एक ताज़ा ग़ज़ल -
बज़्मे ख़ुश है सजी हुई रंग शाद डाले बैठे हैं
ये बात अपने तक रही कि ग़म संभाले बैठे हैं
इक अजनबी सा शख़्स है रिश्ता है मुस्कान का
यूँ भी हम जीने का इक अन्दाज़ पाले बैठे हैं
ग़म बरसता खूब है चश्म पुरनम भी मगर
दिल में अब तक रंज की इक आग पाले बैठे हैं
जब से हमने चाँद से बात करना कम किया
जाने किस किस बात के अशआर ढाले बैठे हैं
दोस्ती दुनिया को अपनी ख़ार सी बनकर चुभी
और अपने दिल पे हम अब ख़ाक डाले बैठे हैं
धीरे धीरे झर गईं शाख से सब पत्तियाँ
हम अभी भी छाँव के कुछ ख़्वाब पाले बैठे हैं।
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