अभी-अभी लल्लन मियाँ का फोन आया था। यूँ तो वे आसानी से होते नहीं हैं लेकिन बड़े परेशान थे। उनका परेशान होना ही गंभीर मसले का आभास देता है, सो इस बार तो वे बड़े परेशान थे। बोले- ‘भाई मियाँ गजब हो गया। मेरे मोहल्ले के सारे जानवर अचानक से विरोधी हो उठे हैं। गाय, भैंस, गधे, कुत्ते, मुर्गे-मुर्गियां, सुअर सब इतनी रात गए इकट्ठे होकर गलियों में रैली निकाल रहे हैं और नारे लगा रहे हैं।’
(कल्पतरु एक्सप्रेस में 16 जुलाई 2013 को प्रकाशित) |
मैंने कहा कि ‘यूँ ही मौज में आए होंगे। अभी भी गर्मी अच्छी-खासी है तो रात की ठंडक का मजा लेने निकले होंगे और हँसी-ठिठोली कर रहे होंगे। दिन में तो आप लोग उन्हें घूमने नहीं देते, कभी लट्ठ मारते हो कभी लतिया देते हो तो कभी अपनी गाड़ी के नीचे कुचलकर भी शर्म नहीं करते। अब जब खुल्ली सड़कें मिली हैं तो वे भी अपना कोटा पूरा कर रहे होंगे।’ इस पर लल्लन मियाँ बोले- ‘अमाँ यार तुम बकवास न करो। हम क्या उनकी हँसी-ठिठोली समझते नहीं हैं। रात-दिन देखते हैं उन्हें। मियाँ मामला इतना सरल नहीं है, वे नारे ही लगा रहे हैं और कह रहे हैं कि इस इन्सानी जिन्स का कुछ इलाज करना पड़ेगा। अब वक़्त आ गया है कि हम अपने प्रति अन्याय का इससे हिसाब माँगें।’
जिज्ञासावश मैंने पूछा कि आपको कैसे पता कि वे क्या कह रहे हैं? क्या आप उनकी भाषा समझते हैं? तो लल्लन मियाँ बोले- ‘लो कल्लो बात! अरे जब इन्सान उनकी तरह चुनावों में एक-दूसरे पर भौंक सकते हैं, उल्टी पड़ जाने पर मिमिया सकते हैं, समर्थन में डेंचू-डेंचू बोल सकते हैं, दुलत्ती मारकर भी गाय की तरह भोलेपन से रँभा सकते हैं तो क्या वे हमारी भाषा नहीं सीख सकते, टूटी-फूटी ही सही। वे सुबह चौक पर इकट्ठे होकर इन्सानों से जवाब तलब करने की माँग कर रहे हैं और ऐसा न होने पर पूरे शहर में चक्का जाम करने की धमकी दे रहे हैं। मियाँ हमें तो समझ नहीं आ रहा कि क्या करें?’
मैंने उन्हें मशविरा दिया कि आप सुबह उनकी बात सुन ही आइए, एक दफा बातचीत कर लेने में हर्ज भी कोई नहीं है। लगे कि बात संभल नहीं रही तो आप भी चुनावी वक्तव्यों टाइप का कुछ इस्तेमाल कर लीजिएगा, उन्हें अपना भाई-बहिन कह दीजिएगा। कह दीजिएगा कि आप खुद में और उनमें कोई भेद नहीं समझते, जैसा कि हाल ही में एक नेताजी ने कहा है।
लल्लन मियाँ थोड़े आश्वस्त हुए। बोले- ‘ठीक है मियाँ। सुन लेते हैं कि आखिर ये सारे जानवर चाहते क्या हैं। लेकिन यार धुकधुकी तो फिर भी लगी है, पता नहीं वे किन सवालों के जवाब चाहते हैं? ख़ैर सुबह जाते हैं चौक पर और लौटकर बताते हैं क्या हुआ?’
लल्लन मियाँ तो फोन रखकर गायब हो गए लेकिन मेरा दिमाग उलझन में पड़ गया कि आख़िर माजरा क्या है? किस अन्याय से इन जानवरों की आत्मा आहत हो गई है? किसी की भावनाओं को सबसे जल्दी ठेस तो तब लगती है जब बाचतीत में उसके धर्म का ज़िक्र आ जाए, पर इन्सान तो हमेशा एक-दूसरे के धर्म का तिया-पाँचा करने में लगा रहा, इनके धर्म की तो कभी बात ही नहीं हुई? कभी इनकी माँ-बहनों को भी नहीं छेड़ा क्योंकि इन्सान को अभी तक अपनी ही प्रजाति का चीरहरण करने से फुरसत नहीं मिली। न जाने क्या मामला है?
पता नहीं क्या-क्या दिमाग में घूम रहा है। अब तो लल्लन मियाँ ही इन गुत्थियों को सुलझा सकते हैं जब वे चौक पर आयोजित जानवरों की सभा से लौटेंगे।