सितम्बर की एक शाम कुछ साथियों के साथ बैठकर गुनगुनाई गईं शुरूआती पंक्तियाँ बजती रहीं दिमाग में किसी टेप की तरह... दिसंबर के आखिरी सप्ताह में नाटक "भूख आग है" की तैयारी के दौरान कुछ और चीज़ों ने जगह बनाई... नतीजा यह गीत... जैसा भी है... पढ़िए... और जो कहना है... कहिये...
संग-संग चलो रे भाई
समझो इतनी बात भाई
हाथ में दो हाथ भाई रे, भाई रे
फिर से है वो रात आई
हर तरफ है घात भाई
हमारे घर की रोटियों तक
इनकी है निगाह भाई
इससे पहले बेच दें ये
हमको अपनी ही ख़ुशी
पहचानो इनकी जात भाई रे, भाई रे
इस घनेरी रात में
दुश्मनों के हाथ में
न तीर न तलवार है
मीठा सा हथियार है
ख़ुशी के ख़्वाब बेचकर
ये झोली अपनी लें न भर
जाग लो इस रात भाई रे, भाई रे
हसरतों को क्या हुआ
रास्तों को क्या हुआ
सहमी सी है हर हँसी
है रौशनी बुझी-बुझी
भोर आएगी मगर
तुम करो इतना अगर
तुम्हे सुबह का वास्ता
हाथ में दो हाथ भाई रे, भाई रे...
इससे पहले बेच दें ये
जवाब देंहटाएंहमको अपनी ही ख़ुशी
पहचानो इनकी जात भाई रे, भाई रे
बहुत खूब ......!!
साहिल भाई
जवाब देंहटाएंमाप करना पर गीत बन नहीं पाया। भावोच्छवास बनकर रह गया है और ज़रूरत अपने समय का दस्तावेज़ दर्ज़ करने की है। यह गीत उस ज़रूरत को पूरा नहीं करता। यह अपने समय की विसंगतियों के विद्रूप को चित्रित नहीं करता जिससे जनता के गुस्से को उभारकर बदलाव के पथ पर उद्धत करने की कोशिश की जा सके।
**माफ
जवाब देंहटाएंवाह, मज़ा आ गया.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अशोक भाई, मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ. एक दो पंक्तियों को छोड़कर गीत में वाकई कुछ नहीं है. अभी भी कुछ चीज़ें दिमाग में उथल-पुथल मचा रही हैं... संभव है कि इसे कई बार और लिखूं. और हर बार ऐसी ही स्पष्ट प्रतिक्रिया की ज़रूरत और अपेक्षा होगी.
"हसरतों को क्या हुआ
जवाब देंहटाएंरास्तों को क्या हुआ
सहमी सी है हर हँसी
है रौशनी बुझी-बुझी
भोर आएगी मगर
तुम करो इतना अगर
तुम्हे सुबह का वास्ता
हाथ में दो हाथ भाई रे, भाई रे.."
bahoot khoob