सुनो महादेव!
अब नहीं रहना मुझे
तुम्हारी जटाओं में कैद
नहीं बहना वैसे
जैसे तुम नियंत्रित करो
जितनी तुम छूट दो
पहाड़ों पर रहते हुए
बाँधा जैसे तुमने
तुम्हारे अनुयायी भी
बाँधते रहे जगह जगह
रोकते-बाँटते गए
दिखाते गए अपनी-अपनी ताक़त
जब कभी चाहा बहना
स्वतंत्र होकर, निर्विरोध
कहा गया उद्दंड
कि तोड़ दी हैं मर्यादाएं
क्या सब मेरे लिए ही थीं
तुम्हारी नहीं थी कोई?
और तुम्हारे अनुयाइयों की?
जब चाहा ही नहीं तुमने
कि आऊँ मैं समूचे अस्तित्व के साथ
सबके सामने
बाँधे रहे न जाने
किस-किस तरह के जटाबंधनों में
देते रहे बस उतनी ही छूट
कि बस दर्ज होती रहे मेरी उपस्थिति
खुद बने रहे घुमंतू, स्वतंत्र
परवाह ही न की मेरी स्वतंत्रता की
तो क्यों करूँ मैं परवाह
अगर मेरी स्वतंत्रता से
डोलता है तुम्हारा आसन
अगर त्राहिमाम करते हैं
तुम्हारी राह पर चलने वाले
सुनो महादेव!
नहीं रहना अब मुझे
तुम्हारे बंधनों में कैद
मैं बहूँगी पूरे वेग से
पूरी स्वतंत्रता से
सामने आए जो अबकी तुम
बहा ले जाऊँगी तुम्हे भी।
बहुत संदर व सार्थक रचना
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