कल रांझना देखी और कह सकता हूं कि अरसे बाद कोई अच्छी फिल्म देखी... एंटरटेनमेंट के लिहाज से। वैचारिक स्तर पर कुछ गड़बड़ियां हैं, लेकिन यह देखकर थोड़ी राहत भी मिलती है कि फिल्में भव्य सेट, लकदक परिवेश, स्विटजरलैंड की हसीन वादियों, ढिशुम-ढिशुम और चकाचाौंध से बहार निकलने की कोशिश कर रही हैं। मसाला फिल्मों का दर्शक वर्ग बड़ा है, सो मसाले की मौजूदगी शायद मजबूरी भी है।
एक प्रेम कहानी के लिहाज से फिल्म अच्छी है, लेकिन कुछ दूसरी चीजें जो इस फिल्म से जुड़ी हैं, वे इसकी कमियों को उजागर करती हैं। पहली चीज तो यही कि शायद स्टूडेंट पाॅलिटिक्स के नाम पर जेएनयू एक चिरपरिचित नाम है बस शायद इसीलिए इसे चुन लिया गया। जो जेएनयू से वाकिफ नहीं हैं शायद उन्हें इस बात का आभास न हो, पर जेएनयू के छात्र संगठनों और छात्र राजनीति का चेहरा इतना उथला तो नहीं है, जो फिल्म में दिखाई दिया है। कहानी को आगे बढ़ाने के लिए एक बड़े ही सपाट ढंग से जेएनयू और वहां की छात्र राजनीति का इस्तेमाल किया गया है, वरना तो कोई भी दूसरा विश्वविद्यालय हो सकता था। दूसरी चीज़ ये कि एक छात्र संगठन नुक्कड़ नाटक करता है, अपनी पार्टी बनाता है पाॅलिटिक्स के मैदान में उतरता है, और राज्य सरकार उससे इतनी घबरा जाती है कि उसके खिलाफ सीधे-सीधे हमले (जैसा कि गुप्ता जी द्वारा कुंदन को पीटने के लिए सीधे-सीधे पुलिस का इस्तेमाल) और फिर बम धमाका और गोली मार देने का षडयंत्र रचती है। भ्ई यह तो कुछ ज्यादा हो गया है। यह कुछ कुछ ऐसा ही है कि अरविंद केजरीवाल एक पार्टी बनाते हैं और यह भ्रम फैलता है कि सरकार उनसे खौफजदा है। तकनीकी गड़बड़ी यह है कि इसे जेएनयू की छात्र राजनीति से जोड़ दिया गया। फिर इसमें किसानों का संदर्भ भी आता है, जिसे बस छूकर निकला गया है। यह कहा जा सकता है कि एक कमर्शियल फिल्म में गंभीर विषयों को छूना भी हिम्मत का काम है, लेकिन बस छू भर देना और भी खराब है, क्योंकि कई बार यह उपहास करने जैसा लगता है। हिंदु लड़के से विवाह के लिए एक मुस्लिम परिवार का विरोध भी एकतरफा दृश्यांकन है। आॅटो में नायक के कलाई काट लेने की घटना के बाद नायिका के घर की कट्टरता तो दिखाई दे जाती है, पर नायक के घर की कट्टरता नदारद है, जबकि बिंदिया से विवाह के वक्त समय पर न पहुंचने के लिए नायक को पिता बाल्टी से पीटकर घर से निकाल देता है। हालांकि यहां भी स्पष्ट नहीं है कि नायक अपने विवाह में न पहुंचने के लिए पिटता है या नायिका से प्रेम की वजह से। शायद यही वजह है कि फिल्म का दूसरा भाग कुछ कमजोर लगता है। दूसरा भाग बहुत सी चीजों को स्पष्ट किए बिना बस कहानी को आगे बढ़ाता है।
हां, यह बात जरूर ख़ास है कि अरसे बाद मुख्यधारा की किसी फिल्म में बहुत ही सामान्य से परिवार और लोग दिखे हैं, जिनके किरदारों में कोई एक्स्ट्रा एलिमेंट नहीं डाला गया है। सामान्य सी कहानी को निर्देशक आनंद राय ने अच्छा ट्रीटमेंट दिया है और लेखन के लिए हिमांशु शर्मा तो बधाई के पात्र हैं ही। फिल्म में अभिनय के भी पहले अगर कोई चीज ध्यान आकर्षित करती है, तो वह संवाद हैं।
अभिनय की बात करें तो चाॅकलेटी चेहरे वाले नायक न होने के बाजूद धनुष इस फिल्म के जरिए अपनी अलग उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हुए हैं। मोहम्मद जीशान अयूब और स्वरा भास्कर ने अपने-अपने किरदार को पूरी संवेदना के साथ जीया है। उनके अभिनय में रंगमंच से जुड़ाव की छाप दिखाई देती है। जहां तक पृष्ठभूमि की बात है तो फिल्म में बनारस डायलेक्ट और परिवेश के लिहाज से कहीं नहीं दिखाई देता, तब भी अगर बनारस की झलक कहीं मिलती है तो वह जीशान अयूब के किरदार में। कुंदन के मित्र के किरदार में उन्होंने कमाल अभिनय किया है।यूं तो पूरी फिल्म में धनुष का अभिनय अच्छा है, लेकिन प्रथम भाग में खासकर स्कूली दिनों के प्रेमी, फिर प्रेम के लिए कुछ भी कर जाने की संवेदनाओं वाले दृश्यों में ज्यादा प्रभावी रहे हैं। धनुष के किरदार को उभारने का जितना श्रेय जीशान के किरदार को मिलना चाहिए उतना ही बिंदिया को भी। बिंदिया के किरदार में दोस्ती और प्रेम दोनों हैं और Swara Bhaskar इसे बहुत बेहतर निभाया है। सहयोगी किरदार होते हुए भी यह अपने-आप में एक पूरी कहानी है। इस तिकड़ी के बरअक्स देखें तो सोनम का अभिनय बहुत अपरिपक्व दिखाई देता है।
फिल्म का गीत-संगीत पूरी तरह सिचुएशनल है। ध्यान देने की बात है कि फिल्म का एक भी दृश्य संगीत के बिना नहीं है और वह दृश्य के भाव से ज़रा सा भी इधर-उधर नहीं है। इरशाद कामिल के गीत और ए.आर. रहमान का संगीत फिल्म को देखते हुए ऐसे नहीं लगते कि कुछ जबरदस्ती शामिल कर दिया गया है। बिल्कुल बैलेंस्ड म्यूजिक।
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