पढ़ना छूट जाए तो लिखना भी छूट सा जाता है। अरसे से न ही कोई कविता पढ़ी है, न गज़ल सो जब लिखने बैठा तो बड़ी मुश्किल हुई। बहरहाल जो लिखा, जैसा लिखा वो यही है -
शहर से गाँव तक एक हवा
धूप से छाँव तक एक हवा
चुभ गया तीर की तरह जी में
साथ लाई जो लफ्ज़ एक हवा
चाल अपनी ही रख मगर एक पल
ज़माने की भी ज़रा देख हवा
मिरे घर आई थी नश्तर लेकर
साथ बैठी तो गई नेक हवा
लजाती सिकुड़ी सहमी हो भले ही
चलेगी जून में बड़ी ही ठेठ हवा
तुम्हारी मर्ज़ी आज जैसे चाहे जिओ
कल निकालेगी मीन-मेख हवा
जो खरीद रहा है वही बिक भी रहा
कमाल जादू दिखाती है देख हवा.
मिरे घर आई थी नश्तर लेकर
जवाब देंहटाएंसाथ बैठी तो गई नेक हवा
बहुत खूब ....!!