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शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

किसी की आँख में तिनका पड़ा है


शहर में आजकल झगड़ा बड़ा है
किसी की आँख में तिनका पड़ा है

बहुत कमज़ोर आँखें हो गई हैं
अजब ये मोतिया इनमें मढ़ा है

कभी आकर हमारे पास बैठो
पसीना ये नहीं, हीरा जड़ा है

कोई कैसे उसे अब सच बताये
इदारा झूठ का जिसका खड़ा है

वही दिखता है जो वे चाहते हैं
नज़र पे उनकी इक चश्मा चढ़ा है

बटेरों की भी ये कैसी समझ है
कि अंधे हाथ में अक्सर पड़ा है

हमारी भी कहाँ सुनता है ये दिल
न जाने किस से ये रूठा पड़ा है 

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

ख़बर बारूद होती है


शहर की भीड़ में यूँ तो बहुत ज़्यादा निकलते हैं 
मगर कुछ तो हैं सन्नाटे जो अपने साथ चलते हैं 

कोई रस्ता नहीं सच का जहाँ क़दमों को राहत हो 
जहाँ भी जाएँ हम ये आबले भी साथ चलते हैं

उन्हें ख़ुशफ़हमियाँ हैं ये के सबकुछ है यहाँ बेहतर 
हमीं जानें के कब कैसे ये अपने दिन निकलते हैं 

बहुत तामीर मुश्किल है मगर उसको यक़ीं भी है 
अभी मुफ़लिस की आँखों में सुनहरे ख़्वाब पलते हैं 

सभी को फ़िक्र है बेहद दरिंदे क्यों हैं बस्ती में 
यहीं आँचल सरकते के मगर क़िस्से उछलते हैं 

बदल जाता है हाकिम भी निज़ाम-ए-दहर भी लेकिन 
फ़क़त काग़ज़ बदलते हैं कहाँ ये दिन बदलते हैं 

ख़बर जो देते हैं सब को उन्हें कोई ख़बर ये दे 
ख़बर बारूद होती है शहर इससे भी जलते हैं

रविवार, 20 जुलाई 2014

अक्षर-अक्षर ढलती रात


काग़ज़ स्याही कलम दवात
अक्षर-अक्षर ढलती रात

बादल ख़्वाब सितारे चाँद
गहरी बुझती जलती रात

ढोंगी लम्पट कुंठित लोग
बस्ती में इनकी इफ़रात

गली-मोहल्ला मुल्क़-जहान
खींचा-तानी झगड़े घात

गोली भाले ख़ंजर आग
फिरते पूछें सबकी जात

मज़हब दौलत सत्ता नाक
हत्या शोषण धोखा लात

सैनिक जनता जंग फ़साद
राजा जीते, अपनी मात

नदिया जंगल खेत कछार
सब के सब पे उसकी घात

मरहम नश्तर ज़हर सबात
जाने क्या हो उसकी बात.

सोमवार, 19 मई 2014

अच्छे दिन आने वाले हैं



बीत गए थे जो फिर से क़िस्से दुहराने वाले हैं
शोर बड़ा घनघोर है ये अच्छे दिन आने वाले हैं

अभी समझ की देहरी तक जो पहुँचे हैं मुश्किल से
उन नादानों के फिर से सपने भरमाने वाले हैं

देख-भाल के सोच-समझ के खाद-पानी ये डाला है
नागफनी के पौधों से आलम हरियाने वाले हैं

फूल दिखा कर सुंदरता का भरम बनाये रखा है
मिलते ही मौक़ा मुँह  कीचड़ मल जाने वाले हैं

सुबह-ओ-शाम रात-दोपहर हमने जिसको बीना है
उस चादर पर तेल छिड़क लपटें उठवाने वाले हैं

औरत देवी घर की ज़ीनत मैला धोना पुण्य का काम
मनु-सूत्र को वो फिर से जड़ में रखवाने वाले हैं

क्या होगा, कैसे होगा, ये मत पूछो बिलकुल भी
सारे मिलकर भजन करो अच्छे दिन आने वाले हैं.

सोमवार, 10 मार्च 2014

हद्द है...


ज़िद पे अपनी वो अड़े हैं, हद्द है
हम इबादत में पड़े हैं, हद्द है

लाख समझाने की कोशिश हो चुकीं
चिकने लेकिन वो घड़े हैं, हद्द है

जिनको बहा देने थे सारे बाँध वो
अश्क़ मोती से जड़े हैं, हद्द है

बेतरह टूटे हैं कई-कई बार हम
हाँ मगर अब भी खड़े हैं, हद्द है

हाथ में है चाँद लेकिन पाँव तो
अब भी मिट्टी में गड़े हैं, हद्द है

धर्म, जाति, वर्ग और ये वोट बैंक
इन्सान के कितने धड़े हैं, हद्द है.

बुधवार, 17 जुलाई 2013

निशाँ कुछ बचे हैं मिटाते-मिटाते


तीन साल पहले एक शेर कहा था, दो साल पहले दो और कहे और फिर तीन शेर अभी कुछ दिन पहले। तीन साल का सफ़र तय करके एक गज़ल बनी और मजे की बात यह कि मतला, जो किसी ग़ज़ल का प्रस्थान बिंदु होता है और सबसे पहले अस्तित्व में आता है, सबसे आख़िर में कहा गया। बहरहाल ग़ज़ल यूं है-

हम रह गए थे बुलाते-बुलाते
कुछ अरमान जागे सुलाते-सुलाते

लगता नहीं जी कहीं अब हमारा
जो तुम याद आए भुलाते-भुलाते

बस इक ख़ता ने ये अंजाम पाया
नज़र मिल गई थी चुराते-चुराते

निस्बत तो उसको हमसे भी थी कुछ
न यूँ अश्क़ बोता छुपाते-छुपाते

यूँ तो शहर ये बदला बहुत है
निशाँ कुछ बचे हैं मिटाते-मिटाते

कम तो नहीं है 'साहिल' कि इक दिन
वो हँस पड़ा था रुलाते-रुलाते।

मंगलवार, 11 जून 2013

चंद लम्हे असास रखे थे


चंद लम्हे असास रखे थे          
रंज कुछ अपने पास रखे थे 

तज़रिबे होते नहीं सब मीठे 
हमने नमकीन ख़ास चखे थे 

आसमां में दिखे थे कुछ बादल             
ख़ाली बर्तन भी पास रखे थे 

एक कमरे का मकाँ था जिसमें 
सारी दुनिया के ख़्वाब रखे थे 

मिल गए माज़ी के बक्से में 
कितने उधड़े लिबास रखे थे 

ख़ुद पे उतरेगा कहाँ जाना था 
जाने कब से ये ताब रखे थे 

एक ख़ामोश ग़ज़ल सा था वो 
क़ैद जिसके मजाज़ रखे थे 

वक़्त बदला तो नहीं है यूँ ही 
हमने कुछ नगमे साज़ रखे थे 

जब सुलगते थे धुआँ उठता था 
शोले फ़ितरत में आब रखे थे 

रोज़-ए-अव्वल ही से दुनिया में 
प्यार पे सख्त पास रखे थे 

पारा-पारा ही मिले हैं अक्सर 
कल के हिस्से में आज रखे थे 

अहद का नफ़ा-ज़ियाँ क्या है 
हमने कब ये हिसाब रखे थे 

कच्ची मिट्टी से मकाँ ऊँचे तक 
सबके अपने अज़ाब रखे थे 

चलो तामीर पूरी करते हैं 
कुछ अधूरे से ख़्वाब रखे थे।

असास: बुनियाद /नींव, माज़ी: इतिहास, ताब: गुस्सा, मजाज़: कानूनी रूप से स्वीकृत बात, आब: पानी, 
रोज़-ए-अव्वल: पहला दिन, पास: कब्जा, पारा-पारा: खंड-खंड /टुकड़े-टुकड़े, अहद: वादा, नफ़ा-जियां: लाभ-हानि, अज़ाब: मुश्किलें।

रविवार, 9 जून 2013

ये ख़ून नज़र किसका...

यूँ तो हर एक हाथ उठा है दुआ में
तेज़ाब किसने फिर ये फेंका है हवा में

क्या बात है कि जिससे बरहम है ज़माना
हर सिम्त कोई खौफ़ सा उठा है फ़िज़ा में

जो पीर थी हमारी धू-धू के जल रही
पर ध्यान अब भी उनका ज़्यादा है अदा में

बरसात का है मौसम बादल हैं तुम्हारे
ये ख़ून नज़र किसका आता है घटा में

घर से थे पाँव निकले मंजिल के सफ़र पे
हर मोड़ इस सफ़र का काटा है गुमां में

'साहिल' सुनो की लहरें ख़ामोश हैं बहुत
कोई नाला मगर इनका आता है सदा में।

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

ये भी कोई काम हुआ


चुपके-चुपके दिन बीता, चुपके से ही रात ढली
जब भी अपना ज़िक्र चला, ख़ामोशी ही साथ चली

अब इतने दरवाज़े हैं, कातिल जाने किससे निकला
ख़्वाब बेचती मजलिस में, मुझको ज़िंदा लाश मिली

झोले में हर चीज भरी है, नींद से ले के ख़्वाब तलक
क्या हासिल है इसका जब, धज्जी-धज्जी रात मिली

मैं सोचूँ उनके कहने से, लिखूँ तो उनके अल्फ़ाज़
ये भी कोई काम हुआ, इससे तो बेगार भली

नक़्श-ए-पा बाज़ारी के, हैं जो गहरे तो भी क्या
जो भी इनकी राह चला, आख़िरकर तो मात मिली

इक दिन तो ऐसा आए, लरज़े न धमके आवाज़
कहते-कहते हाँ जी हुज़ूर, किसको कितनी ख़ैरात मिली.


शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कुछ कदम...


कुछ साथ चले तुम कदम काफ़ी है
कोई साथ मिला ये भरम काफ़ी है

मंज़िल-ए-दिल का पता यूं भी सही
हासिल-ए-सब्र-ओ-सदा यूं भी सही
कितना है ज़ब्त कितने उथले हैं
अपनी सीरत का पता यूं भी सही
जो तुमने याद दिलाया वो दम काफ़ी है

चुपचाप रहे लब कोई बात नहीं
सुबह के नाम रही शब कोई बात नहीं
मुश्क़िलें आती रहीं शिकवे भी होते रहे
लाख पहरों में रहा हक़ कोई बात नहीं
न हुई आंख तुम्हारी जो नम काफी है

आएगा वक़्त भी जब न इम्तिहां होगा
ख़िज्र न होगा कोई अपना ही इम्कां होगा
ज़र्द पत्तों का भी तो रंग होता है कोई
जो जल उठेंगे रोशन तो कुछ समां होगा
जो हसरतों में ढला है वो ख़म काफी है।

शनिवार, 21 जुलाई 2012

आज बस कुछ चीथड़े हैं हाथ में...


हर तरफ बर्बर शिकारी घात में, क्या करें
रास्ते पर ही चलें या ओट में, क्या करें

संवेदनाएं लुट गईं  उस महजबीं के साथ कल
आज बस कुछ चीथड़े हैं हाथ में, क्या करें

इक दिन पहनकर देखिए शर्म-ओ-हया
भूलकर सारी नसीहत पूछोगे, क्या करें

न छुई उंगली भी तो क्या फ़र्क है
तन-बदन नजरों से है छलनी किया, क्या करें

दर्द कुछ ऐसा है कि किससे कहें
मरहम लगाते हाथ में भी है सुआ, क्या करें

है एक दुश्मन, दोस्त इक, इक अजनबी
सबका मक़सद एक है बस लूटना, क्या करें

जब तक सलामत वो नहीं पहुंचा उधर
इस तरफ बढ़ती रही बेज़ारगी, क्या करें

सबकी ज़ुबां पर जिक्र है, ऐसा हुआ
कोई ये कहता नहीं क्योंकर हुआ, क्या करें

बाद उसके जाने के आलम था ये
भटका किये, सोचा किये हम हर घड़ी, क्या करें

शनिवार, 26 मई 2012

छोड़ो ये बेकार की बातें


अच्छी बातें, प्यारी बातें
छोड़ो ये बेकार की बातें

दो पल हंसकर बोले थे
बन बैठी हैं प्यार की बातें

उसकी ग़लती इतनी थी
कर बैठा था ख़ार-सी बातें

दोस्त बहुत गहरे हैं लेकिन
हो गई हैं दुश्वार भी बातें

आजिज़ अपनों से आकर
करता है बेज़ार-सी बातें

छूट गया वो हमसे ‘साहिल’
डुबा न दें मझधार-सी बातें

बुधवार, 16 मई 2012

मेरा हक़ तो मिल जाता...


दुनिया भर की बातों में अपनी सुनना सीख गया
बातों से निकली बातों को अब मैं गुनना सीख गया

अब कितने दिन रह पाएगी इस घर में वीरानी ये
मैं दीवारों की सीलन में तस्वीरें बुनना सीख गया

मेरा हक़ तो मिल जाता येन-केन-प्रकरेण मुझे
अपने जैसों की ख़ातिर मैं सिर धुनना सीख गया

उनकी नज़रों में बेशक अब भी ख़ाली हाथ सही
बेहतर दुनिया के टुकड़े पर मैं चुनना सीख गया

झूठ बोलता हूं अक्सर ताकि उनको दुःख न हो
सच के गहरे ज़ख़्मों को मैं तो सिलना सीख गया

बात मज़े की इतनी है ‘साहिल’ चुप-चुप बैठा है
ख़ामोश ज़ुबां में वो भी अब कहना-सुनना सीख गया

शनिवार, 24 मार्च 2012

उनको नहीं हूँ मैं

न जाने कौन किस बात से मुझको समझ जाये
अब तक तो वरना सबके लिए बस बतकही हूँ मैं


एक चुभन है जो पूछता हूँ सबके दर्द की वजहें
किसी ने मुझसे पूछा नहीं परेशां तो नहीं हूँ मैं

बोलता हूँ इसलिए कि कुछ तो वज़न कम हो
कोई सुनता नहीं मुझे क्या जानता नहीं हूँ मैं

गले पड़ता हूँ मैं अक्सर ये होता है इसलिए
वो बहुत हैं मुझे अजीज़ उनको नहीं हूँ मैं

न कोई कहने वाला है न कोई सुनने वाला है
अपने होंठ से बस कान तक की रफ्तागी हूँ मैं

रविवार, 8 जनवरी 2012

हर बात तो कहता रहा...

न हमने ही कोई बात की, न उसने ही हाल-ए-दिल कहा
खामोशी का एक तार था, जो दरमियाँ बजता रहा

कुछ लफ्ज़ थे जो कहे नहीं, सुने मगर फिर भी गए
चुपचाप लब, पर सरगोशियों का सिलसिला चलता रहा

इक शिकायत उसे रही, मैं दिखा नहीं हँसते हुए
वो ही तो था मेरा आइना, जैसा मैं था दिखता रहा

लिखूं जो उसको ख़त कभी, लिखूंगा क्या उलझन में हूँ
वो इतना मेरे करीब है, हर बात तो कहता रहा

अपनी ख़ामोशी से तू यूँ ही, लेना साहिल हौसला
मौज-ए-दरिया सा जहां, उठता रहा गिरता रहा.