शनिवार, 11 जून 2011

यकीन की ईंटें, मोहब्बत का गारा


हमारी जिंदगी तमाम रिश्तों के ताने-बाने में बुनी है। कुछ रिश्ते हमें विरासत में मिलते हैं, तो कुछ हम खुद बनाते हैं। खुदमुख्तारी में बनाए गए हमारे रिश्तों में एक रिश्ता बड़ा ही खास है। दुनिया के सबसे हसीन रिश्तों में से एक है यह रिश्ता, जिसकी मिसालें देते हुए कोई कभी थकता नहीं है। इस रिश्ते के लिए कुछ भी कर गुजरने का जज्बा इसकी गहराई को जुबान देता है। लेकिन बेखयाली में अक्सर हम इस रिश्ते की अहमियत को नहीं समझ पाते, और बना बैठते हैं एक न दिखाई देने वाली दीवार, जो वक्त के साथ-साथ फासले भी बढ़ाती जाती है। फिर भी इस रिश्ते की कशिश ताउम्र बरकरार रहती है। आखिर सबसे बड़े रिश्ते का रुतबा हासिल कर चुकी इस दोस्ती की बस्ती में क्यों आती हैं ये आंधियां, और क्यों हर बार ये फिर से बसने को रहती है तैयार? 


मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया

मजरूह सुल्तानपुरी का यह शेर हर उस शख्स की जुबां पर कभी न कभी जरूर आया है, जिसने दोस्ती और दोस्तों की मुहब्बत के दायरे की कोई हद मुकर्रर नहीं की। जिंदगी के हर मोड़ पर साथ आए हर साए को जिसने अपना दोस्त तसलीम किया। दोस्ती, एक ऐसा लफ्ज, जिसके मायनों को हर दौर में, हर शख्स ने अपनी-अपनी तरह से एक इबारत देने की कोशिश की, लेकिन शायद ही कभी हुआ हो कि वह उस इबारत से खुद पूरी तरह मुतमइन हुआ हो। उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर नि:तांत निजी तजुर्बों से दो-चार होते हुए ये इबारतें बदलती रही हैं। वक्त के साथ इबारतें बदलीं, मायने बदले, यहां तक कि लोगों के साथ-साथ दोस्ती की फितरत भी बदली, लेकिन इसमें कुछ तो खास है। ऐसा, जिसने इसके दायरे को वसीह किया है, जिसके चलते सारे जहां में इसका जिक्र उस जज्बे के साथ किया जाता है, जहां इसकी मुखालफत में एक भी लफ्ज की जगह नहीं है। यह दुनिया का एक अदद ऐसा रिश्ता है, जिसमें लड़ाई-झगड़े हैं, आलोचनाएं हैं, मन-मुटाव हैं, दोस्त की गलतियां हैं, लेकिन जिसकी अपनी एक भी खामी कोई नहीं गिना पाता। शायद यही वह वजह भी है, जिसने इसे सबसे कीमती और सबसे अजीज रिश्ते का रुतबा बख्शा है।

तामीर है हमारी
जब हमारी आंखें इस दुनिया से चार होती हैं, तो हमारे साथ होते हैं वे रिश्ते जिन्हें हम खुद तय नहीं करते। पैदाइश सिर्फ एक इंसान की नहीं होती, साथ ही जन्म लेते हैं वे तमाम रिश्ते, जो ताजिंदगी हमारे साथ चलने का दंभ भरते हैं और कहलाते हैं खून के रिश्ते। कभी जिनका खून पतला होता है तो कभी गाढ़ा। इन रिश्तों को निभाने की हम कोई शर्त तय नहीं करते, कोई कायदा भी नहीं बनाते, बल्कि पहले से मौजूद कायदों और शर्तों को ही जीते हैं। जब कभी इनमें कोई दरकन आती है, तो जुमला नुमायां होता है कि रिश्ता कोई हमने थोड़े ही बनाया था। शायद इसी वजह से इस दरकन की तकलीफ भी जल्द ही जज्ब हो जाती है। लेकिन दोस्ती के रिश्ते की बुनियाद हम खुद तैयार करते हैं, इस पर यकीन की इमारत खुद ही तामीर करते हैं, और इसे जीने के कायदे भी खुद ही तय करते हैं। बुनियाद रखने के साथ ही इस रिश्ते से शर्त जैसे लफ्ज को गैर-जरूरी मानकर बाहर फेंक दिया जाता है। अक्सर दोस्ती के बारे में जिक्र करते हुए कहा जाता है कि दोस्ती में कोई शर्त नहीं होती। सुनने में निहायत रूहानी लगने वाला यह जुमला बोलने वाले शायद इस रिश्ते की एकमात्र जरूरी शर्त को भूल जाते हैं। ईमानदारी है वह शर्त। ईमानदारी के बिना न तो बुनियाद मजबूत होती है और न ही यकीन की इमारत बुलंद होती है। जब भी हमारी तामीर इस इमारत की दीवारों में दरकन की पहला वाकया नमूदार होता है, तब अक्सर हम उस मोहब्बत का पलस्तर उस पर चस्पां कर देते हैं, जो हमारे बनाए कायदों में शामिल होती है। लेकिन जब इस दरकन से यकीन की र्इंटें गिरने लगती हैं, तब अहसास होता है कि ईमानदारी के गारे की कमी थी। तब जिन शिकवे-शिकायतों का सिलसिला शुरू होता है, उनका खास मरकज होती है यह ईमानदारी। चूंकि इस खूबसूरत बुत को तराशने वाले हम खुद ही होते हैं, इसलिए इसकी टूटी किरचें ताउम्र हमारे जहन में किसी नीमकश तीर की तरह खलिश पैदा करती रहती हैं। कभी जज्ब न हो पाने वाली यह तकलीफ बस एक नासूर बनकर रह जाती है।

खुली किताब सा खास दोस्त
उम्र के साथ-साथ बदलते जिंदगी के पड़ावों पर हमारे दोस्तों की फेहरिस्त में कई नाम शुमार होते हैं। कुछ 'सिर्फ दोस्त' होते हैं, कुछ 'दोस्त', और एक कोई होता है, जिसे हम 'खास दोस्त' के तमगे से नवाजते हैं। आपकी जिंदगी में भी कोई एक ऐसा शख्स जरूर होगा। आप ही बताएं कि यह खास दोस्त क्या होता है? सोचने की जहमत न उठाएं जनाब, जवाब हम ही आपको मुहैया कराते हैं। 'एक ऐसा दोस्त जो हमारी तकलीफों को समझे, जो हमारी आदतों-जरूरतों को समझ सके, जब हमें उसकी जरूरत हो, वो हमारे साथ खड़ा हो, जिससे हम अपनी हर बात साझा कर सकें, जिसके कंधे पर अपना सिर रखकर रो सकें', और ऐसे ही कुछ और जुमले गूंज रहे हैं न आपके जेहन में। लेकिन साहबान, कहीं आप बुरा तो नहीं मानेंगे अगर हम कहें कि आप स्वार्थी हो रहे हैं। खुद ही गौर करें, हर जुमले में आप अपनी ही जरूरतों को अहमियत दे रहे हैं। एक बार भी जिक्र नहीं किया कि आपके 'खास दोस्त' की जरूरतें क्या हैं, उसकी पसंद क्या है, या आप उसकी आदतों से कितने वाकिफ हैं। आपका हर जुमला अगर हकीकत में तब्दील हो जाए तो जाहिर है कि आपको खास दोस्त नसीब होगा, लेकिन यकीन जानिए आप उसके खास दोस्त में शुमार नहीं किए जाएंगे। बेशक यह इस हाथ दे उस हाथ ले वाला रिश्ता नहीं है, मगर कहा जाता है कि दोस्त एक-दूसरे के सामने खुली किताब की मानिंद होते हैं। अगर यह 'दोस्तों' के बारे में कहा जाता है, तो 'खास दोस्त' तो उस किताब का दर्जा रखते हैं, जिसके एक-एक वरके पर लिखी इबारत आप कई-कई बार पढ़ चुके हैं, जिसके हर लफ्ज से आप बावस्ता हैं। मगर चाहत अक्सर इससे उलट होती है। दरअसल हम अपनी किताब ही दोस्तों को पढ़ाने की कोशिश में मुब्तिला रहते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता पीले पड़ते जा रहे उसकी किताब के वरकों पर लिखी इबारत जब तक हम पूरी पढ़ पाते हैं, तब तक ये पन्ने चटकने लगते हैं।

मीठी-कड़वी दोस्ती
अक्सर हम उम्मीद करते हैं कि हमारा दोस्त हर हाल में हमारे साथ खड़ा होगा। उस वक्त भी, जब हमारे अजीज, हमारे करीबी, यहां तक कि हमारा परिवार भी हमसे मुंह फेर लेगा। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यही एक अच्छे दोस्त की निशानियां भी हैं। लेकिन जब इन हालात में हमारा दोस्त भी नासेह बह नसीहतें देने लगता है, तो बहुत नागवार गुजरता है। कई बार अपने दोस्त पर बेइंतहा गुस्सा भी आता है। लेकिन अगर हम उसे अपना अच्छा दोस्त मानते हैं तो लाजिम है कि उसकी नसीहतों पर गौर करें। बहुत मुमकिन है कि हम गलती पर हों और दोस्त से अपनी तरफदारी की उम्मीद कर रहे हों। दोस्त अगर अच्छा है, सच्चा है तो नसीहतें देने और तीखा बोलने से उसे जरा भी गुरेज नहीं होगा। एक बड़ा ही रूमानी जुमला उछाला जाता है दोस्ती की गहराई को जुबान देने के लिए, दोस्त के लिए कुछ भी कर गुजरने का, दोस्ती में सब कुछ जायज करार दिए जाने का। यह जुमला सुनते ही हम रूमानियत और मोहब्बत के समंदर में अपनी कश्ती को दौड़ाने लगते हैं, दिल का बाग गुलजार हो जाता है। यह जुमला बोलने वाला शख्स दुनिया का सबसे प्यारा इंसान नजर आता है। अच्छा है, अगर दोस्तों के बीच रहकर भी ऐसी रूमानियत न हो, ऐसा जेहनी सुकून न हासिल हो, तो और कहां होगा। वेशक ये लम्हे हमारी जिंदगी के सबसे हसीनतरीन लम्हों में शुमार किए जाने के काबिल होते है, लेकिन जब कोई दोस्त इस जुमले को हकीकत में बदलने लगे, तो जरा चौकन्ना हो जाना ही मुफीद है। असल में, दोस्ती के लिए कुछ भी कर गुजरने का जज्बा मोहब्बत की उस कशिश से लबरेज होता है, जिसमें अच्छे-बुरे, सही-गलत का फर्क करना नामुमकिन हो जाता है। कहा भी जाता है कि मोहब्बत अंधी होती है। इसी अंधी मोहब्बत से पैदा होता है यह जज्बा, जिसमें चीजों, हालातों में मुनासिब फर्क न कर पाने के चलते दोस्त अक्सर उस बात में भी साथ देने के लिए तैयार हो जाते हैं जो गैरमुनासिब हैं, जिन्हें परवान न चढ़ने देने में ही हमारी बेहतरी है। मगर क्या करें कि हमारी फितरत ही कुछ ऐसी है कि अच्छे दोस्त की कड़वी बातें हमें नागवार गुजरती हैं और एक रूमानी जुमले को गैरजरूरी तौर पर हकीकत में बदलता दोस्त सबसे अजीज महसूस होता है। फिर 'मीठा-मीठा घप्प, कड़वा-कड़वा थू' की मिसाल कायम करते हुए एक अच्छे और सच्चे दोस्त से दूरियां बढ़ाते हमें वक्त नहीं लगता।

फिक्र इतनी न जताओ
दोस्ती के हर दौर में तलाशे जाते रहे मायनों  और इबारतों का दायरा इतना वसीह है कि चंद लफ्जों में शायद ही इसे पूरी तरह समेटा जा सके। इन्हीं मायनों में से एक है फिक्र करना और खयाल रखना। अक्सर दोस्ती की गहराई इस बात से तय की जाती है कि हमें अपने दोस्त की कितनी फ्रिक है, कितना खयाल रखते हैं हम उसका। जैसे-जैसे हम दोस्त की आदतों से वाकिफ होते जाते हैं, उसी के मुताबिक हमारी फिक्र और खयाल रखने की आदत भी मुसलसल बढ़ती जाती है। कई बार तो हम दोस्त की हर छोटी से छोटी हरकत, परेशानी, यहां तक कि हर बात में अपना ख्याल जाहिर करने से भी खुद को रोक नहीं पाते। आहिस्ता-आहिस्ता यह हमारी फितरत बन जाती है और हम पुरजोर लहजे में अपनी मर्जी को दोस्त पर थोपने लग जाते हैं। बिना इस बात की परवाह किए कि अपनी जिंदगी पर उसका भी कोई अख्तियार है। इस मसले को दोबाला होने में तब जरा भी देर नहीं लगेगी जब दोस्त भी 'ठीक कह रहे हो' कहकर हमारी बात से इत्तेफाक जाहिर करेगा। अमूमन दोस्तों के बीच ऐसे हालात पैदा होते हैं, जब फिक्र और खयाल रखने की कोई हद बाकी नहीं रहती, और जो हमारी नजर में खयाल रखना है वह हमारे दोस्त के लिए मुसीबत का सबब बन जाता है। फिर दोस्ती की बेतकल्लुफी हो जाती है नदारद, हम खुद ही उठा लेते है वह दीवार जो दिखाई तो नहीं देती, लेकिन वक्त गुजरने के साथ-साथ जिसकी दीवारों पर वे अनकही पर्तें जम चुकी होती हैं, जिनके पार न तो हमारी आवाज जा पाती है और न ही उस पार से हम तक किसी हर्फ की गूंज पहुंचती है।

बाकी है मोहब्बत
बेखयाली में हम अक्सर इस रौशनदान को बंद कर देते हैं, जिसके जरिए हम तक खुदाई सुकून की रौशनी पहुंचती है। अपनी मुसलसल भागती जिंदगी में हम उन धागों को सीवन उधड़ने के डर से तोड़ते चले जाते हैं, जिनसे हमारा पूरा चोला सिला हुआ है। स्कूल की किताबों में पढ़े सबक हम भले ही भूल जाएं, लेकिन जिंदगी के वे सबक शायद कभी नहीं भूलते जो दोस्तों के साथ बिताए लम्हों में सीखे हैं। जब भी उदासी हमें घेरती है, जब भी हमें किसी मशविरे की जरूरत महसूस होती है, या जब भी खुशगवार लम्हें बिताने का जिक्र उठता है, हमें अपने दोस्त ही याद आते हैं। लड़ते-झगड़ते, मगर हंसते-मुस्कुराते बांहे फैलाए कलेजे से लगाने को तैयार दोस्त। वजह कोई भी रही हो, दरमियां दूरियां कितनी ही हों, फिर भी यादों में सबसे करीब होते हैं दोस्त। जिनकी दोस्ती की इमारत मोहब्बत और यकीन से लबरेज है, जो वक्त के साथ बदलती फितरतों और हालातों के बावजूद आसमान में सिर उठाए पूरी बुलंदी के साथ बरकरार है, यकीनन उनकी तामीर में वह मजबूती है जिसकी दीवारों में वक्त की सीलन को पैबस्त होने का कोई मौका हाथ नहीं लगा है। उनकी इस पुरयकीन तामीर और मजबूत बुनियाद को सलाम। जिनकी तामीर में यह सीलन पैबस्त हुई और दरकनें नमूदार हो गई हैं, उन्हें भी बस एक बार मुस्कुराते हुए बांहें फैलाने की जरूरत है। यकीन जानिए अब भी वहां यकीन की र्इंटें और ईमानदार मोहब्बत का गारा मौजूद है।

(27 मार्च 2011, रविवार को दैनिक जनवाणी, मेरठ में प्रकाशित)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें