-रजनीश ‘साहिल’
‘सब
कुछ अच्छा भला चल रहा था। दिन-रात, चौबीस घंटे कभी विज्ञापन में, तो कभी
धारावाहिकों-फ़िल्मों में दिखती साड़ी से लेकर बिकनी तक में मौजूद देहयष्टि
की कल्पना करते दिमाग को जो कुछ पढ़ने में मज़ा आ सकता था, उसके लिहाज से सब
अच्छा भला ही चल रहा था। फिर अचानक लगा कि किसी ने अपनी पूरी ताकत से एक
झन्नाटेदार थप्पड़ मार दिया हो। एक ऐसा थप्पड़, जो रंगीन कल्पनाओं की दुनिया
से खींचकर सीधे उस हकीकत से रू-ब-रू कराता है, जो तकलीफ़देह है, घिनौनी है,
इंसान के जानवर होने की तसदीक़ करती है और जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। और भी
कुछ ऐसा महसूस होता है यार, जिसे मैं कह नहीं पा रहा हूं।’
जब मेरे मित्र ने मुझसे यह कहा था, तब मैं बखूबी समझ रहा था कि वह क्या
महसूस कर रहा है, क्या कहना चाहता है, जिसके लिए सही शब्द नहीं ढूंढ पा
रहा है। वह जो कुछ महसूस कर रहा था, तकरीबन वैसा ही कुछ मैंने भी महसूस
किया था, जब उस बदनाम कहानीकार की कहानी सही मायनों में पहली बार पढ़ी थी।
फिर जितनी कहानियां पढ़ता गया, हर बार एक थप्पड़ का इजाफ़ा होता गया। मुझे
यकीन है कि यह हर उस शख्स के साथ हुआ होगा, जिसने सआदत हसन मंटो की
कहानियां पढ़ी हैं, ढंग से पढ़ी हैं।
एक नजर में मंटो को थप्पड़ मारने वाला कहानीकार कहा जा सकता है, मगर हर
कहानी में इस थप्पड़ की किस्म जुदा है। कभी वह झन्नाटेदार थप्पड़ मारते हैं,
तो कभी हल्की सी चपत लगाते हैं। उनकी तकरीबन कहानियों में यह भाव है।
बावजूद इसके उनकी बहुतेरी कहानियां हैं, जहां इंसान के दुर्भावनापूर्ण
चेहरे के अलावा संवेदनाओं से लबरेज़ चेहरे भी दिखाई देते हैं। ‘काली सलवार’
जैसी कहानियां इसका उदाहरण हैं, जहां एक-दूसरे से नितांत दो अजनबी एक-दूसरे
की अभिलाषाओं के बारे में सोचते हैं।
बहरहाल, मंटो की कहानियों के पात्रों के बारे में अगर बात करें, तो वे
आज भी वैसे ही हैं, जैसे मंटो के समय में थे। यानी मंटो की कहानियों के
पात्र सर्वकालिक हैं। कल भी वैसे ही थे, आज भी वैसे ही हैं। अपनी एक कहानी
‘सरकंडों के पीछे’ में मंटो खुद शुरुआत में ही लिखते हैं, ‘देखिए मैं उस
स्त्री का नाम बताना भूल गया। बात असल में यह है कि उसका नाम कोई मायने
नहीं रखता। उसका नाम आप कुछ भी समझ जाइए। सकीना, महताब, गुलशन या कोई और। आख़िर नाम में क्या रखा है।’ सच है, नाम में कुछ नहीं रखा। मंटो की कहानियों
के पात्र हमारे चारों ओर हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि मंटो ने उनके बारे
में लिखा और हम उनके बारे में सोचने से भी क़तराने लगे हैं। ठीक ऐसे ही जब
मंटो लिखते हैं, ‘कौन-सा शहर था, जहां तक मैं जानता हूं आपको मालूम करने और
मुझे बताने की कोई जरूरत नहीं।’ तो यकीन जानिए कि जिस जगह का जिक्र मंटो
कर रहे हैं, वह पेशावर भी हो सकती है, कोलकाता भी, मुंबई भी और उजाड़ में
बसा कोई गांव भी। वह आज की पूरी दुनिया का कोई भी हिस्सा हो सकता है, जहां
हर हाल में रोटी का जुगाड़ आज भी सबसे अहम सवाल है।
मंटो के बारे में अमूमन यही कहा जाता है कि विभाजन, उसके दौरान और
उसके बाद की विभीषिका पर उनसे ज्यादा दहलाने वाली कहानियां शायद किसी ने
नहीं लिखीं। यह सच भी है, फिर भी मुझे लगता है कि यह मंटो जिस वक्त में
कहानियां लिख रहे थे, उस वक्त के हालात से जोड़कर उन्हें देखने का नतीजा है।
वरना उन्होंने ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जो किसी खास वक्त की हो ही नहीं
सकतीं। ठीक है कि आज हालात में काफ़ी तब्दीली आ चुकी है लेकिन ‘हीरामंडी’ के
सलाहू और दूदा पहलवान हों, चाहे ‘लायसेंस’ की इनायत उर्फ नीति का अंजाम,
आज भी चीजें वैसी ही हैं। आज जिस ढंग से तमाम तरीकों की आड़ में हिंदुस्तान,
पाकिस्तान, ब्रिटेन, अमेरिका, अफगानिस्तान और अरब देशों में ऑनर किलिंग
के मामले सामने आ रहे हैं, ऐसे में मंटो की कहानी ‘इश्क पर ज़ोर नहीं’ कुछ
अलग ढंग की कहानी लगती है। शरुआत में ही मंटो लिखते हैं, ‘लोगों को यह
शिकायत है कि मैं रोमांटिक कहानियां नहीं लिखता। मैं अब इश्क़िया कहानी लिख
रहा हूं, ताकि लोगों की यह शिकायत भी किसी हद तक दूर हो जाए।’ इसके बाद
मंटो बाकायदा एक इश्क़िया कहानी लिखते हैं, जहां नायक जमील पूरी तरह इश्क़ियाया हुआ दिखाई देता है। मगर यह कोई फिल्मी कहानी नहीं है, जिसका अंत
सुखद हो। जमील पूरी कहानी के दौरान इश्क़ तलाशता रह जाता है और अंत में पता
चलता है कि मूर्खता की हद तक सादा और सीधी अजरा ने सिर्फ इसलिए ख़ुदकुशी कर
ली कि उसे जमील से बेइंतहा मोहब्बत थी और जमील की शादी कहीं और तय हो चुकी
थी, जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सकी। जहां तक समझ आता है मंटो ने अजरा की ख़ुदकुशी का ताना सिर्फ इसलिए नहीं बुना कि वह इश्क़ में हार जाने से टूट गई
थी। हारना कैसा, जबकि उसने इज़हार-ए-मोहब्बत कभी किया ही नहीं। असल में यह ख़ुदकुशी उन ख़्वाबों की है, जो एक नौजवान स्त्री देखती है, जिनका इज़हार करने
तक की उसे इजाज़त नहीं है। आज भी ऑनर किलिंग के नाम पर दुनियाभर के देशों
में जो सबसे ज़्यादा आसान शिकार है, वह महिलाएं ही हैं। वे अपनी भावनाओं को
व्यक्त करने के कारण मारी जा रही हैं, और अजरा बिना व्यक्त किए मर गई। फ़र्क
क्या है?
देखा जाए तो मंटो उर्दू के वैसे ही कहानीकार हैं, जैसे हिंदी के
प्रेमचंद या बांग्ला के शरतचंद्र। या शायद उससे भी कहीं ज़्यादा, क्योंकि
इंसानियत को जिस बुरी तरह से झिंझोड़ा जा सकता है, उसकी पराकाष्ठा सिर्फ
मंटो के यहां मिलती है। मंटो की कहानियां किसी भी दौर में क़ैद नहीं की जा
सकतीं। वह हर दौर में उसी के मुताबिक झंझोड़ती हैं, दिमाग की चूलें हिलाती
हैं और सवाल खड़े करती हैं। ‘नंगी आवाज़े’, ‘तमाशा’, ‘दो क़ौमें’, ‘सड़क के
किनारे’, ‘नारा’, ‘डरपोक’, ‘नया कानून’ जैसी उनकी तमाम कहानियों का ज़िक्र इस सिलसिले में किया जा सकता है। भले ही यह कहानियां बहुत अलग-अलग तरीके से
अलग-अलग चीजों को बयां करती हैं, लेकिन अंतत: हमारे आसपास और बीच की
स्थितियों को लेकर सवाल खड़े करती हैं। इसके बरअक्स ‘टोबा टेकसिंह’, ‘काली
सलवार’, ‘मंजूर’, ‘हीरामंडी’ जैसी कहानियां इंसान की अतिशय संवेदनशीलता को
भी नुमायां करती हैं, जहां कहानी के दो पात्र एक-दूसरे से किसी मुलाहजे में
नहीं बंधे हैं, लेकिन एक की तक़लीफ से दूसरा द्रवित होता है।
कहानी कहने की विधाओं के बारे में अगर बात की जाए तो मुख्यत: दो किस्म
की कहानियां सामने आती हैं। एक वह जो दृश्य वर्णन के साथ-साथ उसके मायने भी
साथ ही व्यक्त करती जाती हैं, दूसरी वह जो महज़ एक कथ्य के माध्यम से पूरा
दृश्य और उसका विस्तृत आख्यान वर्णित करती हैं। मंटो की कहानियां दूसरी
किस्म की हैं, लेकिन फिर भी अलग हैं। वह कहानी लिखते नहीं, सुनाते हैं।
अक्सर कहानियों में वह किस्सागो नज़र आते हैं। चाहे वह स्त्री देह का वर्णन
हो या अस्पताल में पड़े मरीज़ों के बीच की बातचीत, वह अपनी हर पंक्ति के साथ
एक दृश्य दिखाते हैं। दृश्य-दर-दृश्य चलती एक जीवंत कथा कहते हैं और अंत की
तीन या चार पंक्तियों में पूरी कहानी की असलियत बयां करते हैं। कुछ इस तरह
कि वह आखिरी पंक्तियां ही असली कहानी हो जाती हैं, बाकी पूरा वृत्तांत तो
महज़ भूमिका भर लगता है। बकौल वाल्टर बेंजामिन कहानी कहने की आधी कला इसी
में है कि सुनाते समय उसे तमाम स्पष्टीकरणों से मुक्त रखा जाए। इस नज़रिए से
दुनियाभर के किस्सागो कहानी कहने की जिस शैली को सबसे बेहतर मानते रहे
हैं, वही शैली मंटो की कहानियों में मौजूद है, यानी जहां अंत ही सबकुछ है।
मंटो ऐसा ही करते हैं, वह कहानी के क्लाइमैक्स के साथ ऐसा कुछ छोड़ जाते
हैं, जिस पर बात करनी अभी बाकी है। जिस पर सामाजिक नज़रिये से कदम उठाऐ जाने
की अभी भी ज़रूरत बाकी है। अपने शब्दों में कहूं तो यह कि वह हर कहानी के
अंत के साथ हमारे मुंह पर एक ऐसा तमाचा जड़ते हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर
करता है कि क्या वाकई हम इसी लायक हैं।
(जनपथ के जुलाई 2012 अंक में प्रकाशित)
बहुत सुन्दर विश्लेषण दिया है।
जवाब देंहटाएं