मंगलवार, 15 नवंबर 2011

सवाल खड़े करती शहादत


सूचना के अधिकार ने एक विश्वास पैदा किया था। यह विश्वास था अनियमितताओं में कमी आने का। क्योंकि जानकारी देने के लिए कोई जवाबदेह था, जानकारी पाना आसान था और इस बहाने किसी की चोरी पकड़ना भी आसान हो गया था। इसके साथ ही इस बात को बल मिला कि सरकारी योजनाओं में जो पैसा खर्च होता है, वह जनता का पैसा है और जनता को पूरा हक है कि वह उस पैसे का हिसाब-किताब खर्च करने वालों से मांगे। बेशक यह सब हुआ और हो रहा है, पर रास्ता कठिन से दुर्गम होता जा रहा है। शायद ही किसी ने यह कल्पना की होगी कि अपने ही पैसे का हिसाब-किताब मांगना, अपनी ही मिल्कियत को बचाना और सच का दामन पकड़ कर झूठ का नकाब खींचना इतना मंहगा भी पड़ सकता है कि जान से हाथ धोना पड़ जाएगा। सूचना का अधिकार निश्चित ही जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह बनाने के लिए एक सशक्त औजार है, जिसका इस्तेमाल जनता के हाथ में है। सरकार इस औजार को उपयोग करने की नसीहतें भी भरपूर देती है, और उपयोग होता भी है। इसकी सफलता के उदाहरण भी छोटे से लेकर बड़े स्तर तक काफी मौजूद हैं। पर यह एक विडंबना ही है कि इन सफलताओं को प्राप्त करने में हमारे कितने निर्भीक साथी हमसे बिछुड़ गए हैं।
हाल ही में अहमदाबाद में हुई आरटीआई एक्टिविस्ट नदीम सैयद की हत्या से लेकर शेहला मसूद, नियाम अंसारी, इरफान यूसुफ काजी, बाबू सिंह, अमित जेठवा, सतीश शेट्टी, दत्तात्रेय पाटिल, विट्ठल गीते और न जाने कितने ही नाम हैं, जो महज इसलिए मौत के घाट उतार दिए गए कि वे जानना चाहते थे, जान चुके थे और उन लोगों के चेहरे पर चढ़ा भलमनसाहत का नकाब खींच रहे थे, जो सुरक्षा, विकास, बेहतरी और सेवा के नाम पर किसी दीमक की तरह काम रहे हैं। नदीम की निर्मम हत्या ने फिर से उन तमाम साथियों की याद ताजा कर दी है, जिन्होंने इस अधिकार के प्रयोग से अनियमितताओं को उजागर करने का प्रयास किया और बदले में अपना जीवन दांव पर लगा दिया। आखिर नदीम की गलती क्या थी? सिर्फ इतनी कि उन्होंने सरकार के ही एक घोषित टूल का उपयोग कर अवैध पशुवधशाला के मामले का पर्दाफाश किया, या यह कि वे पाटिया दंगा कांड के गवाह थे। क्या सतीश शेट्टी की गलती यह थी कि उन्होंने भू-माफिया को बेनकाब करने की कोशिश की, यानि सरकार के काम में अपना सहयोग दिया। यह कहा जा सकता है कि इन्होंने बड़े और ताकतवर लोगों से पंगा लिया, लेकिन बाबू सिंह और सोला रंगाराव ने तो महज अपने गांव में लड़ाई लड़ी। एक ने सरकारी फंड में प्रधान द्वारा की गई धांधली की जांच की मांग की, तो दूसरे ने नाली व्यवस्था का मुद्दा उठाया।
पूरे देश में हाल ही के वर्षों में ललित मेहता, सोमय गगरई, नारायण हरेका, विश्राम लक्ष्मण डोडिया, रामदास धावेडकर, अरुण सावंत और लांग्टुक फांको जैसे छोटे-बड़े सामाजिक कार्यकताओं, जिन्होंने सूचना के अधिकार को अपना हथियार बनाया, को मौत के घाट उतार दिया गया है।  विचारणीय बिंदु यह भी है कि जिस मसले पर काम को आगे बढ़ाते हुए ये मौत के अंजाम तक पहुंचे, वह फिर भी सरकार या स्थानीय प्रशासन की प्राथमिकता नहीं बन सका। यह बड़ा ही खेदपूर्ण है कि व्यवस्था की बेहतरी के लिए जिन्होंने अपनी जान से हाथ धोया, उन्हें केवल श्रेष्ठ कार्यकर्ता कहकर व्यवस्था-निर्माता अपनी जवाबदेही से मुक्त हो जाते हैं, बजाय इसके कि उन्होंने जो प्रश्न खड़े किए, हालात सामने लाए उन पर जिम्मेदारीपूर्ण ढंग से कार्यवाही करें। यह सच की ताकत की उपेक्षा नहीं तो और क्या है?
बेहतरी के लिए लड़ रहे इन सिपाहियों की मौत की जांच भी कई सवाल खड़े करती है। इनमें से कई हत्याओं की जांच सीबीआई तक को सौंपी गई है, लेकिन कुछ मामलों में तो यह भी पता नहीं चल सका है कि जांच कहां तक पहुंची। हमारे देश की काबिल जांच एजेंसी जब अपराधियों के गिरेबां तक नहीं पहुंच पा रही है, तो पुलिस प्रशासन की तो बात ही छोड़िए। इसकी वजह भी समझ पाना इतना मुश्किल तो नहीं है। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन सबके हत्यारे लोगों के लिए जाने-पहचाने हैं, पर सरकार/प्रशासन के लिए अंजाने। और यह किसी एक क्षेत्र या राज्य की बात भी नहीं है, देश के हर कोने का आलम यही है। नदीम सैयद की हत्या भी जिन स्थितियों की ओर इशारा कर रही है, वह सत्ता के उन गलियारों की गंदगी की बदबू भर है, जहां सफाई करने की नीयत से दाखिल हुए आदमी को पता भी नहीं होता कि किस पत्ते के नीचे से जहरीला डंक निकलेगा।
बहरहाल, जितनी यह बातें साफ हैं, उतना ही यह भी साफ है कि राजा के डर से दिन को रात कहने से इनकार करने वाले कम नहीं होंगे।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

बस एक चिट्ठी, आपके लिए...


प्रिय दोस्तो,
एक वक्त था जब खत लिखे जाते थे, संजो कर रखे जाते थे, और जब खात्मे की नौबत आती थी, तो तकलीफ की नदी में आग लग जाती थी। बकौल शायर राजेंद्रनाथ रहबर ये खत अपनी खूशबू के साथ जलाते हुए हम तड़प के उस अहसास से गुजरते थे, जहां सब कुछ खाक लगता है। इश्क की रूमानियत अब नहीं रही। बस कुछ क्लिक की हिम्मत और बीच के सारे तार टूट जाते हैं। या फिर मोबाइल में सिम बदलनी होती है, और कह दिया जाता है, सब कुछ अनकहा, एक साथ। मुहब्बत की नर्मी के बीच वे खत भी याद आते हैं, जो उस दोस्त को लिखे जाते थे, जिसके साथ बचपन बीता लेकिन किशोरवय और जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही रास्ते जुदा हो गए। मौसी से मामा और बुआ से चाची तक के रिश्तों को आत्मीय संबोधनों के साथ लिखे गए खत हों या अपने समकक्ष और अधिकारियों को लिखे गए कार्यालयीन पत्र, सभी में संवेदना से लेकर प्रतिरोध का खास अंदाज होता था। इनमें हाल-चाल की बारीकी से लेकर खत के अंत में घर आने की जिद्दी टेक भी शामिल होती थी।
पहला खत
आपको याद ही होंगे वे स्कूली दिन, हिंदी और अंग्रेजी की वे कक्षाएं जिनमें पत्र लिखना सिखाया जाता था। एक अजनबी सा नाम और पता होता था, फिर कभी आप किताबें खरीदने के लिए पिताजी से पैसे मंगाने हेतु पत्र लिखते थे, तो कभी अपने भाई की शादी में मित्र को बुलाने के लिए आमंत्रण-पत्र भेजते थे। इस दौरान पत्रों के प्रकार जानते हुए हम सभी ने अपना पहला पत्र उत्तर पुस्तिकाओं में पूरे मन से लिखा था। नंबर पाने के लिए रट्टा लगाकर याद किया गया वह पत्र कुछ इस तरह जेहन में बैठता था कि अगर आप याद करें उस पत्र को जो आपने वाकई किसी को पहली बार लिखा था, तो पाएंगे कि उसकी भाषा और शब्द विन्यास तकरीबन वैसा ही था, जैसा आपसे स्कूल में लिखवाया जाता था।
पहले प्यार की पहली चिट्ठी
प्रेम में लिखे खतों की तो दुनिया ही बड़ी रूमानी है। वो रातों को जागकर लिखे गए खत, किताबों में छुपाकर दिए गए खत, और फिर जिसका इंतजार किया जाता था, वो जवाबी खत। इश्क के रंग में डूबे इन खतों ने शाइरों, गीतकारों को लुभाया और कई कालजयी रचनाएं सामने आर्इं। एक तरफ जहां कबूतर के जरिए पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन तक पहुंची, तो वहीं खत में फूल भेजकर उसे दिल समझने की बात भी कही गई है। दिल-ए-बेकरार का किस्सा लिखकर लफ्जों में हाल-ए-दिल बयां करने का एक वक्त में जो जरिया था, वह खत ही था। यह प्यार के कागज पर दिल की कलम से लिखा जाता था और अब कंप्यूटर या मोबाइल के स्क्रीन रूपी कागज पर की-बोर्ड की कलम से लिखा जाता है। बहरहाल, जवाबी खत यानी ईमेल या मैसेज का इंतजार अब भी तड़प वैसी ही पैदा करता है। फर्क इतना है कि पहले काफी मशक्कतों के बाद एक खत पहुंचाने के बाद जवाब न आया, तो दूसरा भेजते वक्त लगता था, अब इंतजार में एक के बाद एक संदेशों की झड़ी लग जाती है। हाथ की लिखाई में रचे-बसे खतों से प्रियतम का चेहरा झलकता था, और इन्हें खत्म करने के लिए बढ़े हाथ थम जाया करते थे। लेकिन अब इलेक्ट्रॉनिक फार्म में मौजूद खतों से न दिलबर के हाथों की महक उठती है, न ही उसका चेहरा दिखाई देता है, उसकी लिखावट को पहचानने की तो बात दूर ही है। शायद इसीलिए इन पर डिलीट कमांड चलाने में ज्यादा तकलीफ भी नहीं होती।
चिट्ठी आई है
फिल्म ‘नाम’ का वह गीत शायद आप भूले नहीं होंगे, जिसमें वतन से चिट्ठी आने का जिक्र है। घर, गांव, शहर छोड़ किसी दूसरे नगर में बसे हर आदमी को लुभाया है इस गीत ने। कल्पना कीजिए उस वक्त की, जब ईमेल और मोबाइल नहीं थे। ऐसे में डाकिया आवाज लगाता था, तो बच्चे भागते थे दरवाजे की ओर। और चिट्ठी लेकर शोर मचाते लौटते थे कि अम्मा-पिताजी फलां की चिट्ठी आई है। चिट्ठी करीबी रिश्तेदार की हुई तो पूरा घर या तो एक-एक कर चिट्ठी पढ़ता था या फिर एक साथ बैठकर सुनता था। छुट्टियों में महिलाओं को जानकारी मिलती थी कि फलां तारीख को भाई आ रहा है, तो बच्चे खुशी से भर उठते थे कि अब मामा के यहां जाएंगे। खुशी और उल्लास का सारा माहौल बस एक चिट्ठी का ही जहूरा होता था। एक परंपरा थी कि किसी की चिट्ठी आई है, अपनी कुशल-क्षेम के समाचार के साथ उसने हमारा हाल जानना चाहा है, तो उसका जवाब देना ही है। पत्र मिलते ही उसका जवाब लिखने बैठ जाना लोगों की आदत में शुमार हो चुका था, जिसमें यह भी जिक्र किया जाता था कि परिवार का कौन-सा सदस्य कहां है और कैसा है। कई टुकड़ों में बंटा परिवार चिट्ठी में एक साथ समा जाता था।  हमारी सरकार ने भी इस सामाजिक हकीकत के ही तहत जवाबी पोस्टकार्ड का चलन दिया था।
मित्रों को लिखे पत्रों में शब्द कुछ यूं बयां होते थे मानो आमने-सामने बैठकर बात कर रहे हों। बदले वक्त में संचार माध्यम बढ़े, तो यह बानगी कम होती गई। ईमेल की तेजी और फॉन्ट्स की कारीगरी वह उल्लास पैदा नहीं कर पाती जो 25 पैसे के पोस्टकार्ड में होता था। भागती-दौड़ती जिंदगी में टुकड़ों में बंटा परिवार ईमेल में एक-साथ दिखाई नहीं देता। घर के बुजुर्गों के लिए ईमेल आज भी एक दूसरी दुनिया का शब्द है, सो हम उनके हाल-चाल जानने और गांव की गलियों की लय सुनने से महरूम हो गए हैं। याद कीजिए जरा कि आखिरी बार मौसी, बुआ, दादी या नानी की लिखी हुई कोई चिट्ठी-पत्री कब पढ़ी थी। यह भी तो हमारे समय का ही सच है कि ईमेल एड्रेस में दोस्त ज्यादा हैं, परिवार के सदस्य कम।
गुम हो गया पता
कहते हैं कि अगर आप कागज-कलम का इस्तेमाल करके कुछ लिख रहे हैं, तो वह अरसे तक जेहन में मौजूद रहता है। एक जमाना था जब लोगों के पते जुबानी याद थे। डायरी देखने तक की जरूरत नहीं होती थी। जबकि तब आप किसी को उतने पत्र भी नहीं लिखते थे, जितने आज ईमेल करते हैं। गौरतलब है कि पहले पूरे परिवार का एक ही पता होता था, जिसे चिट्ठी में दर्ज किया जाता था, अब एक ही परिवार के कई पते हैं, कई बार तो एक ही आदमी के कई पते हो जाते हैं। एक बहुत छोटा सा सवाल है जनाब, आपको अपने कितने मित्रों के ईमेल एड्रेस याद हैं? ....आठ-दस नामों के बाद दिक्कत पेश आने लगी न। जनाब यही है वह नतीजा जो पत्र लेखन के खात्मे से उपजा है।
सिर्फ पता ही नहीं बदला
बदलते परिवेश में न सिर्फ पते बदल गए हैं, बल्कि कागज कलम के जरिए जज्बात उकेरने की रवायत भी बदली है। कुछ खत सहेजकर रखे हों, तो जरा देखिए कि सहेजा गया आखिरी खत किस तारीख का है। उसे पढ़िए, एक-एक लफ्ज एक चित्र उकेरता है, उन यादों का, उन बातों का जिनसे उपजे हैं वे लफ्ज। फोन या ईमेल के दौर में आप कितनी बातें हूबहू वैसी याद कर सकते हैं, जैसी वे बातचीत में थीं। हूबहू तो दूर की बात, कई बार तो बातचीत ही याद नहीं होगी। खत लिखने के साथ उनकी कांट-छांट और ऊपर नीचे करने की कसरत भी खत्म हो गई। अब मेल या मैसेज में कोई बात सामने वाले को ठीक से समझ नहीं आई, तो दूसरा कर देंगे वाली स्थिति है। वाक्यों को दोहराकर फिर-फिर लिखने की आदत भी खत्म हो चुकी कवायद है। और इसी के साथ खत्म हो रही है भाषायी शुद्धता।
पत्रों में हमने कई स्मृतियां संजो रखी हैं। जो पत्र लिखा है या पाया है, उससे जुड़ी कोई स्मृति अभी तक जेहन में बाकी है। अब, जबकि तकनीकी रूप से परिष्कृत दूरभाष यंत्रों के संदेश बक्से में या ईमेल के इनबॉक्स में एकट्ठे संदेश भी मौजूद हैं, तब आखिर क्यों उनकी संख्या के अनुपात में वैसी स्मृतियां नहीं हैं, जैसे पत्रों के साथ थीं। सीधी बात है जनाब, उनकी लिखावट में हाथ की वो कारीगरी नहीं होती, जिसे देखते ही आप कह दें कि यह अमुक व्यक्ति का लिखा खत है। उसके शब्दों में वो इत्तमीनान नहीं होता जिसका रंग शब्दों के साथ-साथ कागज पर भी उभरता था। वह शब्द विन्यास नहीं रहा, जिसमें दिल की किताब नुमायां होती थी। अरसा हो गया है न कोई खत पाए हुए। ऐसा खत जिसे आप संजो कर रख सकें, बार-बार पढ़ सकें। बहुत सुखद अनुभव होगा न, जब फिर से कोई ऐसा खत लिए डाकिया आपके दरवाजे पर दस्तक देगा। यह सुखद अनुभव ज्यादा दूर नहीं है आपसे, बस एक बार अपने करीबी को पत्र लिखकर तो देखिए, जवाबी पत्र की डाक डाकिया जरूर लाएगा।

                                                                                                                                    आपका
                                                                                                                                           मैं.

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

सरकारी योजनाएं और श्रम


भारतीय व्यवस्था में 1936 से लेकर अब तक कई कानून श्रमिकों को केंद्र में रखते हुए बनाए गए हैं। राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर श्रमिकों के जीवन स्तर में सुधार के लिए तमाम शासकीय योजनाएं भी संचालित की गईं। कुछ में सुधार किए गए, कुछ का अन्य योजनाओं में विलयन कर दिया गया। फिर भी आज श्रमिक वर्ग की स्थिति कैसी है यह किसी से छुपा नहीं है। बेशक श्रमिकों में जागरूकता  है, अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रवृत्ति व हौसला है। स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के तमाम संगठन हैं, लेकिन क्या श्रमिकों की स्थिति में सुधार हुआ है? कानूनों, शासकीय योजनाओं, प्रयासों के प्रकाश में यह सवाल बचकाना लग सकता है, पर शायद इतना छोटा भी नहीं है कि इसके बारे में गंभीरता से बात न की जाए। यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि श्रमिक का तात्पर्य सिर्फ कुदाल हाथ में लिए, सिर पर बोझा लादे और नंगे बदन वाली तस्वीर ही नहीं है, श्रमिकों का दायरा इससे कहीं अधिक व्यापक है।

शासकीय योजनाओं की बात करें, तो संप्रग सरकार की मनरेगा योजना पूर्णत: मजदूरों की योजना है। नरेगा से मनरेगा तक का सफर तय कर चुकने के बाद भी स्थिति यह है कि तकरीबन 30 प्रतिशत मजदूर आबादी रोजगार की तलाश में अब भी पलायन करती है। पिछले सालों की रिपोर्टों पर नजर डालें तो पाएंगे कि कुछ अपवादों को छोड़कर पूरे सौ दिन का काम कहीं भी मजदूरों को नहीं मिला है। यह अधिकतम 60 से 80 दिनों तक आकर अटक जाता है। यानी अब तक सरकार एक वर्ष में 100 दिन का रोजगार सभी मजदूरों को पूरे भारत में कहीं भी सुनिश्चित नहीं कर सकी। ऐसी स्थिति में यदि लोगों की सहभागिता कम हो रही है, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

हाथकरघा व अन्य घरेलू उद्योगों में लगे लोगों की स्थिति तो और भी खराब है। अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आपके पास उत्पादन के लिए कच्चा माल है, उत्पादन की क्षमता है, तैयार उत्पाद हैं लेकिन बेचने के लिए स्थाई और पर्याप्त बाजार उपलब्ध नहीं है। सरकार हथकरघा उद्योग के लिए आर्थिक सहयोग प्रदान करती है, परंतु तैयार माल को बेचने के लिए खुले बाजार के नाम पर सिर्फ इतनी सुविधा प्रदान करती है कि जिला, राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर 6 से 10 दिन की एक प्रदर्शनी लगाई जाए। रोजमर्रा के इस्तेमाल की वस्तुएं बहुत कम मूल्य पर घरेलू उद्योगों से उपलब्ध हो सकती हैं, परंतु उसे बाजार तक पहुंचाने के सरकारी प्रयास अपर्याप्त हैं। नतीजतन जब यही उत्पाद निजी कंपनियों द्वारा बाजार में पहुंचते हैं, तो कीमत तीन से चार गुना ज्यादा होती है और लाभ निजी कंपनियों की जेब में पहुंचता है। हालांकि इन उत्पादों की एक बड़ी खरीदार भारत सरकार खुद है, जिसके लिए उद्योगों का शासकीय खरीद योजना में पंजीकृत होना जरूरी है, परंतु वर्तमान में निरंतर रोजगार के लिए बढ़ते पलायन और इन उद्योगों से प्राप्त उत्पादों की बाजार में उपलब्धता के प्रतिशत को देखें, तो इस व्यवस्था की सफलता और क्रियान्वयन प्रक्रिया पर प्रश्न खड़ा होता है। सरकारी योजनाओं में इन उद्योगों को कम कीमत पर कच्चा माल उपलब्ध कराने, उद्योग स्थापना के लिए आवश्यक धनराशि मुहैया कराने, प्रशिक्षण प्रदान करने जैसी तमाम बातों का समावेश है, लेकिन उद्योग को बरकरार रखने के लिए सबसे आवश्यक तत्व 'बाजार तक पहुंच' को सुनिश्चित करने के कोई ठोस और वृहद इंतजाम नजर नहीं आते।

ऐसे ही कुछ तथ्य कानूनों के संदर्भ में भी हैं। यदि बाल श्रम उन्मूलन अधिनियम को ही देखा जाए तो काम में लगे बच्चों को शिक्षा की ओर ले जाना बहुत महत्वपूर्ण व सार्थक कदम है। बच्चों से काम कराने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई करना भी कानून के क्रियान्वयन में उपयोगी है। तमाम सामाजिक संस्थाएं इसके लिए कार्यरत हैं, फिर भी बच्चे काम करते दिख ही जाएंगे। सवाल यह है कि बच्चे आखिर काम कर क्यों रहे हैं? जवाब आसान है - सरकार के लिए वे सिर्फ बच्चे हैं, उनके परिवार के लिए कमाऊ सदस्य। यदि 8-10 साल का बच्चा कहीं काम कर रहा है, तो निश्चित ही वह मजे के लिए नहीं कर रहा, अपने परिवार की आर्थिक आवश्यकता को पूरा करने में सहयोग कर रहा है। यानी उसके परिवार के पास रोजगार के पर्याप्त साधन नहीं हैं।

न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के संदर्भ में अगर उत्तर प्रदेश की ही बात करें, तो न्यूनतम कृषि मजदूरी 100 रुपये है, यानी रोज काम करने पर वर्ष भर में एक व्यक्ति 36,500 रुपये कमाता है। मनरेगा में 100 दिन के काम का प्रावधान है यानी 10,000 रुपये सालाना। सरकार के आंकड़ों को ही मानें, तो प्रतिदिन भोजन के लिए औसतन 20 रुपये की जरूरत होती है, यानी साल भर में 7300 रुपये भोजन पर खर्च होते हैं। बाकी बचे 2700 रुपये से क्या साल भर के लिए स्वास्थ्य, कपड़े, आवास, शिक्षा व अन्य मूलभूत सुविधाएं प्राप्त की जा सकती हैं? खासकर तब, जबकि न्यूनतम मजदूरी वर्ष में एक बार बढ़ी हो और उपभोग्य वस्तुओं की कीमत चार बार।
यह तथ्य भी विचारणीय है कि एक तरफ तो सरकार गरीबों/श्रमिकों के जीवनस्तर में सुधार के लिए नित नई योजनाओं को अंजाम देती आई है, दूसरी ओर उन्हें निशाना भी बनाती है। जल विद्युत परियोजनाओं, बड़े बांधों, विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों (सेज) के नाम पर जो विकास है, उसके विस्थापितों का आज तक पूर्णत: पुनर्वास नहीं हो सका है। मैंगलौर, उड़ीसा, झारखंड, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश व और भी कई स्थानों पर विकास परियोजनाओं के चलते आज भी विस्थापन जारी है। इन विस्थापितों के सामने रोजगार की समस्या पहले से नहीं है, बल्कि सरकार निर्मित है। जिनके पास अपने जीवन-यापन के लिए कृषि भूमि या प्राकृतिक संसाधन थे, उनसे वह भी छीने जा रहे हैं और बदले में हैं सिर्फ आश्वासन। नतीजतन जो आत्मनिर्भर थे, आज मजदूरी पर निर्भर हैं। महानगरों में निर्माण और विकास कार्यों के लिए जो मजदूर कम पारिश्रमिक पर लाए जाते हैं, काम खत्म होने पर अपेक्षा की जाती है कि वे वापस अपने गृहनगर चले जाएं, जहां से वे अपने रोजगार के संसाधनों को छोड़कर आए हैं। प्रश्न यह है कि क्या वे वापस जाकर पुन: वह रोजगार पा सकेंगे? कॉमनवेल्थ खेलों के लिए तमाम मजदूर दिल्ली आयातित किए गए और अब उनके रहने की व्यवस्था पर भी सरकार की कोई चिंता नहीं है। इस हालत में यह एक बड़ा सवाल है कि महानगरों में रह रहे मजदूरों के रोजगार के लिए क्या ठोस कदम उठाए गए हैं, सिवाय रजिस्ट्रेशन करने के।

शनिवार, 17 सितंबर 2011

कव्वाली का सफ़र



अमीर खुसरो, बाबा बुल्ले शाह, बाबा फरीद, ख्वाजा गुलाम फरीद, हजरत सुल्तान बाहू, सचल सरमस्त और वारिस शाह। ये नाम सुनते ही जो याद आता है, वह है सूफियाना रंगत में डूबा कलाम। मोहब्बत के दीन को फैलाता कलाम। और सहसा ही याद आ जाती हैं कव्वालियां। 8वीं सदी में आज के ईरान और अफगानिस्तान में संगीत की इस अद्भुत विधा ने अपनी दस्तक दी थी। अपने शुरुआती दौर से ही सूफी रंगत में डूबी यह विधा 13वीं सदी में भारत में आई। अमीर खुसरो और उनके अनुयायियों ने भारतीय संगीत के साथ इसे मिलाकर एक नया रूप दिया। आज कव्वाली के जिस रूप को हम जानते और सुनते हैं, वह यही रूप है। तकरीबन 700 साल पहले पंजाब और सिंध प्रांतों में जन-जन के बीच गहरी पैठ बना चुकी कव्वाली आज हिंदुस्तान के हर कोने और हर जुबान में गाई जाती है। फिर भला कैसे हो सकता है कि पूरे हिंदुस्तान के संगीत को एक बड़ा मंच देने वाली हमारी फिल्म इंडस्ट्री इससे अछूती रह जाती।

धूम मचाती कव्वाली
1934 में जब पहली बार फिल्म 'नाइट बर्ड' में 'हसीनों के लिए' कब्वाली आई थी, तब शायद किसी ने यह सोचा नहीं होगा, कि एक दिन कव्वाली फिल्मों का अहम हिस्सा बन जाएगी। लेकिन यह हुआ और कुछ ऐसे हुआ कि आज भी फिल्मों पर कव्वालियों का खुमार छाया हुआ है। कई फिल्में तो ऐसी रहीं, जो अपनी कहानी या अदाकारों के लिए कम जानी गईं, लेकिन उनके संगीत में शामिल कव्वाली के लिए बेतहाशा शोहरत बटोरी। ऐसी ही एक फिल्म थी 1958 में आई 'अल हिलाल'। इस फिल्म का नाम भले ही याद न रहा हो, लेकिन इसमें शामिल कव्वाली 'हमे तो लूट लिया मिल के हुस्नवालों ने' शायद ही कोई होगा, जिसने न सुनी होगी। हालांकि फिल्मी कव्वालियों में संगीत और अंदाज को लेकर शुरुआती दौर से अब तक काफी प्रयोग हुए हैं। कव्वालियों के गायन और मूल अंदाज से जितने हम परिचित है, उसके मुताबिक देखा जाए तो फिल्मी कव्वालियां एक अलग ही ढंग में नुमायां हुई हैं। बावजूद इसके कव्वाली की रूह और अंदाज को बरकरार रखती बंदिशों की भी कमी नहीं है। और देखा जाए तो असल अंदाज के नजदीक रही इन कव्वालियों ने ही सबसे ज्यादा शोहरत भी बटोरी है। फिल्म 'बरसात की रात' की कव्वाली 'न तो कारवां की तलाश है' इसी तरह की कव्वाली थी। इसके अलावा 'तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर' (मुगल-ए-आजम), 'निगाहें मिलाने को जी चाहता है' (दिल ही तो है), 'ऐ मेरी जोहराजबीं' (वक्त), 'ये माना मेरी जां' (हंसते जख्म), 'झूम बराबर झूम शराबी' (फाइव राइफल्स), 'हम किसी से कम नहीं' (हम किसी से कम नहीं), 'पल दो पल का साथ हमारा' (द बर्निंग ट्रेन) और 'इस शाने करम का क्या कहना' (कच्चे धागे) जैसी कव्वालियां हर दौर में आती रही हैं, जिन्होंने फिल्मों में शामिल होते हुए भी अपनी अलग मकबूलियत हासिल की है और आज भी सुनने वालों के दिलों में धूम मचाए हुए हैं।

वे जो कव्वाल थे
फिल्मी कव्वालियों का इतिहास अगर टटोला जाए, तो सामने आता है कि जिन कव्वालियों ने सबसे ज्यादा मकबूलियत हासिल की, उनमें से अधिकांश को आवाज देने वाले गायक पारंपरिक कव्वाली से वास्ता रखते हैं। इस्माइल आजाद, आगा सरवर, शकीला बानो भोपाली, अजीज नाजां, यूसुफ आजाद, राशिदा खातून, जानी बाबू, उस्ताद नुसरत फतेह अली खान, अल्ताफ राजा और मुनव्वर मासूम कुछ ऐसे ही नाम हैं, जो मूलत: महफिल-ए-समा (कव्वाली की महफिल) की रौनक रहे, लेकिन जिनकी गाई फिल्मी कव्वालियों ने भी जबरदस्त धूम मचाई। हिंदी सिनेमा में यह शुरुआत होती है, इस्माइल आजाद के साथ। 'ये जालिम हसीं हैं सितमगर निराले' (जहाजी लुटेरा), 'मोहब्बत की दुनिया' (आलमआरा की बेटी) को अपनी आवाज देने वाले इस्माइल आजाद की गाई कव्वाली 'हमे तो लूट लिया' की शोहरत किसी से छुपी नहीं है। 'सांझ की बेला', 'आलमआरा', 'टैक्सी ड्राइवर', 'सरहदी लुटेरा', 'आज और कल', 'जीनत' और 'सीआईडी' जैसी फिल्मों में अपनी आवाज का जादू बिखेरने वाली शकीला बानो भोपाली की ख्याति तो देश ही नहीं विदेशों तक में अपने परवान पर रही है। महज 22 साल में कव्वाली गायन के मामले में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पा लेने वाले अजीज नाजां की तो बात ही अलग है। शायद आपको यकीन न हो कि फिल्मी कव्वालियों में शुमार होने के पहले ही अजीज नाजां की दो कव्वालियां बेहद लोकप्रिय हो चुकी थीं। 1972 तक उनकी गाई 'निगाहे करम' और 'झूम बराबर झूम शराबी' अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो चुकी थीं। उसके बाद 1973 में आई फिल्म 'मेरे गरीब नवाज' में इन दोनों की झलकियां दिखाई गई थीं। फिर जब 1974 में आई एस जौहर की फिल्म 'फाइव राइफल्स' आई, तो उसमें 'झूम बराबर झूम' पूरी तरह से शामिल की गई। इसके बाद 'रफूचक्कर', 'फकीरा', 'लैला मजनूं', 'नहले पे दहला', 'कुर्बानी' और 'उस्तादी उस्ताद से' जैसी कई फिल्मों में उनकी गाई कव्वालियों की धूम बरकरार रही। बीच-बीच में पारंपरिक कव्वालियों से हटकर कुछ फ्यूजन कव्वालियां भी आती रहीं या फिर सॉफ्ट कव्वालियों जैसा कुछ भी चलता रहा, लेकिन कव्वालियों का मूल अंदाज फिल्मों में दिखाई देता रहा। हालांकि 90 के दशक तक आते-आते कव्वालियां फिल्मों से तकरीबन नदारद हो गई थीं, या फिर जिस तरह की कव्वालियां आ रही थीं, वे परंपरागत स्वरूप से बहुत अलग किस्म की थीं, लेकिन जब 1997 में नुसरत फतेह अली खान 'जिंदगी झूमकर मुस्कुराने को है' (और प्यार हो गया) लेकर आए, तो फिर से पारंपरिक कव्वाली गाने वालों की फिल्मों में जगह बनी और अल्ताफ राजा, मुनव्वर मासूम जैसी कव्वालों ने अपनी आवाज का जादू बिखेरा।

जो नहीं थे कव्वाल
पारंपरिक कव्वाली के हुनर से ताल्लुक रखते गायकों ने तो अपनी धूम मचाई ही, लेकिन सुगम-संगीत और शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों ने भी कम धमाल नहीं मचाया। मन्ना डे, मोहम्मद रफी, शमशाद बेगम, लता मंगेशकर, किशोर कुमार और आशा भोंसले की आवाजों में सुनाई देने वाली कव्वालियां आज भी अपना जलवा बिखेरती हैं। 'ऐ मेरी जोहराजबीं' (वक्त), 'निगाहें मिलाने को जी चाहता है' (दिल ही तो है), 'कहा है उन्होंने ये राजे मोहब्बत' (अनहोनी), 'कभी बेकसी ने मारा' (अलग-अलग), 'पर्दा है पर्दा' (अमर अकबर एंथनी), 'कभी हमसे कभी गैरों से' (अरब का सितारा) जैसी कव्वालियों में जहां इन गायकों ने  अलग-अलग इस विधा को जबरदस्त प्रस्तुति दी है, वहीं 'न तो कारवां की तलाश है' (बरसात की रात), 'निगाहे शौक से कह दो' (वांटेड) और 'महंगाई मार गई' (रोटी कपड़ा और मकान) जैसी कव्वालियों में इन्होंने मिलकर एक अनूठा समां बांधा है, जिसमें मुकेश, नरेंद्र चंचल जैसे फिल्मी और बातिश, जानी बाबू जैसे कव्वाली गायक भी शामिल रहे हैं। पारंपरिक कव्वाली के मंझे हुए गायकों से शुरू हुआ फिल्मी कव्वालियों का सफर 60 के दशक तक एक नई राह मुड़ चुका था और इसके मुसाफिरों की संख्या में भी भारी बदलाव हो चुका था। पारंपरिक अंदाज से हटकर एक नए कलेवर में कव्वालियां सामने आने लगी थीं और कव्वाली गायन के लिए रफी, मन्ना डे और आशा भोंसले पहली पसंद बन चुके थे। जहां एकल गायन की बात आती तो बाजी अधिकतर रफी और आशा भोंसले के ही हाथ आती। हालांकि लता भी इस मामले में किसी कदर पीछे नहीं रहीं। 'मुगल-ए-आजम' में शमशाद बेगम के साथ गाई 'तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर' जितनी लोकप्रिय हुई, उतनी ही लोकप्रियता उस कव्वाली को भी मिली, जिसे लता ने अकेले ही गाया था। यह कव्वाली थी फिल्म 'अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में, रूठें पल में न माने महीनों में' (मेरे हमदम मेरे दोस्त)। बाद के दौर में मोहम्मद अजीज, सोनू निगम, विनोद राठौर जैसे गायकों ने भी कव्वाली गायन में ऐसी ही शोहरत हासिल की।

लिखने का हुनर
कव्वालियों ने खूब शोहरत बटोरी और उन्हें गाने वालों ने भी, लेकिन उन्हें मकबूलियत दिलाने में उनके शब्दों ने भी बड़ी अहम भूमिका निभाई है। फिल्मी कव्वालियों में एक तरफ जहां अमीर खुसरो का लिखा 'आज रंग है री' जैसा कलाम शामिल किया गया, वहीं बाबा बुल्ले शाह, वारिस शाह और गुलाम फरीद जैसे सूफी संतों का कलाम भी खूब इस्तेमाल किया गया। अगर फिल्मी गीतकारों की बात की जाए तो कव्वालियां लिखने में नख्शब, साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी इस विधा के विशेषज्ञ माने जाते थे। नख्शब 60 के दशक से पहले के गीतकार थे, उस दौर में आईं अधिकांश कव्वालियां उन्होंने ही लिखी हैं। नख्शब निर्देशक भी थे। 1945 में आई फिल्म 'जीनत' की मशहूर कव्वाली 'आहें न भरीं शिकवे न किए' नख्शब की ही लिखी हुई है। बाद के दशकों में कव्वाली लेखन के मामले में साहिर लुधियानवी फिल्मकारों की पहली पसंद थे। 'न तो कारवां की तलाश है' (बरसात की रात), 'निगाहें मिलाने को जी चाहता है'(दिल ही तो है), 'चांदी का बदन' (ताज महल), 'वाकिफ हूं खूब इश्क के' (बहू बेगम), 'ऐ मेरी जोहराजबीं' (वक्त) जैसी मशहूर कव्वालियां साहिर ने ही लिखी हैं। वैसे 'हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम' (अनोखी अदा), 'पर्दा है पर्दा' (अमर अकबर एंथनी) जैसी कव्वालियों में मजरूह सुल्तानपुरी की लेखनी ने भी कमाल ढाया है। इसके अलावा नाजा शोलापुरी (झूम बराबर झूम शराबी), शेवन रिजवी (हमे तो लूट लिया), शकील बदायूंनी (तेरी महफिल में), आनंद बख्शी (सच्चाई छुप नहीं सकती), वर्मा मलिक (महंगाई मार गई - रोटी कपड़ा और मकान, राज की बात कह दूं तो - धर्मा) ने भी फिल्मी कव्वालियों को शोहरत के सातवें आसमान पर पहुंचाने में शब्दों की जबरदस्त बाजीगरी दिखाई है।

संगीत का तड़का
फिल्मी कव्वालियों से श्रोताओं को झूमने के लिए मजबूर कर देने वाला संगीत का जादू जगाने में रोशन का नाम पहले नंबर पर आता है। हालांकि रोशन के पहले भी कव्वालियां कम लोकप्रिय नहीं थीं, लेकिन उनका रंग पारंपरिक कव्वाली वाला ही था। आज फिल्मी कव्वालियों के जिस रूप से हम वाकिफ हैं, वह रोशन की ही देन है। रोशन की फिल्मी कव्वालियों का रंग ऐसा चढ़ा कि आज तक नहीं उतरा है। पाकिस्तान यात्रा के दौरान रोशन ने सुनी कव्वाली 'ये इश्क इश्क है', और अनुमति लेकर अपनी फिल्म 'बरसात की रात' में इसका जो बेहतरीन इस्तेमाल एक नए अंदाज में किया, तो यह आज तक की सबसे चर्चित कव्वाली बन गई। संगीतकार रोशन के बाद यह जादू बिखेरा लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और कल्याणजी-आनंदजी ने। इन जोड़ियों ने 'अनोखी अदा', 'द बर्निंग ट्रेन' 'शंकर शंभू' जैसी कई फिल्मों में कव्वाली का अद्भुत जादू जगाया। 'पर्दा है पर्दा' तो लक्ष्मी-प्यारे की सबसे लोकप्रिय कव्वालियों में शुमार की जाती है। हालांकि रोशन के जगाए जादू में भी बाद के दशकों में परिवर्तन हुए, खासकर 90 के दशक के बाद जब फिर से कव्वालियां फिल्मों में शुमार हुईं, तो एक नया ही रूप सामने था। इस नए रूप को कहा गया टेक्नो कव्वाली। पारंपरिक के साथ पॉप और रॉक म्युजिक के फ्यूजन से बना था यह रूप। कमाल की बात तो यह कि हिंदी फिल्मों में संभवत: पहली टेक्नो कव्वाली पारंपरिक कव्वाली की अजीम शख्सियत उस्ताद नुसरत फतेह अली खान ने गाई थी। फिल्म 'और प्यार हो गया' की कव्वाली 'जिंदगी झूम कर मुस्कुराने को है', संभवत: पहली टेक्नो कव्वाली है। इसके बाद तो 'इश्क का रुतबा इश्क ही जाने' (कारतूस), 'तुमसे मिलके दिल का है जो हाल' (मैं हूं न) और 'कजरारे-कजरारे' (बंटी और बबली) जैसी टेक्नो कव्वालियों ने बेतहाशा धूम मचाई, जिनमें नुसरत फतेह अली खान, अनु मलिक और शंकर-अहसान-लॉय जैसे संगीतकारों ने गजब के प्रयोग किए। हालांकि नुसरत ने 'इस शाने करम का' (कच्चे धागे) जैसी पारंपरिक कव्वाली से भी लोगों को झूमने पर मजबूर किया है। यह भी बड़ी ही दिलचस्प बात है कि संगीत के क्षेत्र में तमाम सफल प्रयोग करने वाले संगीतकार ए आर रहमान कव्वाली के मामले में पारंपरिक अंदाज को ही तरजीह देते हैं। टेक्नो कव्वालियों के दौर में रहमान ने फिल्म 'फिजा' में 'पिया हाजी अली' जैसी पारंपरिक कव्वाली देकर जो धूम मचाई थी, वह आज भी बरकरार है। उनकी 'ख्वाजा मेरे ख्वाजा' (जोधा अकबर) और 'अर्जिंयां' (दिल्ली-6) जैसी कव्वालियां पारंपरिक कव्वालियों की परंपरा को फिल्मों में आज भी एक खास मुकाम दिलाने में कामयाब रही हैं।
(२० मई २०११ को जनवाणी में प्रकाशित)

रविवार, 7 अगस्त 2011

यादों में शुमार बेटियां

पता ही नहीं चला
कि कब हो गईं वे बड़ी
हर बीतते पल के साथ
कब शामिल हो गईं 
वे हमारी आदतों में 
हमारे सपनों को कब
बना लिया उन्होंने अपना

जब सो रहे होते थे हम
अपनी थकन से चूर
तब कितनी बार माथे को छूकर
जाँची हमारी तबीयत
कब चाहिए हमे क्या
कैसे याद रह जाता है उन्हें
हमने सोचा ही नहीं कभी

पर जब चली गईं वे
पराये घरों की आदतों का ध्यान रखने
तब अक्सर याद आई हैं
हमारी यादों में शुमार हो चुकीं 
बेटियां.