शुक्रवार, 28 जून 2013

ज़ुल्म बढ़ते थे पर झुका न गया


ज़ुल्म बढ़ते थे पर झुका न गया
उनके सजदे में कुछ कहा न गया

तेरी ख़्वाहिश तड़प के बोलूँ कभी
हाय हमसे ये उफ़! कहा न गया

जबसे बाज़ार ख़बरें देने लगा
खेत का हाल कुछ कहा न गया

आज बाज़ार में मैं उतरा था
एक ठप्पे के बिन बिका न गया

लब को उसके गुलाब कैसे कहूँ
बात जिसकी से इक छुरा न गया

अब भी करते हैं भरोसा तो मगर
तेरे वादे पे बस मरा न गया।

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