(16 सितम्बर को जनवाणी में प्रकाशित ) |
बहरहाल, अभी तीन दिन पहले ही मेरठ से दिल्ली जा रहा था, तब भी एक एक्सीडेंट का दृश्य देखा। जो देखा वह घटना घट चुकने के बाद का दृश्य था। एक आदमी बीच सड़क पर लहूलुहान पड़ा था। सड़क पर बिखरे दिमाग और बगल से झांकती पसलियों को देखकर मेरे बस के कुछ सहयात्री उबकाइयां लेने लगे थे, महिलाओं ने मुंह-नाक पर रूमाल रखते हुए नजरें फेर ली थीं। कुछ पुरुषों का भी यही हाल था। कोई बड़ी बात नहीं थी, जब एक्सीडेंट में चोटिल हुए व्यक्ति की तरफ से लोग नजरें फेर लेते हैं ताकि ‘व्यर्थ के झंझट’ में पड़ने से बचा जा सके, तो फिर यह आदमी तो मर चुका था। लेकिन मरकर भी यह आदमी लोगों के लिए ‘मुसीबत’ था, क्योंकि बीच रोड पर पड़ी उसकी मृत देह के पास भीड़ जमा थी, ट्रैफिक जाम था और लोगों को अपने-अपने गंतव्य तक पहुंचने की ‘जल्दी’ में बाधा बन रहा था। मेरे सहयात्री एक सज्जन का कहना था, ‘पता नहीं लोगों को इतनी जल्दी क्यों रहती है! देखो, जल्दबाजी में सड़क पार कर रहा था और ट्रक ने ठोक दिया। अब इसकी वजह से ट्रैफिक जाम हुआ पड़ा है। मुझे आठ बजे घर पहुंचना था, बच्चों के साथ फिल्म देखने का प्रोग्राम था। ...अरे ड्राइवर साहब, धीरे-धीरे गाड़ी बढ़ाओ यार, जल्दी पहुंचना है।’
उस आदमी की मृत देह से थोड़ी दूरी पर कुछ सामान बिखरा पड़ा था। एक पॉलीथिन से बाहर छिटक कर गिरीं वाटर कलर की कुछ शीशियों का सड़क पर बिखरा हुआ रंग, कुछ पेंसिलें और बच्चों के इस्तेमाल में आने वाली ड्राइंग बुक। उसके बच्चे के हाथों से बनने वाले न जाने कितने ही चित्र दिमाग में कौंध गए, जिन्हें देखने की शायद उसे भी जल्दी थी। मगर रंग तो बिखर चुके। सहयात्री के शब्द दिमाग में गूंज रहे थे- ‘बच्चे... फिल्म का प्रोग्राम... जल्दी...।’