शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

ग्रामीण भारत में दलित - भाग दो (आर्थिक व सांस्कृतिक परिदृश्य)



पिछली पोस्ट में दलितों की सामाजिक स्थिति पर अपनी बात रखी थी। ग्रामीण भारत में दलितों की स्थिति के संदर्भ में अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए इस पोस्ट में आर्थिक सुदृढ़ता के पहलू पर अपनी बात रखने का प्रयास किया है----


आर्थिक परिदृश्य

गौरवपूर्ण जीवन जीने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति एक अहम बिंदु है, जिसके लिए आर्थिक सक्षमता आवश्यक है। ग्रामीण क्षेत्रों में दलित आज भी या तो अपने पारंपरिक व्यवसाय में संलग्न हैं या फिर मज़दूरी पर आश्रित हैं। वे सभी कार्य जिनको करने में हर व्यक्ति को घिन हो, इस समुदाय की आजीविका हैं – जैसे कि मैला साफ करना, मृत जानवरों को फेंकना, चमड़ी उतारना आदि। इसके अलावा उच्च जाति के घरों में तमाम तरह की बेगारी करना भी इस समुदाय के लिए विवशता है क्योंकि इनके पास आजीविका के अन्य स्थाई साधन उपलब्ध् नहीं हैं। खेतों में काम करने के एवज़ में भी उन्हें जितनी मज़दूरी मिलती है वह किसी भी मायने में पर्याप्त या उचित नहीं कही जा सकती। मध्यप्रदेश के कई अंचलों में भूमिस्वामियों के खेतों में फसल काटने की मज़दूरी पचासी या बीसौरी के रूप में दी जाती है (यह फसल की किस्म पर निर्भर करता है) यानि कि जब भूमिस्वामी के लिए पचास या बीस गट्ठे फसल के काट लिए जाते हैं तब मज़दूर अपने लिए एक गट्ठा फसल का पाता है। अब जबकि कुछ स्थितियां बदली हैं तो प्रतिदिन 40 से 50 रुपये मज़दूरी का भी समावेश हुआ है। परंतु फसल बोने, खेतों में पानी देने, कटाई जैसे कार्य होने के बावजूद कृषि कार्य निरंतर वर्ष भर नहीं चलता और मज़दूर उच्च वर्ग के सदस्यों के लिए अन्य कार्य करने को विवश होता है जिसके एवज़ में उसे कई क्षेत्रों में अभी भी सिर्फ़ भोजन प्राप्त होता है, यदा-कदा आवश्यकता पड़ने पर थोड़ी आर्थिक मदद।

वर्तमान समय में जबकि सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम जैसा कानून क्रियान्वित है जिसके ज़िरये यह वर्ग अपनी आर्थिक स्थिति में थोड़ा सुधार कर सकता है, तो उसमें भी इस वर्ग का शोषण स्पष्ट नज़र आता है। ज़ाहिर है कि अकुशल शारीरिक श्रम करने वालों में इस वर्ग की संख्या काफी है और अधिकांश सदस्य अशिक्षित हैं। परिणामस्वरूप मस्टर रोल में काम के दिनों की गलत प्रविष्टियों, निर्धारित से कम मज़दूरी के भुगतान और यदि लाभुक भी दलित है तो उससे तमाम कागज़ी कार्यवाहियों के लिए रिश्वत की मांग के कई उदाहरण सामने हैं।

भूमिहीनों को शासकीय भूमि के आबंटन में भी धांधली की बात आम सुनाई देती है। कई स्थानों पर दलितों को आबंटित की जाने वाली भूमि सवर्णों के नाम कर दी गई। दलितों को आबंटित की गई भूमि पर नाम तो दलित का है परंतु कब्जा किसी और का। ऐसे में वह अपनी ही भूमि का उपयोग नहीं कर पा रहा है। ऐसे भी उदाहरण हैं जहां दलित भूमिहीनों को बंजर या अनुपजाऊ भूमि आबंटित की गई। इसी से स्पष्ट होता है कि जिस वर्ग के पास अपनी कृषि भूमि नहीं है, स्थाई रोज़गार नहीं है, आर्थिक सुदृढ़ता के अवसरों में जिसका शोषण किया जा रहा है, जो जीविकोपार्जन के लिए मज़दूरी, उच्च वर्ग की बेगारी और घृणित कार्यों पर आश्रित है वह किस हद तक आर्थिक सुदृढ़ हो सकता है और बेहतर जीवन की कल्पना कर सकता है।


सांस्कृतिक परिदृश्य

हमारे देश में विभिन्न संस्कृतियों के मिलाप और एकीकरण की बात बड़े ही गर्व से कही जाती है और इस बात से सभी सहमत हैं कि हर वर्ग की, क्षेत्र की अपनी अलग व अनूठी संस्कृति है। किसी क्षेत्र की संस्कृति को निर्मित करने में वहां के प्रत्येक वर्ग की परंपराएं और मान्यताएं प्रमुख कारक होती हैं। हमारे संविधान में भी प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म, संस्कृति के पालन की स्वतंत्रता दी गई है परंतु वास्तविकता में दलितों को अपनी परंपराओं, संस्कृति के पालन की उतनी स्वतंत्रता नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार के सुदूर ग्रामीण अंचलों में दलित परिवारों में धूम-धाम से विवाह करना, धार्मिक आयोजनों में अन्य समुदायों की तरह सक्रिय भागीदारी करना ख़तरे से खाली नहीं है। अभी भी देश के अंदरूनी ग्रामीण अंचलों में यहां तक स्थिति है कि इस समुदाय के सदस्य आधुनिक वस्त्र नहीं पहन सकते, उच्च वर्ग के लोगों के सामने साइकिल पर नहीं चल सकते, धूप का चश्मा नहीं लगा सकते।

धार्मिक मान्यताओं के मामले में भी इस वर्ग की अपनी स्वतंत्रता नहीं है। वर्षों से सामाजिक , आर्थिक और वैचारिक गुलामी सहते और सुविधाओं से दूर रहते इस वर्ग ने जब अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर ईसाई धर्म को अपनाना शुरू किया तो जो विवाद उत्पन्न हुआ उससे सभी वाकिफ़ हैं (जबकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को मानने का अधिकार है)। और उसके बाद घर वापसी के नाम पर चलाई गई मुहिम जिसमें कहा गया कि यह वर्ग हिन्दू समाज का एक अभिन्न हिस्सा है (जिन आदिवासियों को पहले भारत का मूल निवासी ही नहीं माना जा रहा था, वे भी इस मुहिम में हिन्दू समाज का अभिन्न हिस्सा कहे गए), यह स्पष्ट करती है कि इस वर्ग की अपनी संस्कृति स्वीकार्य नहीं है, वह किसी धर्म के शरणागत ही होगी। हालांकि दलितों को अपना अभिन्न हिस्सा कहने वाले, अपने भाई का दर्जा देने वाले कथाकथित धर्मावलम्बियों ने यह स्पष्ट नहीं किया कि घर वापसी के बाद इस समुदाय के सदस्यों का दर्जा क्या होगा। उन्हें भी अन्य समुदायों के सदस्यों के समान बराबरी का अधिकार प्राप्त होगा या फिर से दलित ही रहेंगे? जिस जाति के सदस्य होने के कारण वे आज तक प्रताड़ित और बहिष्कृत होते रहें हैं, क्या फिर से वही जाति उनकी पहचान होगी और सामाजिक स्थितियों को सुनिश्चित करेगी?

(मई २००९, पैरवी संवाद में प्रकाशित लेख का अंश)
(दलितों के स्थिति के सन्दर्भ में राजनैतिक व कानून व्यवस्था सम्बन्धी पहलुओं पर आगामी पोस्ट में...)

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