शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

ख़बर बारूद होती है


शहर की भीड़ में यूँ तो बहुत ज़्यादा निकलते हैं 
मगर कुछ तो हैं सन्नाटे जो अपने साथ चलते हैं 

कोई रस्ता नहीं सच का जहाँ क़दमों को राहत हो 
जहाँ भी जाएँ हम ये आबले भी साथ चलते हैं

उन्हें ख़ुशफ़हमियाँ हैं ये के सबकुछ है यहाँ बेहतर 
हमीं जानें के कब कैसे ये अपने दिन निकलते हैं 

बहुत तामीर मुश्किल है मगर उसको यक़ीं भी है 
अभी मुफ़लिस की आँखों में सुनहरे ख़्वाब पलते हैं 

सभी को फ़िक्र है बेहद दरिंदे क्यों हैं बस्ती में 
यहीं आँचल सरकते के मगर क़िस्से उछलते हैं 

बदल जाता है हाकिम भी निज़ाम-ए-दहर भी लेकिन 
फ़क़त काग़ज़ बदलते हैं कहाँ ये दिन बदलते हैं 

ख़बर जो देते हैं सब को उन्हें कोई ख़बर ये दे 
ख़बर बारूद होती है शहर इससे भी जलते हैं

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