शुक्रवार, 22 मार्च 2013

ये भी कोई काम हुआ


चुपके-चुपके दिन बीता, चुपके से ही रात ढली
जब भी अपना ज़िक्र चला, ख़ामोशी ही साथ चली

अब इतने दरवाज़े हैं, कातिल जाने किससे निकला
ख़्वाब बेचती मजलिस में, मुझको ज़िंदा लाश मिली

झोले में हर चीज भरी है, नींद से ले के ख़्वाब तलक
क्या हासिल है इसका जब, धज्जी-धज्जी रात मिली

मैं सोचूँ उनके कहने से, लिखूँ तो उनके अल्फ़ाज़
ये भी कोई काम हुआ, इससे तो बेगार भली

नक़्श-ए-पा बाज़ारी के, हैं जो गहरे तो भी क्या
जो भी इनकी राह चला, आख़िरकर तो मात मिली

इक दिन तो ऐसा आए, लरज़े न धमके आवाज़
कहते-कहते हाँ जी हुज़ूर, किसको कितनी ख़ैरात मिली.


शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

दादासाहब फालके: बोलते रास्तों का खामोश सूत्रधार


 दादा साहब फालके
पुण्यतिथि: 16 फरवरी 
आज बैकग्राउण्ड म्यूजिक, स्पेशल इफेक्ट्स, सराउण्ड साउण्ड और विविध कैमरा तकनीकों की मौजूदगी में दिखाई देने वाले अभिनेता के सिर्फ़  आंगिक अभिनय पर ध्यान दे पाना आसान नहीं रहा है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि अभिनय में यदि कोई कमी रह जाती है, तो उसे संगीत और इन विविध तकनीकों के सहारे ‘कवर’ किया जा सकता है। अब ज़रा सोचिये कि उस वक़्त में, जबकि फिल्मों में आवाज़ भी नहीं हुआ करती थी, तब कहानी के एक-एक भाव को महज़ आंगिक अभिनय के ज़रिये ही जीवंत करना अभिनेताओं के लिए और उसका बेहतरीन ढंग से फ़िल्मांकन करना फ़िल्मकारों के लिए कितनी बड़ी चुनौती होती होगी। खासकर तब, जब आज जैसी उन्नत तकनीक भी फ़िल्मांकन  के लिए उपलब्ध नहीं थी। लेकिन तब भी फ़िल्में बनती थीं और ऐसा करने की शुरुआत जिस शख्स ने की उसका नाम आज भी भारतीय सिने जगत का सबसे बड़ा नाम है। यह नाम है ढुंडिराज गोविन्द फालके यानी दादासाहब फालके का। 
भारतीय सिने जगत के पिता कहे जाने वाले दादा साहब फालके ने जिस दौर में फिल्में बनाना शुरू किया था, उस दौर में इतिहास और मिथकों के महान पात्रों की कथाओं का वर्चस्व रहा। इन पात्रों की कहानियाँ सुनी भी जाती थीं और रंगमंच पर प्रदर्शित भी की जाती थीं। फ़िल्मों में इन पात्रों को प्रदर्शित करने की शुरुआत दादासाहब फाल्के ने 1913 में फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ से की। इसी फ़िल्म को पहली भारतीय फ़ीचर फ़िल्म होने का गौरव हासिल है। बहरहाल, हम यहाँ बात भारत की पहली फ़ीचर फ़िल्म की नहीं, उसे बनाने वाले की कर रहे हैं। दादा साहब फालके ने जिन 90 फ़िल्मों का निर्माण किया, उनमें से अधिकाँश की कहानियाँ धार्मिक पृष्ठभूमि की थीं। यह उस दौर का प्रभाव तो था ही, लेकिन उससे कहीं ज्यादा प्रभाव था द लाइफ ऑफ क्राइस्ट का। 
मूक फ़िल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ दादा साहब फालके ने 1910 के आसपास तब देखी थी जब उन्होंने अपने तीसरे व्यवसाय यानी प्रिंटिंग प्रेस को छोड़ा था। इस मूक फिल्म को देखकर ही उनके मन में विचार आया था कि क्यों न भारतीय देवताओं को परदे पर उतारा जाये। इसी विचार की व्यावहारिक परिणति थी ‘राजा हरिश्चंद्र’, जो 1912 में बनकर तैयार हुई, 3 मई 1913 को मुंबई के कॉरोनेशन सिनेमा में प्रदर्शित हुई और जिसके साथ एक विवाद भी जुड़ा। विवाद यह था कि इसके एक साल पहले ही रामचन्द्र गोपाल यानी दादा साहब तोरने ने एक नाटक ‘पुण्डालिक’ का फिल्मांकन किया था और इसी सिनेमाघर में उसे प्रदर्शित भी किया था। इस लिहाज से ‘पुण्डालिक’ को भारत की पहली फ़िल्म कहा जाना चाहिये था। बावजूद इस विवाद के ‘राजा हरिश्चंद्र’ को भारत की पहली फ़ीचर फ़िल्म और दादा साहब फालके को भारतीय सिनेमा का जनक होने का ख़िताब हासिल हुआ, क्योंकि यह पूरी तरह से भारतीय कलाकारों द्वारा बनायी गयी फिल्म थी, जबकि ‘पुण्डालिक’ का फ़िल्मांकन ब्रिटिश सिनेमेटोग्राफर्स ने किया था। इसके बाद दादा साहब फालके धार्मिक और ऐतिहासिक पात्रों पर फ़िल्में बनाते गये और साथ ही शॉर्ट फिल्म्स, डॉक्युमेंट्री पर भी काम करते रहे। इसी सफ़र के आरम्भिक वर्षों में उन्होंने मुम्बई के पाँच व्यवसायियों के साथ मिलकर एक फिल्म कम्पनी हिन्दुस्तान फिल्म्स’ बनायी थी, जिससे जल्द ही 1920 में उन्होंने विदा भी ले ली।
सीमित तकनीक के बावजूद दादा साहब फालके की फिल्मों का कला पक्ष बड़ा ही महत्वपूर्ण रहा है, और ऐसा क्यों है, इसे उनकी पूरी जीवन यात्रा में शामिल कला को जाने बिना समझना आसान नहीं है। त्रयम्बकेश्वर में जन्मे दादा साहब फालके के पिता संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, जिनसे उन्हें पठन-पाठन की रुचि विरासत में मिली। उन्होंने अपनी शिक्षा भी कला क्षेत्र में ही सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई से प्राप्त की और फिर चले गए कला भवन, बड़ौदा, जहां उन्होंने मूर्तिकला, चित्रकला, फोटोग्राफी और इन्जीनियरिंग की शिक्षा हासिल की। उन्होंने अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत भी एक कला माध्यम के ज़रिये ही की। वह गोधरा में बतौर फोटोग्राफर काम करने लगे थे, लेकिन प्लेग जैसी महामारी में अपनी पत्नी और बच्चे की मौत के बाद उन्होंने गोधरा छोड़ दिया। इसी समय में उनकी मुलाकात हुई जर्मन जादूगर कार्ल हर्ट्ज़ से, जिनके साथ उन्होंने कुछ समय बिताया और कला के एक नये आयाम नज़दीकी से जाना-समझा। फिर उन्होंने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया में बतौर ड्राफ्टमैन काम किया। भले ही उन्होंने ड्राइंग की शिक्षा हासिल की थी, लेकिन इस नौकरी में सिर्फ एक मशीनी हाथ की तरह काम करना उन्हें रास नहीं आया। प्राप्त की हुई शिक्षा का कलात्मक उपयोग करने का विचार हमेशा मन को विचलित करता रहा, सो उन्होंने प्रिंटिंग का व्यवसाय अपनाया। लिथोग्राफी और ओलियोग्राफ में विशिष्टता हासिल की, जर्मनी जाकर नई मशीनरी को समझा और काम शुरू किया प्रख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा के साथ। यह काम उनकी रुचि का था, लेकिन इसे उन्होंने अकेले नहीं बल्कि पार्टनरशिप में शुरू किया था. जल्द ही पार्टनर से कुछ व्यावसायिक और वैचारिक मतभेद सामने आने लगे, नतीजतन उन्होंने यह काम भी छोड़ दिया। इसी वक़्त में उन्होंने देखी थी ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट।’ 
यह उल्लेखनीय है कि दादा साहब फालके ने जब भी कोई काम शुरू किया, कला के नये माध्यम में किया। पहले फोटोग्राफी, फिर ड्राइंग, फिर पेंटिंग और फिर फ़िल्म। शायद यही वजह रही कि उन्होंने कला के विविध रूपों की बारीक़ी को नज़दीकी से जाना-समझा और जब फ़िल्म बनायी तो सबके सम्मिलन से कलापक्ष प्रभावी हो उठा। चूंकि फ़िल्में मूक थीं और महज़ शारीरिक हाव-भाव से ही सब कुछ बयाँ करना था, इसलिये उन्होंने आंगिक अभिनय पर भी गंभीरता से काम किया।
यह भी एक महत्वपूर्ण बात है कि उन्होंने कला और व्यावसायिकता के बीच समझौते को कभी स्वीकार नहीं किया। प्रिंटिंग व्यवसाय में भी जब कला से ज्यादा व्यवसाय को तरजीह देने के बात आई तो उन्होंने उस व्यवसाय को ही अलविदा कह दिया। ठीक यही आलम ‘हिन्दुस्तान फिल्म्स’ के साथ रहा। 1920 में अपने पार्टनर्स से मतभेद के बाद जब उन्होंने हिन्दुस्तान फ़िल्म्स छोड़ी, तब घोषणा कर दी थी कि अब वह फ़िल्में नहीं बनाएंगे। इसके बाद वह लेखन में जुट गये और लिखा चर्चित नाटक ‘रंगभूमि।' हालाँकि उन्होंने फ़िल्म न बनाने की घोषणा कर दी थी, लेकिन जब हिंदुस्तान फ़िल्म्स आर्थिक संकट से जूझने लगी तो एक बार फिर उन्होंने इसकी कमान सँभाली।
यूँ तो दादासाहब फालके अपने जीवन में नये-नये कला माध्यमों और तकनीक को अपनाते रहे थे, लेकिन फ़िल्मों के मामले में आगे चलकर वे ऐसा नहीं कर सके। 1931 में पहली बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ के आने के साथ मूक फ़िल्मों का आकर्षण कम होने लगा था और दादासाहब फालके बोलती फिल्मों की तकनीक के साथ अपनापा नहीं बना सके। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि वह मूक फ़िल्मों की दुनिया में इतने रच-बस गये थे कि उसके मोहजाल से बाहर आना भी नहीं चाहते थे। बहरहाल, वजह जो भी रही हो, लेकिन 1932 में उन्होंने अपनी आख़िरी मूक फ़िल्म ‘सेतुबंधन’ रिलीज की और बतौर निर्माता उनकी आख़िरी फ़िल्म थी 1937 में आई ‘गंगावतरण।’
16 फरवरी 1944 को नासिक में दादासाहब फालके की मृत्यु के साथ ही भारतीय सिनेमा का मूक फिल्मों का अध्याय भी बन्द हो गया। बिना आवाज़ के शुरू हुआ यह श्वेत-श्याम सफ़र अब जब 100 साल की यात्रा में रंग, ध्वनि, तरंग में आ चुका है और कल्पनालोक से बाहर निकलकर यथार्थ की बात भी करने लगा है, तब पीछे मुड़कर देखने पर हम पाते हैं कि दादासाहब फालके उस सूत्रधार की तरह थे, जिसकी ख़ामोश शुरुआत ने भविष्य के पात्रों को आवाज दी।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

वेलेंटाइन जी: इंडियन मटीरियल का सुख


प्रेम पर्व समाप्त होने में बस एक दिन और बाकी है और इस पर्व को मनाने वाले अपनी सुरक्षा के इंतजाम के साथ हैं। ठीक वैसे ही जैसे दीवाली पर पटाखे छोड़ते वक्त कुछ लोग पानी की बाल्टी साथ रख लेते हैं। कल एक युवक मिला। यूं तो वह हाथ अगरबत्ती पांव मोमबत्ती था, लेकिन कल अचानक से मोटा हो उठा था। उसने मोटे-मोटे कपड़ों की दो-तीन तहें अपने शरीर पर जमा रखी थीं। हाथ में लाल गुलाब, चॉकलेट का डिब्बा और दो-तीन और गिफ्ट आइटम।
       चूंकि सर्दी का मौसम है तो मैंने पूछ लिया, ‘क्यों भाई सर्दी कुछ ज्यादा ही लग रही है क्या?’, वह बोला, ‘नहीं जी, यह तो सब सुरक्षात्मक इंतजाम है, अपनी भावी पत्नी के साथ प्रेम पर्व के अवसर पर घूमने का इरादा है।’
       बात कुछ अटपटी लगी, मैंने पूछा, ‘भैया क्या तुम्हारी भावी पत्नी जूडो-कराटे में ब्लैक-बेल्ट है, जिसके गुस्से से बचने का यह उपाय खोजा है?’ वह बोला, ‘अरे नहीं भैया, मेरी भावी पत्नी तो बिल्कुल गौ है, जहां गुस्सा दिखाना चाहिए वहां भी रो पड़ती है। यह उपाय तो डंडों से बचने के लिए किया है।’ जब पूछा कि किसके डंडे? तो बोला, ‘अब धर्मरक्षक, संस्कृति रक्षक, शिवभक्त, रामभक्त, हनुमानभक्त या पुलिस, कब, कौन डंडा बरसा दे, कह नहीं सकते न।’
       मैंने तर्क फेंका, ‘भैया, तुम्हारा जल्द ही ब्याह होने जा रहा है, वह भी घर वालों की सहमति से, तो अपनी भावी पत्नी से तुम्हारे मिलने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?’ उसने इतने सपाटे से जवाब दिया कि मैं तो हैरान रह गया। बोला, ‘अपने तर्क अपने पास रखो महाराज, लगता है तुम कभी इस पर्व के दौरान घर से बाहर नहीं निकले। भैया अपने देश का रिवाज है, पिटाई पहले होती है, सही-गलत बाद में तय किया जाता है। पिछली बार तो कई जगह इस पर्व के दौरान भाई-बहन तक पिट गए। ठीक है कि बाद में पीटने वालों की थू-थू हुई, लेकिन बेचारे भाई की पीठ और बहन का चेहरा तो लाल हो ही गया न। तो भैया हम तो फिर भी प्रेम करने जा रहे हैं।’
       मैंने कहा, ‘जब इतना ही डर है, तो जा ही क्यों रहे हो? जब विवाह हो जाए तो घर में बैठकर मनाना यह पर्व।’ यह सुनते वह नौजवान क्रांतिकारी हो उठा। रामप्रसाद बिस्मिल का शैर दोहराते हुए बोला, ‘अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं, प्रेम करना हमारा अधिकार है, और अब से नहीं है, भगवान राम के जमाने से है। उन्हें भी तो अशोक वाटिका में सीता से प्रेम हो गया था, इसलिए हम तो प्रेम करेंगे, अब देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है। भगवान राम ने प्रेम के बल पर शिव का धनुष तोड़ दिया था, हम डंडे सह लेंगे। सुरक्षा का इंतजाम हमने कर ही लिया है।’
      जब मैंने पूछा, ‘भाई जब राम और कृष्ण के प्रेम को पूजा जाता है, मंदिर में राधा-कृष्ण की मूर्तियां हैं, तो फिर इतना बवाल क्यों?’ तो वह बोला, ‘वो क्या है कि प्रेम जो है न, वह भगवानों के लिए रिजर्व्ड है, वह इसे ‘लीला’ की कैटेगरी में करते थे, जैसे कृष्णलीला, रासलीला वगैरह-वगैरह। आम आदमियों के लिए यह अलाउड नहीं है। पर हमारी कोशिश जारी है।’
       मैंने उसके जोश की दाद देते हुए कहा, ‘लगता है तुम जैसे नौजवान इन तर्कों और इस जोश के सहारे इस पर्व के विरोध को खत्म करवा ही देंगे।’ खींसें निपोरते हुए वह बोला, ‘शुरुआत हो चुकी है भैया जी। अब जब यह लगने लगा है कि वेलेंटाइन जी को लोग याद करना बंद नहीं करेंगे, तो जापानी कंपनी के माइक पर स्वदेशी और भारत के दर्शन की बात करने वाले एक सज्जन ने कहा है कि संत वैलेंटाइन यूरोप में शादियां कराते थे, और यह सब उन्होंने भारतीय परंपरा और दर्शन का अध्ययन करके सीखा था। वह लोगों को समझाते थे कि एक पति-एक पत्नि के साथ रहो और यह यूरोप की परंपरा के खिलाफ था, इसलिए उन्हें 14 फरवरी 498 ईसवी को फांसी दे दी गई।’
       दिमाग में फिर कुछ कीड़े कुलबुलाए तो मैंने कहा, ‘लेकिन भारत में बहुविवाह  प्रथा भी तो रही है। खुद राम के पिता जनक की तीन पत्नियां थीं, कृष्ण की तो सोलह हजार से उपर रानियां थी, पांच पांडवों की एक कॉमन पत्नी थी, और उसके बाद जब तक राजे-रजवाड़ों का दौर चला तब तक भी कई राजाओं की एक से अधिक पत्नियां थीं, फिर कैसे कहा जा सकता है कि वेलेंटाइन ने यह भारत से सीखा?’
       युवक बोला, ‘भैया खुद पर गौरव करने का जो सुख होता है न, उसे भला आप क्या समझेंगे जो हर चीज का विश्लेषण करने लगते हैं। अरे भारत और भारत की संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है की नहीं, तो भला ये कैसे हो सकता है कि कोई भारत से बिना कुछ सीखे अच्छा काम कर ले। यह हमारी संस्कृति की महानता ही तो है कि जिसे हम परास्त नहीं कर पाते, उसे अपना लेते हैं। यह पता कर ही लेते हैं कि उसका जो प्रबल पक्ष है, वह उसने भारत की सभ्यता और संस्कृति से ही हासिल किया है। मेड इन यूएसए आइटम में भी इंडियन मटीरियल ढूंढ ही लेते हैं। आखिर ऐसे ही तो हम विश्वगुरु और महान नहीं हैं।’
       मैंने कहना चाहा, ‘लेकिन यह कहना कि यूरोप में इसके पहले शादियां नहीं होती थीं...’ युवक बीच में ही बोल पड़ा, ‘पता है बड़े बनने का सबसे आसान तरीका क्या है, दूसरे को नीचा दिखा दो।’ मैंने फिर कहना चाहा, ‘पर इस प्रेम प्रकट करने के पर्व का विरोध क्यों, जबकि हमारे यहां भी पहले वसंतोत्सव व चंद्रोत्सव जैसे पर्वों और कृष्ण के प्रेम के कई उदाहरण....’, उसने फिर बीच में बात काटी और बोला, ‘ज्ञानीजन कहते हैं कि ईश व स्व-संस्कृति की निंदा करना और सुनना पाप है। देशद्रोह है। आप पर ज़रूर देशद्रोह का मुकदमा चलेगा। मैं चलता हूं, भावी पत्नी इंतजार कर रही होगी।’

शनिवार, 5 जनवरी 2013

ज़रूरत शिक्षा की: ताकि दामिनी खुलकर चमके


-रजनीश ‘साहिल’

(3 जनवरी 2013 को दैनिक जनवाणी, मेरठ में प्रकाशित अंश)
16 दिसंबर की रात आज की रात से कहीं ज़्यादा सर्द थी। शायद इन सर्दियों की सबसे सर्द रात। इस मायने में नहीं कि ठिठुरन से हाथ-पांवों ने चलना बंद कर दिया था, बल्कि इस मायने में कि उस रात दिलो-दिमाग ने भी चलना बंद कर दिया था। जिसे भी वाकये की खबर लगी उसके पास बस एक सवाल था, ‘आखिर कोई इतना बर्बर कैसे हो सकता है?’ जवाब देने लायक दिमाग शायद ही किसी का चल रहा हो, सब बंद हो चुके थे। बलात्कार की खबरें लोग रोज की अखबारों में पढ़ते हैं, न्यूज चैनलों पर देखते हैं, थोड़ी ‘हाय-हाय, धिक्-धिक्’ करते हैं और फिर लग जाते हैं अपने काम में। पर इस बार ऐसा नहीं कर सके। उन्होंने अपने काम छोड़े, एकत्रित हुए, सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, देश के अलग-अलग हिस्सों में भी, और दोषियों को सजा, कानून में बदलाव की मांग की आवाजें उठाईं। दामिनी बुझते-बुझते भी लोगों को रास्ता दिखा गई।
       महिला अधिकारों की बात सालों से की जा रही है, लेकिन इस घटना के बाद उन्हें इस हद तक राजनीतिक मुद्दा बनते कम से कम बीते दस बरस में तो पहली बार देखा है। पर क्या यह सिर्फ राजनीतिक मुद्दा है? क्या इन घटनाओं पर सिर्फ कानून को सख्त बनाकर काबू पाया जा सकता है? इस कानून की मांग कर रहे लोगों का भी मानना है कि ऐसा नहीं है, क्योंकि यह राजनीतिक से कहीं ज्यादा एक सामाजिक मुद्दा है। और जहां तक बात कानून के सख्त होने की है, तो हिंदुस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया के उदाहरण मौजूद हैं कि किसी भी अपराध की सजा कितनी भी सख्त क्यों न हो, अपराध फिर भी होते हैं। कहने का आशय यह कतई नहीं है कि कानून सख्त नहीं होना चाहिए, वह सख्त होना चाहिए और इस हद तक होना चाहिए कि उसमें लचीलेपन की कोई गुंजाइश बाकी न रहे। सख्त कानून अपराध की आशंका को मानसिक दबाव के जरिए कम करने में मददगार होता है। पर जब बात महिलाओं के साथ होने वाले यौन दुव्यर्वहार की, और वह भी ताजा आंकडों के परिप्रेक्ष्य में आती है, तो यह और भी साफ हो जाता है कि यह किसी सख्त कानून के बनने, उसके ठीक ढंग से लागू होने, दोषियों को सजा मिलने से कहीं पहले आपके-हमारे बीच के संबंधों और सोच को बदलने की मांग करती है।
       यह बात साफ तौर पर सामने है कि महिलाओं के प्रति यौन हिंसा की घटनाओं में भारत में तेजी से इजाफा हुआ है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक पूरे देश में दर्ज हुए बलात्कार को मामलों में 2010 में 7.1 प्रतिशत और 2011 में 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2012 की रिपोर्ट क्या कहेगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अब अगर इन कुल दर्ज मामलों के विभाजन पर नजर डाली जाए, तो इस बात पर गर्व करना छोड़ देना होगा कि भारत में स्त्रियों को देवी का दर्जा प्राप्त है, वह घर की लक्ष्मी होती है। कुल दर्ज मामलों में से 94.2 प्रतिशत मामलों में बलात्कार करने वाला उस महिला का अपना पिता, भाई, चाचा, मामा, मौसा, ससुर, देवर, जीजा या ऐसा ही कोई रिश्तेदार या पड़ोसी या पारिवारिक मित्र था। यानी महज 5.2 प्रतिशत मामलों में महिला किसी अपरिचित की कुदृष्टि की शिकार हुई वरना उसे लूटने वाले उसके अपने थे। इस स्थिति में जब ऐसी खबरें आती हैं कि किसी लड़की का पिता उसका दो साल तक लगातार बलात्कार करता रहा, तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था में होने वाले बलात्कार के कितने मामले दर्ज ही नहीं होते। दो साल बाद भी अगर पता न चलता तो कानून-व्यवस्था अंतर्यामी तो है नहीं! यहीं यह सवाल भी खड़ा होता है कि कोई कानून किस हद तक कारगर हो सकता है? इन स्थितियों में कानून की भूमिका सिर्फ सजा देने भर तक सिमट कर रह जाती है; और जाहिर है कि महिला के सम्मान की रक्षा का मतलब उसका अपमान करने वाले को सजा देना भर तो नहीं है।
       महिलाओं के सम्मान और स्वतंत्रता की प्रारंभिक इकाई समाज है। पिछले बहुत थोड़े से वक्फे में ऐसे कई बयान और फरमान सामने आ चुके हैं, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बलात्कार की घटनाओं के लिए महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। यह बयान या फरमान समाज के ही प्रतिष्ठित लोगों द्वारा दिए गए हैं। कुछ तथ्यों पर नजर डालना जरूरी हो जाता है, जो इन बयानों और फरमानों की की धज्जियां उड़ाते हैं, जिनमें लड़कियों के कम कपड़़े पहनने का, मोबाइल इस्तेमाल करने का या लड़कों से संपर्क बढ़ने का हवाला दिया गया।
       एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि बलात्कार के कुल दर्ज मामलों में से लगभग 11 प्रतिशत मामलों में पीड़िता की उम्र 14 वर्ष से कम थी। क्या 14 वर्ष से कम उम्र की बालिकाओं के बलात्कार के संदर्भ में भी यह तर्क दिए जा सकते हैं? ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनमें पूरी तरह पारंपरिक पोशाक पहने, बुर्के में सिर से पांव तक ढंकी महिलाएं भी बलात्कार की शिकार हुई हैं। मोबाइल का तर्क तो और भी बचकाना है। स्टॉकिंग, यानी फोन पर परेशान करने, अश्लील मैसेज भेजने, अभद्र बातें करने और धमकाने के लगभग 91 प्रतिशत मामलों में लड़के दोषी पाए गए हैं।
       इन तथ्यों और इन बयानों से साफ जाहिर होता है कि गड़बड़ी कहीं न कहीं हमारी सामाजिक व्यवस्था और सोच में है। तभी तो घर के भीतर से लेकर समाज के बाहरी हिस्सों तक हर कोई महिलाओं को ही बचकर निकलने की, कन्नी काट जाने की सलाह देता है, जबकि यह पुरुषों से कहना ज्यादा जरूरी है कि वे महिलाओें को ससम्मान निकलने के लिए रास्ता दें।
       यदि बारीकी से देखें, तो बलात्कार का मुद्दा कई और मुद्दों से भी जुड़ा हुआ है। यह जानकर शायद आपको हैरानी हो कि डायन कहकर मार डाले जाने के कई मामलों के मूल में किसी पुरुष द्वारा महिला को हासिल करने की कोशिश और महिला का प्रतिरोध रहा है। असफल होने पर पुरुष का दंभ अशिक्षित और अंधविश्वासी  समाज में डायन प्रथा का रूप लेता है, तो शिक्षित समाज में प्रताड़ना के नये-नये तरीके अपनाता है। यह संभवतः पुरुष होने का दंभ और स़्त्री को कमजोर समझने की पीढ़ियों से हासिल हुई ट्रेनिंग ही है जो मणिपुर से लेकर छत्तीसगढ़ तक, मनोरमा से लेकर सोनी सोरी तक महिलाएं सुरक्षा और शांति के लिए तैनात फौज और पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार की शिकार होती हैं, और उतनी ही बर्बरता से जितनी बर्बरता से दिल्ली में दामिनी। यह एक पितृसत्तात्मक समाज का, पुरुष होने का दंभ ही है, वरना ऐसा करने की इजाजत उन्हें कानून या संविधान ने तो नहीं दी।
       कुल मिलाकर सारे तथ्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि इन घटनाओं के पीछे की सबसे महत्वपूर्ण वजह महिलाओं के बारे में वह सोच है, जो उन्हें पुरुष से कमतर मानती है। यानी यह एक सामाजिक व्यवस्था की कमी है। निश्चित है कि इस कमी को एक झटके में जादू के जोर से दूर नहीं किया जा सकता। यह एक सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया है, जो वक्त लेगी। लेकिन इसके लिए संदर्भित कानून के प्रस्तावों में से उस प्रस्ताव पर गंभीरता से ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है जो सबसे जरूरी है, और जिस पर कि शायद अब तक सबसे कम बात की गई है। शिक्षा में जेंडर इक्वलिटी और उससे जुड़े बिंदुओं को विषय के रूप में शामिल किए जाने का प्रस्ताव। विचार, सोच की पुरातन बेड़ियों को हमेशा से ही नये ज्ञान स्रोतों और अध्ययन की नयी कोशिशों  ने काटा है। कानून समाज को नियंत्रित रखने की एक पद्धति है, जिसका होना भी ज़रूरी है; लेकिन समाज में बदलाव हमेशा एक सकारात्मक विचार और ज्ञान स्रोतों के माध्यम से आया है। इसलिए इन स्थितियों में बदलाव लाने का और सही मायनों में महिला और पुरुष को बराबरी पर खड़ा करने का इससे बेहतर कोई और विकल्प संभव नहीं है कि हम न केवल अपनी अकादमिक शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाएं, बल्कि ऐसे विकल्प भी तलाशें जिनके माध्यम से समाज के हर तबके में महिलाओं के प्रति बराबरी और संवेदनशीलता के बीज बोए जा सकें। संविधान और कानून व्यवस्था में तो अब तक कई संशोधन हम करके देख चुके हैं, क्यों न इस बार शिक्षा में संशोधन करके देख लिया जाए, ताकि आने वाले समय में कोई दामिनी अपने सपनों के फलक पर खुल कर चमक सके और हमें शर्मसार न होना पड़े।

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

ताकि जब चाहें वे चुन सकें फूल

बार-बार लिखता हूँ और डिलीट कर देता हूँ। क्योंकि बात एक नहीं कई हैं जो दिलो दिमाग में घुमड़ रही हैं।  क्योंकि बात सिर्फ एक दामिनी की या एक शहर और उसके प्रशासन व समाज व्यवस्था की नहीं है। रोज़ देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग अख़बारों में न जाने कितनी ही दामिनियों का ज़िक्र होता रहा है और अब भी जारी है, जो इस इंतजार में हैं कि उन्हें वह मिले जिसे देने की ज़िम्मेदारी समाज और सरकार दोनों पर है, नैतिक भी और संवैधानिक भी। यानी बराबरी का अधिकार, स्वतंत्रता और शोषण मुक्त समाज।....
      समाज, जो अब तक पितृ सत्तात्मक सोच से मुक्त नहीं हो पाया।... सरकार, प्रशासन और तथाकथित राजनीति, जिसकी मंशा पर एक प्रश्न खड़ा करते ही पचास प्रश्न अपने-आप खड़े हो जाते हैं।... और फिर हम खुद, जो अच्छी-अच्छी बातों को बस नारा बनाकर दोहराने के आदी हो गए हैं। मणिपुर, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, असम, देश के किस हिस्से से यह दामिनी सामने आकर खड़ी नहीं हुई?
     बार-बार लिखता हूँ और डिलीट कर देता हूँ। क्योंकि बहुत कुछ एक साथ और तरतीब से लिखने लायक शांत दिमाग फ़िलहाल मुझमे नहीं है। बस बहुत साल पहले लिखी एक कविता और कुछ अरसा पहले ही बनाया गया एक अधूरा चित्र बार-बार याद आ रहा है-


मैंने कहा
बहार आई है
उन्होंने कहा
ख़ुशगवार है

मैंने कहा
नयी कोपलें फूटी हैं
उन्होंने कहा
कितनी कोमल हैं

मैंने कहा
पौधों पर
हरियाली छा रही है
उन्होंने कहा
कितनी मनमोहक है

मैंने कहा
फूल खिल रहे हैं
उन्होंने कहा
कितनी सुंदर पंखुड़ियाँ हैं

मैंने कहा
फूलों की सुरक्षा के लिए
उग आए हैं काँटे भी
उन्होंने कहा
काँटे नष्ट कर दो

फिर उन्होंने तान दिये
फूलों के चारों ओर
कंटीले तार
ताकि जब चाहें
वे चुन सकें फूल।

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

इन तीस सालों में

मेरी जिंदगी के तीस सालों में
अट्ठाइस और बीस साल इंतजार के हैं
इंतजार कई लोगों का सामूहिक

मेरे जन्मदिन के दो दिन पहले
और एक दिन बाद का इंतजार
न्याय प्रक्रिया की बेहतरी का इंतजार
इस्तेमाल से अलग
इंसान समझे जाने का इंतजार
समझ आने का इंतजार

मैं पैदा हुआ 5 दिसंबर 1982 को
3 दिसंबर 1984 का भोपाल
6 दिसंबर 1992 की अयोध्या
बहुत बदल गई है अब तक
गवाह-मुलजिम कई
विदा ले चुके हैं दुनिया से

मेरी जिंदगी के तीस सालों में
अट्ठाइस और बीस साल इंतजार के हैं।






सोमवार, 12 नवंबर 2012

बीमार मानसिकता और शब्दों से बलात्कार


मुझे नहीं पता कि क्या लिखूँगा? कुछ लिख भी पाऊँगा या नहीं? पर आज बहुत बेचैनी और गुस्सा है। किसके ख़िलाफ़? मुझे नहीं पता। आख़िर पता हो भी कैसे सकता है? कोई एक नाम या शक्ल सामने नहीं है। है तो बस एक विशेष पहचान, एक विशेष भाव, एक बीमार मानसिकता, जिससे ग्रस्त हजारों लोग हमारे बीच हैं। चाहे अपनों की बात हो, चाहे गली-मोहल्ले की या फिर शहर, देश, दुनिया की, एक स्त्री की ‘औकात’ क्या है? क्या सिर्फ यही उसका अंतिम अस्तित्व है कि पुरुष किसी भी बहाने से उसकी देह को भोगे, वास्तविकता में नहीं तो कल्पनालोक में ही सही! 
     छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएं जिस गति से बढ़ रही हैं और जितना उनके बारे में लिखा, कहा जा रहा है वह तो सबके सामने है, पर एक स्त्री के लिए संकट सिर्फ तब ही नहीं है, जब वह पुरुष की पहुँच में है। बहुत सारे लोगों ने किसी लड़के को किसी लड़की के बारे में अनाप-शनाप बकते सुना होगा, आपने भी। यहां तक कि अगर उनके बीच रहे निःतांत निजी अंतरंग संबंधों के बारे में भी सुना हो तो कोई बड़ी बात नहीं। 
पर क्या जो कुछ आपने सुना वह सच ही होता है? जी नहीं, ऐसा कतई जरूरी नहीं है। एक स्त्री का पुरुष की पहुँच में न होना भी इन बातों को जन्म देता है। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी घटनाओं का खुली तरह से उल्लेख करना भी परेशानी का सबब बन सकता है, इसलिए इससे परहेज ही रखूँगा, लेकिन ऐसी कई घटनाओं की तह में जाने का जो नतीजा हासिल हुआ वह यह है कि किसी लड़की के साथ अपने या किसी और के अंतरंग संबंधों के अधिकांश किस्से एक बीमार मानसिकता, यौनिक कुंठा, उस लड़की को हासिल करने की दबी हुई इच्छा और उसके पूरा न होने के कारण उपजे हैं। उदाहरण के लिए बिना व्यक्ति और शहर का नाम लिए एक किस्सा कुछ यूं है- 
     एक लड़की पढ़ाई के लिए किसी दूसरे शहर में थी। वह बीमार हुई तो उसी शहर में मौजूद अपने रिश्तेदार के घर चली गई और तकरीबन 15-20 दिन वहीं रही। जब तबियत ने सुधरने का नाम नहीं लिया तो उसके रिश्तेदार का बेटा, जो कि रिश्ते में उसका भाई था, उसे उसके घर छोड़ आया। लड़की बड़ी ही कमजोर हालत में अपने घर पहुंची और एक महीना वहीं रही। इस दौरान वह घर से बाहर भी बहुत कम निकली। जब वह वापस अपनी पढ़ाई के लिए पहुंची तो सारा माहौल बदला हुआ था। सहपाठी लड़के और लड़कियां उसे अजीब से नज़रों से देखते, शोहदे चुटकियां लेते हुए अभद्र इशारे करते। आखिर ऐसा क्यों हुआ? इसकी वजह तब सामने आई जब उस लड़की का वह भाई, जो मेरा करीबी था, एक दिन बेहद गुस्से में भरा मेरे साथ था। गुस्सा इतना था कि उसकी आवाज़ कांप रही थी, हालात को सही न कर पाने की बेबसी इतनी थी कि गला भर-भर आता था। हुआ यह था कि उस लड़की के साथ ‘संपर्क’ बढ़ाने के ख़्वाहिशमंद एक लड़के ने शराब के नशे में उस लड़की को लेकर अपने कुंठित सपने कुछ दोस्तों को कह सुनाए, कुछ इस ढंग से कि ‘मेरा उसके साथ पुराना संबंध है..., वह बहुत .... है, दोनों कई रातें साथ गुजार चुके हैं आदि-आदि’ और फिर अंतरंग संबंधों का वर्णन। 
     ...अब बात तो बात होती है, एक मुंह से निकली तो सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। कुछ उस लड़के की कल्पना और कुछ जिस-जिस तक बात पहुँची उसकी कल्पना, लब्बोलुआब यह कि लड़की प्रेगनेंट हो गई थी, गर्भपात कराना पड़ा जिसकी वजह से उसकी हालत गिर गई थी। बात यहाँ-वहाँ फैली और लड़की के दामन पर एक ऐसा दाग लगा गई कि वह न जाने कितनी नज़रों के लिए बस एक ‘भोग्या’ भर बन कर रह गई। एक लड़के की कुंठित मानसिकता के अपराध की सजा यह कि वह लड़की कहीं निकलती तो अपनी नज़रें नीची करके, ताकि वह किसी की नजरों का सामना न करे जिनमें तमाम तरह के सवाल और कीड़े बिलबिलाते दिखाई देते थे। 
     ऐसे कई मामलों की कभी भनक पड़ी, तो कई के बारे में बहुत करीब से जाना। आज जब फिर से किसी के दामन पर ऐसी ही कीचड़ उछलते देखी (जिसके निर्दोष होने का इत्तफ़ाकन मैं खुद गवाह हूँ) तो उस लड़की के भाई के रुंधे गले से निकली वह बात किसी खंजर की तरह फिर दिल में उतर गई कि ‘भैया, मुझे पता है कि मेरी बहिन निर्दोष है। अगर यह बात सच होती तो क्या हमें पता न चलता? वह जिस दिन बीमार हुई थी उसी दिन हमारे घर आ गई थी। मैं खुद उसे डॉक्टर के पास लेकर गया था, उसे तो बस टाइफाइड हुआ था। लेकिन यह बात मैं किस-किस को समझाऊँ? किस-किस का मुँह पकड़ूँ? उस ..... लड़के को मैं खुद मार डालूं या पुलिस कार्यवाही करूँ, तो भी यह बदनामी पीछा नहीं छोड़ेगी। बेचारी को घर से निकलते डर लगता है। आखिर मैं करूँ तो क्या करूँ?’ 
     उसके इस ‘क्या करूँ?’ का जवाब न तब मेरे पास था, न आज है। किसी एक को समझाया भी जा सकता है, पर..... बात तो बात होती है, एक बार मुँह से निकली तो सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। 
     बलात्कार को एक गंभीर अपराध माना जाता है। क्या यह भी बलात्कार नहीं, जिसे एक कुंठित बीमार मानसिकता महज शब्दों से ही अंजाम देती है। क्या इन घटनाओं की शिकार लड़कियाँ भी उसी मानसिक वेदना और परिस्थिति से नहीं गुजरतीं, जिनसे एक बलात्कार पीड़िता गुजरती है। वह भाई ‘क्या करूँ?’ का गंभीर प्रश्न करने के बाद रोने लगा था। ऐसे में इन परिस्थितियों की शिकार हुई लड़की पर क्या गुजरती होगी, इसका शायद अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। 
     छोटे-बड़े कस्बों-शहरों में न जाने कितनी लड़कियाँ रोज ही इस कुंठाग्रस्त मानसिकता द्वारा शब्दों से किए गए बलात्कार की शिकार होती हैं। शायद उससे कहीं ज्यादा जितनी कि शारीरिक बलात्कार की शिकार होती हैं। और जब शारीरिक अपराध की शिकायत दर्ज कराने में आज भी बदनामी बढ़ने के ख़तरे के बारे में पहले सोचा जाता हो, वहाँ  इस शाब्दिक अपराध की शिकायत भला कितनी होती होगी? और शिकायत भी क्या कि ‘यह कल्पनाओ में मेरे साथ.....’ या ‘इसने लोगों से कहा कि इसने मुझे इस-इस तरह से....।’ 
     यहाँ यह बात भी गौरतलब है कि कस्बों में पुलिस को रिपोर्ट लिखाते वक्त यह लिखाने से काम नहीं चलता कि ‘अश्लील बातें कहीं’ या ‘अश्लील हरकतें कीं’, वह सब हू-ब-हू वैसा ही लिखाना होता है, जैसा कि कहा गया या किया गया। माँ-बहन की गालियों से लेकर अंगों के नाम और उनसे की गई हरकतों तक। और फिर इस तरह के मामलों को सुलझने में लगने वाले वक्त के दौरान न जाने कितनी ही बार लजा देने वाली परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। पुरुष इस बेशर्मी का सार्वजनिक रूप से जितना आदी और अभ्यस्त है, महिलाएँ अब तक नहीं हैं। शायद यही वजह है कि इस अपराध की शिकायत अमूमन नहीं ही होती और एक व्यक्ति की कुंठा और सड़ी-गली कल्पनाओं की बदबू का बादल एक निर्दोष के जीवन में कई बार इस तरह छा जाता है कि उसके कॅरियर और भविष्य के उजालों को ग्रहण लग जाता है। 
     वर्तमान स्थितियों में यह मानसिकता सिर्फ शब्दों को मुँह से निकालने तक ही सीमित नहीं है। इंटरनेट पर न जाने कितनी लड़कियों की पहचान का इस्तेमाल करके फेक अकाउंट हैं, पोर्न साइट्स बॉलीवुड, हॉलीवुड से लेकर आपके-हमारे बीच की स्कूल-कॉलेज की छात्राओं, घरेलू और कामकाजी महिलाओं की मॉर्फ़ और फेक तस्वीरों से भरी पड़ी हैं। तकनीक का इस तरह दुरुपयोग करने में भारत सबसे अव्वल है। बावजूद इसके आलम यह है कि इन फेक अकाउंट्स की शिकायत करने के बाद भी उनमें से कई बंद नहीं होते, चलते रहते हैं।
     यह सच है कि किसी के दिमाग पर काबू नहीं पाया जा सकता है, उसे सोचने से रोका नहीं जा सकता लेकिन गुस्सा इस बात का है कि इस तरह की सोच को व्यक्त करने पर भी जो दोषी है उसके बजाय निर्दोष ही क्यों दण्डित और परेशान होता है? क्या कभी सुना है कि किसी लड़की ने एक लड़के के बारे में ऐसा-वैसा कुछ कहा हो और उस लड़के का किसी से नजरें मिलाना मुश्किल हो गया हो? नहीं न! और अगर लड़के के बारे में ऐसा कह भी दिया जाए, तो भी लड़का ‘मर्द का बच्चा’ कहलाएगा, मगर लड़की, एक स्त्री..... क्या है वह? वह तो इन बीमारों के लिए बस एक मांस का लोथड़ा भर है और बाकी समाज के लिए ‘इज्जत’ की टोकरी सिर पर उठाने वाली सबसे कमजोर कड़ी। किसी ने कुछ कहा नहीं कि ‘इज्जत’ गई नहीं। 
     कितनी हैरत की बात है कि बीमार पुरुष है और तकलीफ स्त्री सहन करती है, बेइज्जत महिलाओं को किया जाता है और इज्जत की टोकरी भी उन्हीं के सिर पर लाद दी जाती है। इलाज भी महिलाओं के लिए नियम बनाकर खोजे जाते हैं। सभ्यता, संस्कृति और स्त्री के पूजनीय होने की झंडाबरदारी करने वाले बताएँ कि उनके पास इस बीमारी का क्या इलाज है? यह सवाल इसलिए नहीं है कि कोई संस्कृति रक्षा आंदोलन चलाना है, न ही कोई नैतिकता का पाठ पढ़ाना है, बल्कि इसलिए है कि महिलाओं के सिर पर इज्जत का ठीकरा फोड़ने वाली, बात-बात पर संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने वाली, नैतिकता का झंडा उठाए फिरने वाली और आज भी भीतर से पुरुषवादी यह समाज व्यवस्था पुरुषों की ‘बदतमीजी’ और महिलाओं के ‘सब्र’ के फर्क को समझे, कुंठित और बीमार मानसिकता के इस शाब्दिक अपराध के दूरगामी प्रभावों-परिणामों के बारे में सोचे, अपने गिरेबां में झांके और इस सवाल का जबाब दे, जो ऐसी परिस्थितियों में किसी भी महिला और उसके हितचिंतकों के सामने खड़ा होता है कि - ‘क्या करूँ?’