शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

सूरज को हमने तपते देखा है...


दिन में सूरज को हमने तपते देखा है
शाम की गर्मी ज़हन में अब तक बाकी है

सन्नाटे में गूंजती इक आवाज़ है जो
आह किसी के दिल से निकली जाती है

कागज़ पे बिखरी स्याही बेमतलब सी
भूख आज भी मन को मथकर जाती है

चाँद पे पानी को खोजें हैं ज्ञानी जन
धरती पे पर प्यास भड़कती जाती है

अच्छी-अच्छी बातें सब जितनी भी हैं
नारे बनकर बातों तक रह जाती हैं

सूरज अपनी लय में आता-जाता है
आँख खुले जब सुबह तभी तो आती है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. आम तौर पर ब्लागों की कविताओं पर ठहरना मुझे मुश्किल लगता है. कई बार अच्छी रचनाओं की तलाश में काफी समय बर्बाद भी कर चुका. लेकिन आपका लेखन गहरी पीड़ा, असंतोष, समझ को दर्शाती है. सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर निरंतरता बनाए रखें और अपनी धार और तेज़ करें. शुभकामनाओं सहित
    राजेश अग्रवाल
    www.sarokaar.blogspot.com

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