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शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

ख़रामा ख़रामा गजब कर रहे हैं


ख़रामा ख़रामा गजब कर रहे हैं
फ़स्ल-ए-मोहब्बत हड़प कर रहे हैं
हमारी रगों में ज़हर भर रहे हैं

था उन्वान तो ख़ूबसूरत बड़ा
अंजाम पर मुँह के बल गिर पड़ा
किरदार बदलते गए, रंग भी
इक अफ़साने में हम सफ़र कर रहे हैं

अपनी ज़मीं क्यों गई उनकी जानिब
कोई बता दे कारण मुनासिब
अपने ही घर से बेगाने हुए हम
और दुःख बन के मोती उधर झर रहे हैं

मैं उनके फ़साने सुना तो कई दूँ
ज़ालिम के ज़ुल्मों की ला तो बही दूँ
मगर मेरे मुंसिफ़ की देखो अदा तो
कागज़ पे कागज़ महज़ धर रहे हैं

मैं क़तरा सही पर हूँ मौजों का ज़रिया
है अपना सफ़र जैसे इक बहता दरिया
कल-कल तुम इसकी मधुर ही न जानो
कि तूफ़ान इसमें कई भर रहे हैं। 

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

वाह गान में छुपे आह सुर...

बीते कुछ महीनों, सालों में अक्सर ट्रेन में गा-बजाकर पैसा मांगने वालो को देखकर दिल में उठी कुलबुलाहट को शांत करने के लिए उनसे कुछ बेतरतीब बातें की थीं. और जब से उनकी जुबानी, जो कुछ जाना, वो किसी स्थायी और अंतरे की तरह लगातार ज़ेहन में बजता रहा. उनकी लय, ताल और तान में जो सुर शामिल थे, वे 'सा' से 'सा' तक के सात सुरों के अलावा भी थे, जो डायरी की शक्ल में मैंने लिख छोड़े थे, उनसे की गई बेतरतीब बातों की ही तरह बिखरे हुए. थोड़ी कोशिश की थी तरतीब में सजाने की, ताकि कोई धुन बन सके, इसी का नतीजा है यह, जो 'वाह गान में छुपे आह सुरों' के रूप में सामने है. कामयाब कितना हुआ हूँ, पता नहीं....


मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

संग-संग चलो रे भाई

सितम्बर की एक शाम कुछ साथियों के साथ बैठकर गुनगुनाई गईं शुरूआती पंक्तियाँ बजती रहीं दिमाग में किसी टेप की तरह... दिसंबर के आखिरी सप्ताह में नाटक "भूख आग है" की तैयारी के दौरान कुछ और चीज़ों ने जगह बनाई... नतीजा यह गीत... जैसा भी है... पढ़िए... और जो कहना है... कहिये...


संग-संग चलो रे भाई
समझो इतनी बात भाई
हाथ में दो हाथ भाई रे, भाई रे

फिर से है वो रात आई
हर तरफ है घात भाई
हमारे घर की रोटियों तक
इनकी है निगाह भाई
इससे पहले बेच दें ये
हमको अपनी ही ख़ुशी
पहचानो इनकी जात भाई रे, भाई रे

इस घनेरी रात में
दुश्मनों के हाथ में
न तीर न तलवार है
मीठा सा हथियार है
ख़ुशी के ख़्वाब बेचकर
ये झोली अपनी लें न भर
जाग लो इस रात भाई रे, भाई रे

हसरतों को क्या हुआ
रास्तों को क्या हुआ
सहमी सी है हर हँसी
है रौशनी बुझी-बुझी
भोर आएगी मगर
तुम करो इतना अगर
तुम्हे सुबह का वास्ता
हाथ में दो हाथ भाई रे, भाई रे...

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

चुनावी मंगल गान...

चुनाव की बेला है, हर जगह प्रत्याशी मतदाताओं को लुभाने में लगे हैं, और "बेचारा आम आदमी" किसी विरहिणी की तरह सशंकित है। चुनावी सजन के लिए मन की आशंकाओं को व्यक्त करता एक मंगल गान -


मंगल गाओ री सजन घर आए

सजन घर आए, बलम घर आए
कर मीठी बतियाँ मोहे ललचाए
मोरा मन भरमाए
सखी री सजन घर आए

पैयाँ पड़े मोरे करे मोसे विनती
कहे तोरा साथ न छोडूं मैं अबकी
कपटी कहीं न फिर लूट ले जाए
मोरा मन घबराए
सखी री सजन घर आए

सतरंगी सपनों की लाए चुनरिया
महल छोड़ रहे मोरी छपरिया
बड़ी प्रीत से मोरी पूछे खबरिया
फिर न कहीं बिसराए
सखी री सजन घर आए.