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शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

साम्प्रदायिकता और सरकार: एक पंथ दो काज का नया उदाहरण


16 मई के बाद से अब तक की अवधि में ऐसे कई मुद्दे रहे हैं जो बेहद संक्रामक ढंग से लोगों तक पहुंचे हैं. इसे यूँ कहा जाये तो ज़्यादा सटीक होगा कि कई मुद्दे जनता के बीच संक्रामक बनाकर छोड़े गए हैं. सरकार और उससे जुड़े तमाम हिन्दूवादी संगठन पूरी गंभीरता से इस काम में जुटे हुए हैं. क्यों? इसका तमाम हलकों से एक ही जवाब आता है – ‘सांप्रदायिक राजनीति’. लेकिन बात इतनी सरल नहीं है. बेशक विश्व हिन्दू परिषद्, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, बजरंग दल, अखिल भारतीय हिन्दू महासभा और इन जैसे तमाम संगठनों की नींव साम्प्रदायिकता है, इसी पर उनकी इमारत खड़ी है और उनकी हालिया गतिविधियाँ भी इसी धारा से उपजी हैं. भारतीय जनता पार्टी भी इन्हीं धाराओं में से एक है यह भी स्पष्ट है. बावजूद इसके एक तथ्य यह भी है कि भाजपा के पास फ़िलहाल देश को चलाने की ज़िम्मेदारी है और यह दल इतना बेवकूफ़ भी नहीं है कि वर्तमान स्थितियों में सिर्फ़ ‘हिंदुत्व’ के लिए अपने राजनैतिक दल होने को दांव पर लगा दे. लोकतान्त्रिक व्यवस्था में एक राजनैतिक दल होने के नाते भाजपा को यह अच्छी तरह पता है कि सिर्फ़ हिंदुत्व के दम पर सत्ता की लड़ाई में टिके रह पाना मुश्किल है, खासकर तब जबकि अच्छा-खासा हिन्दू पहचान वाला तबका भी उसके इस एजेंडे को नकारता हो. लोकसभा चुनावों में भाजपा के घोषणा-पत्र में हिंदुत्व का प्रतिशत इस बात को साफ भी करता है. भले ही ‘मोदी पर विश्वास’ कहकर प्रचारित किया जा रहा हो लेकिन यह उन्हें भी पता है कि लोकसभा चुनावों की जीत ‘कांग्रेस पर अविश्वास’ का ‘आकस्मिक लाभ’ है, जो विकास के ऑफर ने उसकी झोली में ला पटका है.

बहरहाल, भाजपा अब इस देश की सरकार है और ऐसी सरकार है जिसके सामने मजबूत विपक्ष भी नहीं है. इस स्थिति में उसके पास यह सुभीता ज़्यादा है कि वह अपनी मनचाही व्यवस्था बिना अधिक विरोध के लागू कर सकती है. लेकिन ऐसी सरकार के सामने भी एक चुनौती तो होती ही है कि जनता को सब दिखाई देता है, पल-पल की ख़बर रखने वाला मीडिया यह ख़बर तक लोगों के पास पहुँचा देता है कि सरकार करने क्या जा रही है. फिर जनता, लेखक, बुद्धिजीवी और तमाम विवेकशील वर्ग उसके कर्मों-कुकर्मों का विश्लेषण, आलोचना और विरोध करते हैं. सड़कों पर भी उतर आते हैं, जो उसके लिए असुविधाजनक होते हैं. इस असुविधा से बचने का बहुत ही शातिराना तरीका हैं 16 मई के बाद से हुई हलचलें. इसके लिए भाजपा ने अपनी विरासत का ही बखूबी इस्तेमाल किया है.

अपने पिछले अनुभवों से भाजपा और उसके सहयोगी संगठन यह बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि किसको कहाँ उलझाये रखा जा सकता है. वे जानते हैं कि ‘साम्प्रदायिकता’ इस देश की बड़ी समस्या है और कोई भी ऐसा वाकया/मुद्दा जिससे सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हो सके वह इस हद तक लोगों का ध्यान खींचेगा और बहस-मुबाहिसों की शक्ल अख्तियार करेगा कि किसी दूसरे फ्रंट पर चल रही गतिविधियों की ओर ध्यान आसानी से नहीं जाएगा. बयानवीर तमाम आपत्तिजनक बयान देते रहेंगे, सरकार चुप्पी साधे रहेगी. यह इनकी ‘एक पंथ दो काज’ वाली रणनीति है. एक तरफ़ लोगों का ध्यान भटकाकर सरकार अपना काम करती रहेगी, दूसरी तरफ़ इन संगठनों के माध्यम से साम्प्रदायिकता पोषित होती रहेगी. इससे एक तीसरा काम भी होगा कि मीडिया का ज़्यादातर समय उपजे तनाव को कवर करते बीतेगा. राजनीति के गलियारों की खबरों में भी संसद-विधान सभाओं में क्या हुआ की तुलना में साम्प्रदायिकता पर सरकार के रुख को टटोला जा रहा होगा. वर्तमान में मीडिया पर जो बिक जाने के आरोप हैं उनमें कितनी सच्चाई है यह तो अलग बात है पर यह तीसरा काम ज़रूर हुआ और ‘एक पंथ दो काज’ की रणनीति भी किसी हद तक सफल रही है, कम से कम अब तक तो.

ज़रा पीछे लौटकर देखें, जब ‘लव-जिहाद’ का शिगूफ़ा छोड़ा गया था. मीडिया में देश के अलग-अलग हिस्सों से लव-जिहाद से जुड़ी ख़बरें छायी हुई थीं. कहीं इन संगठनों द्वारा तथाकथित लव-जिहाद को रोकने के लिए की जा रही गतिविधियों की ख़बर थी, कहीं इनका विरोध कर रहे लोगों की ख़बरें थीं और कहीं ऐसे गाँव की ख़बरें जहाँ हिन्दू-मुसलिम का कोई भेद ही नहीं है. प्राइम-टाइम में बहसें हो रहीं थी, सोशल मीडिया की दीवारें रंगी जा रहीं थीं लव-जिहाद पर. हम-आप इस मसले पर अपनी-अपनी तरह से राय व्यक्त कर रहे थे. यह होना भी चाहिए था, ज़रूरी भी था. पर यही वह वक़्त भी था जब विभिन्न क्षेत्रों में एफ़डीआई को अमली जामा पहनाया जा रहा था. बहस और रायशुमारी इस पर भी हुई लेकिन लव-जिहाद की खींच-तान में यह मुद्दा उस तरह जनता के बीच पहुँच ही नहीं सका कि ट्रेन में रोज़ सफ़र करने वाला एक सामान्य आदमी बढ़े हुए किराये के अलावा एफ़डीआई के और पहलुओं पर सोच भी सके. कितने बीमाधारकों ने बीमाक्षेत्र में एफ़डीआई लागू होने की सम्भावना के वक़्त इस पर चर्चा की, कम से कम मेरी नज़र में तो कोई नहीं आया. 

जो लोग ढूंढकर संसदीय गतिविधि की ख़बरें देखते हैं - जिनका कि बहुत अधिक प्रतिशत भी नहीं है – को छोड़ दें तो अधिकांश लोगों को एफ़डीआई लागू करने से लेकर दवाओं की कीमतें बढ़ने, आत्महत्या को अपराध न मानने, स्वास्थ्य और शिक्षा बजट में कटौती, और भूमि अधिग्रहण के नये मसौदे तक तमाम मसलों में ठीक-ठाक ख़बर तब मिली है जब काफ़ी हद तक निर्णय लिया जा चुका, कुछ मामलों में तो अंतिम निर्णय ही. और ऐसा इसलिए कि जब इन मुद्दों से जुड़े सरकार के निर्णय अपना रूप ले रहे थे, हम भाजपा, आरएसएस, विहिप के तैयार किये लव-जिहाद, धर्मान्तरण, घर वापसी, सांप्रदायिक तनाव के चक्रव्यूह में फँसे हुए थे. अभी जब भूमि अधिग्रहण का नया मसौदा सामने आया है तब प्रतिरोध की ताक़त का एक बड़ा हिस्सा इस बहस में खर्च हो रहा है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में वायुयान थे या नहीं. स्थिति यह है कि आम-आदमी से लेकर विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों, मीडिया सबको उलझाये रखने का इंतज़ाम सरकार और उसकी टीम ने कर दिया है और कर रही है.

ऐसा नहीं है कि लव-जिहाद, घर-वापसी, बत्रा जी के इतिहास, प्राचीन भारतीय विज्ञान आदि मुद्दों को नज़रंदाज़ कर देना चाहिए. अतीत के गौरव और संस्कृति के नाम पर की जा रही भगवाकरण की इन तमाम सरकारी - ग़ैर सरकारी कोशिशों की गंभीरता और प्रतिबद्धता के साथ तार्किक मुखालफ़त होनी ही चाहिए. लेकिन इस पर भी उतनी ही प्रतिबद्धता से नज़र रखने की और प्रतिरोध दर्ज करने की ज़रूरत है कि ‘सरकार’ जिस विकास का सपना दिखाकर आयी थी, उससे जुड़े कैसे क़दम उठा रही है. वरना प्राचीन इतिहास में विमान मिलें न मिलें, देश की आबादी का बड़ा हिस्सा बाज़ार की भेंट चढ़ अपना भविष्य गंवा चुका होगा.

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

तात्कालिक राहत


गलती अपनी ही थी
परवाह ही न की
अब भुगतनी तो होगी ही तकलीफ़ 

हरारत महसूस होने पर हर बार
गले से उतार ली कोई क्रोसिन
टूटा शरीर, फैलने लगा दर्द तो 
गटक ली कॉम्बीफ्लेम या उबाल लिया 
देसी नुस्खा हल्दी वाला दूध
ख़ून में घुलते गए वायरस और हम
रोकते रहे शरीर का गरम होना
दबाते रहे आँखों की जलन 
मार-मार कर पानी के छींटे

मिलती रही तात्कालिक राहत
बना रहा भ्रम ठीक होने का 
कभी किया नहीं ढंग से इलाज
दोहराते रहे सावधानी ही बचाव है 
पर रखी नहीं कभी
नीम-हकीम बहुत थे हमारे आसपास
उनके पास सौ नुस्खों वाली किताब थी,
हमने छोड़ दिया उनके हवाले खुद को 
वे देते रहे हर तरह के बुखार में पेरासिटामोल

गलती अपनी ही थी
नहीं होता जब तक ढंग से इलाज
झेलनी ही होगी तकलीफ़ 
जागना ही होगा रात भर

बीमारियों ने नींद उड़ा रखी है....

कोई बताएगा
कितनी रातें नहीं सोया ये मुल्क?

बुधवार, 14 अगस्त 2013

विज्ञापनों का आपत्तिजनक रंग


ज़रा कल्पना कीजिये- 'एक पुरुष का सिर दर्द से फटा जा रहा है और आसपास से लड़कियां उसकी तरफ देखकर नाक-भौं सिकोड़ती हुई दूर-दूर से निकली चली जा रही हैं. फिर वो पुरुष सिर दर्द से निजात दिलाने वाली एक गोली खाता है, गोली खाते ही उसका सिर दर्द दूर होता है और लड़कियों की उसी भीड़ से एक सुन्दर सी कन्या आकर उस पुरुष की गोद में बैठ जाती है.'

आप कहेंगे कि ये क्या बेहूदा कल्पना है, पर जनाब नाराज़ होने कि ज़रूरत नहीं है, ये भविष्य में किसी भी दवा कंपनी का विज्ञापन हो सकता है. इन दिनों विज्ञापन जिस ढंग से अपने-अपने ब्रांड के माध्यम से लड़की पटाने की गारंटी करवाते दिख रहे हैं, उसे देखते हुए कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि आने वाले समय में आप ऐसा विज्ञापन देखें जिसमे एक ख़ास कंपनी की दवा खाने से आप पर कोई लड़की मोहित हो जाये, बीमारी ठीक होने का ज़िक्र हो न हो लड़की का मोहित हो जाना ख़ासतौर से दिखाया जायेगा उसमें. जैसे कि अब चश्मे का विज्ञापन नज़र दुरुस्त करने या धूप से आँखों को बचाने के बजाय लड़की को राजी करने के नुस्खे में बदल गया है. 

आज ही एक विज्ञापन देखा- 'लाइब्रेरी में बैठा चश्माधारी लड़का एक लड़की के सामने चाय का प्रस्ताव रखता है, लड़की इनकार कर देती है. यही सीक्वेंस बार-बार दोहराया जाता है, हर बार लड़के के चश्मे का फ्रेम बदला हुआ होता है और हर बार चाय के प्रस्ताव पर लड़की 'नहीं, कभी नहीं से लेकर पुलिस को बुलाये जाने तक के वाक्यों द्वारा कई अलग-अलग तरीकों से इंकार ही करती है.... पर अंतिम बार में जैसे ही लड़का नयी फ्रेम के साथ अपना प्रस्ताव दोहराता है, अगले ही शॉट में लड़की लड़के की गोद में बैठी नज़र आती है और दोनों के हाथ में थमे चाय के कपों में दिल धड़क रहा होता है... फिर दिखाई देता है उस चश्मा कंपनी का नाम.'

अब आप ही बताएं ये चश्मे का विज्ञापन है या यह बताया जा रहा है कि जनाब हमारी कंपनी का चश्मा पहनिए और लड़की पटाइए. आज अधिकतर विज्ञापन तकरीबन यही भाव लिए हुए हैं. फलां कंपनी के रेजर से दाढ़ी बनाइये, फलां कंपनी का अंडरवियर पहनिए, फलां कंपनी का परफ्यूम लगाइए, फलां कंपनी का टूथपेस्ट इस्तेमाल कीजिये, फलां च्युइंगगम चबाइए, और कुछ हो न हो एक सुन्दर कन्या आपके पहलू में आ जाएगी.

कितना आपत्तिजनक है विज्ञापनों का यह संसार. युवा मस्तिष्क को कुंठाओं से भर देने वाला, प्रेम को महज़ सेक्स के दायरे में समेट देने वाला, संवेदनाओं को वस्तु भर बना देने वाला और स्त्री विरोधी तो निश्चित रूप से है. स्त्री को बस भोग्या बना दिया गया है इन विज्ञापनों में. मगर सबसे तकलीफदेह बात यह है कि इन विज्ञापनों ने धीरे-धीरे दर्शकों को ऐसा बना दिया है कि वे यह सोचते भी नहीं कि आखिर चल क्या रहा है, ये विज्ञापन कैसे उनकी संवेदनाओं और सामाजिकता से खिलवाड़ कर रहे हैं और उन्हें कुंठित किये चले जा रहे हैं.

गुरुवार, 20 जून 2013

नहीं रहना तुम्हारे बंधनों में कैद


सुनो महादेव!
अब नहीं रहना मुझे
तुम्हारी जटाओं में कैद
नहीं बहना वैसे
जैसे तुम नियंत्रित करो
जितनी तुम छूट दो

पहाड़ों पर रहते हुए
बाँधा जैसे तुमने
तुम्हारे अनुयायी भी
बाँधते रहे जगह जगह
रोकते-बाँटते गए
दिखाते गए अपनी-अपनी ताक़त
जब कभी चाहा बहना
स्वतंत्र होकर, निर्विरोध
कहा गया उद्दंड
कि तोड़ दी हैं मर्यादाएं

क्या सब मेरे लिए ही थीं
तुम्हारी नहीं थी कोई?
और तुम्हारे अनुयाइयों की?

जब चाहा ही नहीं तुमने
कि आऊँ मैं समूचे अस्तित्व के साथ
सबके सामने
बाँधे रहे न जाने
किस-किस तरह के जटाबंधनों में
देते रहे बस उतनी ही छूट
कि बस दर्ज होती रहे मेरी उपस्थिति
खुद बने रहे घुमंतू, स्वतंत्र
परवाह ही न की मेरी स्वतंत्रता की

तो क्यों करूँ मैं परवाह
अगर मेरी स्वतंत्रता से
डोलता है तुम्हारा आसन
अगर त्राहिमाम करते हैं
तुम्हारी राह पर चलने वाले

सुनो महादेव!
नहीं रहना अब मुझे
तुम्हारे बंधनों में कैद
मैं बहूँगी पूरे वेग से
पूरी स्वतंत्रता से
सामने आए जो अबकी तुम
बहा ले जाऊँगी तुम्हे भी।

मंगलवार, 18 जून 2013

आडवाणी, मोदी और किसान


इन दिनों भारतीय जनता पार्टी सुर्खियों में है। कारण रहे लालकृष्ण आडवाणी, नरेन्द्र मोदी और बिहार। न्यूज चैनलों, न्यूज पोर्टलों यहां तक कि सोशल मीडिया में भी इस समय अगर चर्चा का कोई केन्द्र है तो बस बीजेपी। एक अरसे तक पार्टी के मास्टर माइंड रहे आडवाणी की अपनी ही पार्टी में ‘घर के रहे न घाट के’ जैसी स्थिति हो जाना निश्चित ही राजनीति के विश्लेषकों और मीडिया के लिए बड़ी ख़बर थी। इसलिए और भी क्योंकि आगामी समय में उनकी जगह नरेंद्र मोदी के बैठे दिखाई देने के आसार नज़र आ रहे हैं। यानी सारथी रथी बनने की ओर अग्रसर है और जो कभी रथी था वह बस टुकुर-टुकुर देखेगा। आडवाणी की इस स्थिति पर टिप्पणी करने वाले कई लोगों का अनुमान है कि अब शायद आडवाणी उस वक्त को याद कर रहे होंगे जब वे नरेन्द्र मोदी की पीठ थपथपा रहे थे। बहुत संभव है कि आडवाणी अपनी गलतियों के लिए भीतर ही भीतर ग्लानि भी अनुभव कर रहे हों।

यहां ‘बोया पेड़ बबूल का तो फूल कहां से पाय’ की कहावत का उपयोग उचित ही होगा। आडवाणी की राजनीति की फसल जिस मौकापरस्ती की जमीन पर लहलहाई उसमें हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता और दंगों पर अपना विकास करने के बीज उन्होंने ही तो बोए थे, जिसकी फसल पहले वे खुद काटते रहे और अब खाद-पानी देकर मोदी काट रहे हैं। यह और बात है कि मोदी ने वक्त की नजाकत समझते हुए इसमें कुछ दूसरी किस्म के बीज भी डाल दिए हैं। बाबरी मस्जिद की घटना से पहले क्या आडवाणी का कद इतना बड़ा था? राम मन्दिर के मुद्दे पर उन्होंने अपनी रोटियां सेंकीं। गुजरात के दंगे के बाद नरेन्द्र मोदी पार्टी के नेशनल हीरो बन गए और अब वे अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। तो इस मौकापरस्ती के खेल में अगर मोदी आडवाणी को किनारे कर आगे बढ़ रहे हैं तो यह कोई अचरज की बात नहीं होनी चाहिए।

हालिया घटना बिहार में बीजेपी-जेडीयू की तकरार है। मोटे तौर पर यह ‘गुड़ से यारी, गुलगुलों से परहेज’ की तरह है, जिसमें आडवाणी गुड़ हैं तो मोदी गुलगुला। लेकिन गौर से देखें तो जिस तरह मोदी भाजपा समर्थक क्षेत्रों में सब पर हावी होते जा रहे हैं, उसके मद्देनजर यह वर्चस्व की लड़ाई ज़्यादा नज़र आती है। हाल ही में हुई सिर-फुटौवल शायद इसी ओर इशारा भी कर रही है। बहरहाल एक तरफ आडवाणी, बीजेपी-जेडीयू वाली उठापटक है और दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी। जहां-जहां भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां हैं, वे गुजरात के विकास के कसीदे पढ़ते नहीं थकते। यह स्पष्ट है कि आगामी चुनावों के लिहाज से मोदी हर तरह से अपने कद को और ऊँचा दिखाने की जुगत में लगे हुए हैं और इसके लिए वे अपने ‘तथाकथित विकास’ को आधार बना रहे हैं। इसी क्रम में हाल ही में सरदार वल्लभ भाई पटेल की 392 फुट ऊंची प्रतिमा के निर्माण की घोषणा के साथ मोदी ने खुद को किसानों का हितैषी दर्शाने की कोशिश भी की है, जो कि मोदी की अवसरवादिता का एक और नमूना है।

गौरतलब है कि इस प्रतिमा के निर्माण के लिए उन्होंने देश के सभी किसानों से लोहे की मांग की है। असल में तो यह राजनीति का एक हथकंडा ही है जिसके सहारे वे देश के उन किसानों के बीच अपनी जगह बनाना चाहते हैं, जिनकी बदहाली का जिम्मा अकेले केन्द्र के सिर पर मढ़़ दिया जाता है। जबकि हकीकत यह है कि किसानों की बदहाली के लिए जितनी जिम्मेदार केन्द्र सरकार है, उतनी ही राज्य सरकारें भी। शायद मोदी यह भूल गए हैं कि उनके अपने राज्य गुजरात में किसान उनसे खुश नहीं हैं।

गुजरात के विकास का ढिंढोरा पीटने वाले मोदी के लिए उनकी सरकार द्वारा किया गया भूमि अधिग्रहण मुसीबत बना ही हुआ है। स्पेशल इन्वेस्टमेंट रीजन के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ गुजरात के चार जिलों के 35 गांवों ने आंदोलन छेड़ रखा है। इस हद तक कि दीवारों पर दर्ज अक्षरों और चस्पां पोस्टरों में सरकारी अधिकारियों और उद्योगपतियों को स्पष्ट चेताया गया है कि वे जमीन अधिग्रहण के मामले में गांव में कदम न रखें अन्यथा उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी। इसी क्षेत्र में किसानों की कई एकड़ उपयोगी जमीन को इस्तेमाल में न आने वाली जमीन बताकर मारुति को दे देने के कारण किसान पहले से ही मोदी सरकार के प्रति गुस्से में हैं। गुजरात के किसान स्पष्ट कहते हैं कि विकास के नाम पर जिस जमीन का अधिग्रहण किया जाता है उस पर सिर्फ उद्योगपतियों का विकास होता है।

29 मई 2013 की एक सूचना के अनुसार जनवरी 2008 से अगस्त 2012 तक गुजरात में 112 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वजह थी सूखा, कर्ज और उसके भुगतान के लिए बैंकों का दबाव। 2005 में जिन किसानों ने फसल सुरक्षा बीमा लिया था, उन्हें सरकार से आज तक एक पैसा भी नहीं मिला है, जबकि किसानों से बीमा के पैसे वसूलने में कोई कोताही नहीं की जाती। गौरतलब है कि 2012 के शुरुआती 5 महीनों में ही 65 किसानों ने आत्महत्या की और यह सिलसिला अब भी जारी है। बावजूद इसके मोदी कृषि मेलों का आयोजन करते हैं और गुजरात में कृषि क्षेत्र की स्थिति बहुत अच्छी होने का दिखावा करते हैं। क्या इन किसानों की मौत के प्रति मोदी सरकार की कोई जवाबदेही नहीं बनती? या फिर मोदी का गुजरात और विकास केवल शहरों और उद्योगपतियों तक ही सीमित है?

मोदी देश के पांच लाख से अधिक गांवों के किसानों से स्टैचू ऑफ़ यूनिटी यानी सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा के निर्माण के लिए लोहा तो मांग रहे हैं, लेकिन शायद उन्हें पता नहीं है कि इसमें शामिल हो सकने वाले 90 लाख लोहे के टुकड़े कम हो चुके हैं और जब तक उनका यह अभियान जोर पकड़ेगा तब तक कमी की यह मात्रा और बढ़ चुकी होगी। ताजा आंकड़ों की मानें तो पिछले एक दशक में देश में 90 लाख किसानों ने कृषि से किनारा कर लिया है और खेतिहर मजदूरों की संख्या में तीन करोड़ 80 लाख की वृद्धि हुई है। लेकिन जब मोदी को अपने ही राज्य के किसानों की दुर्गति नहीं दिखाई देती तो पूरे देश के किसानों की व्यथा से उन्हें क्या लेना-देना। दूसरी बात ये कि अपनी-अपनी परेशानियों में डूबे पूरे देश के किसानों को भी कहां गुजरात के किसानों की स्थिति का अंदाजा होगा। खबरों मे दिखाई देने वाले कृषि मेले बेहतरी का भ्रम फैलाते हैं। अपनी दुर्गति के लिए दोषी ठहराने हेतु किसानों का मुंह कई तरीकों से केंद्र सरकार की ओर मोड़ दिया जाता है, फिर चाहे वह मध्य प्रदेश हो, उत्तर प्रदेश हो या गुजरात। ऐसे में पूरे देश के किसानों में अपनी छवि को ऊंचा करने का अवसर मोदी भला कैसे छोड़ सकते थे, जिसका फायदा चुनावों के इस दौर में उन्हें और उनकी पार्टी को मिल सकता है। इसीलिए देश भर के किसानों से लोहे का टुकड़ा मांगकर उन्होंने मौके का फायदा उठाने की कोशिश की है।

असल में मोदी को किसानों के हालात से कोई सरोकार नहीं है, होता तो वे किसानों के हित में कोई घोषणा करते। वे तो सिर्फ किसानों के खून से लथपथ लोहे के टुकड़ों से सरदार पटेल की प्रतिमा बनवाकर एक मिसाल कायम करना चाहते हैं। दिखाना चाहते हैं कि देखो मैंने स्टैचू ऑफ़ लिबर्टी से दोगुने आकार की प्रतिमा बनवाई। इस प्रतिमा के सहारे वे खुद का कद बड़ा दिखाने के ख्वाहिशमंद हैं। वैसे यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि मोदी किसानों के लोहे की इस प्रतिमा को उसी सरदार सरोवर बांध के किनारे स्थापित करना चाहते हैं, जिसकी नींव में सैकड़ों किसानों के विस्थापन का इतिहास दफन है। शायद मोदी इस ताबूत में एक कील और ठोकना चाहते हैं।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

बीमार मानसिकता और शब्दों से बलात्कार


मुझे नहीं पता कि क्या लिखूँगा? कुछ लिख भी पाऊँगा या नहीं? पर आज बहुत बेचैनी और गुस्सा है। किसके ख़िलाफ़? मुझे नहीं पता। आख़िर पता हो भी कैसे सकता है? कोई एक नाम या शक्ल सामने नहीं है। है तो बस एक विशेष पहचान, एक विशेष भाव, एक बीमार मानसिकता, जिससे ग्रस्त हजारों लोग हमारे बीच हैं। चाहे अपनों की बात हो, चाहे गली-मोहल्ले की या फिर शहर, देश, दुनिया की, एक स्त्री की ‘औकात’ क्या है? क्या सिर्फ यही उसका अंतिम अस्तित्व है कि पुरुष किसी भी बहाने से उसकी देह को भोगे, वास्तविकता में नहीं तो कल्पनालोक में ही सही! 
     छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएं जिस गति से बढ़ रही हैं और जितना उनके बारे में लिखा, कहा जा रहा है वह तो सबके सामने है, पर एक स्त्री के लिए संकट सिर्फ तब ही नहीं है, जब वह पुरुष की पहुँच में है। बहुत सारे लोगों ने किसी लड़के को किसी लड़की के बारे में अनाप-शनाप बकते सुना होगा, आपने भी। यहां तक कि अगर उनके बीच रहे निःतांत निजी अंतरंग संबंधों के बारे में भी सुना हो तो कोई बड़ी बात नहीं। 
पर क्या जो कुछ आपने सुना वह सच ही होता है? जी नहीं, ऐसा कतई जरूरी नहीं है। एक स्त्री का पुरुष की पहुँच में न होना भी इन बातों को जन्म देता है। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी घटनाओं का खुली तरह से उल्लेख करना भी परेशानी का सबब बन सकता है, इसलिए इससे परहेज ही रखूँगा, लेकिन ऐसी कई घटनाओं की तह में जाने का जो नतीजा हासिल हुआ वह यह है कि किसी लड़की के साथ अपने या किसी और के अंतरंग संबंधों के अधिकांश किस्से एक बीमार मानसिकता, यौनिक कुंठा, उस लड़की को हासिल करने की दबी हुई इच्छा और उसके पूरा न होने के कारण उपजे हैं। उदाहरण के लिए बिना व्यक्ति और शहर का नाम लिए एक किस्सा कुछ यूं है- 
     एक लड़की पढ़ाई के लिए किसी दूसरे शहर में थी। वह बीमार हुई तो उसी शहर में मौजूद अपने रिश्तेदार के घर चली गई और तकरीबन 15-20 दिन वहीं रही। जब तबियत ने सुधरने का नाम नहीं लिया तो उसके रिश्तेदार का बेटा, जो कि रिश्ते में उसका भाई था, उसे उसके घर छोड़ आया। लड़की बड़ी ही कमजोर हालत में अपने घर पहुंची और एक महीना वहीं रही। इस दौरान वह घर से बाहर भी बहुत कम निकली। जब वह वापस अपनी पढ़ाई के लिए पहुंची तो सारा माहौल बदला हुआ था। सहपाठी लड़के और लड़कियां उसे अजीब से नज़रों से देखते, शोहदे चुटकियां लेते हुए अभद्र इशारे करते। आखिर ऐसा क्यों हुआ? इसकी वजह तब सामने आई जब उस लड़की का वह भाई, जो मेरा करीबी था, एक दिन बेहद गुस्से में भरा मेरे साथ था। गुस्सा इतना था कि उसकी आवाज़ कांप रही थी, हालात को सही न कर पाने की बेबसी इतनी थी कि गला भर-भर आता था। हुआ यह था कि उस लड़की के साथ ‘संपर्क’ बढ़ाने के ख़्वाहिशमंद एक लड़के ने शराब के नशे में उस लड़की को लेकर अपने कुंठित सपने कुछ दोस्तों को कह सुनाए, कुछ इस ढंग से कि ‘मेरा उसके साथ पुराना संबंध है..., वह बहुत .... है, दोनों कई रातें साथ गुजार चुके हैं आदि-आदि’ और फिर अंतरंग संबंधों का वर्णन। 
     ...अब बात तो बात होती है, एक मुंह से निकली तो सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। कुछ उस लड़के की कल्पना और कुछ जिस-जिस तक बात पहुँची उसकी कल्पना, लब्बोलुआब यह कि लड़की प्रेगनेंट हो गई थी, गर्भपात कराना पड़ा जिसकी वजह से उसकी हालत गिर गई थी। बात यहाँ-वहाँ फैली और लड़की के दामन पर एक ऐसा दाग लगा गई कि वह न जाने कितनी नज़रों के लिए बस एक ‘भोग्या’ भर बन कर रह गई। एक लड़के की कुंठित मानसिकता के अपराध की सजा यह कि वह लड़की कहीं निकलती तो अपनी नज़रें नीची करके, ताकि वह किसी की नजरों का सामना न करे जिनमें तमाम तरह के सवाल और कीड़े बिलबिलाते दिखाई देते थे। 
     ऐसे कई मामलों की कभी भनक पड़ी, तो कई के बारे में बहुत करीब से जाना। आज जब फिर से किसी के दामन पर ऐसी ही कीचड़ उछलते देखी (जिसके निर्दोष होने का इत्तफ़ाकन मैं खुद गवाह हूँ) तो उस लड़की के भाई के रुंधे गले से निकली वह बात किसी खंजर की तरह फिर दिल में उतर गई कि ‘भैया, मुझे पता है कि मेरी बहिन निर्दोष है। अगर यह बात सच होती तो क्या हमें पता न चलता? वह जिस दिन बीमार हुई थी उसी दिन हमारे घर आ गई थी। मैं खुद उसे डॉक्टर के पास लेकर गया था, उसे तो बस टाइफाइड हुआ था। लेकिन यह बात मैं किस-किस को समझाऊँ? किस-किस का मुँह पकड़ूँ? उस ..... लड़के को मैं खुद मार डालूं या पुलिस कार्यवाही करूँ, तो भी यह बदनामी पीछा नहीं छोड़ेगी। बेचारी को घर से निकलते डर लगता है। आखिर मैं करूँ तो क्या करूँ?’ 
     उसके इस ‘क्या करूँ?’ का जवाब न तब मेरे पास था, न आज है। किसी एक को समझाया भी जा सकता है, पर..... बात तो बात होती है, एक बार मुँह से निकली तो सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। 
     बलात्कार को एक गंभीर अपराध माना जाता है। क्या यह भी बलात्कार नहीं, जिसे एक कुंठित बीमार मानसिकता महज शब्दों से ही अंजाम देती है। क्या इन घटनाओं की शिकार लड़कियाँ भी उसी मानसिक वेदना और परिस्थिति से नहीं गुजरतीं, जिनसे एक बलात्कार पीड़िता गुजरती है। वह भाई ‘क्या करूँ?’ का गंभीर प्रश्न करने के बाद रोने लगा था। ऐसे में इन परिस्थितियों की शिकार हुई लड़की पर क्या गुजरती होगी, इसका शायद अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। 
     छोटे-बड़े कस्बों-शहरों में न जाने कितनी लड़कियाँ रोज ही इस कुंठाग्रस्त मानसिकता द्वारा शब्दों से किए गए बलात्कार की शिकार होती हैं। शायद उससे कहीं ज्यादा जितनी कि शारीरिक बलात्कार की शिकार होती हैं। और जब शारीरिक अपराध की शिकायत दर्ज कराने में आज भी बदनामी बढ़ने के ख़तरे के बारे में पहले सोचा जाता हो, वहाँ  इस शाब्दिक अपराध की शिकायत भला कितनी होती होगी? और शिकायत भी क्या कि ‘यह कल्पनाओ में मेरे साथ.....’ या ‘इसने लोगों से कहा कि इसने मुझे इस-इस तरह से....।’ 
     यहाँ यह बात भी गौरतलब है कि कस्बों में पुलिस को रिपोर्ट लिखाते वक्त यह लिखाने से काम नहीं चलता कि ‘अश्लील बातें कहीं’ या ‘अश्लील हरकतें कीं’, वह सब हू-ब-हू वैसा ही लिखाना होता है, जैसा कि कहा गया या किया गया। माँ-बहन की गालियों से लेकर अंगों के नाम और उनसे की गई हरकतों तक। और फिर इस तरह के मामलों को सुलझने में लगने वाले वक्त के दौरान न जाने कितनी ही बार लजा देने वाली परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। पुरुष इस बेशर्मी का सार्वजनिक रूप से जितना आदी और अभ्यस्त है, महिलाएँ अब तक नहीं हैं। शायद यही वजह है कि इस अपराध की शिकायत अमूमन नहीं ही होती और एक व्यक्ति की कुंठा और सड़ी-गली कल्पनाओं की बदबू का बादल एक निर्दोष के जीवन में कई बार इस तरह छा जाता है कि उसके कॅरियर और भविष्य के उजालों को ग्रहण लग जाता है। 
     वर्तमान स्थितियों में यह मानसिकता सिर्फ शब्दों को मुँह से निकालने तक ही सीमित नहीं है। इंटरनेट पर न जाने कितनी लड़कियों की पहचान का इस्तेमाल करके फेक अकाउंट हैं, पोर्न साइट्स बॉलीवुड, हॉलीवुड से लेकर आपके-हमारे बीच की स्कूल-कॉलेज की छात्राओं, घरेलू और कामकाजी महिलाओं की मॉर्फ़ और फेक तस्वीरों से भरी पड़ी हैं। तकनीक का इस तरह दुरुपयोग करने में भारत सबसे अव्वल है। बावजूद इसके आलम यह है कि इन फेक अकाउंट्स की शिकायत करने के बाद भी उनमें से कई बंद नहीं होते, चलते रहते हैं।
     यह सच है कि किसी के दिमाग पर काबू नहीं पाया जा सकता है, उसे सोचने से रोका नहीं जा सकता लेकिन गुस्सा इस बात का है कि इस तरह की सोच को व्यक्त करने पर भी जो दोषी है उसके बजाय निर्दोष ही क्यों दण्डित और परेशान होता है? क्या कभी सुना है कि किसी लड़की ने एक लड़के के बारे में ऐसा-वैसा कुछ कहा हो और उस लड़के का किसी से नजरें मिलाना मुश्किल हो गया हो? नहीं न! और अगर लड़के के बारे में ऐसा कह भी दिया जाए, तो भी लड़का ‘मर्द का बच्चा’ कहलाएगा, मगर लड़की, एक स्त्री..... क्या है वह? वह तो इन बीमारों के लिए बस एक मांस का लोथड़ा भर है और बाकी समाज के लिए ‘इज्जत’ की टोकरी सिर पर उठाने वाली सबसे कमजोर कड़ी। किसी ने कुछ कहा नहीं कि ‘इज्जत’ गई नहीं। 
     कितनी हैरत की बात है कि बीमार पुरुष है और तकलीफ स्त्री सहन करती है, बेइज्जत महिलाओं को किया जाता है और इज्जत की टोकरी भी उन्हीं के सिर पर लाद दी जाती है। इलाज भी महिलाओं के लिए नियम बनाकर खोजे जाते हैं। सभ्यता, संस्कृति और स्त्री के पूजनीय होने की झंडाबरदारी करने वाले बताएँ कि उनके पास इस बीमारी का क्या इलाज है? यह सवाल इसलिए नहीं है कि कोई संस्कृति रक्षा आंदोलन चलाना है, न ही कोई नैतिकता का पाठ पढ़ाना है, बल्कि इसलिए है कि महिलाओं के सिर पर इज्जत का ठीकरा फोड़ने वाली, बात-बात पर संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाली, नैतिकता का झंडा उठाए फिरने वाली और आज भी भीतर से पुरुषवादी यह समाज व्यवस्था पुरुषों की ‘बदतमीजी’ और महिलाओं के ‘सब्र’ के फर्क को समझे, कुंठित और बीमार मानसिकता के इस शाब्दिक अपराध के दूरगामी प्रभावों-परिणामों के बारे में सोचे, अपने गिरेबां में झांके और इस सवाल का जबाब दे, जो ऐसी परिस्थितियों में किसी भी महिला और उसके हितचिंतकों के सामने खड़ा होता है कि - ‘क्या करूँ?’

मंगलवार, 12 जून 2012

अपने हिस्से की जमीन


‘चल हट! यहां क्या तेरे बाप ने पट्टा लिखाया था?’

मूंछों पर ताव देते हुए जब वह रमुआ से यह कह रहा था, तब शायद उसने खुद सोचा भी नहीं था कि वहां पट्टा तो उसके सदा शराबखोर स्वर्गवासी पिता ने भी नहीं लिखाया था। पर ठसक थी ठकुराई की, जिसके बूते अपने खलिहान की सीमा के विस्तार में आड़े आती रमुआ की झोंपड़ी उसकी अपनी बपौती थी।

रमुआ यानी रामअवतार, जो देशज उच्चारण के चलते रामौतार और फिर संक्षिप्तिकरण का शिकार हो बस रमुआ ही बचा था, खुद भी इसी तरह सिकुड़ता जा रहा था। वैसे था तो वह इतना हट्टा-कट्टा कि अगर तैश में आ जाता तो सामने वाले को एक हाथ में ही बता देता कि पट्टा तो तुम्हारे बाप ने भी नहीं लिखाया। बस चुप था तो इसलिए कि पैरों में कुछ जंजीरें पड़ी थीं।

जब वह पंद्रह-सोलह की उम्र में था तो अक्सर इस बात पर चिढ़ जाता था कि गांव के सात-आठ बरस के लड़के भी उसे सीधा नाम लेकर बुलाते हैं। दद्दा, दादा कुछ नहीं, बस रमुआ। इस बात पर उसके पिता ने कहा था, ‘वे ठाकुर हैं, ऊंची जात के। एक तो हमारी जात नीची, फिर हम काम भी तो उन्हीं के खेतों में करते हैं।’ तब वह नहीं समझ सका था कि नीची जात का होने की वजह से ठाकुरों के छोटे बच्चे उसका आदर नहीं करते, या इस वजह से कि वह उनके खेतों में काम करता है। पर वजह समझ न आने पर भी उसने इसी को अपने भी जीवन का सत्य मान लिया।

अब जब वह खुद एक पंद्रह-सोलह बरस के लड़के का पिता है और आज जब उसकी झोंपड़ी भी किसी के खलिहान में समाने वाली है, तो वह जान चुका है कि असल में वह सामने खड़े उससे आधी उम्र के लड़के के लिए रमुआ क्यों है। वह जान चुका है कि बिना ऐसा किए उसको नीचा या कमतर होने का एहसास नहीं कराया जा सकता और बिना इस एहसास के वह उन लोगों के तलुवे नहीं चाटेगा, जो उसकी मेहनत का फल भी उसे कृपा की तरह देते हैं।

उसे लग रहा था कि अगर आज वह अपनी झोंपड़ी किसी और के हवाले कर देता है, तो उसका बेटा भी इन्हीं जंजीरों में जकड़ा दूसरा रमुआ होगा। बेशक उसका पिता और आज वह खुद भी जिस जमीन पर बसा हुआ है, वह उसकी नहीं है, लेकिन वह जमीन उसे हड़पने को तैयार शख्स की भी नहीं है।

सामने से पड़ती गालियों की बौछार के बीच आखिरकार वह बोल ही उठा, ‘पट्टा किसके बाप ने लिखाया था, यह तो पटवारी ही आकर बताएगा।’

अपने हिस्से की जमीन पर रमुआ के पैर मजबूती से टिके थे।

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

सरकारी योजनाएं और श्रम


भारतीय व्यवस्था में 1936 से लेकर अब तक कई कानून श्रमिकों को केंद्र में रखते हुए बनाए गए हैं। राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर श्रमिकों के जीवन स्तर में सुधार के लिए तमाम शासकीय योजनाएं भी संचालित की गईं। कुछ में सुधार किए गए, कुछ का अन्य योजनाओं में विलयन कर दिया गया। फिर भी आज श्रमिक वर्ग की स्थिति कैसी है यह किसी से छुपा नहीं है। बेशक श्रमिकों में जागरूकता  है, अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रवृत्ति व हौसला है। स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के तमाम संगठन हैं, लेकिन क्या श्रमिकों की स्थिति में सुधार हुआ है? कानूनों, शासकीय योजनाओं, प्रयासों के प्रकाश में यह सवाल बचकाना लग सकता है, पर शायद इतना छोटा भी नहीं है कि इसके बारे में गंभीरता से बात न की जाए। यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि श्रमिक का तात्पर्य सिर्फ कुदाल हाथ में लिए, सिर पर बोझा लादे और नंगे बदन वाली तस्वीर ही नहीं है, श्रमिकों का दायरा इससे कहीं अधिक व्यापक है।

शासकीय योजनाओं की बात करें, तो संप्रग सरकार की मनरेगा योजना पूर्णत: मजदूरों की योजना है। नरेगा से मनरेगा तक का सफर तय कर चुकने के बाद भी स्थिति यह है कि तकरीबन 30 प्रतिशत मजदूर आबादी रोजगार की तलाश में अब भी पलायन करती है। पिछले सालों की रिपोर्टों पर नजर डालें तो पाएंगे कि कुछ अपवादों को छोड़कर पूरे सौ दिन का काम कहीं भी मजदूरों को नहीं मिला है। यह अधिकतम 60 से 80 दिनों तक आकर अटक जाता है। यानी अब तक सरकार एक वर्ष में 100 दिन का रोजगार सभी मजदूरों को पूरे भारत में कहीं भी सुनिश्चित नहीं कर सकी। ऐसी स्थिति में यदि लोगों की सहभागिता कम हो रही है, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

हाथकरघा व अन्य घरेलू उद्योगों में लगे लोगों की स्थिति तो और भी खराब है। अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आपके पास उत्पादन के लिए कच्चा माल है, उत्पादन की क्षमता है, तैयार उत्पाद हैं लेकिन बेचने के लिए स्थाई और पर्याप्त बाजार उपलब्ध नहीं है। सरकार हथकरघा उद्योग के लिए आर्थिक सहयोग प्रदान करती है, परंतु तैयार माल को बेचने के लिए खुले बाजार के नाम पर सिर्फ इतनी सुविधा प्रदान करती है कि जिला, राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर 6 से 10 दिन की एक प्रदर्शनी लगाई जाए। रोजमर्रा के इस्तेमाल की वस्तुएं बहुत कम मूल्य पर घरेलू उद्योगों से उपलब्ध हो सकती हैं, परंतु उसे बाजार तक पहुंचाने के सरकारी प्रयास अपर्याप्त हैं। नतीजतन जब यही उत्पाद निजी कंपनियों द्वारा बाजार में पहुंचते हैं, तो कीमत तीन से चार गुना ज्यादा होती है और लाभ निजी कंपनियों की जेब में पहुंचता है। हालांकि इन उत्पादों की एक बड़ी खरीदार भारत सरकार खुद है, जिसके लिए उद्योगों का शासकीय खरीद योजना में पंजीकृत होना जरूरी है, परंतु वर्तमान में निरंतर रोजगार के लिए बढ़ते पलायन और इन उद्योगों से प्राप्त उत्पादों की बाजार में उपलब्धता के प्रतिशत को देखें, तो इस व्यवस्था की सफलता और क्रियान्वयन प्रक्रिया पर प्रश्न खड़ा होता है। सरकारी योजनाओं में इन उद्योगों को कम कीमत पर कच्चा माल उपलब्ध कराने, उद्योग स्थापना के लिए आवश्यक धनराशि मुहैया कराने, प्रशिक्षण प्रदान करने जैसी तमाम बातों का समावेश है, लेकिन उद्योग को बरकरार रखने के लिए सबसे आवश्यक तत्व 'बाजार तक पहुंच' को सुनिश्चित करने के कोई ठोस और वृहद इंतजाम नजर नहीं आते।

ऐसे ही कुछ तथ्य कानूनों के संदर्भ में भी हैं। यदि बाल श्रम उन्मूलन अधिनियम को ही देखा जाए तो काम में लगे बच्चों को शिक्षा की ओर ले जाना बहुत महत्वपूर्ण व सार्थक कदम है। बच्चों से काम कराने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई करना भी कानून के क्रियान्वयन में उपयोगी है। तमाम सामाजिक संस्थाएं इसके लिए कार्यरत हैं, फिर भी बच्चे काम करते दिख ही जाएंगे। सवाल यह है कि बच्चे आखिर काम कर क्यों रहे हैं? जवाब आसान है - सरकार के लिए वे सिर्फ बच्चे हैं, उनके परिवार के लिए कमाऊ सदस्य। यदि 8-10 साल का बच्चा कहीं काम कर रहा है, तो निश्चित ही वह मजे के लिए नहीं कर रहा, अपने परिवार की आर्थिक आवश्यकता को पूरा करने में सहयोग कर रहा है। यानी उसके परिवार के पास रोजगार के पर्याप्त साधन नहीं हैं।

न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के संदर्भ में अगर उत्तर प्रदेश की ही बात करें, तो न्यूनतम कृषि मजदूरी 100 रुपये है, यानी रोज काम करने पर वर्ष भर में एक व्यक्ति 36,500 रुपये कमाता है। मनरेगा में 100 दिन के काम का प्रावधान है यानी 10,000 रुपये सालाना। सरकार के आंकड़ों को ही मानें, तो प्रतिदिन भोजन के लिए औसतन 20 रुपये की जरूरत होती है, यानी साल भर में 7300 रुपये भोजन पर खर्च होते हैं। बाकी बचे 2700 रुपये से क्या साल भर के लिए स्वास्थ्य, कपड़े, आवास, शिक्षा व अन्य मूलभूत सुविधाएं प्राप्त की जा सकती हैं? खासकर तब, जबकि न्यूनतम मजदूरी वर्ष में एक बार बढ़ी हो और उपभोग्य वस्तुओं की कीमत चार बार।
यह तथ्य भी विचारणीय है कि एक तरफ तो सरकार गरीबों/श्रमिकों के जीवनस्तर में सुधार के लिए नित नई योजनाओं को अंजाम देती आई है, दूसरी ओर उन्हें निशाना भी बनाती है। जल विद्युत परियोजनाओं, बड़े बांधों, विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों (सेज) के नाम पर जो विकास है, उसके विस्थापितों का आज तक पूर्णत: पुनर्वास नहीं हो सका है। मैंगलौर, उड़ीसा, झारखंड, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश व और भी कई स्थानों पर विकास परियोजनाओं के चलते आज भी विस्थापन जारी है। इन विस्थापितों के सामने रोजगार की समस्या पहले से नहीं है, बल्कि सरकार निर्मित है। जिनके पास अपने जीवन-यापन के लिए कृषि भूमि या प्राकृतिक संसाधन थे, उनसे वह भी छीने जा रहे हैं और बदले में हैं सिर्फ आश्वासन। नतीजतन जो आत्मनिर्भर थे, आज मजदूरी पर निर्भर हैं। महानगरों में निर्माण और विकास कार्यों के लिए जो मजदूर कम पारिश्रमिक पर लाए जाते हैं, काम खत्म होने पर अपेक्षा की जाती है कि वे वापस अपने गृहनगर चले जाएं, जहां से वे अपने रोजगार के संसाधनों को छोड़कर आए हैं। प्रश्न यह है कि क्या वे वापस जाकर पुन: वह रोजगार पा सकेंगे? कॉमनवेल्थ खेलों के लिए तमाम मजदूर दिल्ली आयातित किए गए और अब उनके रहने की व्यवस्था पर भी सरकार की कोई चिंता नहीं है। इस हालत में यह एक बड़ा सवाल है कि महानगरों में रह रहे मजदूरों के रोजगार के लिए क्या ठोस कदम उठाए गए हैं, सिवाय रजिस्ट्रेशन करने के।

शनिवार, 5 जून 2010

इसका भी बाज़ार है

यह बस सीधे वैसा है, जैसा उपजा, बिना किसी काट-छांट के -

गज़ब की भीड़ है, शोर है, रफ़्तार है
जिसे भी देखिये वो थोडा सा बेज़ार है

जब भी बेची अपनी मेहनत बैठकर रोया
हर बार ही घाटा है क्या व्यापार है

रोज़ ही होते हैं वादे बेहतरी के बेशुमार
रोज़ लगता कल ही का तो अखबार है

जब लुट चुकीं उम्मीदें सारी उसके जीने की
फिर है चर्चा ख़ुदकुशी का गुनाहगार है

दोस्ती इतनी न जताओ कि कहना पड़े
दोस्त तो अच्छा है, थोडा सा बीमार है

मैं अपनी भूख से शर्मिंदा क्यों लगती है मुझे
क्या नहीं जानती कि इसका भी बाज़ार है

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

भूख की कीमत

(1)
पोस्टमार्टम रिपोर्ट में
पाया गया अगर
अनाज का एक भी दाना पेट में
तो नहीं दिया जा सकता इसे क़रार
भूख से मौत

भले ही मौत के दिन ही
क्यों न मिला हो भोजन
एक माह बाद।

(2)
अनाज
गोदामों में पड़ा-पड़ा सड़ गया
दे दिया गया
शराब बनाने के लिए
शराब पर दी गई उतनी सब्सिडी
जितने में पहुँचाया जा सकता था
सब तक

अब
पैंतीस किलो की जगह
पच्चीस किलो अनाज से भरेगा
परिवार का पेट

शायद भूख हो गई है
कम
लोगों की
या शायद ज़्यादा
अन्नदाताओं की।

(3)
अब नहीं मिलते
आम, संतरे, चीकू
पपीते, नाशपाती
सेब, तरबूज़
किलो के हिसाब से
और केले दर्जन के
एक-एक नग पर
चिपका हुआ है प्राइज टैग
घोषणा करता हुआ
आज सुनहरा मौका है
लाभ उठाइये और ले जाइये
पंद्रह रुपये में एक आम
या पच्चीस रुपये में एक सेब

कार्बोनेटेड शीतल पेयों का सेवन करते हुए
याद करेंगे कभी आपके बच्चे
पापा लाया करते थे कभी
और स्मृतियों में बचे रह जायेंगे

आम, संतरे, सेब…..

(4)
अगर आपके पास
लाल या पीला
है कार्ड
तो नहीं मर सकते
भूख से आप
यह सुनिश्चितता नहीं
फ़रमान है सरकारी

(5)
शकर हो गई चालीस रुपये
दाल सत्तर की
और चावल
सबसे सस्ता वाला भी पच्चीस रुपये
सबको जगाने वाली
टाटा टी भी
हो गई पचास रुपये की ढाई सौ ग्राम
और गुड़ मिल रहा है थैलियों में बंद
साढ़े बारह का सौ ग्राम
आटा पच्चीस रुपये किलो

दाल-रोटी
और गुड़ की चाय
है ग़रीब का भोजन

क्या सचमुच?

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

ग्रामीण भारत में दलित - भाग दो (आर्थिक व सांस्कृतिक परिदृश्य)



पिछली पोस्ट में दलितों की सामाजिक स्थिति पर अपनी बात रखी थी। ग्रामीण भारत में दलितों की स्थिति के संदर्भ में अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए इस पोस्ट में आर्थिक सुदृढ़ता के पहलू पर अपनी बात रखने का प्रयास किया है----


आर्थिक परिदृश्य

गौरवपूर्ण जीवन जीने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति एक अहम बिंदु है, जिसके लिए आर्थिक सक्षमता आवश्यक है। ग्रामीण क्षेत्रों में दलित आज भी या तो अपने पारंपरिक व्यवसाय में संलग्न हैं या फिर मज़दूरी पर आश्रित हैं। वे सभी कार्य जिनको करने में हर व्यक्ति को घिन हो, इस समुदाय की आजीविका हैं – जैसे कि मैला साफ करना, मृत जानवरों को फेंकना, चमड़ी उतारना आदि। इसके अलावा उच्च जाति के घरों में तमाम तरह की बेगारी करना भी इस समुदाय के लिए विवशता है क्योंकि इनके पास आजीविका के अन्य स्थाई साधन उपलब्ध् नहीं हैं। खेतों में काम करने के एवज़ में भी उन्हें जितनी मज़दूरी मिलती है वह किसी भी मायने में पर्याप्त या उचित नहीं कही जा सकती। मध्यप्रदेश के कई अंचलों में भूमिस्वामियों के खेतों में फसल काटने की मज़दूरी पचासी या बीसौरी के रूप में दी जाती है (यह फसल की किस्म पर निर्भर करता है) यानि कि जब भूमिस्वामी के लिए पचास या बीस गट्ठे फसल के काट लिए जाते हैं तब मज़दूर अपने लिए एक गट्ठा फसल का पाता है। अब जबकि कुछ स्थितियां बदली हैं तो प्रतिदिन 40 से 50 रुपये मज़दूरी का भी समावेश हुआ है। परंतु फसल बोने, खेतों में पानी देने, कटाई जैसे कार्य होने के बावजूद कृषि कार्य निरंतर वर्ष भर नहीं चलता और मज़दूर उच्च वर्ग के सदस्यों के लिए अन्य कार्य करने को विवश होता है जिसके एवज़ में उसे कई क्षेत्रों में अभी भी सिर्फ़ भोजन प्राप्त होता है, यदा-कदा आवश्यकता पड़ने पर थोड़ी आर्थिक मदद।

वर्तमान समय में जबकि सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम जैसा कानून क्रियान्वित है जिसके ज़िरये यह वर्ग अपनी आर्थिक स्थिति में थोड़ा सुधार कर सकता है, तो उसमें भी इस वर्ग का शोषण स्पष्ट नज़र आता है। ज़ाहिर है कि अकुशल शारीरिक श्रम करने वालों में इस वर्ग की संख्या काफी है और अधिकांश सदस्य अशिक्षित हैं। परिणामस्वरूप मस्टर रोल में काम के दिनों की गलत प्रविष्टियों, निर्धारित से कम मज़दूरी के भुगतान और यदि लाभुक भी दलित है तो उससे तमाम कागज़ी कार्यवाहियों के लिए रिश्वत की मांग के कई उदाहरण सामने हैं।

भूमिहीनों को शासकीय भूमि के आबंटन में भी धांधली की बात आम सुनाई देती है। कई स्थानों पर दलितों को आबंटित की जाने वाली भूमि सवर्णों के नाम कर दी गई। दलितों को आबंटित की गई भूमि पर नाम तो दलित का है परंतु कब्जा किसी और का। ऐसे में वह अपनी ही भूमि का उपयोग नहीं कर पा रहा है। ऐसे भी उदाहरण हैं जहां दलित भूमिहीनों को बंजर या अनुपजाऊ भूमि आबंटित की गई। इसी से स्पष्ट होता है कि जिस वर्ग के पास अपनी कृषि भूमि नहीं है, स्थाई रोज़गार नहीं है, आर्थिक सुदृढ़ता के अवसरों में जिसका शोषण किया जा रहा है, जो जीविकोपार्जन के लिए मज़दूरी, उच्च वर्ग की बेगारी और घृणित कार्यों पर आश्रित है वह किस हद तक आर्थिक सुदृढ़ हो सकता है और बेहतर जीवन की कल्पना कर सकता है।


सांस्कृतिक परिदृश्य

हमारे देश में विभिन्न संस्कृतियों के मिलाप और एकीकरण की बात बड़े ही गर्व से कही जाती है और इस बात से सभी सहमत हैं कि हर वर्ग की, क्षेत्र की अपनी अलग व अनूठी संस्कृति है। किसी क्षेत्र की संस्कृति को निर्मित करने में वहां के प्रत्येक वर्ग की परंपराएं और मान्यताएं प्रमुख कारक होती हैं। हमारे संविधान में भी प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म, संस्कृति के पालन की स्वतंत्रता दी गई है परंतु वास्तविकता में दलितों को अपनी परंपराओं, संस्कृति के पालन की उतनी स्वतंत्रता नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार के सुदूर ग्रामीण अंचलों में दलित परिवारों में धूम-धाम से विवाह करना, धार्मिक आयोजनों में अन्य समुदायों की तरह सक्रिय भागीदारी करना ख़तरे से खाली नहीं है। अभी भी देश के अंदरूनी ग्रामीण अंचलों में यहां तक स्थिति है कि इस समुदाय के सदस्य आधुनिक वस्त्र नहीं पहन सकते, उच्च वर्ग के लोगों के सामने साइकिल पर नहीं चल सकते, धूप का चश्मा नहीं लगा सकते।

धार्मिक मान्यताओं के मामले में भी इस वर्ग की अपनी स्वतंत्रता नहीं है। वर्षों से सामाजिक , आर्थिक और वैचारिक गुलामी सहते और सुविधाओं से दूर रहते इस वर्ग ने जब अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर ईसाई धर्म को अपनाना शुरू किया तो जो विवाद उत्पन्न हुआ उससे सभी वाकिफ़ हैं (जबकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को मानने का अधिकार है)। और उसके बाद घर वापसी के नाम पर चलाई गई मुहिम जिसमें कहा गया कि यह वर्ग हिन्दू समाज का एक अभिन्न हिस्सा है (जिन आदिवासियों को पहले भारत का मूल निवासी ही नहीं माना जा रहा था, वे भी इस मुहिम में हिन्दू समाज का अभिन्न हिस्सा कहे गए), यह स्पष्ट करती है कि इस वर्ग की अपनी संस्कृति स्वीकार्य नहीं है, वह किसी धर्म के शरणागत ही होगी। हालांकि दलितों को अपना अभिन्न हिस्सा कहने वाले, अपने भाई का दर्जा देने वाले कथाकथित धर्मावलम्बियों ने यह स्पष्ट नहीं किया कि घर वापसी के बाद इस समुदाय के सदस्यों का दर्जा क्या होगा। उन्हें भी अन्य समुदायों के सदस्यों के समान बराबरी का अधिकार प्राप्त होगा या फिर से दलित ही रहेंगे? जिस जाति के सदस्य होने के कारण वे आज तक प्रताड़ित और बहिष्कृत होते रहें हैं, क्या फिर से वही जाति उनकी पहचान होगी और सामाजिक स्थितियों को सुनिश्चित करेगी?

(मई २००९, पैरवी संवाद में प्रकाशित लेख का अंश)
(दलितों के स्थिति के सन्दर्भ में राजनैतिक व कानून व्यवस्था सम्बन्धी पहलुओं पर आगामी पोस्ट में...)

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

ग्रामीण भारत में दलित - भाग एक (सामाजिक परिदृश्य)


सूत्र वाक्य के रूप में यह अक्सर सुनाई देता है कि दलितों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक अधिकारों का हनन किया जा रहा है। यह स्पष्ट है कि मानवाधिकारों को जिन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है उसमें यह स्पष्ट वर्गीकरण है। यहां सारे मानवाधिकारों के केन्द्र में गौरवपूर्ण जीवन के अधिकार (Right to Dignity) को मानते हुए वर्तमान परिदृश्य के संदर्भ में अपनी बात रखने का प्रयास किया है।

सामाजिक परिदृश्य – दैनिक जीवन के संदर्भ में

सामाजिक रूप से दलित समुदाय की क्या स्थिति है, यह स्पष्ट करने के लिए किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। देश की आबादी का 73 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण है और देश में दलित समुदाय की जनसंख्या 250 मिलियन है। स्पष्ट है कि ग्रामीण परिस्थितियां हमारे देश की सामाजिक स्थिति का प्रतिनिधित्व करती हैं। गांवों में दलित समुदाय को कितने सामाजिक अधिकार प्राप्त हैं, इसे दैनिक जीवन की सामान्य दिनचर्या से समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के अधिकांश गांवों में दलित परिवारों के घरों में पीने और दैनिक उपयोग के लिए पानी सहज उपलब्ध नहीं है क्योंकि सार्वजनिक जलस्रोतों का उपयोग करने का भी उन्हें अधिकार नहीं है। आज भी मंदिरों के सामने से निकलने के लिए उन्हें अपने पैरों से चप्पल निकालनी होती है। यह स्थिति सिर्फ़ उत्तर प्रदेश की नहीं है, कमोबेश भारत के सभी ग्रामीण क्षेत्रों की है।

ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित है, सामुहिक भोज के अवसरों पर वे अन्य जातियों के साथ नहीं बैठ सकते, यहां तक कि कई क्षेत्रों में तो उन्हें अपने घर से बर्तन लाने होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में (कई शहरी/कस्बाई क्षेत्रों में भी) मैला साफ करना इस समुदाय की एक जाति के लिए एक मात्र कार्य है जिसके एवज़ में उसे कोई नकद पारिश्रमिक प्राप्त नहीं है बल्कि प्रत्येक घर से रोटियां या थोड़ा सा अनाज मिलता है। शासकीय विद्यालयों में इस समुदाय के बच्चे उच्च जाति के बच्चों से अलग बैठने के लिए विवश किये जाते हैं। मध्यान्ह भोजन पकाने वाली महिला यदि दलित समुदाय की है तो उच्च जाति के बच्चों और उनके अभिवावकों द्वारा उसका बहिष्कार किया जाता है। वस्तुओं  के आदान-प्रदान में पूरी सावधानी बरती जाती है कि कहीं शरीर छू न जाए। और यह सिर्फ़ ग्रामीण अंचलों में ही नहीं बल्कि महानगरीय परिवेश में भी उतनी ही तीवृता से मौजूद है। इस समुदाय के सदस्यों के लिए अभद्रतापूर्ण भाषा का उपयोग करना ग्रामीण क्षेत्रों में एक आम बात है जो कि इस हद तक व्यवहार में है कि दलितों के लिए यह मान्य भाषा बन चुकी है। बुन्देलखण्ड (मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा) के ग्रामीण अंचल में इस समुदाय के सदस्यों का सीताराम से सितउआ, लल्लीराम से ललुआ और रतनीदेवी से रतनिया हो जाने से लेकर थोड़े से क्रोध में ही सिर्फ़ जातिसूचक गाली से संबोधित किया जाना एक आम घटना है।

इसके अलावा मूलभूत सुविधाओं तक पहुंच के मामले में भी इस समुदाय के सदस्यों को जानबूझकर दूर रखने का प्रयास किया जाता है। पी.डी.एस., अन्नपूर्णा, अन्त्योदय जैसी योजनाएं जो कि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के दृष्टिकोण से बड़ी सफलता के रूप में परोसी गईं, इस समुदाय की खाद्य सुरक्षा को किस हद तक सुरक्षित कर पाईं और इसके पीछे क्या वजहें हैं? छत्तीसगढ़ में एक ओर जहां पीडीएस के अंतर्गत 50 पैसे प्रति किलो की दर पर नमक उपलब्ध कराने की सफलता है वहीं दूसरी ओर ऐसे अनगिनत दलित परिवार हैं जिनके पास राशनकार्ड ही नहीं है। जिनके पास कार्ड है उनको खाद्यान्न उपलब्ध नहीं हो पाता और कई परिवारों का कार्ड वितरण केन्द्र के संचालक के पास है जिस पर फ़र्जी प्रविष्टियां हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में इस समुदाय के सदस्यों को निर्धारित से अधिक कीमत पर खाद्यान्न प्रदान किया जाता है और कई बार यह कहकर टाल दिया जाता है कि खाद्यान्न समाप्त हो चुका है (जिसे कि खुले बाज़ार में बेच दिया जाता है)। इन योजनाओं की कमोबेश सभी स्थानों पर यही स्थिति है।

(मई २००९, पैरवी संवाद में प्रकाशित लेख का अंश)
(दलितों के स्थिति के सन्दर्भ में आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक पहलुओं पर आगामी पोस्ट में...)

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

दलित शब्द के मायने

         वर्तमान में जबकि दलित शब्द सिर्फ एक समुदाय विशेष का पर्याय बन चुका है तब इस शब्द के सही मायनों में जाना भी बेहद ज़रूरी हो गया है। एक शब्द जब किसी समुदाय की पहचान बन जाए तो इस पर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि आख़िर क्यों वह शब्द एक पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है।
        दलित शब्द की उत्पत्ति में अगर हम जाएं तो यह शब्द संस्कृत के "दल" से बना है, जिसका अर्थ है - अन्य हिस्से से टूटा हुआ, तंगहाल, जिसके साथ ठीक व्यवहार न किया जाता हो, दबा या कुचला हुआ। आर्य समाज द्वारा शुरू किये गए कार्यक्रम "दलितोद्धार" के बाद यह शब्द किसी समुदाय विशेष के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ। दबे हुए या कुचले हुए के संदर्भ में ही एक समुदाय विशेष के लिए 1930 में यह शब्द हिन्दी और मराठी में उपयोग किया गया। 1930 में  पूना से प्रकाशित समाचार-पत्र "दलित-बंधु" में इस शब्द का प्रयोग किया गया  और संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर ने अपने उद्बोधनों में एक समुदाय विशेष के लिए इस शब्द का प्रयोग किया।
          शूद्र,  अंत्याज, अवर्ण, अछूत और महात्मा गांधी द्वारा प्रचलित "हरिजन" अर्थात् ईश्वर के जन (अछूत माने जाने वाले लोगों के साथ भेदभाव समाप्त करने की दृष्टि से महात्मा गांधी ने इस शब्द का उपयोग किया था) जैसे संबोधनों की परिधि में विभिन्न जातियों का यह समुदाय आज अपने लिए "दलित" शब्द को अपना चुका है। शाब्दिक अर्थ के संदर्भ में इस समुदाय द्वारा दलित शब्द को अपनाना उसकी सामाजकि परिस्थितियों को तो दर्शाता ही है साथ ही मनोवैज्ञानिक दशाओं को भी स्पष्ट करता है।
         समुदाय विशेष के लिए "दलित" शब्द का प्रयोग किया जाना और उस समुदाय द्वारा सम्बोधन के रूप में इस शब्द को स्वीकारना, दोनों ही प्रक्रियाएं एक नज़र में समान दिखाई देती हैं परन्तु मूलबोध में दृष्टिकोण का फ़र्क है। किसी हद तक यह फ़र्क दया और रोष का भी है। मानव स्वभाव में किसी को दबा या कुचला हुआ मान लेने पर स्वयं की श्रेष्ठता का मिथ्याभिमान और उसके प्रति दया प्रस्फुटित होना एक साधारण सी बात है क्योंकि यह हमारे अहं तो तुष्टि प्रदान करती है, परंतु स्वयं को दबा या कुचला हुआ मान लेना एक साधारण बात नहीं है क्योंकि यह सबसे कमज़ोर होने, अश्रेष्ठ होने, अक्षम होने, वंचित होने की तमाम कुंठाएं उत्पन्न करता है। यह कुंठाएं सम्मिलित होकर उस रोष को जन्म देती हैं जो व्यक्तिगत से बढ़ते हुए समुदाय का सामुहकि आक्रोश हो जाता है। आज तमाम संगठनों द्वारा दलित अधिकारों के लिए किये जा रह आंदोलन के मूल में यही आक्रोश और इस आक्रोशजनित प्रश्नों के जवाब की तलाश शामिल है।
        "दलित" के शाब्दिक अर्थ के अनुसार हर वह व्यक्ति जो आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक रूप से दबा हुआ है अर्थात् जिसका दैनिक जीवन भी किसी अन्य की इच्छा से नियंत्रित है, दलित है। वह किसी भी  धर्म या जाति का हो सकता है। किन्तु आज यह शब्द एक समुदाय विशेष का पर्याय बन गया है। दरअसल वर्षों पहले निर्मित वर्ण व्यवस्था और मनुवादी नियमावली ने इस एक मात्र वर्ग के लिए कोई अधिकार सुरक्षित नहीं किया, यह वर्ग मात्र सेवा कार्य के लिए था, इसके लिए सिर्फ़ कर्तव्य सुनिश्चित किये गए थे। इस वर्ग का जीवन अन्य उच्च वर्गों की इच्छा पर निर्भर था और दैनिक जीवन के कार्यकलाप भी। हज़ारों वर्षों से व्यवहार में शामिल यह नियमावली और मनुवादी मानसिकता आज भी नहीं बदली है। अब जबकि संविधान ने सबको बराबरी का अधिकार दे दिया है, इस वर्ग को भी अन्य वर्गों के समान अधिकार और सुविधाओं तक पहुँच के अवसर प्रदान किये हैं तब भी इसके सदस्यों को अधिकारों से वंचित रखने के लिए प्रारंभ में उसी नियमावली का प्रयोग किया जाता है और फिर हिंसा, प्रताड़ना के नए-नए आधार व तरीके इस्तेमाल में लाए जाते हैं। आज भी कितने गाँवों में इस वर्ग के सदस्य मंदिरों में प्रवेश कर सकते हैं, सार्वजनिक जलस्रोतों का उपयोग कर सकते हैं, उच्च वर्ग के घरों में बराबरी से बैठ सकते हैं, कितने शासकीय विद्यालयों में अन्य बच्चों के साथ इस वर्ग के बच्चे बैठ सकते हैं? ऐसे ही कुछ आसान सवालों के जवाब पर ग़ौर करने से ही स्पष्ट हो जाता है कि आज भी तथाकथित उच्च वर्ग इस वर्ग के अधिकारों का दमन कर रहा है।
       धर्म, जाति को आधार बनाकर रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य व कई अन्य सुविधाओं से वंचित रखने के लिए हज़ारों सालों से व्यवहार में लाई जा रही साजिशों - जो कि निरंतर व्यवहार में रहने के कारण परंपरा में बदल चुकी हैं - ने इस समुदाय के अधिकांश हिस्से को नियतिवादी बना दिया है। यही उन तमाम साजिशों का मक़सद भी है, क्योंकि अत्याचार, अपमान को अपनी नियति मान लेना विरोध में उठ सकने वाले हर क़दम को पहले ही बेड़ियों में जकड़ देता है।
       इन साजिशों और मनुवादी मानसिकता के चलते यह वह वर्ग है जिससे सदैव उसके अधिकार छीने गए हैं, सुनियोजित ढंग से जिसका दमन किया गया है। अपनी श्रेष्ठता के दंभ में डूबे उच्च वर्ग द्वारा जिसे बद से बद्तर स्थिति में और अपने नियंत्रण में बनाए रखने के लिए निरंतर प्रताड़ित किया जाता है। अब चाहे इसे "दलित - यानि दबा हुआ" संबोधित किया जाए या फिर "दमित - यानि दबाया गया।"
(मई २००९ में अपनी सांगठनिक पत्रिका "पैरवी संवाद" के लिए लिखे गए आलेख का अंश)