वक्त की शोख़ सरगर्मियों से
दूर जा गिरा हूँ छिटककर
नहीं आता कोई बरसों का साथी नज़र
चेहरा अपना भी
कुछ चेहरे टटोले हैं यादों में अक्सर
पर धुंधला इक कोलाज-सा कुछ बन रह जाता है
अपना चेहरा ढूंढा है उसमें कई बार
हर चेहरे पर अटकती आँखें
आगे बढ़ जाती हैं
क्या गुज़रे वक़्त में मेरा कोई दख्ल नहीं था ?
आईने में देखा है जिसको अभी-अभी
कल शायद इसको फिर न देख सकूं
माथे पे उग आएं शायद कुछ और लकीरें
आवाज़ हो बदली-बदली सी
आँखों में बदले सालों की बदली तारीख़ें
जब दफ्तर से लौटूं
बैठ के इक दिन खोजूंगा ख़ुद को शायद
है शुकर, बचाए रखा है
तुमने अपनी यादों में मुझे।
बैठ के इक दिन खोजूंगा ख़ुद को शायद
जवाब देंहटाएंहै शुकर, बचाए रखा है
तुमने अपनी यादों में मुझे।
सुभानाल्लाह .....!!
इस नज़्म की आपको ढेरों बधाई .....
बस आप यूँ ही चहरे टटोलते रहिये ....और गुजरे वक़्त की खामोशियों को हम तक पहुंचाते रहिये ....!!
अभी तक कोई नई पोस्ट नहीं डाली ......किधर व्यस्त रहते हैं .......??
जवाब देंहटाएंएक बार फिर इस नज़्म रस लिए जा रही हूँ .......!!