शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

दादासाहब फालके: बोलते रास्तों का खामोश सूत्रधार


 दादा साहब फालके
पुण्यतिथि: 16 फरवरी 
आज बैकग्राउण्ड म्यूजिक, स्पेशल इफेक्ट्स, सराउण्ड साउण्ड और विविध कैमरा तकनीकों की मौजूदगी में दिखाई देने वाले अभिनेता के सिर्फ़  आंगिक अभिनय पर ध्यान दे पाना आसान नहीं रहा है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि अभिनय में यदि कोई कमी रह जाती है, तो उसे संगीत और इन विविध तकनीकों के सहारे ‘कवर’ किया जा सकता है। अब ज़रा सोचिये कि उस वक़्त में, जबकि फिल्मों में आवाज़ भी नहीं हुआ करती थी, तब कहानी के एक-एक भाव को महज़ आंगिक अभिनय के ज़रिये ही जीवंत करना अभिनेताओं के लिए और उसका बेहतरीन ढंग से फ़िल्मांकन करना फ़िल्मकारों के लिए कितनी बड़ी चुनौती होती होगी। खासकर तब, जब आज जैसी उन्नत तकनीक भी फ़िल्मांकन  के लिए उपलब्ध नहीं थी। लेकिन तब भी फ़िल्में बनती थीं और ऐसा करने की शुरुआत जिस शख्स ने की उसका नाम आज भी भारतीय सिने जगत का सबसे बड़ा नाम है। यह नाम है ढुंडिराज गोविन्द फालके यानी दादासाहब फालके का। 
भारतीय सिने जगत के पिता कहे जाने वाले दादा साहब फालके ने जिस दौर में फिल्में बनाना शुरू किया था, उस दौर में इतिहास और मिथकों के महान पात्रों की कथाओं का वर्चस्व रहा। इन पात्रों की कहानियाँ सुनी भी जाती थीं और रंगमंच पर प्रदर्शित भी की जाती थीं। फ़िल्मों में इन पात्रों को प्रदर्शित करने की शुरुआत दादासाहब फाल्के ने 1913 में फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ से की। इसी फ़िल्म को पहली भारतीय फ़ीचर फ़िल्म होने का गौरव हासिल है। बहरहाल, हम यहाँ बात भारत की पहली फ़ीचर फ़िल्म की नहीं, उसे बनाने वाले की कर रहे हैं। दादा साहब फालके ने जिन 90 फ़िल्मों का निर्माण किया, उनमें से अधिकाँश की कहानियाँ धार्मिक पृष्ठभूमि की थीं। यह उस दौर का प्रभाव तो था ही, लेकिन उससे कहीं ज्यादा प्रभाव था द लाइफ ऑफ क्राइस्ट का। 
मूक फ़िल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ दादा साहब फालके ने 1910 के आसपास तब देखी थी जब उन्होंने अपने तीसरे व्यवसाय यानी प्रिंटिंग प्रेस को छोड़ा था। इस मूक फिल्म को देखकर ही उनके मन में विचार आया था कि क्यों न भारतीय देवताओं को परदे पर उतारा जाये। इसी विचार की व्यावहारिक परिणति थी ‘राजा हरिश्चंद्र’, जो 1912 में बनकर तैयार हुई, 3 मई 1913 को मुंबई के कॉरोनेशन सिनेमा में प्रदर्शित हुई और जिसके साथ एक विवाद भी जुड़ा। विवाद यह था कि इसके एक साल पहले ही रामचन्द्र गोपाल यानी दादा साहब तोरने ने एक नाटक ‘पुण्डालिक’ का फिल्मांकन किया था और इसी सिनेमाघर में उसे प्रदर्शित भी किया था। इस लिहाज से ‘पुण्डालिक’ को भारत की पहली फ़िल्म कहा जाना चाहिये था। बावजूद इस विवाद के ‘राजा हरिश्चंद्र’ को भारत की पहली फ़ीचर फ़िल्म और दादा साहब फालके को भारतीय सिनेमा का जनक होने का ख़िताब हासिल हुआ, क्योंकि यह पूरी तरह से भारतीय कलाकारों द्वारा बनायी गयी फिल्म थी, जबकि ‘पुण्डालिक’ का फ़िल्मांकन ब्रिटिश सिनेमेटोग्राफर्स ने किया था। इसके बाद दादा साहब फालके धार्मिक और ऐतिहासिक पात्रों पर फ़िल्में बनाते गये और साथ ही शॉर्ट फिल्म्स, डॉक्युमेंट्री पर भी काम करते रहे। इसी सफ़र के आरम्भिक वर्षों में उन्होंने मुम्बई के पाँच व्यवसायियों के साथ मिलकर एक फिल्म कम्पनी हिन्दुस्तान फिल्म्स’ बनायी थी, जिससे जल्द ही 1920 में उन्होंने विदा भी ले ली।
सीमित तकनीक के बावजूद दादा साहब फालके की फिल्मों का कला पक्ष बड़ा ही महत्वपूर्ण रहा है, और ऐसा क्यों है, इसे उनकी पूरी जीवन यात्रा में शामिल कला को जाने बिना समझना आसान नहीं है। त्रयम्बकेश्वर में जन्मे दादा साहब फालके के पिता संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, जिनसे उन्हें पठन-पाठन की रुचि विरासत में मिली। उन्होंने अपनी शिक्षा भी कला क्षेत्र में ही सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई से प्राप्त की और फिर चले गए कला भवन, बड़ौदा, जहां उन्होंने मूर्तिकला, चित्रकला, फोटोग्राफी और इन्जीनियरिंग की शिक्षा हासिल की। उन्होंने अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत भी एक कला माध्यम के ज़रिये ही की। वह गोधरा में बतौर फोटोग्राफर काम करने लगे थे, लेकिन प्लेग जैसी महामारी में अपनी पत्नी और बच्चे की मौत के बाद उन्होंने गोधरा छोड़ दिया। इसी समय में उनकी मुलाकात हुई जर्मन जादूगर कार्ल हर्ट्ज़ से, जिनके साथ उन्होंने कुछ समय बिताया और कला के एक नये आयाम नज़दीकी से जाना-समझा। फिर उन्होंने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया में बतौर ड्राफ्टमैन काम किया। भले ही उन्होंने ड्राइंग की शिक्षा हासिल की थी, लेकिन इस नौकरी में सिर्फ एक मशीनी हाथ की तरह काम करना उन्हें रास नहीं आया। प्राप्त की हुई शिक्षा का कलात्मक उपयोग करने का विचार हमेशा मन को विचलित करता रहा, सो उन्होंने प्रिंटिंग का व्यवसाय अपनाया। लिथोग्राफी और ओलियोग्राफ में विशिष्टता हासिल की, जर्मनी जाकर नई मशीनरी को समझा और काम शुरू किया प्रख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा के साथ। यह काम उनकी रुचि का था, लेकिन इसे उन्होंने अकेले नहीं बल्कि पार्टनरशिप में शुरू किया था. जल्द ही पार्टनर से कुछ व्यावसायिक और वैचारिक मतभेद सामने आने लगे, नतीजतन उन्होंने यह काम भी छोड़ दिया। इसी वक़्त में उन्होंने देखी थी ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट।’ 
यह उल्लेखनीय है कि दादा साहब फालके ने जब भी कोई काम शुरू किया, कला के नये माध्यम में किया। पहले फोटोग्राफी, फिर ड्राइंग, फिर पेंटिंग और फिर फ़िल्म। शायद यही वजह रही कि उन्होंने कला के विविध रूपों की बारीक़ी को नज़दीकी से जाना-समझा और जब फ़िल्म बनायी तो सबके सम्मिलन से कलापक्ष प्रभावी हो उठा। चूंकि फ़िल्में मूक थीं और महज़ शारीरिक हाव-भाव से ही सब कुछ बयाँ करना था, इसलिये उन्होंने आंगिक अभिनय पर भी गंभीरता से काम किया।
यह भी एक महत्वपूर्ण बात है कि उन्होंने कला और व्यावसायिकता के बीच समझौते को कभी स्वीकार नहीं किया। प्रिंटिंग व्यवसाय में भी जब कला से ज्यादा व्यवसाय को तरजीह देने के बात आई तो उन्होंने उस व्यवसाय को ही अलविदा कह दिया। ठीक यही आलम ‘हिन्दुस्तान फिल्म्स’ के साथ रहा। 1920 में अपने पार्टनर्स से मतभेद के बाद जब उन्होंने हिन्दुस्तान फ़िल्म्स छोड़ी, तब घोषणा कर दी थी कि अब वह फ़िल्में नहीं बनाएंगे। इसके बाद वह लेखन में जुट गये और लिखा चर्चित नाटक ‘रंगभूमि।' हालाँकि उन्होंने फ़िल्म न बनाने की घोषणा कर दी थी, लेकिन जब हिंदुस्तान फ़िल्म्स आर्थिक संकट से जूझने लगी तो एक बार फिर उन्होंने इसकी कमान सँभाली।
यूँ तो दादासाहब फालके अपने जीवन में नये-नये कला माध्यमों और तकनीक को अपनाते रहे थे, लेकिन फ़िल्मों के मामले में आगे चलकर वे ऐसा नहीं कर सके। 1931 में पहली बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ के आने के साथ मूक फ़िल्मों का आकर्षण कम होने लगा था और दादासाहब फालके बोलती फिल्मों की तकनीक के साथ अपनापा नहीं बना सके। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि वह मूक फ़िल्मों की दुनिया में इतने रच-बस गये थे कि उसके मोहजाल से बाहर आना भी नहीं चाहते थे। बहरहाल, वजह जो भी रही हो, लेकिन 1932 में उन्होंने अपनी आख़िरी मूक फ़िल्म ‘सेतुबंधन’ रिलीज की और बतौर निर्माता उनकी आख़िरी फ़िल्म थी 1937 में आई ‘गंगावतरण।’
16 फरवरी 1944 को नासिक में दादासाहब फालके की मृत्यु के साथ ही भारतीय सिनेमा का मूक फिल्मों का अध्याय भी बन्द हो गया। बिना आवाज़ के शुरू हुआ यह श्वेत-श्याम सफ़र अब जब 100 साल की यात्रा में रंग, ध्वनि, तरंग में आ चुका है और कल्पनालोक से बाहर निकलकर यथार्थ की बात भी करने लगा है, तब पीछे मुड़कर देखने पर हम पाते हैं कि दादासाहब फालके उस सूत्रधार की तरह थे, जिसकी ख़ामोश शुरुआत ने भविष्य के पात्रों को आवाज दी।

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