता था। वह शब्द विन्यास नहीं रहा, जिसमें दिल की किताब नुमायां होती थी। अरसा हो गया है न कोई खत पाए हुए। ऐसा खत जिसे आप संजो कर रख सकें, बार-बार पढ़ सकें। बहुत सुखद अनुभव होगा न, जब फिर से कोई ऐसा खत लिए डाकिया आपके दरवाजे पर दस्तक देगा। यह सुखद अनुभव ज्यादा दूर नहीं है आपसे, बस एक बार अपने करीबी को पत्र लिखकर तो देखिए, जवाबी पत्र की डाक डाकिया जरूर लाएगा।

                                                                                                                                    आपका
                                                                                                                                           मैं.

रविवार, 7 अगस्त 2011

यादों में शुमार बेटियां

पता ही नहीं चला
कि कब हो गईं वे बड़ी
हर बीतते पल के साथ
कब शामिल हो गईं 
वे हमारी आदतों में 
हमारे सपनों को कब
बना लिया उन्होंने अपना

जब सो रहे होते थे हम
अपनी थकन से चूर
तब कितनी बार माथे को छूकर
जाँची हमारी तबीयत
कब चाहिए हमे क्या
कैसे याद रह जाता है उन्हें
हमने सोचा ही नहीं कभी

पर जब चली गईं वे
पराये घरों की आदतों का ध्यान रखने
तब अक्सर याद आई हैं
हमारी यादों में शुमार हो चुकीं 
बेटियां.

शनिवार, 11 जून 2011

यकीन की ईंटें, मोहब्बत का गारा


हमारी जिंदगी तमाम रिश्तों के ताने-बाने में बुनी है। कुछ रिश्ते हमें विरासत में मिलते हैं, तो कुछ हम खुद बनाते हैं। खुदमुख्तारी में बनाए गए हमारे रिश्तों में एक रिश्ता बड़ा ही खास है। दुनिया के सबसे हसीन रिश्तों में से एक है यह रिश्ता, जिसकी मिसालें देते हुए कोई कभी थकता नहीं है। इस रिश्ते के लिए कुछ भी कर गुजरने का जज्बा इसकी गहराई को जुबान देता है। लेकिन बेखयाली में अक्सर हम इस रिश्ते की अहमियत को नहीं समझ पाते, और बना बैठते हैं एक न दिखाई देने वाली दीवार, जो वक्त के साथ-साथ फासले भी बढ़ाती जाती है। फिर भी इस रिश्ते की कशिश ताउम्र बरकरार रहती है। आखिर सबसे बड़े रिश्ते का रुतबा हासिल कर चुकी इस दोस्ती की बस्ती में क्यों आती हैं ये आंधियां, और क्यों हर बार ये फिर से बसने को रहती है तैयार? 


मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया

मजरूह सुल्तानपुरी का यह शेर हर उस शख्स की जुबां पर कभी न कभी जरूर आया है, जिसने दोस्ती और दोस्तों की मुहब्बत के दायरे की कोई हद मुकर्रर नहीं की। जिंदगी के हर मोड़ पर साथ आए हर साए को जिसने अपना दोस्त तसलीम किया। दोस्ती, एक ऐसा लफ्ज, जिसके मायनों को हर दौर में, हर शख्स ने अपनी-अपनी तरह से एक इबारत देने की कोशिश की, लेकिन शायद ही कभी हुआ हो कि वह उस इबारत से खुद पूरी तरह मुतमइन हुआ हो। उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर नि:तांत निजी तजुर्बों से दो-चार होते हुए ये इबारतें बदलती रही हैं। वक्त के साथ इबारतें बदलीं, मायने बदले, यहां तक कि लोगों के साथ-साथ दोस्ती की फितरत भी बदली, लेकिन इसमें कुछ तो खास है। ऐसा, जिसने इसके दायरे को वसीह किया है, जिसके चलते सारे जहां में इसका जिक्र उस जज्बे के साथ किया जाता है, जहां इसकी मुखालफत में एक भी लफ्ज की जगह नहीं है। यह दुनिया का एक अदद ऐसा रिश्ता है, जिसमें लड़ाई-झगड़े हैं, आलोचनाएं हैं, मन-मुटाव हैं, दोस्त की गलतियां हैं, लेकिन जिसकी अपनी एक भी खामी कोई नहीं गिना पाता। शायद यही वह वजह भी है, जिसने इसे सबसे कीमती और सबसे अजीज रिश्ते का रुतबा बख्शा है।

तामीर है हमारी
जब हमारी आंखें इस दुनिया से चार होती हैं, तो हमारे साथ होते हैं वे रिश्ते जिन्हें हम खुद तय नहीं करते। पैदाइश सिर्फ एक इंसान की नहीं होती, साथ ही जन्म लेते हैं वे तमाम रिश्ते, जो ताजिंदगी हमारे साथ चलने का दंभ भरते हैं और कहलाते हैं खून के रिश्ते। कभी जिनका खून पतला होता है तो कभी गाढ़ा। इन रिश्तों को निभाने की हम कोई शर्त तय नहीं करते, कोई कायदा भी नहीं बनाते, बल्कि पहले से मौजूद कायदों और शर्तों को ही जीते हैं। जब कभी इनमें कोई दरकन आती है, तो जुमला नुमायां होता है कि रिश्ता कोई हमने थोड़े ही बनाया था। शायद इसी वजह से इस दरकन की तकलीफ भी जल्द ही जज्ब हो जाती है। लेकिन दोस्ती के रिश्ते की बुनियाद हम खुद तैयार करते हैं, इस पर यकीन की इमारत खुद ही तामीर करते हैं, और इसे जीने के कायदे भी खुद ही तय करते हैं। बुनियाद रखने के साथ ही इस रिश्ते से शर्त जैसे लफ्ज को गैर-जरूरी मानकर बाहर फेंक दिया जाता है। अक्सर दोस्ती के बारे में जिक्र करते हुए कहा जाता है कि दोस्ती में कोई शर्त नहीं होती। सुनने में निहायत रूहानी लगने वाला यह जुमला बोलने वाले शायद इस रिश्ते की एकमात्र जरूरी शर्त को भूल जाते हैं। ईमानदारी है वह शर्त। ईमानदारी के बिना न तो बुनियाद मजबूत होती है और न ही यकीन की इमारत बुलंद होती है। जब भी हमारी तामीर इस इमारत की दीवारों में दरकन की पहला वाकया नमूदार होता है, तब अक्सर हम उस मोहब्बत का पलस्तर उस पर चस्पां कर देते हैं, जो हमारे बनाए कायदों में शामिल होती है। लेकिन जब इस दरकन से यकीन की र्इंटें गिरने लगती हैं, तब अहसास होता है कि ईमानदारी के गारे की कमी थी। तब जिन शिकवे-शिकायतों का सिलसिला शुरू होता है, उनका खास मरकज होती है यह ईमानदारी। चूंकि इस खूबसूरत बुत को तराशने वाले हम खुद ही होते हैं, इसलिए इसकी टूटी किरचें ताउम्र हमारे जहन में किसी नीमकश तीर की तरह खलिश पैदा करती रहती हैं। कभी जज्ब न हो पाने वाली यह तकलीफ बस एक नासूर बनकर रह जाती है।

खुली किताब सा खास दोस्त
उम्र के साथ-साथ बदलते जिंदगी के पड़ावों पर हमारे दोस्तों की फेहरिस्त में कई नाम शुमार होते हैं। कुछ 'सिर्फ दोस्त' होते हैं, कुछ 'दोस्त', और एक कोई होता है, जिसे हम 'खास दोस्त' के तमगे से नवाजते हैं। आपकी जिंदगी में भी कोई एक ऐसा शख्स जरूर होगा। आप ही बताएं कि यह खास दोस्त क्या होता है? सोचने की जहमत न उठाएं जनाब, जवाब हम ही आपको मुहैया कराते हैं। 'एक ऐसा दोस्त जो हमारी तकलीफों को समझे, जो हमारी आदतों-जरूरतों को समझ सके, जब हमें उसकी जरूरत हो, वो हमारे साथ खड़ा हो, जिससे हम अपनी हर बात साझा कर सकें, जिसके कंधे पर अपना सिर रखकर रो सकें', और ऐसे ही कुछ और जुमले गूंज रहे हैं न आपके जेहन में। लेकिन साहबान, कहीं आप बुरा तो नहीं मानेंगे अगर हम कहें कि आप स्वार्थी हो रहे हैं। खुद ही गौर करें, हर जुमले में आप अपनी ही जरूरतों को अहमियत दे रहे हैं। एक बार भी जिक्र नहीं किया कि आपके 'खास दोस्त' की जरूरतें क्या हैं, उसकी पसंद क्या है, या आप उसकी आदतों से कितने वाकिफ हैं। आपका हर जुमला अगर हकीकत में तब्दील हो जाए तो जाहिर है कि आपको खास दोस्त नसीब होगा, लेकिन यकीन जानिए आप उसके खास दोस्त में शुमार नहीं किए जाएंगे। बेशक यह इस हाथ दे उस हाथ ले वाला रिश्ता नहीं है, मगर कहा जाता है कि दोस्त एक-दूसरे के सामने खुली किताब की मानिंद होते हैं। अगर यह 'दोस्तों' के बारे में कहा जाता है, तो 'खास दोस्त' तो उस किताब का दर्जा रखते हैं, जिसके एक-एक वरके पर लिखी इबारत आप कई-कई बार पढ़ चुके हैं, जिसके हर लफ्ज से आप बावस्ता हैं। मगर चाहत अक्सर इससे उलट होती है। दरअसल हम अपनी किताब ही दोस्तों को पढ़ाने की कोशिश में मुब्तिला रहते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता पीले पड़ते जा रहे उसकी किताब के वरकों पर लिखी इबारत जब तक हम पूरी पढ़ पाते हैं, तब तक ये पन्ने चटकने लगते हैं।

मीठी-कड़वी दोस्ती
अक्सर हम उम्मीद करते हैं कि हमारा दोस्त हर हाल में हमारे साथ खड़ा होगा। उस वक्त भी, जब हमारे अजीज, हमारे करीबी, यहां तक कि हमारा परिवार भी हमसे मुंह फेर लेगा। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यही एक अच्छे दोस्त की निशानियां भी हैं। लेकिन जब इन हालात में हमारा दोस्त भी नासेह बह नसीहतें देने लगता है, तो बहुत नागवार गुजरता है। कई बार अपने दोस्त पर बेइंतहा गुस्सा भी आता है। लेकिन अगर हम उसे अपना अच्छा दोस्त मानते हैं तो लाजिम है कि उसकी नसीहतों पर गौर करें। बहुत मुमकिन है कि हम गलती पर हों और दोस्त से अपनी तरफदारी की उम्मीद कर रहे हों। दोस्त अगर अच्छा है, सच्चा है तो नसीहतें देने और तीखा बोलने से उसे जरा भी गुरेज नहीं होगा। एक बड़ा ही रूमानी जुमला उछाला जाता है दोस्ती की गहराई को जुबान देने के लिए, दोस्त के लिए कुछ भी कर गुजरने का, दोस्ती में सब कुछ जायज करार दिए जाने का। यह जुमला सुनते ही हम रूमानियत और मोहब्बत के समंदर में अपनी कश्ती को दौड़ाने लगते हैं, दिल का बाग गुलजार हो जाता है। यह जुमला बोलने वाला शख्स दुनिया का सबसे प्यारा इंसान नजर आता है। अच्छा है, अगर दोस्तों के बीच रहकर भी ऐसी रूमानियत न हो, ऐसा जेहनी सुकून न हासिल हो, तो और कहां होगा। वेशक ये लम्हे हमारी जिंदगी के सबसे हसीनतरीन लम्हों में शुमार किए जाने के काबिल होते है, लेकिन जब कोई दोस्त इस जुमले को हकीकत में बदलने लगे, तो जरा चौकन्ना हो जाना ही मुफीद है। असल में, दोस्ती के लिए कुछ भी कर गुजरने का जज्बा मोहब्बत की उस कशिश से लबरेज होता है, जिसमें अच्छे-बुरे, सही-गलत का फर्क करना नामुमकिन हो जाता है। कहा भी जाता है कि मोहब्बत अंधी होती है। इसी अंधी मोहब्बत से पैदा होता है यह जज्बा, जिसमें चीजों, हालातों में मुनासिब फर्क न कर पाने के चलते दोस्त अक्सर उस बात में भी साथ देने के लिए तैयार हो जाते हैं जो गैरमुनासिब हैं, जिन्हें परवान न चढ़ने देने में ही हमारी बेहतरी है। मगर क्या करें कि हमारी फितरत ही कुछ ऐसी है कि अच्छे दोस्त की कड़वी बातें हमें नागवार गुजरती हैं और एक रूमानी जुमले को गैरजरूरी तौर पर हकीकत में बदलता दोस्त सबसे अजीज महसूस होता है। फिर 'मीठा-मीठा घप्प, कड़वा-कड़वा थू' की मिसाल कायम करते हुए एक अच्छे और सच्चे दोस्त से दूरियां बढ़ाते हमें वक्त नहीं लगता।

फिक्र इतनी न जताओ
दोस्ती के हर दौर में तलाशे जाते रहे मायनों  और इबारतों का दायरा इतना वसीह है कि चंद लफ्जों में शायद ही इसे पूरी तरह समेटा जा सके। इन्हीं मायनों में से एक है फिक्र करना और खयाल रखना। अक्सर दोस्ती की गहराई इस बात से तय की जाती है कि हमें अपने दोस्त की कितनी फ्रिक है, कितना खयाल रखते हैं हम उसका। जैसे-जैसे हम दोस्त की आदतों से वाकिफ होते जाते हैं, उसी के मुताबिक हमारी फिक्र और खयाल रखने की आदत भी मुसलसल बढ़ती जाती है। कई बार तो हम दोस्त की हर छोटी से छोटी हरकत, परेशानी, यहां तक कि हर बात में अपना ख्याल जाहिर करने से भी खुद को रोक नहीं पाते। आहिस्ता-आहिस्ता यह हमारी फितरत बन जाती है और हम पुरजोर लहजे में अपनी मर्जी को दोस्त पर थोपने लग जाते हैं। बिना इस बात की परवाह किए कि अपनी जिंदगी पर उसका भी कोई अख्तियार है। इस मसले को दोबाला होने में तब जरा भी देर नहीं लगेगी जब दोस्त भी 'ठीक कह रहे हो' कहकर हमारी बात से इत्तेफाक जाहिर करेगा। अमूमन दोस्तों के बीच ऐसे हालात पैदा होते हैं, जब फिक्र और खयाल रखने की कोई हद बाकी नहीं रहती, और जो हमारी नजर में खयाल रखना है वह हमारे दोस्त के लिए मुसीबत का सबब बन जाता है। फिर दोस्ती की बेतकल्लुफी हो जाती है नदारद, हम खुद ही उठा लेते है वह दीवार जो दिखाई तो नहीं देती, लेकिन वक्त गुजरने के साथ-साथ जिसकी दीवारों पर वे अनकही पर्तें जम चुकी होती हैं, जिनके पार न तो हमारी आवाज जा पाती है और न ही उस पार से हम तक किसी हर्फ की गूंज पहुंचती है।

बाकी है मोहब्बत
बेखयाली में हम अक्सर इस रौशनदान को बंद कर देते हैं, जिसके जरिए हम तक खुदाई सुकून की रौशनी पहुंचती है। अपनी मुसलसल भागती जिंदगी में हम उन धागों को सीवन उधड़ने के डर से तोड़ते चले जाते हैं, जिनसे हमारा पूरा चोला सिला हुआ है। स्कूल की किताबों में पढ़े सबक हम भले ही भूल जाएं, लेकिन जिंदगी के वे सबक शायद कभी नहीं भूलते जो दोस्तों के साथ बिताए लम्हों में सीखे हैं। जब भी उदासी हमें घेरती है, जब भी हमें किसी मशविरे की जरूरत महसूस होती है, या जब भी खुशगवार लम्हें बिताने का जिक्र उठता है, हमें अपने दोस्त ही याद आते हैं। लड़ते-झगड़ते, मगर हंसते-मुस्कुराते बांहे फैलाए कलेजे से लगाने को तैयार दोस्त। वजह कोई भी रही हो, दरमियां दूरियां कितनी ही हों, फिर भी यादों में सबसे करीब होते हैं दोस्त। जिनकी दोस्ती की इमारत मोहब्बत और यकीन से लबरेज है, जो वक्त के साथ बदलती फितरतों और हालातों के बावजूद आसमान में सिर उठाए पूरी बुलंदी के साथ बरकरार है, यकीनन उनकी तामीर में वह मजबूती है जिसकी दीवारों में वक्त की सीलन को पैबस्त होने का कोई मौका हाथ नहीं लगा है। उनकी इस पुरयकीन तामीर और मजबूत बुनियाद को सलाम। जिनकी तामीर में यह सीलन पैबस्त हुई और दरकनें नमूदार हो गई हैं, उन्हें भी बस एक बार मुस्कुराते हुए बांहें फैलाने की जरूरत है। यकीन जानिए अब भी वहां यकीन की र्इंटें और ईमानदार मोहब्बत का गारा मौजूद है।

(27 मार्च 2011, रविवार को दैनिक जनवाणी, मेरठ में प्रकाशित)

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

कल रात - त्रिवेणी की तरह

यूं तो इस तरह की छोटी-छोटी पंक्तियों की लिखाई कई बार की है, पर कभी किसी नाम के दायरे में नहीं रख सका। देखा तो गुलज़ार साहब की त्रिवेणियों की ही शक्ल है, पर कुछ लोग इन्हें क्षणिकाएं भी कहते हैं। मुझे नहीं पता कि इसे क्या कहा जाना चाहिए। अगर कोई कहे कि गुलज़ार साहब का फार्म लिया है तो ये सच भी होगा, क्योंकि लहज़े में थोड़ा फ़र्क तो पैदा हुआ है। आखिर प्रेरित होना या जो अच्छा लगे उसको दोहराना इंसानी फ़ितरत है।


(१)
कल जिस काग़ज़ पे लिखा था हमने तेरा नाम
बना के कश्ती बारिश की लहरों पे छोड़ दिया है

देर हो गई, आंखें अब भी सूखी लगती हैं।


(२)
कल देर रात तक तुझसे की थीं बातें
कितना हल्का ख़ुद को मैंने महसूस किया था

तेरी दी हुई वो क़िताब अब भी टेबल पर है।


(३)
कल फिर से चांद की किरणों पे बादल छाया था
कुछ टूटी किरणों की किरचें आंगन में गिरी थीं

रातरानी कल फिर से आधी भूखी सोई।


(४)
कल रात शहर की एक अजनबी गली से गुज़रा
दूर तलक कुछ कुत्ते पीछे-पीछे आए

जाने उनको फ़िक्र थी मेरी, या कोई डर था।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

दरम्यां दीवार ज़रा सी



चूंकि थोड़ी रूमानियत हर किसी में होती है... 

आई ग़मे हिज़्रां में रफ़्तार ज़रा सी
होती है चश्म-ओ-अश्क में तक़रार ज़रा सी

याद-ए-यार आए तो दुनिया के वास्ते
रहती है तबीअत भी बीमार ज़रा सी

न शौक़-ए-वस्ल था हमें न आरज़ू-ए-दीद
उठी है फिर भी दरम्यां दीवार ज़रा सी

अच्छे बने तो अच्छों को अच्छे नहीं लगे
आदत भी रहनी चाहिये बेकार ज़रा सी

आसां हो रहगुज़र तो फिर क्या मज़ा ‘साहिल
मंज़िल भी चुन के देखिये दुश्वार ज़रा सी