ज़रा कल्पना कीजिये- 'एक पुरुष का सिर दर्द से फटा जा रहा है और आसपास से लड़कियां उसकी तरफ देखकर नाक-भौं सिकोड़ती हुई दूर-दूर से निकली चली जा रही हैं. फिर वो पुरुष सिर दर्द से निजात दिलाने वाली एक गोली खाता है, गोली खाते ही उसका सिर दर्द दूर होता है और लड़कियों की उसी भीड़ से एक सुन्दर सी कन्या आकर उस पुरुष की गोद में बैठ जाती है.'
आप कहेंगे कि ये क्या बेहूदा कल्पना है, पर जनाब नाराज़ होने कि ज़रूरत नहीं है, ये भविष्य में किसी भी दवा कंपनी का विज्ञापन हो सकता है. इन दिनों विज्ञापन जिस ढंग से अपने-अपने ब्रांड के माध्यम से लड़की पटाने की गारंटी करवाते दिख रहे हैं, उसे देखते हुए कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि आने वाले समय में आप ऐसा विज्ञापन देखें जिसमे एक ख़ास कंपनी की दवा खाने से आप पर कोई लड़की मोहित हो जाये, बीमारी ठीक होने का ज़िक्र हो न हो लड़की का मोहित हो जाना ख़ासतौर से दिखाया जायेगा उसमें. जैसे कि अब चश्मे का विज्ञापन नज़र दुरुस्त करने या धूप से आँखों को बचाने के बजाय लड़की को राजी करने के नुस्खे में बदल गया है.
आज ही एक विज्ञापन देखा- 'लाइब्रेरी में बैठा चश्माधारी लड़का एक लड़की के सामने चाय का प्रस्ताव रखता है, लड़की इनकार कर देती है. यही सीक्वेंस बार-बार दोहराया जाता है, हर बार लड़के के चश्मे का फ्रेम बदला हुआ होता है और हर बार चाय के प्रस्ताव पर लड़की 'नहीं, कभी नहीं से लेकर पुलिस को बुलाये जाने तक के वाक्यों द्वारा कई अलग-अलग तरीकों से इंकार ही करती है.... पर अंतिम बार में जैसे ही लड़का नयी फ्रेम के साथ अपना प्रस्ताव दोहराता है, अगले ही शॉट में लड़की लड़के की गोद में बैठी नज़र आती है और दोनों के हाथ में थमे चाय के कपों में दिल धड़क रहा होता है... फिर दिखाई देता है उस चश्मा कंपनी का नाम.'
अब आप ही बताएं ये चश्मे का विज्ञापन है या यह बताया जा रहा है कि जनाब हमारी कंपनी का चश्मा पहनिए और लड़की पटाइए. आज अधिकतर विज्ञापन तकरीबन यही भाव लिए हुए हैं. फलां कंपनी के रेजर से दाढ़ी बनाइये, फलां कंपनी का अंडरवियर पहनिए, फलां कंपनी का परफ्यूम लगाइए, फलां कंपनी का टूथपेस्ट इस्तेमाल कीजिये, फलां च्युइंगगम चबाइए, और कुछ हो न हो एक सुन्दर कन्या आपके पहलू में आ जाएगी.
कितना आपत्तिजनक है विज्ञापनों का यह संसार. युवा मस्तिष्क को कुंठाओं से भर देने वाला, प्रेम को महज़ सेक्स के दायरे में समेट देने वाला, संवेदनाओं को वस्तु भर बना देने वाला और स्त्री विरोधी तो निश्चित रूप से है. स्त्री को बस भोग्या बना दिया गया है इन विज्ञापनों में. मगर सबसे तकलीफदेह बात यह है कि इन विज्ञापनों ने धीरे-धीरे दर्शकों को ऐसा बना दिया है कि वे यह सोचते भी नहीं कि आखिर चल क्या रहा है, ये विज्ञापन कैसे उनकी संवेदनाओं और सामाजिकता से खिलवाड़ कर रहे हैं और उन्हें कुंठित किये चले जा रहे हैं.