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बुधवार, 6 नवंबर 2013

असहमति का सम्मान और मेरी तेरी उसकी बात


ठीक-ठीक याद नहीं पर शायद दसवीं या ग्यारहवीं में पढ़ता था, जब बड़े भाइयों और उनकी इप्टा, प्रलेसं वाली मित्र मंडली की सोहबत का असर मुझ पर होने लगा था और स्कूल के कोर्स में शामिल कहानियों से इतर भी हिन्दी साहित्य पढ़ने की ठीक-ठाक आदत विकसित हो चुकी थी। प्रेमचंद के 'गबन' और 'गोदान' सरीखे उपन्यास पढ़ चुका था। यही वक्त था जब पहली बार राजेन्द्र यादव का नाम जाना, उनके उपन्यास ‘सारा आकाश’ से। अब भी याद है कि बीच में एक-दो बार ही उठा था, वरना एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाला था ‘सारा आकाश’। फिर अरसे तक इसके पात्र दिमाग में बने रहे, आज भी हैं। बहू के घड़ी पहनकर रसोई में जाने पर तंज़, ननद का दाल में मुट्ठीभर नमक झोंक देना, पत्नी के लिए साड़ी लाने पर मां का तंज़ जैसी कितनी छोटी-छोटी चीजों की कहानियां हैं इसमें। उस भाषा में, जिसे समझने के लिए हिन्दी के भारी-भरकम शब्दकोशीय ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। इतने सालों बाद भी यह उपन्यास कहानियों के कोलाज की शक्ल में ज़ेहन की दीवारों पर टंगा हुआ है।

उपन्यास के माध्यम से यह राजेन्द्र जी से पहला परिचय था. उनसे कभी मिलना नहीं हुआ, पर एक अरसे तक हर महीने उनकी बात सुनी जाती थी। सालों तक ‘हंस’ कहानियों के लिए कम उनके लिखे संपादकीय के लिए ज्यादा ख़रीदी गई और ये संपादकीय यानी ‘मेरी तेरी उसकी बात’ इस बात को और पुख्ता करते गए कि राजेन्द्र यादव छोटी-छोटी चीजों को देखने का नाम है। यह अपने शीर्षक के अनुरूप ही लगता था। भारी-भरकम शब्द विन्यास के बिना सीधे-सीधे छोटी लेकिन ज़रूरी चीजों पर खरी बात करता हुआ। अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकीयों से अलग, बातचीत करता हुआ, असहमतियों का प्रत्युत्तर देता हुआ और इस आग्रह के साथ अपने तर्क रखता हुआ कि असहमत हैं तो आइए चर्चा करें। बीच के कुछ अंतराल के बाद जब दो-ढाई साल पहले फिर से हंस खरीदना शुरू किया तो लगा कि संपादकीय की धार पहले जितनी तीखी नहीं रही, ‘मेरी बात’ शायद ज्यादा प्रधान हो गई है लेकिन ‘तेरी’ और ‘उसकी’ बात अभी भी जारी है।

हिन्दी के पाठकों की गिरती संख्या और साहित्य की दुर्दशा के बारे में उछलते जुमलों पर अपने एक संपादकीय में वह लिखते हैं- ‘हिंदी में पाठकों की कमी का रोना लगभग हर लेखक और प्रकाशक रोता है। मगर इस बात पर चिंता कभी-कभी ही की जाती है कि हमारे यहां बैठकी की वह परंपरा लुप्त हो गई है जहां से साहित्य ही नहीं दुनिया-भर की दूसरी बौद्धिक बहसें जन्म लेती हैं, आन्दोलन शुरू होते हैं। किसी भी साहित्यिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक गतिविधि के लिए बैठकबाजी एक अनिवार्य तत्व है। इन दिनों दिल्ली में ऐसी जगह तलाश करना मुष्किल है जहां कुछ लोग दो-चार घंटे बैठकर अपनी बेचैनी और जेब के हिसाब से बकवास कर सकें।’ बैठकबाजी की इस अनिवार्यता के अलावा वह लेखकों के भीतर मौजूद कमी का भी ज़िक्र करते हैं- ‘किसी भी स्थिति को लंबे समय तक अपने भीतर पचाने और रचाने की क्षमता चूंकि लेखकों में कम हुई है इसीलिए लघुकथाओं की बाढ़ है। ये लघुकथाएं बेहद फॉर्मूलाबद्ध ढर्रे पर लिखी जाती हैं। राजनैतिक भ्रष्टाचार, अमीरों द्वारा ग़रीबों का शोषण या ऐसी ही दो-चार सामान्य घटनाएं।’ यहां यह आपत्ति तो दर्ज की जा सकती है कि भ्रष्टाचार और शोषण बड़ी और जवलंत समस्याएं हैं इसलिए इन्हें सामान्य तो नहीं कहा जा सकता लेकिन राजेन्द्र जी के ‘फॉर्मूलाबद्ध ढर्रे’ के आशय से असहमत भी नहीं हुआ जा सकता।

इन दिनों जब हिन्दी के बरअक्स अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की मौजूदगी और उसे महत्वपूर्ण स्थान दिए जाने की चर्चाएं और अधिक गंभीर होती जा रही हैं, तब पांचवे जयपुर साहित्य समारोह पर लिखे गए राजेन्द्र जी के संपादकीय के अंश याद आते हैं, जहां वह भाषा को अपना हथियार बनाने की साम्राज्यवाद की मंशा और मानसिक औपनिवेशिकता की परतों को देखते हैं। वह लिखते हैं- ‘भारतीय भाषाएं ही नहीं, क्यों इसमें चीन, जापान, रूस या ऐसे ही दूसरे देश सिरे से गायब हैं? पश्चिमी, विशेषकर योरुप, अमेरिका के नोबेल-बुकर से सुसज्जित देशों के अलावा दूसरे कोई नाम चूंकि सुनाई नहीं देते इसलिए उनका यहां नामलेवा भी नहीं है।...... जब से योरुपीय और अमेरिकन पुरस्कार और फैलोशिप तीसरी दुनिया के युवा लेखकों को दिए जाने लगे हैं और जिस तरह मीडिया उन्हें उछाल रहा है, तब से अंग्रेजी में लिखने वाला हर नया लेखक महान बनने के लिए बेचैन हो उठा है।...... सेकेंड और थर्डरेट रचनाओं की जिस तरह अंग्रेजी के अखबारों में पूरे पन्नों पर समीक्षाएं आती हैं वह किसी के भी मन में ईर्ष्या जगाने को काफ़ी है।’ साहित्य, साहित्यिक चर्चाओं और सत्ता से आम-जन की दूरी पर उन्होंने अपनी चिंता लगातार व्यक्त की। इसी संपादकीय में सत्ता के चरित्र का ज़िक्र करते हुए वह लिखते हैं- ‘दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर गणतंत्र दिवस का भव्य आयोजन और जयपुर साहित्य समारोह लगभग एक साथ ही मनाए जा रहे हैं; जिस जनता के प्रतिनिधित्व की कसमें ये खाते हैं, वह सामान्य-जन दोनों ही जगह ताली बजाऊ दर्शक है। पता नहीं क्यों, सत्ता के चरित्र पर सोचते हुए मुझे जयपुर समारोह का ही ध्यान हो आया। क्या इसे सत्ता का सांस्कृतिक विस्तार कहना बहुत दूर की कौड़ी लाना है?’

राजेन्द्र यादव को जितना श्रेय इस बात के लिए दिया जाता है कि उन्होंने कई अच्छे रचनाकारों को सामने लाने का काम किया, उतना ही श्रेय इस बात का भी दिया ही जाना चाहिए कि उन्होंने असहमत होने के अधिकार का पूरी ईमानदारी से सम्मान किया। जितनी बेबाकी से आप अपनी असहमति हंस में व्यक्त कर सकते हैं, बिना किसी संकोच के, और वह शामिल भी की जाती है तो इसके पीछे वजह राजेन्द्र यादव जैसे संपादक का होना है। असहमति के संवाद को किसी पत्रिका में बनाए रखना इस व्यावसायिक दौर में कम जोखिम भरा नहीं है, जबकि पत्रिका की सामग्री की तारीफ करते पत्र शामिल करना अधिकांश संपादक मुफीद मानते हों। ‘अपना मोर्चा’ पूरी तरह पाठकों का मोर्चा ही रहा, जहां वे खुलकर तारीफ भी कर सकते हैं और गलतियां बताते हुए आलोचना भी कर सकते हैं। उन्होंने अपने संपादकीयों में विभिन्न विषयों पर खुलकर अपनी असहमति भी व्यक्त की, फिर चाहे वह सत्ता पक्ष से असहमति हो या किसी विचार से असहमत लोगों से असहमति। वैचारिक-राजनैतिक चेतना और युवा वर्ग की इसके प्रति जागरूकता पर सहमति, असहमति और एक विचारधारा से असहमत लोगों से सवाल करते हुए वह लिखते हैं- ‘जब हमारे पास विचारधारा थी तो वह समाज के हर वर्ग में राजनैतिक जागरूकता और अपने दायित्व को बार-बार रेखांकित करती थी। चारों ओर से निराशा और हताश परिवेष में राजनीतिक चेतना संपन्न युवा हजारों की संख्या में आज भी नक्सल आंदोलनों में शामिल हो रहे हैं। इनमें दलितों, आदिवासियों और सर्वहाराओं को संघर्षों से जोड़ने का एक जनून है जिसे सरकार सिर्फ कानून और व्यवस्था से अधिक कुछ भी मानने को तैयार नहीं है।......... वे किनके खिलाफ और क्यों लड़ रहे हैं, यह सवाल अक्सर ही सरकारी तबकों में नहीं पूछा जाता।............. बैंगन की तरह मार्क्सवाद नाम से ही चिढ़ने वाले हमारे अशोक वाजपेयी और ओम थानवी जैसे लोग उन लागों लाख संघर्षशील युवाओं के उभार को क्या नाम देना चाहेंगे? दुनिया में जहां भी शोषक और शोषित के बीच असमानताओं की लड़ाई है, उसे बिना मार्क्सवाद के कैसे समझा जा सकता है, अगर अशोक जी इस पर भी प्रकाश डालते तो हम जैसे मूढ़मतों को कोई दिशा दिखाई देती।’

यह दुःखद है कि मरणोपरांत आखिर लोगों ने अपनी मनमानी कर ही ली। धार्मिक रीतियों से उनके विचारों को फूंकने की कोशिश की गई लेकिन विचार शरीर के साथ ख़त्म नहीं हो जाते। राजेन्द्र यादव के विचार भी नहीं ख़त्म नहीं होंगे। वे जब तक जीये धार्मिक कर्मकांडों और साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ लिखते रहे। धर्म के नाम पर सरकार की चुप्पी और जनमानस की धार्मिक आस्था पर भी उन्होंने प्रहार किए। अपने एक संपादकीय में उन्होंने लिखा है- ‘सरकार चाहे जितनी लोकतांत्रिक हो, मगर उसे यह अधिकार नहीं है कि किसी के धर्म में हस्तक्षेप करे - धार्मिक स्वतंत्रता के इस सिद्धांत के तहत धोखेबाजी और हत्या-बलात्कार के इन अड्डों को खुलेआम पनपने दिया जा रहा है। अनधिकृत रूप से किसी भी ज़मीन पर कब्जा करके मंदिर या मठ बनाने की बातें तो आम हो गई हैं और धार्मिक भावनाओं को चोट न पहुंचे, इसलिए सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है।........... हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्हीं आस्थाओं और भावनाओं का आधार लेकर हमारे यहां लाखों औरतों को सती कर दिया गया या मासूमों के सिर काट कर देवी-देवताओं पर चढ़ा दिए गए।’

अपने अंतिम समय तक विवाद में घिरे रहे राजेन्द्र यादव की व्यक्तिगत और कार्यक्षेत्र की गतिविधियों पर लोगों की अपनी-अपनी राय है। कुछ उनसे सहमत हैं कुछ असहमत, लेकिन शायद यही राजेन्द्र यादव होने की शर्त भी थी। तमाम असहमतियों को स्वीकारने और पुरजोर ढंग से अपनी बात रखने की शर्त। व्यक्तिगत जीवन में वह क्या थे, क्या नहीं थे यह अलग बात है लेकिन एक लेखक-संपादक के रूप में असहमति को सम्मान देने वाले शख्स तो निश्चित ही थे।

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

मंटो: थप्पड़ मारने वाला कहानीकार

 -रजनीश ‘साहिल’
‘सब कुछ अच्छा भला चल रहा था। दिन-रात, चौबीस घंटे कभी विज्ञापन में, तो कभी धारावाहिकों-फ़िल्मों में दिखती साड़ी से लेकर बिकनी तक में मौजूद देहयष्टि की कल्पना करते दिमाग को जो कुछ पढ़ने में मज़ा आ सकता था, उसके लिहाज से सब अच्छा भला ही चल रहा था। फिर अचानक लगा कि किसी ने अपनी पूरी ताकत से एक झन्नाटेदार थप्पड़ मार दिया हो। एक ऐसा थप्पड़, जो रंगीन कल्पनाओं की दुनिया से खींचकर सीधे उस हकीकत से रू-ब-रू कराता है, जो तकलीफ़देह है, घिनौनी है, इंसान के जानवर होने की तसदीक़ करती है और जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। और भी कुछ ऐसा महसूस होता है यार, जिसे मैं कह नहीं पा रहा हूं।’
     जब मेरे मित्र ने मुझसे यह कहा था, तब मैं बखूबी समझ रहा था कि वह क्या महसूस कर रहा है, क्या कहना चाहता है, जिसके लिए सही शब्द नहीं ढूंढ पा रहा है। वह जो कुछ महसूस कर रहा था, तकरीबन वैसा ही कुछ मैंने भी महसूस किया था, जब उस बदनाम कहानीकार की कहानी सही मायनों में पहली बार पढ़ी थी। फिर जितनी कहानियां पढ़ता गया, हर बार एक थप्पड़ का इजाफ़ा होता गया। मुझे यकीन है कि यह हर उस शख्स के साथ हुआ होगा, जिसने सआदत हसन मंटो की कहानियां पढ़ी हैं, ढंग से पढ़ी हैं।
     एक नजर में मंटो को थप्पड़ मारने वाला कहानीकार कहा जा सकता है, मगर हर कहानी में इस थप्पड़ की किस्म जुदा है। कभी वह झन्नाटेदार थप्पड़ मारते हैं, तो कभी हल्की सी चपत लगाते हैं। उनकी तकरीबन कहानियों में यह भाव है। बावजूद इसके उनकी बहुतेरी कहानियां हैं, जहां इंसान के दुर्भावनापूर्ण चेहरे के अलावा संवेदनाओं से लबरेज़ चेहरे भी दिखाई देते हैं। ‘काली सलवार’ जैसी कहानियां इसका उदाहरण हैं, जहां एक-दूसरे से नितांत दो अजनबी एक-दूसरे की अभिलाषाओं के बारे में सोचते हैं। 
     बहरहाल, मंटो की कहानियों के पात्रों के बारे में अगर बात करें, तो वे आज भी वैसे ही हैं, जैसे मंटो के समय में थे। यानी मंटो की कहानियों के पात्र सर्वकालिक हैं। कल भी वैसे ही थे, आज भी वैसे ही हैं। अपनी एक कहानी ‘सरकंडों के पीछे’ में मंटो खुद शुरुआत में ही लिखते हैं, ‘देखिए मैं उस स्त्री का नाम बताना भूल गया। बात असल में यह है कि उसका नाम कोई मायने नहीं रखता। उसका नाम आप कुछ भी समझ जाइए। सकीना, महताब, गुलशन या कोई और। आख़िर नाम में क्या रखा है।’ सच है, नाम में कुछ नहीं रखा। मंटो की कहानियों के पात्र हमारे चारों ओर हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि मंटो ने उनके बारे में लिखा और हम उनके बारे में सोचने से भी क़तराने लगे हैं। ठीक ऐसे ही जब मंटो लिखते हैं, ‘कौन-सा शहर था, जहां तक मैं जानता हूं आपको मालूम करने और मुझे बताने की कोई जरूरत नहीं।’ तो यकीन जानिए कि जिस जगह का जिक्र मंटो कर रहे हैं, वह पेशावर भी हो सकती है, कोलकाता भी, मुंबई भी और उजाड़ में बसा कोई गांव भी। वह आज की पूरी दुनिया का कोई भी हिस्सा हो सकता है, जहां हर हाल में रोटी का जुगाड़ आज भी सबसे अहम सवाल है।
      मंटो के बारे में अमूमन यही कहा जाता है कि विभाजन, उसके दौरान और उसके बाद की विभीषिका पर उनसे ज्यादा दहलाने वाली कहानियां शायद किसी ने नहीं लिखीं। यह सच भी है, फिर भी मुझे लगता है कि यह मंटो जिस वक्त में कहानियां लिख रहे थे, उस वक्त के हालात से जोड़कर उन्हें देखने का नतीजा है। वरना उन्होंने ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जो किसी खास वक्त की हो ही नहीं सकतीं। ठीक है कि आज हालात में काफ़ी तब्दीली आ चुकी है लेकिन ‘हीरामंडी’ के सलाहू और दूदा पहलवान हों, चाहे ‘लायसेंस’ की इनायत उर्फ नीति का अंजाम, आज भी चीजें वैसी ही हैं। आज जिस ढंग से तमाम तरीकों की आड़ में हिंदुस्तान, पाकिस्तान, ब्रिटेन, अमेरिका, अफगानिस्तान और अरब देशों में ऑनर किलिंग के मामले सामने आ रहे हैं, ऐसे में मंटो की कहानी ‘इश्क पर ज़ोर नहीं’ कुछ अलग ढंग की कहानी लगती है। शरुआत में ही मंटो लिखते हैं, ‘लोगों को यह शिकायत है कि मैं रोमांटिक कहानियां नहीं लिखता। मैं अब इश्क़िया कहानी लिख रहा हूं, ताकि लोगों की यह शिकायत भी किसी हद तक दूर हो जाए।’ इसके बाद मंटो बाकायदा एक इश्क़िया कहानी लिखते हैं, जहां नायक जमील पूरी तरह इश्क़ियाया हुआ दिखाई देता है। मगर यह कोई फिल्मी कहानी नहीं है, जिसका अंत सुखद हो। जमील पूरी कहानी के दौरान इश्क़ तलाशता रह जाता है और अंत में पता चलता है कि मूर्खता की हद तक सादा और सीधी अजरा ने सिर्फ इसलिए ख़ुदकुशी कर ली कि उसे जमील से बेइंतहा मोहब्बत थी और जमील की शादी कहीं और तय हो चुकी थी, जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सकी। जहां तक समझ आता है मंटो ने अजरा की ख़ुदकुशी का ताना सिर्फ इसलिए नहीं बुना कि वह इश्क़ में हार जाने से टूट गई थी। हारना कैसा, जबकि उसने इज़हार-ए-मोहब्बत कभी किया ही नहीं। असल में यह ख़ुदकुशी उन ख़्वाबों की है, जो एक नौजवान स्त्री देखती है, जिनका इज़हार करने तक की उसे इजाज़त नहीं है। आज भी ऑनर किलिंग के नाम पर दुनियाभर के देशों में जो सबसे ज़्यादा आसान शिकार है, वह महिलाएं ही हैं। वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के कारण मारी जा रही हैं, और अजरा बिना व्यक्त किए मर गई। फ़र्क क्या है? 
     देखा जाए तो मंटो उर्दू के वैसे ही कहानीकार हैं, जैसे हिंदी के प्रेमचंद या बांग्ला के शरतचंद्र। या शायद उससे भी कहीं ज़्यादा, क्योंकि इंसानियत को जिस बुरी तरह से झिंझोड़ा जा सकता है, उसकी पराकाष्ठा सिर्फ मंटो के यहां मिलती है। मंटो की कहानियां किसी भी दौर में क़ैद नहीं की जा सकतीं। वह हर दौर में उसी के मुताबिक झंझोड़ती हैं, दिमाग की चूलें हिलाती हैं और सवाल खड़े करती हैं। ‘नंगी आवाज़े’, ‘तमाशा’, ‘दो क़ौमें’, ‘सड़क के किनारे’, ‘नारा’, ‘डरपोक’, ‘नया कानून’ जैसी उनकी तमाम कहानियों का ज़िक्र इस सिलसिले में किया जा सकता है। भले ही यह कहानियां बहुत अलग-अलग तरीके से अलग-अलग चीजों को बयां करती हैं, लेकिन अंतत: हमारे आसपास और बीच की स्थितियों को लेकर सवाल खड़े करती हैं। इसके बरअक्स ‘टोबा टेकसिंह’, ‘काली सलवार’, ‘मंजूर’, ‘हीरामंडी’ जैसी कहानियां इंसान की अतिशय संवेदनशीलता को भी नुमायां करती हैं, जहां कहानी के दो पात्र एक-दूसरे से किसी मुलाहजे में नहीं बंधे हैं, लेकिन एक की तक़लीफ से दूसरा द्रवित होता है। 
     कहानी कहने की विधाओं के बारे में अगर बात की जाए तो मुख्यत: दो किस्म की कहानियां सामने आती हैं। एक वह जो दृश्य वर्णन के साथ-साथ उसके मायने भी साथ ही व्यक्त करती जाती हैं, दूसरी वह जो महज़ एक कथ्य के माध्यम से पूरा दृश्य और उसका विस्तृत आख्यान वर्णित करती हैं। मंटो की कहानियां दूसरी किस्म की हैं, लेकिन फिर भी अलग हैं। वह कहानी लिखते नहीं, सुनाते हैं। अक्सर कहानियों में वह किस्सागो नज़र आते हैं। चाहे वह स्त्री देह का वर्णन हो या अस्पताल में पड़े मरीज़ों के बीच की बातचीत, वह अपनी हर पंक्ति के साथ एक दृश्य दिखाते हैं। दृश्य-दर-दृश्य चलती एक जीवंत कथा कहते हैं और अंत की तीन या चार पंक्तियों में पूरी कहानी की असलियत बयां करते हैं। कुछ इस तरह कि वह आखिरी पंक्तियां ही असली कहानी हो जाती हैं, बाकी पूरा वृत्तांत तो महज़ भूमिका भर लगता है। बकौल वाल्टर बेंजामिन कहानी कहने की आधी कला इसी में है कि सुनाते समय उसे तमाम स्पष्टीकरणों से मुक्त रखा जाए। इस नज़रिए से दुनियाभर के किस्सागो कहानी कहने की जिस शैली को सबसे बेहतर मानते रहे हैं, वही शैली मंटो की कहानियों में मौजूद है, यानी जहां अंत ही सबकुछ है। मंटो ऐसा ही करते हैं, वह कहानी के क्लाइमैक्स के साथ ऐसा कुछ छोड़ जाते हैं, जिस पर बात करनी अभी बाकी है। जिस पर सामाजिक नज़रिये से कदम उठाऐ जाने की अभी भी ज़रूरत बाकी है। अपने शब्दों में कहूं तो यह कि वह हर कहानी के अंत के साथ हमारे मुंह पर एक ऐसा तमाचा जड़ते हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वाकई हम इसी लायक हैं।
(जनपथ के जुलाई 2012 अंक में प्रकाशित)

मंगलवार, 26 जून 2012

दास्तान-ए-किस्सागोई




एक था राजा एक थी रानी
दोनों मर गए खतम कहानी
यह वह पंक्तियां हैं, जो बचपन में हम सभी ने कभी न कभी जरूर सुनी हैं। आज यह पंक्तियां अपने सही अर्थों में हमारे सामने भी हैं। बचपन में जब कभी कहानियां सुनने का जी करता था, छुट्टियों में अपनी दादी-नानी के करीब होते थे, तो उनसे कहानी सुनने की जिद भी किया करते थे। आपने भी की होगी।
खुले आसमान के नीचे, सितारों की छांव में दादी-नानी से राजा-रानी, राजकुमार, राक्षसों और परियों की कहानियां सुना करते थे हम। जब दादी या नानी कोई कहानी सुनाती थीं, तो उसका एक-एक पात्र हमारी आंखों के सामने जीवंत हो उठता था। कहानी कितनी ही अकल्पनीय क्यों न हो, सच ही लगती थी। हमारे जीवन में किस्सागोई की शुरुआत भी यहीं से होती है। वैसे, किस्सागोई ठीक-ठीक कब और कैसे शुरू हुई, इसका पता लगा पाना मुश्किल है। इतना तय है कि बचपन में मां की लोरी के साथ हम शब्दों को पहचानना सीखते हैं और कहानियों के साथ किस्सागोई से परिचित होते हैं। बचपन में सुनी कहानियों से किस्सागोई का जो सम्मोहन हम पर तारी होता है, उसका असर ताजिंदगी बरकरार रहता है। इसकी वजह भी है, और वह वजह है कल्पना की मधुरता का रस। किस्सागो यानी किस्से-कहानी कहने वाला अपनी योग्यता और कल्पनाशक्ति का भरपूर इस्तेमाल करता है। सुनाए जाने के मौके के अनुसार वह कहानी को रोचक और अविस्मरणीय बनाने के लिए उसमें बदलाव भी करता है, नाटकीयता भी डालता है और कोशिश रहती है कि सुनने वाला उसकी निरंतरता में डूब जाए।

किस्सागोई के रिश्ते
अब घर की किस्सागोई ही देख लीजिए। जब दादी-नानी कहानियां सुनाती थीं, तो बड़े-बड़ दांतों वाला राक्षस जब राजकुमारी को अपने जादुई उड़नखटोले में बिठाकर ले जाता था, और राजा परेशान होकर राजकुमारी को ढूंढ लाने वाले को राजा बनाने की घोषणा करता था, तो सब सच लगता था। फिर जब कोई राजकुमार राक्षस के किले में जाकर उससे वीरता से लड़कर राजकुमारी को छुड़ाने की कोशिश करता था, तब तक हम कहानी में इतने डूब चुके होते थे कि खुद को राजकुमार की जगह रखकर हम अपनी कल्पनाओं में सारा मंजर सजीव-सा पैदा कर चुके होते थे। घर की किस्सागोई में दादी-नानी इस मंजर को पैदा करने में हर किरदार के भावों के मुताबिक शब्दों की लंबाई, आवाज की गहराई का बखूबी इस्तेमाल करती थीं। वैसे, इन कहानियों से एक और किस्सा भी उपजता है। वह है हमारे घर और रिश्तों की बुनावट का किस्सा। दादी-नानी के बाद कहानियां सुनाने की जिम्मेदारी होती थी हमारी मां, मौसी, चाची, मामी की। इनकी कहानियों में भी दादी-नानी की कहानियों जैसा ही रस होता था। भले ही किसी बात पर मां और चाची के बीच अनबन हो गई हो, लेकिन हमें उससे कभी कोई फर्क नहीं पड़ता था। कहानियों का सम्मोहन इतना होता था कि चले ही जाते थे चाची के पास कहानियां सुनने। चाची भी ऊपर से भले ही हमसे कह दे कि जाओ अपनी मां से सुनो कहानी, लेकिन फिर भी हमारी उत्सुकता को शांत करने के लिए कहानी सुना ही देती थी। इन्हीं किस्से-कहानियों के बीच वह वात्सल्य और प्रेम उपजता था, जो हमेशा के लिए हमारे दिल में घर कर जाता है। फिर परिवार में तनाव चाहे कितना भी हो, दिल के किसी कोने में एक-दूसरे का हिस्सा होने का भाव हमेशा बना रहता है। इस मामले में सिर्फ घर की महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी सहभागी होते हैं। तभी तो चाचा, मामा, नाना के साथ भी रिश्ते की ऐसी ही बुनावट होती है। यह एक अलग बात है कि उनकी कहानियों में परियां नहीं होती थी, बल्कि वीर लड़ाके, हमारे पुरोधा और महान व्यक्तित्व ज्यादा शामिल होते थे। गौर से देखा जाए तो यह दोनों तरह की कहानियां हमारे कल्पना संसार को भी विस्तृत करती थीं और ज्ञान को भी।
मगर अब यह बुनावट कमजोर होती जा रही है। आधुनिक समाज की व्यवस्था में अब बच्चों के करीब न दादी-नानी हैं, न चाची-मौसी और न चाचा-मामा। माता-पिता के पास नौकरी की व्यस्तता है। दरअसल एकल परिवार की परिपाटी ने इस किस्सागोई की निरंतरता को बाधित किया है, जिसका असर बच्चों के कल्पनालोक पर तो पड़ा ही है, किसी हद तक रिश्तों की बुनावट की कमजोर होती गई है।

चेतना और मूल्यबोध
किस्सागोई सिर्फ घर की दहलीज के भीतर ही नहीं रही। यह हमारे समाज और संस्कृति का अहम हिस्सा रही है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि समाज में बड़े-बूढ़े ही किस्सागो की जिम्मेदारी प्रमुखता से निभाते आए हैं। नई पीढ़ी को सामाजिक मूल्यों से परिचित कराने की जिम्मेदारी भी इन्हीं के कंधों पर रही है। पारंपरिक ग्रामीण जीवन में इन मूल्यों का महत्व कितना है, इसे बताने की जरूरत नहीं है। लोग इन मूल्यों से विचलन के खतरों को न केवल जानते-समझते थे, बल्कि जितना हो सके इस विचलन और दूरी से बचने की कोशिश भी करते थे। नैतिक और सामाजिक मूल्यों से नई पीढ़ी को परिचित कराने के लिए उन्हें आज की तरह साहित्य या अन्य किसी माध्यम की जरूरत नहीं होती थी, क्योंकि पास किस्सागोई की कला होती थी। नई पीढ़ी के बीच ग्राम्य जीवन में सहअस्तित्व जैसे सामाजिक मूल्य किस्सागोई के साथ विकसित होते रहे हैं। यही वजह है कि गांवों की चौपालों पर किस्सागोई खूब फली-फूली। यह अलग बात है कि किस्सागोई लोकरंजन का प्रतिरूप है। किस्से-कहानियों के संपर्क में आने वाला श्रोता मुख्यत: मनोरंजन की ही तलाश करता है, उसमें निहित मूल्य उसके बाद ही समझे जाते हैं। इसीलिए किस्सागोई में रोचकता भी बहुत मायने रखती है। इसके अभाव में किस्सागो की सफलता शायद संभव नहीं है।

दुनिया एकाकार
यह किस्सागोई का ही कमाल है कि बिना किसी प्रकाशन व्यवस्था और तकनीकी संचार माध्यमों के भी बीती सदियों में कहानियां दूर देश की यात्रा कर चुकी हैं। पूरी दुनिया का लोकसाहित्य देखा जाए, तो इस किस्सागोई की ताकत का अंदाजा होता है। किस्सागोई के कारण ही पंचतंत्र की कहानियां सारी दुनिया भर में न केवल प्रचलित हैं, बल्कि उनमें स्थानीय रुचियों और परंपराओं के मुताबिक बदलाव भी दिखाई देते हैं। ईसप की कहानियां इसका मजबूत उदाहरण हैं। यूनान में जन्मे ईसप एक बेहतरीन किस्सागो थे। नीति और व्यावहारिक ज्ञान को कहानियों की शक्ल देने में उनका कोई सानी नहीं है। अपनी कई कहानियों में ईसप ने पंचतंत्र की कहानियों का भी उपयोग किया है। तकरीबन सत्रह शताब्दियों तक कहने-सुनने की कला के चलते ही दुनिया भर की सैर करती रही कहानियां, आज भी मौजूद हैं। लू श्युन ने जिन चीनी लोककथाओं का संग्रह किया, उनमें भी हमारी कहानियों जैसा-ही कुछ है और ग्रिम बंधुओं द्वारा संकलित की गई जर्मनी की लोककथाओं में भी। दुनिया के बनने की कथाएं भी मिलती-जुलती हैं और परियों की कहानियां भी। दरअसल यह किस्सागोई का ही नतीजा है कि सारी दुनिया का लोक-साहित्य लगभग एकाकार हो गया है।

बच्चों की दुनिया
इस बात से आप भी सहमत होंगे कि बच्चे कहानियां पढ़ने से ज्यादा सुनना पसंद करते हैं। दरअसल कहानी सुनने के दौरान उनके दिमाग पर वह दबाव नहीं होता, जो पढ़ने के दौरान होता है, और वे कहानी के साथ-साथ अपने कल्पनालोक में उन्मुक्त उड़ान भर सकते हैं। कहानी की घटनाएं, उनके पात्र उनके मानस में जीवंत होते चले जाते हैं और साथ ही कहानी में निहित संदेश भी वे आत्मसात करते चले जाते हैं। किस्सागोई की अंतरंगता के कारण ही यह शैली बच्चों द्वारा सबसे ज्यादा पसंद की जाती है। शायद यही वजह है कि बच्चों के बीच वही कहानीकार ज्यादा लोकप्रिय हुए हैं, जिन्होंने बातचीत के ढंग में उनके मन की बात कही है।
दादी-नानी की किस्सागोई की कम होती निरंतरता के चलते आज बच्चों की कल्पनाशक्ति भी क्षीण हो गई है। इसकी एक वजह यह भी है कि आज उन्हें सब-कुछ मूर्त रूप में देखने को मिल रहा है। आज वे अपनी कल्पना में परी की तस्वीर नहीं बनाते, बल्कि एनिमेशन फिल्मों और टीवी पर दिखाई देने वाली परी को देखते हैं। चाहे राक्षस हो, राजकुमार हो, या चुड़ैल, सब कुछ उनके सामने रख दिया गया है। वे अब अपनी चुड़ैल तैयार नहीं करेंगे, बल्कि पहले से मौजूद चुड़ैल को देखेंगे।  बचपन में जब हम दादी-नानी के मुंह से इन किरदारों का वर्णन सुनते थे, तो अपने मन में उन्हें गढ़ते थे। शायद इसीलिए हम सबके राजा, राक्षस और चुड़ैलें अलग-अलग हुआ करते थे। यह प्रक्रिया हमारी कल्पनाशीलता को भी बढ़ाती थी और हमारे दिमाग को तीवृ भी, लेकिन तकनीक का विस्तार आज बच्चों की कल्पनाशीलता को खत्म करता जा रहा है। दूसरी ओर किस्सागोई की कमी नए किरदारों को गढ़ने में बाधक बनी है।

किस्सागोई का बाजार
देखा जाए तो किस्सागोई कभी खत्म न होने वाली विधा है, उसमें बदलाव होते रहते हैं। किस्सागोई आज भी है, लेकिन अब उसने अपने रूप के साथ-साथ जगह भी बदल ली है। अब वह घर, चौपालों, दोस्तों की बैठकी के बजाय टीवी के पर्दे और विज्ञापन संसार में सिमट गई है। अब किस्सागोई बड़े पैमाने पर उत्पाद बेचने का माध्यम बन गई है। फिर चाहे वह जूजू की बिना आवाज की किस्सागोई हो, या फिर मनुष्य के विकासक्रम का किस्सा दिखाने वाला महज 'दद्दू' की आवाज वाला एक च्युइंग गम का विज्ञापन। आज विज्ञापन जगत किस्सागोई का इस्तेमाल करता है, ताकि दर्शकों की नजर से विज्ञापन आसानी ने न गुजर जाए, उसे विज्ञापन में कुछ रोचक लगे। वैसे भी सेठ गोडिन ने अपनी किताब 'आॅल मार्केटर्स आर लायर्स' में लिखा है कि 'मार्केटिंग एक किस्सागोई है। उत्पादों को उन कहानियों के जरिए ब्रांड्स में बदला जाता है, जो बाजार के खिलाड़ी उनके इर्द-गिर्द बुनते हैं। इन खिलाड़ियों में विज्ञापन एजेंसियां भी हैं। तो जब तक मार्केटिंग बरकरार रहेगी, किस्सागोई भी रहेगी।' अब सवाल यह है कि क्या मार्केटिंग की किस्सागोई, चेतना, मूल्यबोध, रिश्तों की बुनावट और हमारे कल्पनालोक को भी बरकरार रख सकेगी?

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

अभिव्यक्ति और शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया...

(मुक्तिबोध की डायरी पढते हुए विचारो के लेखन प्रक्रिया से गुज़रने को लेकर जो विचार मन मे आए.)



          निश्चय ही जीवनानुभूतियां/भावनाएं, लिखने या शब्दबद्ध होकर प्रस्तुत होने से पृथक होती हैं। जीवनानुभूतियों से उत्पन्न पीड़ा, आनंद और उनके उद्वेग से उत्पन्न भावनाएं स्वयमेव ही एक काव्य हैं, जिन्हें पूर्णत: समझ पाना स्वयं के लिए ही संभव होता है। (कई बार नहीं भी होता क्योंकि मन विचारात्मक दुविधाओ से दो-चार होता है।) परंतु इन समस्त अनुभूतियों को शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया में बहुत ही मंद गति से और स्वयमेव ही अन्य अनुभूतियो, विंबों, व्याख्यात्मक शब्दों के समाहित होने से अनुभूतियां निरंतर परिष्कृत होती हैं। अनुभूतियों से उत्पन्न हुई कलात्मक/सौंदर्यात्मक बिंब दृष्टि नवीन चित्रों, शब्दों, अभिव्यक्ति की भाषा के समावेश होते ही शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया में परिष्कृत होती है और शब्दबद्ध होने के उपरान्त उत्पन्न सौन्दर्यबोध, प्रारंभकि सौन्दर्यबोध से पृथक होता है।

          अक्सर जिस बिंब दृष्टि, जिस अनुभूति को हम शब्दबद्ध करके प्रदर्शित करने के अभिलाषी होते हैं, शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया में निरंतर वह अपने मूल रूप से कहीं न कहीं भिन्न होती जाती है। परिणामत: अंत तक पहुंचते-पहुंचते यह आभास होता है कि जिस बिंब को हम प्रदर्शित करना चाहते थे उसमें हम पूर्णत: सफल नहीं हो सके। बहुत कुछ ऐसा छूट गया है जो व्यक्त किया जाना था और बहुत कुछ ऐसा व्यक्त हो गया है जिसे प्रारंभ में सोचा नहीं गया था किन्तु रचना प्रक्रिया में स्वत: ही जुड़ गया है।

          निश्चय ही शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया भी अत्यंत जटिल होती है। जीवनानुभूतियां या उनसे उत्पन्न भावबोध जितना मानसिक/भावनात्मक रूप से स्पर्श करता है उस स्पर्श को, उस उद्वेलन को शब्दबद्ध करने में शब्द और भाषा का चयन एक जटिल समस्या है। विचारात्मक या भावनात्मक उद्वेलन जिस गंभीरता, गहनता से अनुभूत होता है उसे व्यक्त करने के लिये प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द या शब्द-समूह वैसी ही गहनता से उसे पाठक के मन में भी अनुभूत करा सके यह सदैव संदेहास्पद है। कई बार लेखक को स्वयं भी वे शब्द-समूह नाकाफ़ी प्रतीत होते हैं। परिणामत: लेखक निरंतर अपनी शैली और भाषा को परिष्कृत करने को प्रयासरत होता है। वह अपनी स्वयं की एक ऐसी भाषा तैयार करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील होता है जो उसकी अनुभूतियों को बिल्कुल वैसा प्रदर्शित कर सके जैसा वह करना चाहता है।

          शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया में उपस्थित यह जटिलता ही अनुभूतियों के परिष्कृत होने और मूल रूप से भिन्न हो जाने में संभवत: महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। साथ ही अनायास ही और कई बार व्याख्या या सरल करने की दृष्टि से समाहित हो जाने वाले अनुभूति-चित्र भी अपना सहयोग देते ही हैं। निश्चय ही अभिव्यक्ति की संपूर्ण प्रक्रिया में शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया सर्वाधिक जटिल है।